महाकाली के साथ-साथ

बिना पूरी तैयारियों और आवश्यक सामान के पदयात्रा में क्या दिक्कतें आ सकती हैं, अब तक हमारी समझ में आ चुका था। इसलिए एक भेली गुड़ और दो गोले (नारियल) खरीद कर झूला घाट की ओर चले। राजी ने बताया कि यदि तेज चलेंगे तो चार घंटे में झूलाघाट पहुँच जाएँगे। तीन बजे थे, सात बजे झूलाघाट पहुँचने का इरादा बना कर आगे बढ़े। राजी के बताए चार घंटों में से दो खर्च हो चुके थे, किन्तु हम पहली धार भी पार नहीं कर पाएँ। जाड़ों के दिन थे, इसलिए पाँच बजे सूर्यास्त हो गया। नीचे काली शान्त बह रही थी। पार भारत की तरफ भीमकाय चट्टानों में चीलें अपने बसेरों मे लौट रही थीं। एक घना जंगल पार करने के बाद मनायल पहुँचे ही थे कि वर्षा तेज हो गई। झूलाघाट पहुँचने की उम्मीदें धुंधलाने लगीं। मनायल में तीन झोपड़ियाँ थी, जिनमें जगह मिलने की उम्मीद कम ही थी। दरअसल यह गाँव नहीं बल्कि जंगल के बीच एक खर्क था। झोपड़ियों में अपने जानवरों के साथ आए लोग रह रहे थे। चारे की सुलभता के कारण लोगों ने जंगल के बीच का यह स्थान चुना था। एक ग्वाले से झूलाघाट की दूरी पूछने के बहाने बातचीत शुरू की। उसने भी दूरी चार घंटे बताई। रात ठहरने के लिए जगह मिलने की विनती की तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया। वह हमें बिना दरवाजे की घास-फूस की एक छोटी सी झोपड़ी में ले गया। थोड़ी देर में गुड़ वाली चाय आ गई। गाय, भैंस अभी दुही नहीं थी इसलिए काली चाय मिली। अंधेरा घिर आया था। मोमबत्ती हम ले नहीं गए थे। लैम्प या मिट्टी तेल वहाँ सुलभ नहीं, इसलिए अंधेरे में ही बैठे रहे। आश्रयदाता हीराचंद के दो भाई दिल्ली में दुकान चलाते हैं। वह भी पहले वहीं काम करता था। बीमार होने पर ईष्ट-देवताओं को पूजने लौट आया। अपनी बीमारी के बारे में उसने बताया कि रीढ़ की हड्डी में दर्द रहता है, काफी दवाइयाँ खा चुका हूँ, कोई फर्क नहीं हुआ। इलाज और देवी-देवताओं की पूजा-पाठ में काफी पैसा खर्च हो चुका है। बीमार की व्यथा सुनकर प्रदीप का डॉक्टर जाग गया था। वहीं पर एक्यूप्रेशर के एक-दो प्रयोग हीराचन्द पर आजमाए गए। उसे आराम महसूस होने लगा था। यह इलाज का असर था या डॉक्टर का मन रखने के लिए उसने कहा, पता नहीं। वर्षा फिर शुरू हो गई। नौ बजे के करीब भोजन के लिए बुलावा आ गया। भीमल के डंठल जला कर रोशनी करके भीगते हुए दूसरी झोपड़ी तक गए। अपेक्षाकृत इस बड़ी झोपड़ी में उसकी पत्नी और गाय, बकरी, भैंस सभी साथ ही रह रहे थे। हमें चूल्हे के सामने बिठाया गया। गाढ़ी छाछ और नमक के साथ मक्के की एक-एक रोटी परोसी गई। यद्यपि ऐसी एक-एक रोटी और भी खा सकते थे, लेकिन हम चूल्हे मेें देख चुके थे कि रोटियाँ गिनकर बनाई गई हैं, इसलिए मन मसोस कर भूख छुपानी पड़ी। एक नटखट बछिया बीच-बीच में खाने में मुँह मारने की कोशिश कर रही थी, बीच में उसे भी घुड़कना और बार-बार धकेलना पड़ता था।

रात को खूब पानी बरसा। बिना दरवाजे और घास की छत वाला हमारा आश्रम कई स्थानों पर टपकने लगा। पुआल का बिस्तर जिधर सरकाते वहीं पर टपकना शुरू हो जाता था। इस प्रक्रिया में जब काफी देर हो गई, अन्ततः टपकने दो मान कर स्लीपिंग बैगों में घुस गए।

सुबह आकाश खुल गया था। सुदूर भारत की ऊँची चोटियों में रात भर गिरी बर्फ पर चटक धूप पड़ रही थी। खुशनुमा मौसम को देख कर पिछले दिनों की थकान गायब हो गई। पश्चिमी नेपाल के इस दूरस्थ इलाके में आदिम रीति-रिवाज आज भी चलन में हैं जिनके बारे में कुमाऊँ के बड़े बुजुर्ग कभी पुराने दिनों के संस्मरण सुनाते हैं। हीराचन्द बता रहा था कि यहाँ लगने वाले मेलों में गाँव वालों की गुटबाजी अनेक बार मार-काट का रूप ले लेता है। गुटबाजी का कारण जंगल और गाँव की सीमाओं,जुआ खेलने और किसी महिला या लड़की को जबरन उठा ले जाने के कारण होता है। कई बार यह मार-काट पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। सरकारी तंत्र की पहुँच इधर भारत की तरह व्यापक न होने के कारण न्याय पाने के पुराने तरीके ही प्रचलन में है। हत्या और बलात्कार तक के मामले गाँव में ही निपटा दिए जाते हैं। हीराचन्द बता रहा था कि बलात्कार के मामले में आरोपी को पीड़ित महिला को डेढ़ तोला सोना बतौर दण्ड देना होता है और जात-बीरादरी को भात खिलाना पड़ता है। इसके बाद वह आरोपमुक्त कर दिया जाता है।

