महानदी की पहचान, मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्यों की पानी की माँग की पूर्ति के सबसे बड़े स्रोत के रूप में है। तकनीकी लोगों के अनुसार इसका लगभग 50.0 घन किलोमीटर पानी ही उपयोग में लाया जा सकता है। कहा जा सकता है कि महानदी, पानी के मामले में सम्पन्न और दो राज्यों के बीच प्रवाहित होने के कारण अन्तरराज्यीय नदी है।
महानदी, भारत की सर्वाधिक गाद वाली नदी के रूप में पहचानी जाती है। गाद की मौजूदगी का कारण उसका मन्द ढाल है। यह ढाल लगभग एक मीटर प्रति किलोमीटर है। ढाल के कम होने के कारण, गाद बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। नदी उसकी कुछ मात्रा को फ्लड-प्लेन में तथा उसकी सबसे अधिक मात्रा को डेल्टा में जमा करती है।
उल्लेखनीय है कि डेल्टा की मिट्टी में धान का प्रति हेक्टेयर उत्पादन, देश में, सबसे अधिक है। ढाल की कमी के कारण, पहले ओड़िशा में अक्सर बाढ़ आती थी पर हीराकुण्ड बनने के बाद बाढ़ का असर कम हो गया है। हीराकुण्ड बाँध, गाद जमाव के कारण उथला हो रहा है। उसकी बाढ़ प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। विदित हो, महानदी घाटी की औसत सालाना बरसात 1417 मिलीमीटर है। यह मात्रा देश की सालाना औसत बारिश से अधिक है।
जलवायु परिवर्तन के कारण, आने वाले दिनों में बरसात की पृवत्ति में बदलाव आएगा। उसके कारण बाढ़ के लौट आने का खतरा दस्तक दे सकता है। इस खतरे का खामियाजा दोनों ही राज्यों को उठाना पड़ेगा इसलिये उन्हें भविष्य में बाढ़ और गाद पर और अधिक ध्यान देना होगा।
महानदी के पानी के बँटवारे का पहला समझौता 28 अप्रैल 1983 को तत्कालीन मुख्यमंत्रियों यथा अर्जुन सिंह और जेबी पटनायक के बीच हुआ था और तय हुआ था कि आपसी जलविवाद अन्तरराज्यीय परिषद का गठन कर सुलझाएँगे। पिछले कुछ दिनों में घटे घटनाक्रम को देखकर लगता है कि विवादों ने दस्तक दे दी है। विवादों को समझने के लिये आवश्यक है कि दोनों राज्यों में पानी की स्थिति को समझा जाये।
हकीकत छत्तीसगढ़ की
छत्तीसगढ़ में 48296 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) सतही जल उपलब्ध है। उसमें से केवल 41729 एमसीएम पानी का ही उपयोग किया जा सकता है। फिलहाल 43 प्रतिशत अर्थात लगभग 18249 एमसीएम पानी का उपयोग हो रहा है। इसके अतिरिक्त प्रदेश में उपयोग योग्य 10670 एमसीएम भूजल उपलब्ध है। उल्लेखनीय है कि आजादी के पहले सुरक्षात्मक सिंचाई के लिये कुछ योजनाएँ क्रियान्वित की गईं थी पर आजादी के बाद प्रयासों में तेजी आई है।
पिछले कुछ सालों में अनेक योजनाएँ बनकर तैयार हुई हैं। कुछ पूरी होने की स्थिति में हैं। कहा जा सकता है कि जल संचय के मामलें में राज्य तेजी से आगे बढ़ रहा है। विदित हो, प्रदेश के जल संसाधन विभाग ने सिंचाई के लिये कुल 2000 एमसीएम पानी आवंटित किया है।
भिलाई स्टील प्रोजेक्ट, इस इलाके की पहली सबसे बड़ी औद्योगिक परियोजना थी लेकिन पिछले कुछ सालों में औद्योगिकीकरण को बहुत बढ़ावा मिला है। वह ताप-बिजली, सीमेंट और स्पंज आयरन के मामले में देश का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य बनने की राह पर है। प्रदेश के विभिन्न जिलों में 750 से भी अधिक औद्योगिक परियोजनाएँ निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं।
औद्योगिक परियोजनाओं के कारण पानी की माँग में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। औद्योगिक परियोजनाओं की पानी की कुल आवश्यकता लगभग 2700 एमसीएम है। यदि इसमें पूर्व में बनी औद्योगिक परियोजनाओं की माँग जो लगभग 1000 एमसीएम है, को जोड़ दिया जाये तो आँकड़ा 3700 एमसीएम पर पहुँचता है। खेती के लिये पानी का आवंटन जोड़ने से यह मात्रा 5700 एमसीएम हो जाती है।
अनेक उद्योगों को नदी तंत्र पर बने बाँधों या बैराजों से पानी नहीं मिलता। उन उद्योगों की निर्भरता भूजल पर है। उद्योगों द्वारा किये जा रहे भूजल दोहन के अद्यतन आँकड़े अनुपलब्ध हैं।
औद्योगिक परियोजनाओं को दी जा रही वरीयता के आधार पर अनुमान है कि यह मात्रा काफी अधिक हो सकती है। छत्तीसगढ़ में हो रही औद्योगिक क्रान्ति का सम्भावित संकेत यह है कि आने वाले सालों में यह राज्य औद्योगिक राज्य होगा और खेती की पहचान पीछे छूट जाएगी।
