मध्यप्रदेश के लिए कृषि वास्तविक अर्थों में जीवन रेखा रही है। विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे जब पहले ''राज्य'' पर निबंध लिखते थे तो उस निबंध का पहला वाक्य यही होता था कि मध्यप्रदेश एक कृषि प्रधान राज्य है, यहां की तीन चौथाई जनसंख्या कृषि और कृषि से जुड़े व्यवसाय के जरिये जीवनयापन करती है और यही व्यावसायिक एकरूपता समाज को वास्तव में एक सूत्र में पिरोने का काम करती है। परन्तु आज की स्थिति में निश्चित रूप से निबंध की शुरूआती पंक्तियां राज्य के वास्तविक रूप को पेश नहीं करती है।
अब कृषि जीवनयापन की सहज संस्कृति नहीं बल्कि एक चुनौतीपूर्ण जोखिम भरा काम बन चुका है। नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्वारा किसानों की कर्जदारी (ऋणग्रस्तता) पर किया गया अध्ययन यह बताता है कि मध्यप्रदेश के कुल 64 लाख किसानों में से 32 लाख किसान कर्जे के बोझ तले दबे हुये हैं। हर किसान पर औसतन 14128 रूपये का कर्ज है। बैंक की प्रक्रिया और अमानवीय वसूली प्रक्रिया के कारण उनका सरकारी वित्तीय संस्थानों से विश्वांस कम हुआ है। अब भी 40 प्रतिशत कर्ज गैर -सरकारी स्रोतों से किसानों के प्रदेश में मिलता है।
अतीत की बात करना एक चुनौतीपूर्ण स्वर्णयुग की चर्चा करने जैसा है। वर्तमान यह बताता है कि मध्यप्रदेश में भी चूंकि सरकार ने आर्थिक उदारवाद की नीतियों को नीतिगत रूप से स्वीकार कर लिया है इसलिये कृषि को भी अब संवेदनशील नजरिये से देखे जाने की बजाये खुले बाजार के एक पक्ष के रूप में ही देखा जायेगा। किसान अब स्वयं एक उत्पादक के बजाये बजार का उपभोक्ता है। हम संदर्भ लें मध्यप्रदेश के वित्तमंत्री के वर्ष 2006-2007 के बजट भाषण का। जिसमें वे कहते है। कि ''कृषि के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने के लिये अब मंहगे आदानों का महत्व बढ़ गया है परन्तु मौसम की अनश्चितता के कारण कृषि में अस्थिरता बढ़ रही है। अर्थव्यवस्था के वैश्विकीकरण् के कारण जहां एक तरफ विकास की नई संभावनायें उपलब्ध हुई है, वहीं नई चुनौतियां भी मिल रही है।''
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राज्य के सकल घरेलू |
कृषि पर निर्भर |
1960-61 |
59.9 |
79.3 |
1970-71 |
55.9 |
79.4 |
1980-81 |
43.6 |
76.2 |
1990-91 |
38.2 |
75.3 |
2000-01 |
25.8 |
72.9 |
स्वतंत्रता के बाद विकास का अध्ययन करने के एक स्पष्ट सीख उभकर आती है। वह सीख यह है कि देश में विकास के अवसरों और संसाधनों का एक समान वितरण नहीं हुआ है। किसी राज्य को ज्यादा फायदा मिल तो किसी को कम। एक तथ्य के रूप में हम वर्ष 2000-01 के (तत्कालीन चालू मूल्य) राज्य मे प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 10,803 रूपये था। जबकि यही उत्पाद पंजाब में 25,048 रूपये और 27,742 रूपये यानी दुगना था। मध्यप्रदेश प्राकृतिक संसाधनों और कृषि क्षेत्र में संभावनाओं के मामले में कभी कमतर नहीं रहा किन्तु उन संभावनाओं का उपयोग करने में यह राज्य लगातार पिछड़ता चला गया।
और आज स्थिति यह है कि कृषि पर निर्भरता तो कम नहीं हुई बल्कि उसका सामाजिक अर्थव्यवस्था में योगदान जरूर कम होता गया। प्रदेश में खेती सकल राज्य घरेलू उत्पाद में कितना योगदान देती है? और कितनी जनसंख्या इस पर निर्भर है? इन दो प्रश्नोंद का विश्लेषण स्थिति को ज्यादा स्पष्ट कर देता हैं -