ब्रिटिश काल के प्रधानों की तर्ज में नेपाल के गाँवों में जिमवाल होते हैं जो एक तरह का जमींदार है और अन्य गाँव वालों के मुकाबला साधन-सम्पन्न और रौब-दाब वाला होता है। जंगलों की व्यवस्था संचालित करने के लिए कोई निश्चित ढाँचा नहीं है। जंगल गाँव वालों की सामूहिक सम्पत्ति हैं। लोग इनका मनमाना इस्तेमाल करते हैं। भारत की तरह व्यापारिक दोहन न होने से जंगलों का घनापन बचा है।

चाय पीने के बाद 7 बजे आगे की यात्रा शुरू की। हीराचन्द को सौ रुपए देने चाहे लेकिन वह स्वाभिमानी निर्धन किसी प्रकार लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। हम जानते थे, उसके लिए सौ रुपयों का कितना महत्व है। अंततः उसकी पत्नी को पैसे थमा कर आगे बढ़े। यह रास्ता काली से एकदम सटा हुआ है। सिर के ऊपर खतरनाक चट्टानें और नीचे काली का अथाह वेग। कुछ स्थानों पर ऊपर से पत्थर गिरने का भय था। चलने से पहले हीराचंद ने ऐसे स्थानों को दौड़ कर पार करने की नसीहत दी थी। नसीहत का पूरा पालन करना पड़ रहा था। काली के किनारे लगभग एक किमी. चलने के बाद सिनतड़ी नाम का छोटा सा गाँव है, यहाँ पर एक दुकान भी है। नदी किनारे बसे होने के कारण मछली मारना यहाँ के लोगों का मुख्य रोजगार है। एक सात ज्यादा मछलियाँ मारने के लिए विस्फोटकों के इस्तेमाल की विधि अभी यहाँ नहीं पहुँची है। शायद यह मुश्किल नहीं होता लेकिन काली का विशाल रूप और वेद इसकी इजाजत नहीं देती। इसलिए जाल और सुरके का इस्तेमाल किया जाता है। सुरके में एक मजबूत रस्सी में प्लास्टिक के पतले और पारदर्शी तार के कई पुंदे बाँधे जाते हैं। इस रस्सी को नदी के दोनों छोरों पर मजबूत पत्थरों पर बाँधा जाता है। नदी में आवागमन करते वक्त मछली इन पुंदों में फंस जाती हैं। पुंदे से मुक्त होने के लिए मछली जितना अधिक छटपटाएँगी, पुंदा उतना ही कसता जाता है। जाल सुबह-शाम नदी के उथले हिस्सों में डाला जाता है। बल्छी (कांटा) का प्रयोग भी किया जाता है। मछली मारने के तौर-तरीकों की जानकारी ले ही रहे थे कि एक ग्रामीण बोरा कंधे में लादे बड़ी भारी मछली लेकर पहुँचा। मछली दिखाने का आग्रह किया तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। यह हिमालय की प्रसिद्ध और नटखट मछली महासीर (टौर प्यूटीटौरा) निकली। स्थानीय बोली में इसे सौर कहा जाता है। वे लोग बता रहे थे कि यहाँ 50 किलो तक की महासीर मिल जाती हैं। काली की स्वच्छ और अथाह जलराशि महासीर के पनपने के लिए आदर्श है, वरना उत्तराखण्ड की अन्य नदियों में प्रदूषण और अत्यधिक दोहन के कारण महासीर अब विलुप्त होने की कगार पर है। तोलने पर इसका भार 18 किलो से अधिक था। ग्रामीण इसे गाँवों में फेरी लगाकर बेचने ले जा रहा था। महासीर के माँस की कीमत वहाँ 40 भारु (भारतीय रुपया) और 60 नेरु (नेपाली रुपया) है जबकि भारत में महासीर के स्वादिष्ट माँस के शौकीन इसके एक किलो के लिए 100 रु. तक खर्च करने में हिचकिचाते नहीं। महासीर के अलावा हिमालय की एक और विशिष्ट असेला प्रजाति की मछली भी ग्रामीणों ने सुरके में फसाई थी। बड़ी या अधिक मछली मिलने को भगवान की कृपा माना जाता है। महासीर वाले ग्रामीण के बारे में दुकान में बैठे लोग चर्चा कर रहे थे कि पिछले महीने गाँव के एक मकान में लोग आग लगा देने के झूठे आरोप में उसे दस हजार रुपए जुर्माना भरना पड़ा था। तभी से उसके सुरके में पहले से अधिक और बड़ी मछलियाँ फँसा कर ईश्वर उसकी मदद कर रहा है। नीचे काली में कुछ बत्तखनुमा खूबसूरत पक्षी जलक्रीड़ा में व्यस्त थे। पानी में डुबकी लगाने में माहिर इन पक्षियों के बारे में दुकानदार ने बताया कि यह पंचमलिया हैं जो जाड़ों में ऊपर हिमालय से झुंड बना कर यहाँ आते हैं। उसने यह भी बताया कि इसका माँस बहुत गर्म होता है। स्थानीय निवासी नदी में पुंदे डाल कर इनका शिकार करते हैं।

