महात्मा गाँधी का आर्थिक दर्शन और पर्यावरण संरक्षण

गाँधीजी यद्यपि सुन्दरलाल बहुगुणा अथवा बाबा आमटे की तरह कोई पर्यावरणविद नहीं थे तथापि प्राकृतिक नियमों के अनुरूप वे एक ऐसी जीवन पद्धति के पक्षधर जरूर थे जो नैसर्गिक रूप से पर्यावरण संरक्षण की हितैषी हो। खादी, अहिंसा, स्वच्छता और सफाई का उनका रचनात्मक कार्यक्रम उनके राजनीतिक जीवन का अभिन्न अंग था और यही कारण है कि उनके शाश्वत जीवन-मूल्य आज भी विश्व भर में सराहे जाते हैं। महात्मा गाँधी यद्यपि सुन्दरलाल बहुगुणा तथा बाबा आमटे की तरह कोई पर्यावरणविद नहीं थे। पर्यावरण पर उन्होंने किसी स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना भी नहीं की थी। सच तो यह है कि गाँधीजी के समय में पर्यावरण प्रदूषण जैसी कोई समस्या विद्यमान थी ही नहीं।

फिर भी महात्मा गाँधी जैसे युगपुरुष ने पर्यावरण प्रदूषण सम्बन्धी खतरे को समय से पूर्व ही महसूस कर लिया था। पर्यावरण संरक्षण के सम्बन्ध में हम कह सकते हैं कि गाँधीजी का जीवन जी उनका संदेश था। उन्होंने अपने जीवन में नैसर्गिक सिद्धान्तों को अपनाया तथा प्रकृति के प्रतिकूल किसी भी अवधारणा को अनुचित ठहराया। यहाँ तक कि गाँधीजी ने प्राकृतिक उपचार को ही शारीरिक रोगों से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाया माना।

गाँधीजी के जीवन में सफाई और स्वच्छता को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। उनका विचार था कि जो व्यक्ति जहाँ चाहे और जिस तरह चाहे उस तरह थूककर, कूड़ा-करकट डालकर, गंदगी फैलाकर या दूसरे तरीकों से हवा को गंदा करता है, वह प्रकृति और मनुष्य के प्रति अपराध करता है।

उन्होंने यह भी कहा था कि जो मनुष्य पर्यावरण बिगाड़ता है उसे नरक से कोई नहीं बचा सकता। गाँधीजी ने सत्य, अहिंसा तथा अपरिग्रह पर आश्रित एक नये धर्म और नई नैतिकता को जन्म दिया था जिसमें संसाधनों का बँटवारा न्यायपूर्ण था और प्राणी मात्र के लिये प्रेम आधार था।

अनियन्त्रित औद्योगीकरण के प्रति गाँधीजी का विरोध सर्वविदित है। मशीनीकरण के अतिवादी समर्थक तो उन्हें औद्योगीकरण का शत्रु ही समझते थे। लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि औद्योगीकरण निरर्थक है। उनका आग्रह केवल इतना था कि यंत्रीकरण की सारी योजनाओं में मनुष्य का स्थान सर्वोपरि होना चाहिये।

ऐसा नहीं होना चाहिये कि मनुष्य यन्त्रों का दास बन जाए। गाँधीजी के इस तर्क का स्पष्ट कारण अर्थशास्त्रीय था। उनका प्रधान उद्देश्य था श्रमशक्ति की महत्ता को बनाये रखना और आर्थिक शोषण का विरोध करना। विदित हो कि उनके इस चिन्तन में एक महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकीय सिद्धान्त का बीज निहित है।

मशीनों ने न केवल सारे देश में अत्यधिक संख्या में लोगों को बेरोजगार किया है वरन पर्यावरण प्रदूषण को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया है। दिल्ली शहर में अब न्यायालय के आदेश से सैकड़ों प्रदूषणकारी कारखाने शहर से हटाये जा रहे हैं।

औद्योगिक विकेन्द्रीकरण


गाँधी दर्शन में निहित औद्योगिक विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। केन्द्रीकृत औद्योगिक व्यवस्था के अन्तर्गत किसी क्षेत्र विशेष से संसाधनों का दोहन, फिर उसका किसी औद्योगिक केन्द्र तक स्थानान्तरण, संयन्त्रों से कच्चे माल के उपयोग से वस्तु विशेष का उत्पादन और अन्ततः विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादित वस्तु का संभरण-इस प्रक्रिया/शृंखला का प्रत्येक पग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण प्रदूषण में सहायक है।