उपरोक्त तालिका बताती है कि 1960-61 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में 59.9 प्रतिशत योगदान कृषि क्षेत्र से आता था और तब 79.3 प्रतिशत जनसंख कृषि पर निर्भर थी। कृषि का योगदान तो घटते-घटते 25.8 प्रतिशत (यानी लगभग 32 फीसदी कम हुआ) पर आ गया परन्तु इस व्यवसाय पर आज भी 72.9 प्रतिशत जनसंख्या निर्भर है, इसमें केवल 8.6 प्रतिशत की कमी आई। 1960 से 1980 के बीच के समय में कृषि में विकास की दर लगभग 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही जबकि देश में कृषि क्षेत्र का विकास दो प्रतिशत (यानी दुगनी दर से) की दर से हो रहा है।
मध्यप्रदेश की कृषि के सामने सवाल
स्वाभाविक सा निष्क र्ष यह है कि जरूरत के अनुरूप कृषि के विकास के लिये राज्य और समाज दोनों के स्तर पर सघन प्रयास नहीं हुये। राज्य ने स्वयं नवाचार करने के बजाये आयातित तकनीकों और उत्पादन को विस्तार देने की रणनीति अपनाई; तो वहीं दूसरी ओर समाज ने अपनी जरूरत को पूरा करने के लिये राज्य पर दबाव नहीं बनाया। अभी 10 वीं पंचवर्षीय योजना चल रही है और सरकार का लक्ष्य है कि इस योजना के दौरान प्रदेश में खाद्यान्न उत्पादन 178.50 लाख टन तक बढ़ाना है। वर्ष 2003-04 की स्थिति में प्रदेश में यह उत्पादन 158.72 लाख टन था। इसी तरह मोटे अनाज के उत्पादन में 139.54 लाख टन वृद्धि क़ा लक्ष्य तय किया गया है और दलहन का उतपादन 38.96 लाख टन किया जायेगा। किन्तु जब व्यावहारिक स्तर पर नीतियों का विश्लेषण करते है। तो दो बातें उभरकर सामने आती हैं; पहली बात तो यह कि सरकार खाद्यान्न उत्पादन को प्रोत्साहित नहीं कर रही हैं बल्कि वह चाहती है कि किसान कपास, सोयाबीन जैसी नकद फसलों के साथ उच्च और मध्यम वर्ग डीजल की जरूरत को पूरा करने के लिये जेट्रोपा का उत्पादन करें। इससे उसे आर्थिक लाभ होगा। वहीं दूसरी ओर सरकार खाद्यान्न, फल और सब्जी उगाने के लिये अनुबंध खेती को नीतिगत रूप से स्वीकार कर रही है। साथ ही अब निजी कम्पनियाँ भी कृषि के क्षेत्र में उतर सकती हैं। दोनों बिन्दु एक दूसरे से जुड़े हुये हैं। किसान पैसा कमाये और अनाज खरीदने के लिये बाजार जाये। शायद यह सच्चाई भूलना घातक होगा कि बाजार में धन का बहाव तेज करने के लिये हम खाद्य सुरक्षा और उत्पादन चक्र को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ प्रदेश की खाद्यान्न जरूरतें भी बढ़ी हैं परन्तु उत्पादन कम हो रहा है। 1960-61 से 2002-03 के बीच यह स्थिति साफ नजर आती हैं :
उत्पादन प्रतिशत में |
वर्ष |
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फसल उत्पादन |
1960-61 |
1970-71 |
1980-81 |
1990-91 |
2002-03 |
अनाज |
63.6 |
61.0 |
61.5 |
51.4 |
48.4 |
दालें |
20.6 |
20.6 |
21.3 |
20.9 |
21.3 |
तिलहन |
9.4 |
9.3 |
8.4 |
16.7 |
22.8 |
कपान |
4.2 |
3.3 |
2.8 |
2.5 |
2.3 |
फल -सब्जी |
0.8 |
0.6 |
0.8 |
4.4 |
3.8 |
कुल खाद्यान्न फसलें |
85.7 |
83.0 |
84.4 |
77.0 |
72.1 |
कुल गैर खाद्यान्न फसलें |
14.3 |
17.0 |
15.6 |
23.0 |
27.9 |