सिनतड़ी में काली का तट चौड़ा और बहाव कम है। दोनों देशों में लोग इस घाट का इस्तेमाल आवाजाही के लिए करते हैं। नीचे बगड़ में एक टायर ट्यूब पड़ा था, जिसका उपयोग नदी पार करने में किया जाता है। यद्यपि यह आवाजाही गैरकानूनी है, किन्तु दोनों ओर के निवासियों के आपसी रिश्ते और एक दूसरे पर निर्भरता उन्हें इसके लिए मजबूर करती है। दुकानदार बता रहा था कि बारातें तक इन ट्यूबों से आर-पार होती हैं। काली के दोनों ओर की घाटियों में बसे लोगों में सामाजिक व सांस्कृतिक एकता के तार इतने मजबूत हैं कि राष्ट्रों की विभाजन रेखा इसके सामने अर्थहीन जान पड़ती है।

सिनतड़ी के बाद काली की संकरी घाटी खुलने लगती है। पार भारत का बलतड़ी गाँव दिखा। वर्षा के बाद निकली धूप में गेहूँ की हरियाली और सरसों के फूलों से ढके खेत सुन्दर लग रहे थे। रास्ता अब काली का किनारा छोड़ कर ऊपर की ओर उठता जाता है, घाटी का इलाका नीचे छूटता जाता है। ऊपर सतपाली गाँव में कुछ दुकानें हैं। 150-200 परिवारों का यह गाँव विकसित कहा जा सकता है। बिजली है। कुछ घरों में टी.वी एंटीना भी लगे थे।

इस बीच एक छोटा सा गाँव आया बस्कोट। दिखने में नेपाल के अन्य गाँवों जैसा है पर यहाँ जन्मे एक महापुरुष के कारण नेपाल के राणा शासकों के अत्याचारों से मुक्ति के आन्दोलन के इतिहास में इस गाँव का विशेष महत्व है। दशरथ चंद नाम के इस महापुरुष ने नेपाल की जनता को राणाशाही के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया और शहीद हुए। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया था।

लोगों के पहनावे और बातचीत के ढंग में अब अन्तर दिखाई देने लगा। धोती या घाघरे के स्थान पर सलवार कमीज, मैक्सी और चुस्त नेपाली पजामें के स्थान पर पैंट, जीन्स-शर्ट या ट्रैकसूट पहने लोग दिखाई देने लगे थे। कुछ युवतियों के ब्यूटी पार्लर जाने के सबूत भी मिलने लगे थे। यह सब झूलाघाट के करीब पहुँचने के लक्षण थे। आगे रतमाटा गाँव तक धनगढ़ी से झूलाघाट के लिए आ रही सड़क पूरी बन चुकी है। बसें इस पर अभी चलनी शुरू नहीं हुईं है, अलबत्ता ट्रक यहाँ तक पहुँचने लगे हैं। एक-डेढ़ साल के भीतर सड़क के झूलाघाट तक पहुँच जाने की उम्मीद करनी चाहिए। बैतड़ी जिले के मुख्यालय गढ़ी के लिए बिजली रतमाटा से होकर ही जाती है, इसलिए गाँव को भी विद्युतीकरण का फायदा मिल गया है। बिजली भारत से आती है। लोगों ने बताया कि बिल भारत के झूलाघाट में जमा किए जाते हैं। रतमाटा की दुकानों में अब नेपाली सामग्री भी दिखाई देने लगी थी और नेपाली मुद्रा में लेन-देन हो रहा था। हमें जो भी दुकानें मिली थीं, दुकानदार केवल भारतीय मुद्रा में ही लेन-देन कर रहे थे। क्योंकि इस दूरस्थ क्षेत्र में मुद्रा विनिमय की कोई व्यवस्था नहीं है और सीमावर्ती भारतीय कस्बो में, जहाँ से उन्हें माल लाना पड़ता है, खरीददारी के लिए भारतीय मुद्रा की जरूरत पड़ती है। एक-आध किमी. चलने के बाद बुड्डा गाँव से झूलाघाट दिखाई दिया। बुड्डा में पुलिस चौकी है। दो-चार पुलिस वाले बाहर बैठे हुए थे। कहीं विनायक की पुलिस के जैसा व्यवहार न करें, यह झिझक मन में थी पर उन्होंने हमारी ओर ध्यान नहीं दिया।

चलो जान बची, मानकर झूलाघाट पहुँचने की उत्सुकता में थके होने के बावजूद आराम नहीं किया। यहाँ से आगे झूलाघाट तक सड़क निर्माण के लिए सैंकड़ों की संख्या में मजदूर लगे थे। कठोर चट्टानें काट कर वे सड़क बनाने में जुटे थे। झूलाघाट बाजार को नेपाली लहजे में जुलघाट कहते हैं। नेपाल की तरफ 20-25 और भारत की ओर 100 करीब दुकानें हैं। आर-पार जाने के लिए यहाँ पर एक झूलापुल है जिसके दोनों ओर भारतीय व नेपाली पुलिस की चैकपोस्ट हैं। नेपाली पुलिसकर्मियों से हमने चैकिंग के लिए पूछा तो उन्होंने बिना तलाशी लिए ही हमें जाने दिया। यद्यपि यहाँ कुछ होटल भी हैं, लेकिन हम पी.डब्ल्यू.डी. के डाकबंगले की खोज में निकले जो बाजार के एक छोर पर है। चौकीदार को ढूँढने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन कमरा मिल गया। आज पाँच दिन बाद अखबार के दर्शन हुए थे। बर्फ पड़ने से सड़कें बन्द हो गई थीं, इसलिए अखबार देर से पहुँचा। गोविन्द को आज विदा होना था।

