मेरी यादों का दार्चुला

उत्तराखण्ड
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मेरा जन्म 24 दिसम्बर, 1941 में नेपाल के छोटे से गाँव दार्चुला में हुआ। मेरी माँ का नाम स्व. श्रीमती पदी देवी ऐतवाल और पिता का स्व. दर्जीसिंह ऐतवाल था। अन्तिम तीसरी कन्या होने के कारण मेरे जन्म के अवसर पर किसी प्रकार की खुशी प्रकट नहीं की गयी और जन्मपत्री बनाने को तो प्रश्न ही नहीं था पर मेरे लालन-पालन में दोनों ने कभी कोई कमी नहीं की। उस समय हमारे गाँव में प्राथमिक पाठशाला भी नहीं थी। अतः गाँव वालों ने अपने ही खर्चे से पाठशाला चलाने के लिये एक अध्यापक की नियुक्ति की जो गाँव के बच्चों को अक्षर ज्ञान कराते थे।

मैं उम्र में काफी बड़ी थी अतः अपनी तख्ती (पाटी) लेकर पाठशाला जाने में मुझे झिझक महसूस होती थी। अतः मेरी दीदी जो मेरे से 6 वर्ष बड़ी थी, मेरा आसन व पाटी पहुँचा देती थी। तब मैं बाद में पढ़ने जाती थी। मैंने ‘अ, आ’ तो जल्दी ही सीख ली पर ‘इ’ लिखने में उंगलियाँ मूढ़ हो जाती थीं। ‘इ’ लिखने हेतु दीर्घकाल तक अभ्यास करना पड़ा। पर गुरु जी मुझे बारहखड़ी सिखाने लगे। उसमें भी ‘ङ’ लिखने में मुझे कठिनाई होने लगी। पर गुरु जी का कमरा हमारे मकान के पास में होने के कारण मैं उनके बर्तनों को धो देती थी और कभी-कभी उनका बचा हुआ खाना भी खाती थी। धीरे-धीेरे पढ़ने की रुचि बढ़ गयी और एक ही वर्ष में कक्षा 1 में पहुँच गई

मैंने कक्षा 2 अपने रिश्तेदारों के यहाँ गुंजी गाँव से तथा कक्षा 5 गर्ब्यांग गाँव से पास किया। गर्ब्यांग हमारे गाँव से 4-5 किलोमीटर दूर है। रोज सुबह खाकर जाते थे और साथ में नाश्ता भी लेकर जाते थे। पर कभी-कभी नाश्ता रास्ते में ही खा लेते थे। इस कारण समय पर पाठशाला नहीं पहुँच पाते थे। इस पर गुरु जी हमें सजा देते थे। जिससे बाद में हम लोग समय पर पाठशाला पहुँचने लगे। पढ़ने-लिखने की अपेक्षा मुझे घूमना-फिरना अधिक अच्छा लगता था। अतः जब पिताजी व्यापार केे लिये तिब्बत में ताकलाकोट मण्डी जाते थे तो उनके साथ घोड़े पर बैठकर तिब्बत पहुँच जाती थी। मेरे कपड़े वहीं सिला लिये जाते थे। तिब्बत में ताकलाकोट मण्डी में व्यापार हेतु आए अपने गाँव के व्यापारी रिश्तेदारों का पानी भरती थी और इधर-उधर घूमा करती थी सभी मुझे बहुत प्यार करते थे क्योंकि मैं उन लोगों का छोटा-मोटा काम जो कर देती थी।

एक दिन तेल के छींटे पड़ने से पिताजी के पैर जल गये और उन्हें काफी परेशानी झेलनी पड़ी। किसी ने कहा कि नदी के किनारे की काई जले पैर पर लगाने से लाभ होता है। मैं रोज नदी से काई लेकर आती थी और पैर पर लेप लगाती थी। नदी के पास ही मटर का एक खेत था। मैं उस खेत से मटर तोड़कर खाने लगी। खेत के मालिक ने जो कि तिब्बती थे, मुझे पकड़ लिया और गुस्से से मेरी टोपी छीन ली और मुझे वापस नहीं दी। बचपन से ही छोटी-मोटी शैतानी करती रहती थी।

ऐसी ही दूसरी शैतानी की बात से मुझे याद आया कि मैं माता-पिता के साथ खुजोरनाथ जी के दर्शन हेतु जा रही थी। वे रास्ते में मुझे अपनी पीठ पर उठाकर नहीं ले जा रहे थे। मैं जिद करके काफी दूर तक वापस आ गयी। पिताजी ने समझा था कि थोड़ी दूर जाकर फिर वापस आ मिलेगी। पर मैं बहुत दूर तक निकल कर आ गयी। बाद में पिताजी खुद मुझे लेने आए। इस तरह लगभग एक-दो महीने तक मैं तिब्बत के ताकलाकोट मण्डी में रह जाती थी।

