व्यापार के सिलसिले में पिताजी काली कुमाऊँ से वड्डा आये। मेरा जन्म वड्डा में हुआ फिर पिताजी ने कुछ सम्पत्ति पिथौरागढ़ में भी ली। प्रारम्भिक शिक्षा पिथौरागढ़ (तिलढुकरी) में शुरू हुई। बड़े भाई की असामयिक मृत्यु के बाद परिवार पिथौरागढ़ की सम्पत्ति बेचकर वड्डा चला गया। वहाँ समीप के चौपखिया प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई का सिलसिला चला। तब परगना सोर अल्मोड़ा जिले के अन्तर्गत था। स्कूल बहुत कम थे। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बिल्कुल नहीं थे। चौथी कक्षा की फाइनल परीक्षा लेने अल्मोड़ा से उपनिरीक्षक आते थे। घोड़े में ‘सोला टोपी’ पहने साथ में साईस। उनके भोजन व आवास का दायित्व स्कूल के प्रधानाध्यापक का होता था। छात्रों से बासमती, दाल, घी, सब्जियाँ तथा जलाने की लकड़ी स्वैच्छिक रूप से मँगायी जाती थी। बचा हुआ सामान प्रधानाध्यापक के घर पहुँचाने का नियम था। इसमें किसी को आपत्ति नहीं होती थी। श्री मित्रदेव उपाध्याय प्रधानाध्यापक थे। टोपी पहनना अनिवार्य था तथा इंग्लिश कट स्वीकार नहीं था।
कक्षा चार के बाद बजेटी के मिडिल स्कूल में पढ़ाई जारी रखी। श्री परमानन्द प्रधानाध्यापक थे। कक्षा पाँच से अंग्रेजी पढ़ना आरम्भ किया। कुमौड़ के श्री होशियार सिंह जी के सौजन्य से तीन कमरों का एक अतिरिक्त भवन बना। स्कूल में हॉस्टल भी था। फाइनल परीक्षा देने खेतीखान तथा कनालीछीना के विद्यार्थी भी बजेटी आते थे। सहपाठी व रिश्तेदार श्री हिमांशु जोशी भी खेतीखान से आये। परीक्षा समाप्त होने पर साथ-साथ वड्डा गये।
मिडिल के बाद सरस्वती देव सिंह हाईस्कूल में दाखिला हुआ। तब पिथौरागढ़ में सरकारी हाईस्कूल (घुड़साल) तथा मिशन स्कूल भी थे। श्री मोहन सिंह मल हमारे प्रधानाध्यापक थे। मालदार परिवार की दानशीलता के अनेक उदाहरणों में यह स्कूल भी था। पश्चिम नेपाल के विद्यार्थी ज्यादातर इसी स्कूल में पढ़ने आते थे। मेरे समकालीनों में प्रमुख विद्यार्थियों में सर्वश्री रामबहादुर रावल, उद्धव देव भट्ट तथा लोकेन्द्र बहादुर चंद थे।
तब तक पिथौरागढ़ में इण्टर कॉलेज नहीं था। सौभाग्य से हाईस्कूल पास करने के साल से 11वीं कक्षा शुरू हो गई और दूसरे साल कक्षा बारह। खड्ग सिंह वल्दिया, हरिनन्दन पुनेठा, गुलाब सिंह वल्दिया मेरे सहपाठी थे और हम पहले बैच से हैं। श्री कलानिधि पाण्डे प्रधानाध्यापक थे। कुछ अनुभवी व अच्छे अध्यापक आये। इनमें सबसे योग्य व विस्तृत अध्ययन वाले थे- श्री शिव बल्लभ बहुगुणा। श्री बहुगुणा को मैं अपना सर्वश्रेष्ठ अध्यापक मानता हूँ।
उन दिनों पिथौरागढ़ में दो ही पुस्तक विक्रेता थे। श्री हीरा वल्लभ जोशी तथा श्री केशव दत्त पुनेठा। पाठ्यक्रम की पुस्तकें, कॉपियाँ तथा स्टेशनरी ही मिलती थी। अन्य पुस्तकें लगभग नहीं के बराबर। इस कमी को थोड़ा-बहुत पूरा करने की कोशिश श्री खड्ग सिंह वल्दिया के नेतृत्व में गाँधी वाचन मन्दिर के रूप में हुई। एक कमरा श्री हरिनन्दन पुनेठा के घर में उनके परिवार के सौजन्य से मिला। पुस्तकों का संग्रह अध्ययन को विस्तृत करने में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। सदस्य यदा-कदा गाँवों में जाकर धूम्रपान, मद्यपान के नुकसान पर लोगों को समझाते थे और परिवेश को स्वच्छ रखने का आग्रह करते थे। तब तक पिथौरागढ़ में सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं था। इण्टर के बाद किस विद्यालय में पढ़ा जाय, यह समस्या थी। बनारस, इलाहाबाद या फिर लखनऊ। आम सहमति लखनऊ की बनी। 