झूलाघाट कस्बा भी प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध के डूब क्षेत्र में है। बाँध के बारे में दोनों ओर के निवासियों और व्यापारियों से बातचीत करने बाजार गए। अधिकांश दुकानदार बाँध के मामले में उदासीन थे। नेपाल वाणिज्य मंडल के जिला सचिव लक्ष्मणलाल श्रेष्ठ जागरुक व्यक्ति हैं। उनका कहना था कि दोनों देशों के बीच चल रहा महाकाली (काली) के उद्गम का विवाद हल किए बिना नेपाल सरकार बाँध निर्माण के लिए सहमत नहीं हो सकती। उनका मानना था कि भारत ने काली के उद्गम स्थल कालापानी में नेपाल भूमि का अतिक्रमण किया है।

काली के दोनों ओर बसे झूलाघाट बाजार का निर्माण दोनों देशों के नागरिकों की आवश्यकताओं के अनुरूप हुआ है। खाद्यान्न, नमक, गुड़, मोटा कपड़ा, बर्तन आदि के लिए पश्चिमी नेपाल का बड़ा हिस्सा झूलाघाट पर निर्भर है। इसी प्रकार नेपाल में मिलने वाले कोरिया, जापान, चीन और ताइवान में निर्मित इलेक्ट्रानिक सामान की भारत में काफी माँग है। नेपाल से आने वाले घी की झूलाघाट बड़ी मंडी है। घी यहाँ से भारत के मैदानी शहरों को भेजा जाता है। लेकिन अब नेपाल में चारे की कमी व पलायन के कारण पशुपालन में गिरावट आई है। परिणामस्वरूप घी की आवक में कमी आ गई है। भारत की तरफ के झूलाघाट में भी व्यापार अब पहले की तुलना में समाप्तप्राय है। नेपाल की ओर से झूलाघाट के करीब तक सड़क पहुँच जाने से भारतीय माल की अब वहाँ खास जरुरत नहीं रह गई है। खुले बाजार की अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद नेपाल में मिलने वाला इलेक्ट्रॉनिक सामान अब भारतीय बाजारों में सहजता से उपलब्ध होने लगा है। इसलिए भारतीयों में नेपाली सामान का आकर्षण कम हो गया है। कुछ वर्ष पहले तक खरीदारों से ठसाठस भरे रहने वाले झूलाघाट में अब चारों ओर सुनसानी छाई रहती है। झूलाघाट के बाजार में लोहाघाट और चम्पावत निवासी व्यापारियों का खासा दबदबा है। इन्होंने दोनों ओर दुकानें खोल रखी हैं। कई नेपाली व्यापारियों की भी भारत में दुकानें हैं। काली कुमाऊँ के व्यापारियों को अब लग रहा है कि पंचेश्वर बाँध का निर्माण कार्य शुरू होने के बाद लोहाघाट, चम्पावत में व्यापार की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी, इसलिए वे यहाँ से मोटा मुआवजा लेकर विस्थापित होने का मन बना चुकें हैं। स्थानीय निवासियों की मनःस्थिति इससे उलट है।

झूलाघाट में कोई बदलाव नहीं दिखाई पड़ा। आज से दस वर्ष पहले जैसा था, अब भी वैसा ही है। कुछ वर्षों से नेपाल में पूर्ण नशाबंदी लागू की गई है, जबकि भारत की ओर देशी शराब की दुकान खुल गई है। लोग बता रहे थे कि शराब का शौक पूरा करने के लिए उन्हें भारत जाना पड़ता है। पीने के बाद तुरन्त लौट नहीं सकते क्योंकि नेपाल में मुहँ से शराब की महक आने पर 3600 रु. जुर्माना पड़ता है। इसलिए पीने के बाद नशा उतारने का भी इन्तजार करना पड़ता है। इस चक्कर में शराबी कभी-कभार रात होटलों में ठहरते हैं। कुछ वर्ष पहले जब भारत की ओर नशाबंदी लागू थी, इस तरफ के शौकीन ऐसा ही किया करते थे। लोगों से बातचीत करते काफी देर हो चुकी थी। डाकबंगले में लौटे तो स्थानीय पत्रकार हमारा इन्तजार कर रहे थे। उनसे भी काफी देर तक चर्चा होती रही।

पहले दिन झूलाघाट का फोटो नहीं ले सके थे, इसलिए सुबह रवाना होने से पहले झूलाघाट की फोटो लेने के बाद ही आगे बढ़ने का विचार किया। झूलाघाट का भूगोल ऐसा है कि पूरा फोटो एक साथ ले पाना कठिन है। इस चक्कर में पिथौरागढ़ वाली रोड़ में 2-3 किमी. आगे तक भी गए, पर सफलता नहीं मिल सकी। एकाध आधे-अधूरे फोटो लेने के बाद जौलजीवी की ओर जाने वाले पैदल मार्ग में आगे बढ़े। झूलाघाट तक नेपाल की तरफ हम काली के बाईं तरफ चल रहे थे। अब रास्ता दाईं ओर था। झूलाघाट से जौलजीवी के लिए बन रही सड़क यहाँ से 3-4 किमी. आगे तक बनी है। जबसे पंचेश्वर बाँध बनने की सम्भावनाएँ बढ़ी हैं, सड़क का निर्माण कार्य बन्द कर दिया गया है। सतपाली से काली की घाटी के खुलते जाने का सिलसिला शुरू हो चुका था। झूलाघाट में थमने के बाद अब घाटी काफी विस्तृत हो गई थी। दोनों ओर विशाल गाँव और उपजाऊ सेरे हैं। सिंचाई की व्यवस्था भी दोनों तरफ है। झूलाघाट की ओर आते हुए वेशभूषा से कर्मकांडी पंडित जान पड़ने वाले सज्जन मिले। उनसे गाँवों के नाम, शाम तक जौलजीवी पहुँचेंगे या नहीं जैसी जानकारियाँ प्राप्त करने के लिए बातचीत की। पंडित जी उस पार नेपाल के रहने वाले थे, लेकिन उनकी जजमानी भारत में थी। वे नदी पार करके नामकरण कराने आए थे। रास्ता सीधा था, इसलिए आज चलने की गति बीते दिनों की अपेक्षा ठीक थी।

