हालाँकि सिंचाई घोटाले की जाँच पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं। सरकार बनने से पहले और बनने के बाद ही तीन ऐसे वाकये हुये जिनके बाद सिंचाई घोटाले की निष्पक्ष जाँच को लेकर आशंकाएँ पनपने लगी।मुम्बई, 13 अप्रैल। महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा सरकार के दौरान सिंचाई विभाग में कथित तौर पर हुए 70 हजार करोड़ रुपये के घोटाले की जाँच को लेकर फडणवीस सरकार की मन्शा पर सवाल उठने लगे हैं। कुछ तबकों में आशंका जताई जा रही है कि जाँच को जानबूझ कर कमजोर किया जा रहा है और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते सम्बन्धित विभाग के अधिकारी जाँच-दल के कामकाज को धीमा करने के मकसद से उसे जरूरी दस्तावेज मुहैया करने में हीलाहवाली कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि सिंचाई घोटाले की सच्चाई आ पायेगी या नहीं और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच बढ़ रही घनिष्ठता का जाँच पर क्या असर होगा।
भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाली भाजपा की सरकार ने सत्ता में आने के बाद पूर्ववर्ती आघाड़ी सरकार के कार्यकाल में हुए सिंचाई घोटाले की जाँच का आदेश देकर स्पष्ट कर दिया था कि वह भ्रष्टाचार को लेकर गम्भीर है। मगर समय के साथ हालात बदलते नजर आ रहे हैं। भ्रष्टाचार की जाँच में कदम-कदम पर रोड़े अटकाये जा रहे हैं। कभी सिंचाई विभाग के अधिकारी जाँच में सहयोग नहीं करते हैं तो कभी जाँच दल को जरूरी ताकत मुहैया नहीं करवायी जाती। ऐसी स्थिति में जाँच-दल के लिये अपना काम करना टेढ़ी खीर बना हुआ है। हालाँकि इस मामले में जनहित याचिका लम्बित होने के नाते सरकार के सामने जाँच दल की रिपोर्ट को अदालत में पेश करने की मजबूरी है।
विधानसभा के शीतकालीन सत्र में 12 दिसम्बर, 2014 को मुख्यमन्त्री ने सिंचाई घोटाले में पूर्व उपमुख्यमन्त्री व राकांपा नेता अजीत पवार और जल संसाधन मन्त्री सुनील तटकरे के खिलाफ जाँच के आदेश दिये थे। आदेश के बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने जाँच शुरू कर दी। मगर सिंचाई घोटाले की जाँच कर रहे दल के कामकाज में रोड़े अटकाये जाने लगे। सिंचाई विभाग के साथ ही कोंकण सिंचाई विकास निगम के अधिकारियों ने भी जाँच दल का सहयोग नहीं किया और कहा कि वे 12 बांधों के बजाय सिर्फ दो बांधों से जुड़े दस्तावेज ही जाँच दल को मुहैया करायेंगे।
जाँच-दल को सीमित संसाधनों में काम पूरा करना पड़ रहा है। उसे माँगने के बावजूद अभी तक लेखपाल के अलावा तकनीकी और कानूनी सलाहकार मुहैया नहीं करवाये हैं। जाँच दल गृह विभाग की मन्जूरी का इन्तजार कर रहा है और गृह विभाग खुद मुख्यमन्त्री के पास है। इससे सरकार की भ्रष्टाचार से लड़ने की मन्शा पर सवाल उठ रहे हैं।
हालाँकि सिंचाई घोटाले की जाँच पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं। सरकार बनने से पहले और बनने के बाद ही तीन ऐसे वाकये हुये जिनके बाद सिंचाई घोटाले की निष्पक्ष जाँच को लेकर आशंकाएँ पनपने लगी। पहला वाकया तब हुआ जब बहुमत से दूर फडणवीस सरकार को बिना माँगे ही राकांपा ने बिना शर्त समर्थन दिया था। तब चर्चाएँ थीं कि राकांपा की यह पेशकश अपने नेताओं को जाँच से बचाने के लिए है। दूसरा वाकया प्रधानमन्त्री नरेंन्द्र मोदी के बारामती में जाने के बाद सामने आया। शरद पवार को एक पूरी पीढ़ी को बर्बाद करने वाला बताने के साथ राकांपा को स्वाभाविक तौर पर भ्रष्ट पार्टी कहने वाले मोदी ने बारामती में जाकर शरद पवार की जमकर प्रशंसा की थी कि वे उनसे सलाह भी लेते हैं।
इससे संकेत गये थे कि क्या इस स्थिति में शरद पवार की पार्टी के नेताओं की निष्पक्ष जाँच हो पायेगी। तीसरा वाकया बजट सत्र में तब सामने आया जब विधान परिषद सभापति और कांग्रेस नेता शिवाजीराव देशमुख के खिलाफ राकांपा ने अविश्वास प्रस्ताव रखा और उसमें भाजपा ने राकांपा का साथ देकर सभापति को हटाया। इससे भाजपा और राकांपा की छिपी मित्रता पर पड़ा पर्दा हट गया था और यह बात साफ होती नजर आई कि दोनों दल एक दूसरे के हितैषी हैं।