1953 में लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. प्रथम वर्ष में दाखिला लिया। एक-दो महीने के बाद छात्र यूनियन को लेकर आन्दोलन हुआ। पुलिस फायरिंग में एक छात्र की मृत्यु के बाद विश्वविद्यालय बन्द कर दिया गया और हमें छात्रावास खाली करने का आदेश मिला। लगा कि एक साल बर्बाद हो गया किन्तु दो महीने बाद फिर सामान्य स्थिति हो गई। वार्षिक परीक्षा डेढ़-दो महीने टली। मेरा आखिरी पर्चा 19 मई 1954 को था। मैदानी इलाके में लू व गर्मी का प्रथम अनुभव जैसे-तैसे सहन किया।
टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग 1950-51 में बनकर पूरा हुआ। स्थानीय लोगों में उत्साह था। पिथौरागढ़ से टनकपुर मार्ग की पैदल दूरी 67 मील थी। साधारण लोग इसे तीन दिन में पार करते थे पर अच्छा चलने वाले दो दिन में। मैदान से सामान खच्चरों व घोड़ों में आता था। जुलाई में घाट व चल्थी के कच्चे पुल तोड़ दिये जाते थे। ट्रांसशिपमेंट होता था। झूला पुलों से पैदल जाना पड़ता था। बरसात के कारण कच्चा रास्ता भी बन्द हो जाता था। तब खच्चरों में स्टील ट्रंक व होल्डोल लादकर हमारा दल पैदल चल पड़ता था। पिथौरागढ़ से टनकपुर पहुँचने में पूरा दिन लगता था। धूल से सने हुए व कुछ यात्रियों की उल्टी की बदबू सहनकर अधमरी अवस्था में गन्तव्य स्थान पर पहुँचते थे। हाँ, के.एम.ओ.यू. की बसों में फ्रंट सीट में बैठने की होड़ रहती थी। इस रोड के खुलने के बाद पिथौरागढ़ में सर्वप्रथम वी.आई.पी. सेना प्रमुख जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) के.एम. करियप्पा का आगमन एक बड़ी घटना थी। बस स्टैंड में एकत्रित अपार जन समूह का उत्साह देखने लायक था।
अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मोटर मार्ग बहुत बाद में बना। तब पिथौरागढ़ से अल्मोड़ा की दूरी 54 मील थी। टनकपुर-पिथौरागढ़ पैदल मार्ग में एक कठिन चढ़ाई नौ ड्योढ़ी की मानी जाती थी। पिथौरागढ़-अल्मोड़ा के पैदल मार्ग के बारे में कहावत थी- रौल गौं की सोल धार-काँ हाट काँ बाजार। (हाट-गंगोली हाट, बाजार-पिथौरागढ़)। तब न बिजली थी, न टेलीफोन।
तब पिथौरागढ़ एक छोटा कस्बा था। पुरानी बाजार व नई बाजार। सिमलगैर में थोड़े ही मकान थे। सिलथाम में और भी कम। जहाँ अब बड़ा अस्पताल है, वहाँ एस.डी.एम. का बंगला होता था। पुरानी बाजार की चौक में होली का आयोजन होता था। वड्डा तो और भी छोटा कस्बा था।