चनलिया नदी उस पार तालेश्वर के पास काली से मिलती है। चमलिया यद्यपि छोटी है, किन्तु उसका उत्कट वेग काली की विशालता को चीरते हुए संगम के मध्य तक साफ दिखाई पड़ता है। नदी के घाट पर एक चिता सुलग रही थी। चिता जलने का इन्तजार कर रहे लोग जोर-जोर से शंख ध्वनि कर रहे थे। हमारे लिए यह नया अनुभव था। अब तक सुना जरूर था कि नेपाल में मृत्यु पर शंख ध्वनि की जाती है, और यहाँ भारत में भी कभी-कभी लोगों को नेपाली मजदूरों को त्यार घर शाँक बाजि जौ (तेरे घर शंख बजे अर्थात घर के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए) की गाली देते सुना था। चिता के पास शंख बजते हुए देखने का यह पहला मौका था।

संगम से आगे भारत की ओर तालेश्वर नामक स्थान में माइक्रोहाइडिल की 5 के.वी.क्षमता की एक इकाई स्थापित की गई है, जो इन दिनों बन्द पड़ी है। कर्मचारियों के क्वार्टर भी बनाए गए हैं। यहीं पर एक गाड़ काली में मिलती है। संगम पर शिव मन्दिर है। यह स्थान तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। घने निकुंज व बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच यह जगह डरावनी लगती है। पुजारी लक्ष्मीदत्त ने बताया कि उत्तरायणी के दिन मन्दिर में मेला लगता है, जिसमें भारत और नेपाल दोनों ओर के ग्रामीण बड़ी संख्या में भाग लेते हैं। काली यहाँ संकरी घाटी में बहती है इसलिए गरहाई की थाह पाना मुश्किल है। यात्रा का आज पाँचवां दिन था। रास्तो में कहीं स्वान करने का मौका नहीं मिला था। तालेश्वर के बगड़ में खिली खूब चटक धूप जैसे हमें इसके लिए प्रेरित कर रही थी। तीनों में से एक को ही पानी में हाथ-पैर चलाना नहीं आता था इसलिए काली में उतरने का विचार असम्भव था। एक लघु सरिता पर ही नहा कर सन्तोष कर लिया। यहाँ पर काली का बहाव बहुत धीमा था। दूर-दूर से नदी के साथ बहकर आए अनोखी आकृतियों के पत्थर हजारों की संख्या में किनारे पर जमा हो गए थे। पत्थरों में से चुनाव करना कठिन था कि निशानी के तौर पर किसे ले जाएँ और किसे छोड़ें।

रास्ता झूलाघाट से ही नदी के साथ था, यात्रा अपेक्षाकृत आरामदेह थी। सामने नेपाल की तरफ रौतड़ा गाँव के मन्दिर में पूजा-पाठ चल रहा था, वैसे ही जैसे कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में। रास्ते में छोटा सा गाँव खर्कतड़ी आया। जूनियर हाईस्कूल में पठन-पाठन कार्य चल रहा था। सामने नेपाल का अमतड़ी गाँव था। रास्ते में कुछ नेपाली नागरिक मिले जो मजदूरी की तलाश में भारत आ रहे थे। ये लोग टायर ट्यूब और अन्य परम्परागत तरीकों से नदी पार कर आए थे। दोपहर में हम भारत की ओर के अमतड़ी गाँव में पहुँचे। अरहर, गेहूँ और सरसों के खेत लहलहा रहे थे। एक महिला घास की बड़ी सी गठरी अपने सर पर रखने की तैयारी कर रही थीं। सूरज सिर को पार करता हुआ दोपहर की ओर बढ़ रहा था, इसलिए खेतों में काम करने गए लोग दिन के भोजन के लिए घरों में लौट चुके थे। जो दूर काम करने या घास-लकड़ी लेने गए थे, वे भी अपने बोझ के साथ वापस पहुँच रहे थे। प्रत्येक घर में खाना बनाने की तैयारी चल रही थी। हम तीनों इतने संकोची थे कि एक ग्रामीण के आग्रह को भी टाल गये। गृहस्वामी शायद हमारी मनःस्थिति को ताड़ रहा था इसलिए चूल्हा-चौका निपटा लेने के बावजूद हमारे लिए आग्रहपूर्वक चाय बना लाया। हमने तसल्ली से बैठ कर चाय पी और मेजबान से पंचेश्वर बाँध के बाबत पूछताछ की। यहाँ भी बाँध निर्माण अभी ग्रामीणों की वास्तविक चिन्ताओं में नही आया है। लेकिन अपने भूगोल की असुविधाओं का जिक्र वे बार-बार करते हैं। आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का धकल उनके जीवन में कम है, इसलिए उनकी दुनिया स्थानीय संसाधनों पर अपेक्षाकृत अधिक निर्भर है।