ये तीनों वाकये सूबे में भाजपा और राकांपा के रिश्तों को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। इन हालात में सिंचाई घोटाले की निष्पक्ष जाँच पर सन्देह पैदा होने की गुन्जाइश बढ़ जाती है। दिलचस्प बात यह है कि चुनाव से पहले खुद देवेन्द्र फडणवीस जोर शोर से इस मुद्दे को उठाते थे कि पूर्ववर्ती आघाड़ी सरकार ने विदर्भ की सिंचाई परियोजना का पैसा पश्चिम महाराष्ट्र (शरद पवार के प्रभाव वाला क्षेत्र) की ओर मोड़ा। फडणवीस अपनी बात के समर्थन में माधव चितले समिति के दस्तावेज भी प्रस्तुत करते थे। अब उन्हीं का विभाग इस मामले की जाँच कर रहे जाँच दल को लेखपाल, तकनीकी और कानूनी सलाहकार देने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है।
भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाली भाजपा की सरकार ने सत्ता में आने के बाद पूर्ववर्ती आघाड़ी सरकार के कार्यकाल में हुए सिंचाई घोटाले की जाँच का आदेश देकर स्पष्ट कर दिया था कि वह भ्रष्टाचार को लेकर गम्भीर है। मगर समय के साथ हालात बदलते नजर आ रहे हैं। भ्रष्टाचार की जाँच में कदम-कदम पर रोड़े अटकाये जा रहे हैं। कभी सिंचाई विभाग के अधिकारी जाँच में सहयोग नहीं करते हैं तो कभी जाँच दल को जरूरी ताकत मुहैया नहीं करवायी जाती। ऐसी स्थिति में जाँच-दल के लिये अपना काम करना टेढ़ी खीर बना हुआ है। हालाँकि इस मामले में जनहित याचिका लम्बित होने के नाते सरकार के सामने जाँच दल की रिपोर्ट को अदालत में पेश करने की मजबूरी है।
विधानसभा के शीतकालीन सत्र में 12 दिसम्बर, 2014 को मुख्यमन्त्री ने सिंचाई घोटाले में पूर्व उपमुख्यमन्त्री व राकांपा नेता अजीत पवार और जल संसाधन मन्त्री सुनील तटकरे के खिलाफ जाँच के आदेश दिये थे। आदेश के बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने जाँच शुरू कर दी। मगर सिंचाई घोटाले की जाँच कर रहे दल के कामकाज में रोड़े अटकाये जाने लगे। सिंचाई विभाग के साथ ही कोंकण सिंचाई विकास निगम के अधिकारियों ने भी जाँच दल का सहयोग नहीं किया और कहा कि वे 12 बांधों के बजाय सिर्फ दो बांधों से जुड़े दस्तावेज ही जाँच दल को मुहैया करायेंगे।
जाँच-दल को सीमित संसाधनों में काम पूरा करना पड़ रहा है। उसे माँगने के बावजूद अभी तक लेखपाल के अलावा तकनीकी और कानूनी सलाहकार मुहैया नहीं करवाये हैं। जाँच दल गृह विभाग की मन्जूरी का इन्तजार कर रहा है और गृह विभाग खुद मुख्यमन्त्री के पास है। इससे सरकार की भ्रष्टाचार से लड़ने की मन्शा पर सवाल उठ रहे हैं।
हालाँकि सिंचाई घोटाले की जाँच पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं। सरकार बनने से पहले और बनने के बाद ही तीन ऐसे वाकये हुये जिनके बाद सिंचाई घोटाले की निष्पक्ष जाँच को लेकर आशंकाएँ पनपने लगी। पहला वाकया तब हुआ जब बहुमत से दूर फडणवीस सरकार को बिना माँगे ही राकांपा ने बिना शर्त समर्थन दिया था। तब चर्चाएँ थीं कि राकांपा की यह पेशकश अपने नेताओं को जाँच से बचाने के लिए है। दूसरा वाकया प्रधानमन्त्री नरेंन्द्र मोदी के बारामती में जाने के बाद सामने आया। शरद पवार को एक पूरी पीढ़ी को बर्बाद करने वाला बताने के साथ राकांपा को स्वाभाविक तौर पर भ्रष्ट पार्टी कहने वाले मोदी ने बारामती में जाकर शरद पवार की जमकर प्रशंसा की थी कि वे उनसे सलाह भी लेते हैं।
इससे संकेत गये थे कि क्या इस स्थिति में शरद पवार की पार्टी के नेताओं की निष्पक्ष जाँच हो पायेगी। तीसरा वाकया बजट सत्र में तब सामने आया जब विधान परिषद सभापति और कांग्रेस नेता शिवाजीराव देशमुख के खिलाफ राकांपा ने अविश्वास प्रस्ताव रखा और उसमें भाजपा ने राकांपा का साथ देकर सभापति को हटाया। इससे भाजपा और राकांपा की छिपी मित्रता पर पड़ा पर्दा हट गया था और यह बात साफ होती नजर आई कि दोनों दल एक दूसरे के हितैषी हैं।
ये तीनों वाकये सूबे में भाजपा और राकांपा के रिश्तों को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। इन हालात में सिंचाई घोटाले की निष्पक्ष जाँच पर सन्देह पैदा होने की गुन्जाइश बढ़ जाती है। दिलचस्प बात यह है कि चुनाव से पहले खुद देवेन्द्र फडणवीस जोर शोर से इस मुद्दे को उठाते थे कि पूर्ववर्ती आघाड़ी सरकार ने विदर्भ की सिंचाई परियोजना का पैसा पश्चिम महाराष्ट्र (शरद पवार के प्रभाव वाला क्षेत्र) की ओर मोड़ा। फडणवीस अपनी बात के समर्थन में माधव चितले समिति के दस्तावेज भी प्रस्तुत करते थे। अब उन्हीं का विभाग इस मामले की जाँच कर रहे जाँच दल को लेखपाल, तकनीकी और कानूनी सलाहकार देने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है।
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