तब की शादियाँ सीधी-सादी होती थीं। पतंगी कागज से बंटिंग बनाकर सुतली में लेई से चिपका देते थे। सामने केले के खम्भे। कहीं-कहीं प्रवेश द्वार में शुभ विवाह या स्वागतम- लाल कपड़े में रुई के अक्षर। शराब का प्रचलन बहुत कम या नहीं के बराबर। दमामे, ढोल, तुरही व कहीं-कहीं मशकबीन। दूल्हा पैदल या घोड़े में। एक बुजुर्ग थैली से गुड़ निकालकर बच्चों को देते थे- मिठाई नहीं। गाँव के पास बच्चे पत्ते बिछाकर बारात का स्वागत करते थे। लौटती बार दुल्हन डोली में होती थी। उसे देखने के लिये लड़कियाँ बहुत उत्सुक रहती थीं। यों ससुराल में कुछ समय रहकर दुल्हन मायके आती थी पर वापसी में आधा किमी तक जोर-जोर से रोने का रिवाज था। तब टेन्ट हाउस नहीं थे और जनरेटर भी नहीं। सम्पन्न लोगों से पेट्रोमैक्स, दरियाँ, कालीन, थाली, गिलास तथा बड़े बर्तन माँगकर आयोजन होता था। अब तो ग्राम पंचायतों के पास बर्तन हैं व बाकी टेन्ट हाउस की कृपा से सब जरूरत का सामान मिल जाता है। शादी में दहेज माँगना बुरा समझा जाता था। पर सब लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार बर्तन, कपड़े, गहने इत्यादि देते थे। रंगीन का छाता के अभाव में काले छाते के ऊपर लाल रंग का शौल रख दिया जाता था। यही हाल ‘ब्यौली पिटार’ का भी होता था। तांबे के बड़े तोले, घड़े इत्यादि इसलिये भी दिये जाते थे कि सामूहिक भोज इत्यादि में काम आयें। विवाह में थाली, कटोरे, गिलास देने का रिवाज था। नामकरण के उपलक्ष्य में चाँदी की एक तोले की धागुली देने का रिवाज था। तब चाँदी दो रुपये तोला थी व सोना 80 रुपये तोला।
मेलों का आकर्षण ऐसा था कि दूर-दूर से लोग पैदल आते थे। मोस्टामानू, ध्वज, थलकेदार, चौपखिया के मेले ज्यादा प्रसिद्ध थे। हमें मेले में जाने के लिये एक रुपया मिलता था जिससे खोया (शुद्ध), जलेबी, खीरा (ककड़ी), लेमोनेड ले सकते थे। कुमौड़ की हिलजात्रा का अलग आकर्षण था। मकर संक्रान्ति का रामेश्वर का मेला भी देखा। चूँकि घाट-गुरना मोटर रोड बन रही थी, अतः थली के रास्ते जाना पड़ा। मेले में मूक चलचित्र पहली बार देखा। रामलीला का आयोजन भी एक वार्षिक घटना थी। पिथौरागढ़ की रामलीला भव्य भी थी और इलाके में सबसे समृद्ध। वड्डा में भी आयोजन होता था। सबको जमीन में बैठना पड़ता था। समझदार लोग बोरियाँ और आसन आदि ले आते थे। पाँच-दस कुर्सियाँ गणमान्य लोगों के लिये होती थीं।
तब मैदानी इलाकों से नौटंकी व कठपुतली वाले भी अपना प्रदर्शन करने आते थे। यह नया अनुभव था। गरम पानी के केशवदत्ता का एकल प्रदर्शन सावित्री सत्यवान तथा थाली नृत्य भी देखने का अवसर मिला। टी.वी. तो नहीं था, रेडियो भी इक्के-दुक्के। श्री गंगाराम पुनेठा के पास एक रेडियो था। बाद में कैप्टन शाही ने सामुदायिक रेडियो प्रदान किया। गाँधी जी की हत्या का समाचार तभी सुना। अखबार तीन-चार दिन में पहुँचते थे। सामुदायिक रेडियो पुराने डाक बंगले में रखा गया। इससे पहले 15 अगस्त 1947 का समारोह बड़े उत्साह से मनाया गया। बारिश के बावजूद लोगों का जोश देखने लायक था। छात्रों को घी में बनी एक-एक पाव जलेबियाँ बाँटी गईं। सबसे पहले धनीलाल का सिनेमा हॉल चला फिर श्री हरि लाल शाह का टेण्ट वाला सिनेमा जो जनरेटर से चलते थे। देवसिंह मैदान में फुटबॉल के मैच होते थे। अपनी-अपनी टीमों के समर्थक बड़ी संख्या में आते थे। ज्यादा खिलाड़ी भूतपूर्व सैनिक थे और बड़ी उम्र के बावजूद अच्छी क्षमता रखते थे।
