मेरे मन की नदी

मेरे मन की नदी
सदी से वृहत् सूर्य से चमक रही है
मेरे पौरुष का यह पानी दृढ़ पहाड़ से टकराता है
टूट-टूट जाता है फिर भी बूँद-बूँद से घहराता है
नृत्य-नाद की नटी तरंगों के छंदों की
जय का ज्वार भरे गाती है कल हंसों से।

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