जौलजीवी से झूलाघाट की ओर काली के किनारे-किनारे बन रही सड़क का निर्माण कार्य अमतड़ी की सीमा तक पहु्ँच गया है। जिस दिन यह सड़क झूलाघाट पहुँच जाएगी और गाड़ियाँ चलने लगेंगी, धारचूला से पिथौरागढ़ और झूलाघाट से जौलजीवी, दार्चुला जाने वाले यात्रियों के लिए बहुत सुविधा हो जाएगी। यहाँ पर नेपाली मजदूर एक विशाल कठोर और खड़ी चट्टान को काटकर सड़क बना रहे थे। उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी कि जिस चट्टान की ओर नजर उठाने में भय लगता है, इस पर वह छिपकली की तरह चिपक कर घन और सब्बल चलाने में व्यस्त थे। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क निर्माण में नेपाली मजदूरों का बड़ा योगदान रहा है। न जाने कितने मजदूर ऐसी कठिन चट्टान में मौत के गाल में समा गए होंगे।

रास्ता चट्टान के ठीक नीचे से गुजरता था। आने-जाने वालों को सावधान करने के लिए दोनों ओर दो मजदूर लगाए गए थे जो राहगीरों को आगाह करते और सीटी बजा कर अपने साथियों को इशारा करते थे कि काम बन्द कर दो नीचे लोग चल रहे हैं। रास्ता मलबे से पटा हुआ था जो नीचे बह रही काली तक चला गया था। मलबे में रुके पत्थर रह-रह कर लुढ़क रहे थे इसलिए रुकसैक के बोझ को सम्भालते हुए डेढ़ सौ मीटर लम्बा मलबे का ढेर दौड़ कर पार किया। सामने नेपाल की ओर काफी ऊँचाई पर खूब हरा-भरा एक गाँव दिखाई दे रहा था। पता चला यह नेपाल का अमतड़ी गाँव है। गाँव केले के वृक्षों से पटा हुआ था।

रास्ते के किनारे चकद्वारी गाँव में एक घर से कुछ मेहमानों की विदाई हो रही थी। कुछ दिन पूर्व यहाँ शादी हुई थी। दूल्हा-दुल्हन और परिवार के कुछ और सदस्य विदा हो रहे थे। वे हमारे साथ-साथ चलने लगे। दूल्हे के चेहरे में नई-नई शादी के बाद का रुआब देखते ही बनता था। महाशय अपनी नई-नवेली कम उम्र दुल्हन पर अपनी भरपूर छाप छोड़ने की चेष्टा में थे।

अब कनाली छीना ब्लाक में पड़ने वाला पहला गाँव डौड़ा आया जो नदी की घाटी में बसे गाँव की तरह ही हरा-भरा और सुन्दर था। रास्ते पर एक बोर्ड लगा है जो इसके गाँधी ग्राम होने की सूचना दे रहा था। हाँ पानी की कमी नहीं थी। गेहूँ और सरसों की फसल चारों तरफ लहलहा रही थी। यद्यपि यह जनवरी का पहला सप्ताह था पर गाँव के हरेपन से बसन्त के आगमन का भ्रम होता था। हवा से झूमते सरसों के फूल अजब छटा बिखेर रहे थे। आज अब तक की यात्रा का सबसे यादगार दिन था। हमने यह अनुभव किया कि रास्ता कठिन न हो तो आस-पास के दृश्य कहीं ज्यादा आकर्षित करते हैं।

एक मोड पार करने के बाद दूर बगड़ीहाट दिखाई पड़ रहा था। गाँव वालों ने बताया था कि जौलजीवी पहुँचने के लिए सुनखोली गाँव से चार बजे जीप मिल जाएगी। कच्ची होने के कारण इस सड़क में अभी यातायात पूरी तरह सुचारू नहीं हो सका था। सड़क अभी पास नहीं हुई थी इसलिए बस का तो सवाल ही नहीं था। इक्का-दुक्का जीपें चलती थीं जिनका लोगों की तयशुदा आवाजाही के कारण आने-जाने का समय निश्चित था। लगभग दो किमी आगे जीप भी दिखाई दी। कुछ लोग जीप के इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। नेपाल में पिछली रात ठहरने के जो कटु अनुभव हुए थे, उन्हें याद कर हमारे कदम जीप तक पहुँचने के लिए स्वतः ही बढ़ते जा रहे थे। अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था कि जीप चल पड़ी। जौलजीवी पहुँचने की अन्तिम आशा निष्फल हो गई थी। जाती हुई जीप को बहुत दूर तक देखते रहे। रास्ते में कुछ लोगों ने ढाढस बधाया कि दूसरी जीप भी मिल सकती है। सड़क पर पहुँचने के बाद अब हम पीपली के नीचे से गुजर रहे थे। नीचे काली में चार स्थानों पर टायर ट्यूब के जरिए लोग आर-पार जा रहे थे। काली जैसी विशाल नदी को पार करने का यह तरीका बहुत खतरनाक और दुःसाहसिक है। ट्यूब के निचले भाग रस्सियों का जाल बुना गया था जिसमें पार करने वाले को बिठाया जाता है। एक साथ तीन-तीन लोगों को इस खतरनाक तरीके से पार कराया जाता है। ट्यूब की भारवहन क्षमता दो तीन कुंतल के आस-पास जरूर होगी क्योंकि एक साथ चार कट्टे सीमेंट के पार होते हुए हमें दिखाई पड़े। पार कराने वाला छाती से ऊपर हिस्सा ट्यूब के वृत्त के भीतर रखता है और पैरों से पतवार का काम लेता है। जरा सी चूक हो जाए तो सन्तुलन बिगड़ जाए तो काली की अथाह जलराशि सम्भलने का मौका भी नहीं देगी। लेकिन आर-पार दोनों तरफ की जरुरतें एक दूसरे पर इस तरह निर्भर हैं कि यह गैरकानूनी और खतरनाक तरीका उन्हें रोज अपनाना पड़ता है। गैरकानूनी इसलिए कि झूलाघाट से दार्चुला तक दोनों देशों के बीच केवल दार्चुला, बलुआ कोट, जौलजीवी और झूलाघाट में बने पुलों से ही आवाजाही की जा सकती है। रोज अपनाए जाने वाले इन रास्तों को दोनों देशों के कानूनों ने मान्यता नहीं दी है। कानूनी रास्तों के उपयोग से 10-12 किमी. का चक्कर पड़ेगा। परेशानी से बचने का यही एकमात्र विकल्प है।