उन दिनों पिथौरागढ़ में ब्रुक बॉण्ड तथा लिप्टन के गोदाम थे। बाजार में स्थानीय डिलीवरी होती थी पर वड्डा, गुरना, सातसिलिंग आदि के लिये नियत दिन में कार्यकर्ता घोड़ों में चाय ले जाकर दुकानदारों को देता था और पिछले हफ्ते की वसूली करता था। बेरीनाग, चौकोड़ी की औरेंज पीको व अन्य चाय भी आती थी। तब इसकी गुणवत्ता बहुत अच्छी थी। लीवर ब्रदर्स (हिन्दुस्तान लीवर) का अपने उत्पादों के वितरण का बढ़िया इन्तजाम था।
बरसात के मौसम में गाँवों में आठूँ का आयोजन होता था। हम लोग सुवाकोट की आठूँ देखने जाते थे। बड़े उल्लास से लोग भाग लेते थे। थोड़ा-बहुत मुझे याद है-
सिलगड़ी का पल्ला चाला गिर खेलन्या गड़ो।
तैं होये हिंसालू तोप्पो, मैं उड़न्या चड़ो।
सर्ग भरीं तारा छन गणि सकलै की।
मेरी जसी गैली माया राखी सकलै की।
वड्डा से हम लोग कपड़ों के टुकड़ों की मशाल मिट्टी तेल में भिगोकर ले जाते थे। वापसी में अंधेरा हो जाता था। झाड़ियों में छिपाये हुए मशाल जलाकर घर पहुँचते थे। वड्डा की होली में सुवाकोट के गढ़वाल खोला वाले गाने आते थे। खड़ी होली का ज्यादा रिवाज था। होली में शालीनता होती थी। चैत्र के महीने में द्यौल समेत की पूजा का भी आयोजन होता था।
शादियों में ‘महिला संगीत’ के नाम पर ‘रत्याली’ होती थी। बारात में स्त्रियाँ नहीं जाती थीं। दूल्हे के घर में नाच-गाने के अलावा स्वांग भी होते थे पर मर्दों का प्रवेश वर्जित था। फिल्मी गानों का प्रचलन नहीं हुआ था।
अपने इलाके के पड़ोस के गाँवों के अलावा एक बार कनालीछीना, नारायणनगर व अस्कोट पैदल गया था। विश्विद्यालय में ग्रीष्मावकाश में एक बार झूलाघाट होते हुए डोटी के रियाँसी गाँव तक गये। तब नेपाल नरेश महेन्द्र वीर विक्रम शाह पश्चिम नेपाल भ्रमण में आये थे। उन्हें घोड़े में सवार देखा। नेपाली प्रहरी एकत्रित जन समूह को राजा के दाहिने ओर खड़ा नहीं होने के लिये आगाह कर रहे थे। इस अंचल में विकास की गति हमारे इलाके से भी कम थी।
पढ़ने के लिये टनकपुर-पीलीभीत होते हुए लखनऊ जाते थे। नैनीताल इत्यादि देखने की इच्छा हुई। एक चचेरे भाई रामगढ़ में डॉक्टर थे, उनके पास जाकर रामगढ़ के फलों के बगीचे देखने का अवसर मिला। अब तो बगीचों की जगह कॉटेजों की भरमार है। तभी मुक्तेश्वर व भवाली भी देखा और फिर नैनीताल। तब का नैनीताल सुन्दर था। स्वच्छ ताल, हरियाली तथा कम घर। सार्वजनिक शौचालयों में दुर्गन्ध का नाम नहीं।
जनवरी 1953 में मैं व ईजा पितृ तुल्य हरिदत्त पुनेठा जी के परिवार के साथ उपनयन संस्कार के लिये हरिद्वार गये। इस यात्रा में पहली बार मैदानी इलाके का दर्शन हुआ और रेलगाड़ी में भी बैठे। हरिद्वार में लगभग दो हफ्ते बिताये तथा आस-पास के दर्शनीय स्थल व ऋषिकेश भी देखा। इसी वर्ष जुलाई में लखनऊ विश्वविद्यालय में भी प्रवेश लिया।
1951 में हाईस्कूल पास करने के बाद मैं पहली बार काली कुमाऊँ गया। मेरी ईजा व बड़े भाई साथ थे। के.एम.ओ.