कक्षा 6 में, मैं पाँगू (चौदांस) के विद्यालय में भर्ती हुई। यहाँ गाँव में ही बोर्डिंग हाउस था जिसमें लड़के व लड़कियाँ साथ ही रहते थे। ग्रामीण छात्र-छात्राओं का मन इतना निर्मल, कोमल व सख्त होता था कि कभी किसी प्रकार की अप्रिय व अमर्यादित घटना नहीं घटती थी। खाना पकाने के लिये तीन लोगों को रखा गया था। सुबह से शाम तक एक दिन का राशन आदि एक ही छात्र या छात्रा का होता था। मैं कभी-कभी अपना राशन धारचूला से खुद ही उठा कर ले जाती थी। उस समय सुबह व शाम की चाय के साथ गुड़ की टुकड़ी दी जाती थी, जिसे हम कटकी कहते थे। यदि हमारी बारी में मिश्री मिल जाती थी तो हम लोग बहुत खुश होते थे। जेब खर्च के लिये 20 रुपए मिल जाता था तो हम सोचते थे कि बहुत मिल गया। एक बार मेरी बारी थी सारा राशन देने की। पर मेरे पास आटा नहीं था। अतः सुबह ही ज्यूंगती गाड़ घराट में गेहूँ लेकर गयी। रास्ते में बर्फ भी पड़ी थी। समय पर घराट खाली नहीं मिला अतःलौटने में बहुत देर हो गयी। दौड़-दौड़ कर आ रही थी कि गिर पड़ी। काफी चोट आयी पर किसी तरह चारों ओर देखकर उठी और दर्द होने पर भी चलने लगी। हमारे पास बकरियाँ थीं। इस कारण पूरे साल का राशन पिताजी एक ही बार में छोड़ जाते थे। हाँ, सब्जी का इन्तजाम स्वयं करना पड़ता था। उस जमाने में हम लोगों में इतना आत्मविश्वास था कि यदि एक बार घर वाले हमें छोड़ देते थे तो हम अपने आप ही अपनी जिम्मेदारी समझ कर सब अपने आप ही इन्तजाम कर लेते थे।

कक्षा 10 की परीक्षा देने के लिये हमें नारायण नगर, अस्कोट पैदल आना पड़ता था। एक पूरा दिन कमरा ढूंढने में ही लग गया। बड़ी मुश्किल से एक कमरा मिला और मैं वहीं की स्थानीय लड़की के साथ रही जो कक्षा 12 की परीक्षा दे रही थी। खाना खाने हमें होटल में जाना पड़ता था। इस तरह कक्षा 10 पास किया। उन दिनों डिवीजन से हमें कुछ भी सरोकार नहीं था। बस परीक्षा देनी है कभी-कभी बकरी चराने वाले नौकर को घर जाने की छुट्टी देनी पड़ती थी। अतः हम दोनों बहिनें बकरी चराने जाती थीं। बकरियाँ चराना अपने आप में बड़ा कष्टमय और चुनौतिपूर्ण कार्य है। बकरियाँ खो जाने के डर से दिन भर बकरियों को इकट्ठा ही करते रहते थे। बकरियों को हाँकते-हाँकते दिन में इतनी प्यास लगती कि दीदी कहती, ‘मैं काली नदी का पानी पीकर सुखा दूँगी’ और मैं भी कहती कि हाँ, मैं भी सुखा दूँगी। इसी से आप लोग अनुमान लगा सकते हैं कि हमको कितनी प्यास लगती होगी। पर उस समय हमें अपने साथ पानी ले जाने का होश भी नहीं था और घरवालों को भी बच्चों के लिये कुछ इन्तजाम करना है, यह ख्याल नहीं रहता था। शाम को जब घर में बकरियाँ पहुँचती तो पिताजी कहते थे कि सारी बकरियाँ भूखी ही लाये हो। क्या घास ठीक नहीं थी? तब हमने कहा कि खोने के डर से इकट्ठा करते रहते थे। इसी से अनुमान लगा सकतें हैं कि हम कितने नासमझ थे।

कक्षा 10 पास करने के बाद घर में बहुत से लोगों का रिश्ता आने लगा। पिताजी तंग हो गये और कहने लगे कि जाओ, आगे कि पढ़ाई करो। बस फिर क्या था, मैं गाँव के अन्य लड़कों के साथ आगे पढ़ने हेतु पिथौरागढ़ आयी। धारचूला से कनालीछीना तक तीन दिन पैदल चल कर आए। उस समय पिथौरागढ़ में लड़कियों का कोई कॉलेज नहीं था। अतः नैनीताल पढ़ने हेतु जाने का विचार किया। टनकपुर के रास्ते से चल पड़े। टनकपुर से रेल द्वारा यात्रा करनी थी। अतः हम सबसे पहले रेल देखने गये। हमारे साथ के लड़कों में हमारे गाँव के गोपाल सिंह बोहरा ने ही नैनीताल देखा हुआ था। जो अब नेपाल में मेजर जनरल के पद से अवकाश प्राप्त हैं। रेल द्वारा काठगोदाम तक आए फिर बस से नैनीताल पहुँचे। उस समय तल्लीताल में बिहारी होटल में रुके। उसके बाद छात्रावास चन्द्रभवन और एस.आर. छात्रावास में रहकर आगे का विद्याध्ययन किया।

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