लोग बता रहे थे कि इन ट्यूबों के जरिए नेपाल की खाद्यान्न, गुड़, मिट्टी-तेल इत्यादि जाता है और उधर से भट, गहत, घी, शहद आदि लाया जाता है। यहाँ दुकानों के आँगन में नमक के बोरों के ढेर बता रहे थे कि नेपाल सरकार पश्चिमी नेपाल के इस हिस्से के लिए नमक जैसी आवश्यक वस्तु भी उपलब्ध नहीं करा सकती है। दुकानदार बता रहे थे कि यह क्षेत्र जौलजीवी पुलिस के कार्यक्षेत्र में आता है। पुलिस वाले कभी-कभी आकर ट्यूब आदि जब्त करते हैं, लेकिन फिर यह बदस्तूर जारी रहता है।

आवाजाही का यह तरीका यदि खाद्यान्न तक ही सीमित रहे तो चिन्ता की कोई बात नहीं है। कई बार असामाजिक तत्व इन रास्तों का इस्तेमाल तस्करी आदि के लिए करते हैं। पिथौरागढ़ की पुलिस ने ऐसे दो दर्जन रास्ते चिन्हित किए हैं, जिन पर नजर रखने को वह मुख्य चुनौती बताती है। तस्करी के कई बड़े मामले भी इस क्षेत्र में पकड़े गए हैं। काली के दूसरी ओर के विशाल नेपाली गाँवों में जाने और लोगों से बातचीत करने का बड़ा मन है। लेकिन अब समय नहीं है। हमारे ठीक सामने नेपाल का राड़म गाँव है। इसे देखकर कहीं नहीं लगता यह नेपाल जैसे गरीब देश के सबसे पिछड़े पश्चिमी प्रदेश का कोई गाँव है। यह भी चंद राजपूतों का गाँव है, जो स्वयं को राजवंशी मानते हैं।

पंचेश्वर में बाँध बन रहा है, यह क्षेत्र भी डूबेगा, ऐसी चिन्ता यहाँ के आम ग्रामीण में नहीं दिखाई पड़ी। शायद ऐसे बाँध के बारे में जानकारी के अभाव के कारण ही है अन्यथा यदि बाँध के विरोध में डूब क्षेत्र के लोगों का भविष्य में कोई आन्दोलन हुआ तो यही क्षेत्र मुख्य भूमिका निभाएगा क्योंकि इतने उपजाऊ खेत, और सुविधाएँ छोड़कर यहाँ के लोगों को बाँध के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। कुछ यह मान कर चल रहे थे कि बाँध में केवल पंचेश्वर और अधिक-से-अधिक झूलाघाट तक डूबेगा। जब हमने उन्हें बताया कि बाँध की रिपोर्ट के अनुसार जौलजीवी तो डूबेगा ही, काली का जलस्तर बलुआ कोट तक और गोरी का छोरीबगड़ तक बढ़ेगा तो लोग ऐसा मानने को तैयार ही नहीं थे। हाँ, एक बुजुर्ग जरूर ऐसे मिले जिन्होंने सड़क के ऊपर स्थित दौलीसेर गाँव की तरफ इशारा करके बताया कि बहुत पहले बाँध के सर्वे वालोें ने वहाँ पर एक पिलर बनाया था।

दौलीसेरा के बाद चरमागाड़ और काली का संगम आता है। संगम से हम करीब सौ मीटर की दूरी पर थे। वहाँ पर चार ट्रक खड़े थे जिनमें रेता-बजरी भरा जा रहा था। लोगों ने बताया कि ये ट्रक अभी जौलजीवी की तरफ जाएँगे। जौलजीवी पहुँचने के आसार एक बार फिर बनते दिखाई पड़ रहे थे लेकिन ट्रक भरने में अभी देर थी, इसलिए हम धीरे-धीरे आगे बढ़े, यह सोच कर कि रास्ते में ट्रक रुकवा लेंगे।

काली के दोनों ओर के तटों में शाम की सब्जी का इन्तजाम करते ग्रामीण मछली मारने के लिए काँटा डालकर बैठे हुए थे। नदी के किनारे बसे गाँवों में शाम के समय जाल या काँटा डालकर मछली मारना दिनचर्या का ठीक ऐसा ही हिस्सा है जैसे खेतीबाड़ी या अन्य कार्य। बरसात को छोड़कर शेष मौसम में नदी अपने इन पुत्रों को कभी निराश नहीं करती। एकाध मछली का जुगाड़ तो हो ही जाता है।