यू. की बस से बाराकोट तक फिर झिरकनी-मेरी दो मामियों का मायका-बाराकोट से लोहाघाट-चम्पावत फिर च्यूराखर्क जहाँ बड़ी मामी रहती थी। वहाँ से पैतृक गाँव टाक-खर्क। रास्ते में दूर के एक रिश्तेदार मिले। बैठने के लिये कहा व चाय के अभाव में मेथी की चाय, चीनी के अभाव में गुड़, गिलास कम होने पर लोटे व कटोरियों में चाय दी गयी। इस आन्तरिक स्वागत को मैं अब तक नहीं भूला हूँ। आज वैसी आन्तरिकता कभी-कभी ही देखने को मिलती है। वहाँ से भगाना गाँव होते हुए अपनी ननिहाल गरसाड़ी गये। वहाँ मामा जी से मिले। शायद मेरी ईजा सोर जाने के बाद पहली बार अपने मायके आई थी। बाद में काली कुमाऊँ का शेष अंचल तथा कुमाऊँ-गढ़वाल का विस्तृत भ्रमण मैंने सरकारी नौकरी में असम से गृह मंत्रालय व मंत्रिमण्डल सचिवालय में प्रतिनियुक्ति में किया। नैनीताल तथा रानीखेत में छः साल से अधिक समय तक रहा।
कक्षा चार के बाद बजेटी के मिडिल स्कूल में पढ़ाई जारी रखी। श्री परमानन्द प्रधानाध्यापक थे। कक्षा पाँच से अंग्रेजी पढ़ना आरम्भ किया। कुमौड़ के श्री होशियार सिंह जी के सौजन्य से तीन कमरों का एक अतिरिक्त भवन बना। स्कूल में हॉस्टल भी था। फाइनल परीक्षा देने खेतीखान तथा कनालीछीना के विद्यार्थी भी बजेटी आते थे। सहपाठी व रिश्तेदार श्री हिमांशु जोशी भी खेतीखान से आये। परीक्षा समाप्त होने पर साथ-साथ वड्डा गये।
मिडिल के बाद सरस्वती देव सिंह हाईस्कूल में दाखिला हुआ। तब पिथौरागढ़ में सरकारी हाईस्कूल (घुड़साल) तथा मिशन स्कूल भी थे। श्री मोहन सिंह मल हमारे प्रधानाध्यापक थे। मालदार परिवार की दानशीलता के अनेक उदाहरणों में यह स्कूल भी था। पश्चिम नेपाल के विद्यार्थी ज्यादातर इसी स्कूल में पढ़ने आते थे। मेरे समकालीनों में प्रमुख विद्यार्थियों में सर्वश्री रामबहादुर रावल, उद्धव देव भट्ट तथा लोकेन्द्र बहादुर चंद थे।
तब तक पिथौरागढ़ में इण्टर कॉलेज नहीं था। सौभाग्य से हाईस्कूल पास करने के साल से 11वीं कक्षा शुरू हो गई और दूसरे साल कक्षा बारह। खड्ग सिंह वल्दिया, हरिनन्दन पुनेठा, गुलाब सिंह वल्दिया मेरे सहपाठी थे और हम पहले बैच से हैं। श्री कलानिधि पाण्डे प्रधानाध्यापक थे। कुछ अनुभवी व अच्छे अध्यापक आये। इनमें सबसे योग्य व विस्तृत अध्ययन वाले थे- श्री शिव बल्लभ बहुगुणा। श्री बहुगुणा को मैं अपना सर्वश्रेष्ठ अध्यापक मानता हूँ।
उन दिनों पिथौरागढ़ में दो ही पुस्तक विक्रेता थे। श्री हीरा वल्लभ जोशी तथा श्री केशव दत्त पुनेठा। पाठ्यक्रम की पुस्तकें, कॉपियाँ तथा स्टेशनरी ही मिलती थी। अन्य पुस्तकें लगभग नहीं के बराबर। इस कमी को थोड़ा-बहुत पूरा करने की कोशिश श्री खड्ग सिंह वल्दिया के नेतृत्व में गाँधी वाचन मन्दिर के रूप में हुई। एक कमरा श्री हरिनन्दन पुनेठा के घर में उनके परिवार के सौजन्य से मिला। पुस्तकों का संग्रह अध्ययन को विस्तृत करने में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। सदस्य यदा-कदा गाँवों में जाकर धूम्रपान, मद्यपान के नुकसान पर लोगों को समझाते थे और परिवेश को स्वच्छ रखने का आग्रह करते थे। तब तक पिथौरागढ़ में सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं था। इण्टर के बाद किस विद्यालय में पढ़ा जाय, यह समस्या थी। बनारस, इलाहाबाद या फिर लखनऊ। आम सहमति लखनऊ की बनी। 1953 में लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. प्रथम वर्ष में दाखिला लिया। एक-दो महीने के बाद छात्र यूनियन को लेकर आन्दोलन हुआ। पुलिस फायरिंग में एक छात्र की मृत्यु के बाद विश्वविद्यालय बन्द कर दिया गया और हमें छात्रावास खाली करने का आदेश मिला। लगा कि एक साल बर्बाद हो गया किन्तु दो महीने बाद फिर सामान्य स्थिति हो गई। वार्षिक परीक्षा डेढ़-दो महीने टली। मेरा आखिरी पर्चा 19 मई 1954 को था। मैदानी इलाके में लू व गर्मी का प्रथम अनुभव जैसे-तैसे सहन किया।
टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग 1950-51 में बनकर पूरा हुआ। स्थानीय लोगों में उत्साह था। पिथौरागढ़ से टनकपुर मार्ग की पैदल दूरी 67 मील थी। साधारण लोग इसे तीन दिन में पार करते थे पर अच्छा चलने वाले दो दिन में। मैदान से सामान खच्चरों व घोड़ों में आता था। जुलाई में घाट व चल्थी के कच्चे पुल तोड़ दिये जाते थे। ट्रांसशिपमेंट होता था। झूला पुलों से पैदल जाना पड़ता था। बरसात के कारण कच्चा रास्ता भी बन्द हो जाता था। तब खच्चरों में स्टील ट्रंक व होल्डोल लादकर हमारा दल पैदल चल पड़ता था। पिथौरागढ़ से टनकपुर पहुँचने में पूरा दिन लगता था। धूल से सने हुए व कुछ यात्रियों की उल्टी की बदबू सहनकर अधमरी अवस्था में गन्तव्य स्थान पर पहुँचते थे। हाँ, के.एम.ओ.यू. की बसों में फ्रंट सीट में बैठने की होड़ रहती थी। इस रोड के खुलने के बाद पिथौरागढ़ में सर्वप्रथम वी.आई.पी. सेना प्रमुख जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) के.एम. करियप्पा का आगमन एक बड़ी घटना थी। बस स्टैंड में एकत्रित अपार जन समूह का उत्साह देखने लायक था।
अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मोटर मार्ग बहुत बाद में बना। तब पिथौरागढ़ से अल्मोड़ा की दूरी 54 मील थी। टनकपुर-पिथौरागढ़ पैदल मार्ग में एक कठिन चढ़ाई नौ ड्योढ़ी की मानी जाती थी। पिथौरागढ़-अल्मोड़ा के पैदल मार्ग के बारे में कहावत थी- रौल गौं की सोल धार-काँ हाट काँ बाजार। (हाट-गंगोली हाट, बाजार-पिथौरागढ़)। तब न बिजली थी, न टेलीफोन।
तब पिथौरागढ़ एक छोटा कस्बा था। पुरानी बाजार व नई बाजार। सिमलगैर में थोड़े ही मकान थे। सिलथाम में और भी कम। जहाँ अब बड़ा अस्पताल है, वहाँ एस.डी.एम. का बंगला होता था। पुरानी बाजार की चौक में होली का आयोजन होता था। वड्डा तो और भी छोटा कस्बा था।
तब की शादियाँ सीधी-सादी होती थीं। पतंगी कागज से बंटिंग बनाकर सुतली में लेई से चिपका देते थे। सामने केले के खम्भे। कहीं-कहीं प्रवेश द्वार में शुभ विवाह या स्वागतम- लाल कपड़े में रुई के अक्षर। शराब का प्रचलन बहुत कम या नहीं के बराबर। दमामे, ढोल, तुरही व कहीं-कहीं मशकबीन। दूल्हा पैदल या घोड़े में। एक बुजुर्ग थैली से गुड़ निकालकर बच्चों को देते थे- मिठाई नहीं। गाँव के पास बच्चे पत्ते बिछाकर बारात का स्वागत करते थे। लौटती बार दुल्हन डोली में होती थी। उसे देखने के लिये लड़कियाँ बहुत उत्सुक रहती थीं। यों ससुराल में कुछ समय रहकर दुल्हन मायके आती थी पर वापसी में आधा किमी तक जोर-जोर से रोने का रिवाज था। तब टेन्ट हाउस नहीं थे और जनरेटर भी नहीं। सम्पन्न लोगों से पेट्रोमैक्स, दरियाँ, कालीन, थाली, गिलास तथा बड़े बर्तन माँगकर आयोजन होता था। अब तो ग्राम पंचायतों के पास बर्तन हैं व बाकी टेन्ट हाउस की कृपा से सब जरूरत का सामान