अब बात ओड़िशा की
सन 1953 में हीराकुण्ड बाँध बना। इस बाँध की जल भण्डारण क्षमता 5.83 लाख हेक्टेयर मीटर, सिंचाई रकबा 2.512 लाख हेक्टेयर और पनबिजली उत्पादन क्षमता 2.7 लाख किलोवाट है। निर्माण के समय पानी की आवक 48.585 लाख हेक्टेयर मीटर थी जो पिछले 50 सालों में घटकर 29.52 लाख हेक्टेयर मीटर रह गई है। गाद जमाव के कारण उसकी क्षमता में 6.15 लाख हेक्टेयर मीटर की कमी आई है। इसके अलावा, बरसात की कमी वाले सालों में जलाशय पूरा नहीं भर पाता है।
सिंचाई के लिये 20 प्रतिशत तक पानी की कमी हो जाती है। बिजली का उत्पादन प्रभावित होता है। उल्लेखनीय है कि हीराकुण्ड बाँध से अनेक उद्योगों को पानी प्रदाय किया जा रहा है। अनुमान है कि उद्योगों की पानी की जरूरत 1,418.9 क्यूसेक है। हकीकत यह है कि उद्योगों को पानी देने के कारण ओड़िशा में सिंचाई पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। खराब मानसून के साल में स्थिति बहुत खराब हो जाती है।
अब बात उडीसा के डेल्टा क्षेत्र में महानदी के पानी की। इस इलाके में उद्योगों को पानी देने के लिये राज्य सरकार ने अनेक अनुबन्ध किये हैं। ओड़िशा जल संसाधन विभाग की जनवरी 2011 की जानकारी के अनुसार महानदी और उसकी सहायक नदियों से लगभग 5147.83 क्यूसेक पानी उद्योगों को दिया जाएगा। यह मात्रा छत्तीसगढ़ में उद्योगों को दी जाने वाली पानी की मात्रा से अधिक है। भविष्य में यह आपूर्ति बढ़ेगी। इसके परिणाम दिखने लगे हैं। सूखे के साल में खेतिहर मजदूरों का पलायन बेहद सामान्य हो चला है। आत्महत्या दस्तक देने लगी है। पास्को प्रोजेक्ट के विरुद्ध किसानों के प्रतिरोध से पूरा देश परिचित है।
करेंट साइंस में एस. घोष के प्रकाशित आलेख (महानदी स्ट्रीमफ्लो, अप्रैल 2010) से पता चलता है कि जलवायु बदलाव के असर से महानदी तंत्र का बरसाती प्रवाह घट रहा है। इसके अलावा, महानदी नदी घाटी में सतह का तापमान 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति सौ साल की दर से बढ़ रहा है। यह वृद्धि भारत के औसत से दो गुना अधिक है। इसके अलावा, भयावह सूखे की आवृत्ति में भी वृद्धि देखी जा रही है। संक्षेप में, ओड़िशा की मुख्य चिन्ता उद्योगों को पानी उपलब्ध कराने में आ रही मौजूदा तथा भविष्य की परेशानियों की है। इस चिन्ता को पेयजल और खेती पर बढ़ता संकट बढ़ा रहा है जो भविष्य में ओड़िशा में और अधिक तनाव पैदा कर सकता है।
अन्तरराज्यीय नदियों के बीच पानी के बँटवारे को लेकर जल विवादों की बात करने के पहले यह जानना आवश्यक है कि आखिर नदियों के पानी को लेकर राज्यों के बीच विवाद क्यों पनपते हैं? जाहिर है, हर राज्य, अपने-अपने राज्य में अधिक-से-अधिक पानी को उपयोग करना चाहता है। जब दूसरा राज्य, समान कारणों से प्रतिरोध करता है तो विवाद उभरने लगते हैं।
हर राज्य को लगता है कि उसके राज्य की नदी में बेहिसाब पानी है। वह सोचता है कि हीराकुण्ड, भाखड़ा नांगल या सरदार सरोवर जैसे विशाल बाँध बनाकर उसके राज्य की पानी से जुड़ी सभी समस्याएँ हल की जा सकती हैं इसलिये वह उस लक्ष्मण रेखा की भी अनदेखी करना चाहता है जो कुदरत ने तय की है। उसे पानी का समुद्र में जाना बर्बादी और बाँधों में जमा करना बुद्धिमानी लगता है। इस कारण अन्तरराज्यीय नदियों के पानी के बँटवारे का मामला, कई बार कुदरत की लक्ष्मण रेखा की अनदेखी का मामला बन जाता है। महानदी के मामले में भी यही संकेत हैं।
अन्तरराज्यीय नदी जल के विवादस्पद मामलों को सुलझाने के लिये संविधान के प्रावधान ही प्लेटफार्म उपलब्ध कराते हैं। न्यायालय भी इन्हीं प्रावधानों के अनुसार फैसले देते हैं। उन्हें नकारना असंवैधानिक है। सभी सम्बन्धितों को यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की लक्ष्मणरेखा होती है। उसे पार करना घातक हो सकता है।
नदी जल विवादों को भी उसी नजर से देखा जाना चाहिए। जन भावना या कानून हाथ में लेकर या तंत्र को पंगु बनाकर कुदरत को अपने लालच के पक्ष में नहीं मोड़ा जा सकता। इसलिये आवश्यक है कि कुदरत की लक्ष्मण रेखा को ध्यान में रख विकास की सीमा को तय किया जाना चाहिए।
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