जाड़ों के दिन थे। सूर्यास्त होने में ज्यादा समय नहीं था लेकिन पीछे खड़े ट्रकों मे जौलजीवी पहुँचने की आशा सुनिश्चित कर दी थी इसलिए हम इत्मीनान से चल रहे थे। घिंघरानी गाँव में डीडीहाट की एक स्वयंसेवी संस्था स्वजल परियोजना संचालित कर रही है, इस आशय का एक बोर्ड वहाँ पर लगा था। हम बोर्ड पढ़ ही रहे थे कि तीन-चार लोगों ने हमारा रास्ता रोक लिया। वे शराब पिए हुए थे। पास की दुकान में उनके आधा दर्जन मित्र खड़े दिखाई पड़ रहे थे। वे निहायत पुलिसिया अन्दाज में हमारा परिचय पूछने लगे। इस अप्रत्याशित घटना से हम हतप्रभ रह गए। हमने उन्हें समझाने का प्रयास किया। लेकिन ऐसा लगता था कि वे उलझने की नियत से ही आए हैं। कुछ गर्मा-गर्मी भी होने लगी। यह सड़क की संस्कृति का खास नमूना था। अब तक हम ऐसे क्षेत्र से गुजर कर आ रहे थे, जहाँ सड़क नहीं पहुँची थी और अभावों के बीच भी लोगों की आत्मीयता और सरस स्वभाव बना हुआ था। लेकिन यहाँ सड़क पहुँच गई है और उसके साथ लम्पटई भी। काफी हुज्जत के बाद शराबियों के इस दल से तब छुटकारा मिला जब एक जीप समाने आकर रुकी। जीप वाले से हमने जौलजीवी छोड़ने को कहा। वह घर लौट रहा था लेकिन हमें परेशान जान कर वह जौलजीवी चलने को तैयार हो गया।

यहाँ से जौलजीवी की ओर जाने वाली सड़क कुछ दूर तक खेतों के बीचों-बीच चलती है। तीतरी और बगड़ीहाट गाँवों के बाद सड़क कुछ दूर जंगल से गुजरती है और फिर पिथौरागढ़-दार्चुला मुख्यमार्ग से मिल जाती है। सामने नेपाल के बांकू, कुर्ज्वानी, सलेती, उक्कू आदि अनेक बड़े-बड़े गाँव हैं, जो इस घाटी के अधिकांश गाँवों की तरह विस्तृत सेरों से सम्पन्न हैं। फैल हुए सेरे, बड़े और भव्य मकान इनकी सम्पन्नता का बखान कर रहे थे।

गाँव को निहारने का क्रम ड्राइवर की बातचीत ने तोड़ा। वह बता रहा था कि फौज से पेंशन आने के बाद उसने जीप खरीद ली। ऊपर भागीचौरा गाँव में उसका भरा-पूरा परिवार है और अच्छा कारोबार है। पहाड़ के सामान्य फौजियों की ही तरह वह गपोड़ था। जैसे ही एक खतरनाक चट्टान से होकर जीप आगे बढ़ी, ड्राइवर की एकाग्रता बनाए रखने के लिहाज से हमने बातचीत में हिस्सा लेना बन्द कर दिया। वह हमारी मनःस्थिति ताड़ गया और कहने लगा कि मैं तो ऐसी सड़कों में भी 70-80 की स्पीड से गाड़ी चला सकता हूँ। कहीं सचमुच में ऐसा कर न दें, यह सोच कर हम घबरा गए। लेकिन था वह बड़ा अनुभवी व होशियार। जौलजीवी में पैसे देते वक्त जब उसकी सांसों से सामना हुआ तो उसकी गप्पों का राज खुल गया। भाई ने आज जल्दी और कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली है। सुरक्षित जौलजीवी पहुँचने पर हमने राहत की साँस ली।

जौलजीवी काली और गोरी के संगम पर स्थित छोटा कस्बा है जो पिथौरागढ़-दार्चुला मोटरमार्ग पर स्थित है। यहाँ सेनेपाल जाने के लिए एक झूलापुल बना हुआ है। नेपाल के लगे हुए हिस्सों की जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति केन्द्र के तौर पर यह कस्बा व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र भी है। जाड़ों में दार्चुला तहसील के ऊँचाई वाले स्थानों में रहने वाले जनजातीय समाज के लोग जब अपनी भेड़ बकरियों के साथ मिचली घाटियों की ओर आते हैं तो कुछ परिवार जौलजीवी में भी जाड़ों भर रहते हैं। काली और गोरी के संगम पर यहाँ नवम्बर में एक बड़ा मेला लगता है। जनजीवन में आए बदलाव के कारण यद्यपि यह मेला अपना पुराना स्वरूप खो चुका है लेकिन एक जमाने में नेपाल, तिब्बत और भारत के व्यापारी और सामान्य जन इस स्थान पर जुटते थे। तब यह तिब्बती ऊन, भारतीय खाद्यान्न और नेपाली घोड़ों के व्यापार के लिए दूर-दूर तक ख्यात था। समुद्र की सतह से जौलजीवी कस्बा 735 मी. की ऊँचाई पर है। नेपाल सरकार की ओर से पंचेश्वर बाँध के डूब क्षेत्र के बारे में जो जानकारियाँ अब तक मिली हैं वे बताती हैं कि बाँध बन जाने के बाद जौलजीवी 35 मी. गहरे जलाशय में समा जाएगा।

एक होटल में रात के ठहरने की व्यवस्था हो गई। शराबियों के आतंक का होटल में खासा असर था। चारों ओर गन्दगी और अराजकता का साम्राज्य। उत्तराखण्ड के कस्बों का यह सामान्य चित्र है। पहाड़ के जवान चेहरों में हम दिशाहीनता की इन इबारतों को पढ़ सकते हैं, जिनमें अपनी और अपने परिवेश की सही पहचान और सम्भावनाओं से नितांत अनभिज्ञता झलकती है। जौलजीवी के इस हताश चित्र में हम पंचेश्वर जैसे षड्यंत्रों के खिलाफ तन कर खड़े पहाड़ की छवि को खोजने का सपना देखते हुए दूसरे दिन प्रातः नैनीताल लौट आए।

(इस आलेख की पहली किश्त पहाड़ 14-15 में छपी थी। दूसरी और अन्तिम किश्त अब दी जा रही है।)

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