मिल जाता है। शादी में दहेज माँगना बुरा समझा जाता था। पर सब लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार बर्तन, कपड़े, गहने इत्यादि देते थे। रंगीन का छाता के अभाव में काले छाते के ऊपर लाल रंग का शौल रख दिया जाता था। यही हाल ‘ब्यौली पिटार’ का भी होता था। तांबे के बड़े तोले, घड़े इत्यादि इसलिये भी दिये जाते थे कि सामूहिक भोज इत्यादि में काम आयें। विवाह में थाली, कटोरे, गिलास देने का रिवाज था। नामकरण के उपलक्ष्य में चाँदी की एक तोले की धागुली देने का रिवाज था। तब चाँदी दो रुपये तोला थी व सोना 80 रुपये तोला।
मेलों का आकर्षण ऐसा था कि दूर-दूर से लोग पैदल आते थे। मोस्टामानू, ध्वज, थलकेदार, चौपखिया के मेले ज्यादा प्रसिद्ध थे। हमें मेले में जाने के लिये एक रुपया मिलता था जिससे खोया (शुद्ध), जलेबी, खीरा (ककड़ी), लेमोनेड ले सकते थे। कुमौड़ की हिलजात्रा का अलग आकर्षण था। मकर संक्रान्ति का रामेश्वर का मेला भी देखा। चूँकि घाट-गुरना मोटर रोड बन रही थी, अतः थली के रास्ते जाना पड़ा। मेले में मूक चलचित्र पहली बार देखा। रामलीला का आयोजन भी एक वार्षिक घटना थी। पिथौरागढ़ की रामलीला भव्य भी थी और इलाके में सबसे समृद्ध। वड्डा में भी आयोजन होता था। सबको जमीन में बैठना पड़ता था। समझदार लोग बोरियाँ और आसन आदि ले आते थे। पाँच-दस कुर्सियाँ गणमान्य लोगों के लिये होती थीं।
तब मैदानी इलाकों से नौटंकी व कठपुतली वाले भी अपना प्रदर्शन करने आते थे। यह नया अनुभव था। गरम पानी के केशवदत्ता का एकल प्रदर्शन सावित्री सत्यवान तथा थाली नृत्य भी देखने का अवसर मिला। टी.वी. तो नहीं था, रेडियो भी इक्के-दुक्के। श्री गंगाराम पुनेठा के पास एक रेडियो था। बाद में कैप्टन शाही ने सामुदायिक रेडियो प्रदान किया। गाँधी जी की हत्या का समाचार तभी सुना। अखबार तीन-चार दिन में पहुँचते थे। सामुदायिक रेडियो पुराने डाक बंगले में रखा गया। इससे पहले 15 अगस्त 1947 का समारोह बड़े उत्साह से मनाया गया। बारिश के बावजूद लोगों का जोश देखने लायक था। छात्रों को घी में बनी एक-एक पाव जलेबियाँ बाँटी गईं। सबसे पहले धनीलाल का सिनेमा हॉल चला फिर श्री हरि लाल शाह का टेण्ट वाला सिनेमा जो जनरेटर से चलते थे। देवसिंह मैदान में फुटबॉल के मैच होते थे। अपनी-अपनी टीमों के समर्थक बड़ी संख्या में आते थे। ज्यादा खिलाड़ी भूतपूर्व सैनिक थे और बड़ी उम्र के बावजूद अच्छी क्षमता रखते थे।
उन दिनों पिथौरागढ़ में ब्रुक बॉण्ड तथा लिप्टन के गोदाम थे। बाजार में स्थानीय डिलीवरी होती थी पर वड्डा, गुरना, सातसिलिंग आदि के लिये नियत दिन में कार्यकर्ता घोड़ों में चाय ले जाकर दुकानदारों को देता था और पिछले हफ्ते की वसूली करता था। बेरीनाग, चौकोड़ी की औरेंज पीको व अन्य चाय भी आती थी। तब इसकी गुणवत्ता बहुत अच्छी थी। लीवर ब्रदर्स (हिन्दुस्तान लीवर) का अपने उत्पादों के वितरण का बढ़िया इन्तजाम था।
बरसात के मौसम में गाँवों में आठूँ का आयोजन होता था। हम लोग सुवाकोट की आठूँ देखने जाते थे। बड़े उल्लास से लोग भाग लेते थे। थोड़ा-बहुत मुझे याद है-
सिलगड़ी का पल्ला चाला गिर खेलन्या गड़ो।