इससे प्रदूषण बढ़ता है एवं ऊर्जा का अपव्यय होता है। विकेन्द्रित कुटीर-उद्योग इन समस्याओं पर नियन्त्रण प्राप्त करने में सहायक हों। उनके अनुसार हमें छोटे-छोटे यन्त्रोपकरण, उपस्कर और औजार एवं हथियार चाहिये जो मनुष्य के साथी हों और उसके व्यक्तित्व के उत्प्रेरक का कार्य करें। छोटी-छोटी कार्यशालाओं में मनुष्य श्रमप्रधान तकनीकी के जरिये उत्पादन करें और बेकार न रहे।

केन्द्रीकृत औद्योगिक तन्त्र की एकरूपताजनक संस्कृति ने ईंधन के अधिकाधिक परिशोधित रूपों का उपयोग जरूरी बना दिया जिसका परिणाम है वर्तमान ऊर्जा संकट। एक ईंधन विशेष की कमी समूचे तंत्र को प्रभावित कर रही है। विकेन्द्रित कुटीर उद्योग की संस्कृति क्षेत्र विशेष में सुलभ ऊर्जा के समाधान पर निर्भर होने के कारण व्यापक न होकर आंचलिक होती है। स्पष्ट है कि औद्योगिक विकेन्द्रीकरण से उतपन्न सांस्कृतिक वैविध्य पर्यावरणीय सन्तुलन को बनाये रखते हुये सम्पूर्ण तंत्र के स्थायित्व को बल प्रदान करेगा।

पर्यावरण प्रदूषित न हो इसके लिये गाँधीजी ने ग्राम ‘सुराज’ की कल्पना की थी। ‘हरिजन सेवक’ में एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि हर एक गाँव का प्रथम कार्य यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिये कपास खुद पैदा करे। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिये जिसमें पशु चर सकें और गाँव के बड़ों तथा बच्चों के मन-बहलाव के साधन और खेल-कूद के मैदान वगैरह का बंदोबस्त हो सकें, उन्होंने कहा था कि हर गाँव को पूर्ण रूप से एक आत्मनिर्भर इकाई होना चाहिये।

गाँधीजी की स्पष्ट मान्यता है कि विकेन्द्रित जो भी वस्तु कुटीर उद्योग द्वारा बनाई जा सके उसका भारी उद्योगों द्वारा उत्पादन एकदम निषिद्ध होना चाहिये। जिस वस्तु का उत्पादन कुटीर उद्योगों द्वारा सम्भव नहीं है उसके लिये भारी उद्योगों का वर्णन करते समय इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये कि उसका कितना उत्पादन आवश्यक है। यानी उस वस्तु विशेष का उत्पादन होने पर होने वाली क्षति क्या उसके उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान होने वाली वर्तमान या भावी पर्यावरणीय क्षति से अधिक होगी। अतः बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादन केवल उसी स्थिति में होना चाहिये जब उनका विकल्प न हो।

प्रदूषण एवं गरीबी


पर्यावरण प्रदूषण एवं गरीबी का चोली-दामन का साथ है। गरीबी दूर करने के लिये गाँधीजी अहिंसक अर्थव्यवस्था अपनाना चाहते थे। यह कुदरत का एक बुनियादी नियम है कि हर रोज प्रकृति केवल उतना ही पैदा करती है जितना हमें चाहिये और यदि हर एक आदमी जितना उसे चाहिये, उतना ही ले, ज्यादा न ले तो दुनिया में गरीबी न रहे और कोई आदमी भूखा न मरे।

गाँधी ने कहा- भावी पीढ़ियों के हित चिंतन के बिना धरती को विनाश के कगार पर पहुँचा देना खुलेआम हिंसा का प्रदर्शन है। हमें अपनी जरूरतों का नियमन करना चाहिये और स्वेच्छापूर्वक अभाव भी सहना चाहिये। जिससे गरीबों का पालन-पोषण हो सके। यह धरती अपने प्रत्येक निवासी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये यथेष्ट साधन उपलब्ध कराती है लेकिन हर व्यक्ति की लालसा की पूर्ति नहीं कर सकती। गाँधी ने कहा- प्रकृति मनुष्य की जननी है।

मानव हित प्रकृति के साथ समरस होने में है, न कि उस पर उच्छृंखल आधिपत्य जमाने में। गाँधीजी चाहते थे कि आधुनिक तकनीक मानव-केन्द्रित, प्रकृति संगत बने, प्रकृति के साथ उसका विरोधाभाव न हो और वह मनुष्य की सृजनशीलता के अनुरूप हो। आज जबकि पाश्चात्य देशों में लोग गाँधीजी को और भी याद कर रहे हैं, हम भारतवासी उन्हें और उनके बताये मार्ग को भूलते जा रहे हैं। गाँधीजी द्वारा बताये गये पर्यावरण-विषयक मार्ग पर चलना कठिन अवश्य है, परन्तु असम्भव कदापि नहीं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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