तैं होये हिंसालू तोप्पो, मैं उड़न्या चड़ो।
सर्ग भरीं तारा छन गणि सकलै की।
मेरी जसी गैली माया राखी सकलै की।
वड्डा से हम लोग कपड़ों के टुकड़ों की मशाल मिट्टी तेल में भिगोकर ले जाते थे। वापसी में अंधेरा हो जाता था। झाड़ियों में छिपाये हुए मशाल जलाकर घर पहुँचते थे। वड्डा की होली में सुवाकोट के गढ़वाल खोला वाले गाने आते थे। खड़ी होली का ज्यादा रिवाज था। होली में शालीनता होती थी। चैत्र के महीने में द्यौल समेत की पूजा का भी आयोजन होता था।
शादियों में ‘महिला संगीत’ के नाम पर ‘रत्याली’ होती थी। बारात में स्त्रियाँ नहीं जाती थीं। दूल्हे के घर में नाच-गाने के अलावा स्वांग भी होते थे पर मर्दों का प्रवेश वर्जित था। फिल्मी गानों का प्रचलन नहीं हुआ था।
अपने इलाके के पड़ोस के गाँवों के अलावा एक बार कनालीछीना, नारायणनगर व अस्कोट पैदल गया था। विश्विद्यालय में ग्रीष्मावकाश में एक बार झूलाघाट होते हुए डोटी के रियाँसी गाँव तक गये। तब नेपाल नरेश महेन्द्र वीर विक्रम शाह पश्चिम नेपाल भ्रमण में आये थे। उन्हें घोड़े में सवार देखा। नेपाली प्रहरी एकत्रित जन समूह को राजा के दाहिने ओर खड़ा नहीं होने के लिये आगाह कर रहे थे। इस अंचल में विकास की गति हमारे इलाके से भी कम थी।
पढ़ने के लिये टनकपुर-पीलीभीत होते हुए लखनऊ जाते थे। नैनीताल इत्यादि देखने की इच्छा हुई। एक चचेरे भाई रामगढ़ में डॉक्टर थे, उनके पास जाकर रामगढ़ के फलों के बगीचे देखने का अवसर मिला। अब तो बगीचों की जगह कॉटेजों की भरमार है। तभी मुक्तेश्वर व भवाली भी देखा और फिर नैनीताल। तब का नैनीताल सुन्दर था। स्वच्छ ताल, हरियाली तथा कम घर। सार्वजनिक शौचालयों में दुर्गन्ध का नाम नहीं।
जनवरी 1953 में मैं व ईजा पितृ तुल्य हरिदत्त पुनेठा जी के परिवार के साथ उपनयन संस्कार के लिये हरिद्वार गये। इस यात्रा में पहली बार मैदानी इलाके का दर्शन हुआ और रेलगाड़ी में भी बैठे। हरिद्वार में लगभग दो हफ्ते बिताये तथा आस-पास के दर्शनीय स्थल व ऋषिकेश भी देखा। इसी वर्ष जुलाई में लखनऊ विश्वविद्यालय में भी प्रवेश लिया।
1951 में हाईस्कूल पास करने के बाद मैं पहली बार काली कुमाऊँ गया। मेरी ईजा व बड़े भाई साथ थे। के.एम.ओ.यू. की बस से बाराकोट तक फिर झिरकनी-मेरी दो मामियों का मायका-बाराकोट से लोहाघाट-चम्पावत फिर च्यूराखर्क जहाँ बड़ी मामी रहती थी। वहाँ से पैतृक गाँव टाक-खर्क। रास्ते में दूर के एक रिश्तेदार मिले। बैठने के लिये कहा व चाय के अभाव में मेथी की चाय, चीनी के अभाव में गुड़, गिलास कम होने पर लोटे व कटोरियों में चाय दी गयी। इस आन्तरिक स्वागत को मैं अब तक नहीं भूला हूँ। आज वैसी आन्तरिकता कभी-कभी ही देखने को मिलती है। वहाँ से भगाना गाँव होते हुए अपनी ननिहाल गरसाड़ी गये। वहाँ मामा जी से मिले। शायद मेरी ईजा सोर जाने के बाद पहली बार अपने मायके आई थी। बाद में काली कुमाऊँ का शेष अंचल तथा कुमाऊँ-गढ़वाल का विस्तृत भ्रमण मैंने सरकारी नौकरी में असम से गृह मंत्रालय व मंत्रिमण्डल सचिवालय में प्रतिनियुक्ति में किया। नैनीताल तथा रानीखेत में छः साल से अधिक समय तक रहा।
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