पिछले चालीस वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन मध्यप्रदेश में कुल उत्पादन में लगातार घटता जा रहा है। 1960-61 में जहां प्रदेश में कुल कृषि उत्पादन का 63.6 फीसदी हिस्सा खाद्यान्न फसलों का होता था वह घटकर 48.4 प्रतिशत पर आ गया है। जबकि इसी दौर में गैर-खाद्यान्न फसलों का उत्पादन 14.3 फीसदी से बढ़कर 27.9 प्रतिशत हो गया है। अनाज में भी गेहूं और ज्वार के उत्पादन में भारी कमी आई है। बहरहाल 1960-61 में जहां सोयाबीन का उत्पादन शून्य प्रतिशत था वह 2002-03 में बढ़कर 17.6 प्रतिशत हो गया। कपास का उत्पादन भी कम हुआ है। कृषि के आधुनिकीकरण से प्रदेश में अनाज, सब्जी, और फलों की उत्पादन लागत में वृद्धि हुई है। मध्यप्रदेश में व्यापक स्तर पर एकल फसल पध्दति अपनाई जाती रही हे। पिछले 30 सालों में अमेरिका से सोयाबीन का आयात हुआ और इसके कारण परम्परागत खाद्य फसलों (खरीफ) ज्वार, मक्का, कपास, तिल, मूंग, उड़द, मूंगफाली, अरहर, अरण्डी का क्षेत्रफल घटता चला गया। इसी कारण कपास और ज्वार, कपास और अरहर, ज्वार और अरहर जैसी अंतरवर्ती फसल पध्दति समाप्त हो गई। कपास का उत्पादन कुल फसल का हिस्सा 4.2 प्रतिशत से घटकर 2.3 प्रतिशत रह गया। यह केवल कपास का उत्पादन कम हो जाने का मामला नहीं है बल्कि यह सिध्द करता है कि अब कपास के कारण खट-खट करने वाले करघे भी थम रहे हैं।
सोयाबीन की चुनौती
मध्यप्रदेश की जनसंख्या को आमतौर पर कुपोषित और कमजोर माना जाता रहा है। ऐसी स्थिति में सोयाबीन के उत्पादन के लिये मध्यप्रदेश एक उपयुक्त स्थान बना। इसमें 18 प्रतिशत तेल और 40 प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है। सोयाखली का निर्यात करके उद्योगपतियों को काफी लाभ मिला और सरकार ने भी विदेशी मुद्रा कमाई है। इसका कुछ तात्कालिक लाभ भी किसानों को मिला। इसे एकल फसल पध्दति में इस्तेमाल किया गया। जिसका किसानों पर भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ा। लगातार एक ही फसल बार-बार लेते रहने के कारण मिट्टी राजोक्टोनिया, स्कलेरोशियम, फ्यूजेरियम, जैसी रोगजनक फफूंद से सवंमित होती चली गई। अब नये-नये कीट प्रदेश के किसानों पर आक्रमण कर रहे हैं। पत्ता गोभी का ब्लू-बीटल अब सोयाबीन के प्रमुख कीट के रूप में दर्ज किया जा रहा है। अब सोयाबीन की फसल के लिये रसायनों, कीटनाशकों और उर्वरकों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है जिससे किसानों का शुध्द लाभ घटता जा रहा है। माना यह जाता है कि सोयाबीन अन्य खाद्यान्न फसलों से ज्यादा उत्पादन और फायदा देता है किन्तु यह सच्चाई नहीं है, जैसे -
फसल |
उपज क्विंटल (प्रति हेक्टेयर) |
भाव प्रति (क्विंटल) |
कुल आय रूपये |
लागत खर्च (अनुमान) |
शुध्द लाभ (अनुमानित) |
सोयाबीन |
12 |
1200 |
14400 |
6000 |
8400 |
ज्वार |
32 |
800 |
25600 |
10000 |
15600 |
मूंग |
10 |
3000 |
30000 |
10000 |
20000 |
उड़द |
12 |
3100 |
37200 |
12000 |
25000 |
कृषि की स्थिति
मध्यप्रदेश में वर्ष 2004-05 में कुल 203 लाख हेक्टेयर भूमि का उपयोग कृषि के उद्देष्य से किया गया। इसमें से 24.4 प्रतिशत भूमि यानी लगभग 50 लाख हेक्टेयर जमीन सिंचित की जा सकी है मध्यप्रदेश में सकल और कुल सिंचित कृषि क्षेत्र की स्थिति इस तरह है –
वर्ष |
कुल सिंचित क्षेत्र |
प्रतिशत |
1960-61 |
924 |
5.2 |
1970-71 |
1481 |
7.4 |
1980-81 |
2332 |
11.5 |
1990-91 |
4314 |
18.5 |
2000-03 |
4735 |
24.0 |
मध्यप्रदेश में कृषि को फायदे का आजीविका साधन बनाने के लिये इसे सिंचित करने की सबसे खास जरूरत रही है किन्तु आश्चर्यजनक है कि चालीस वर्षों के दौरान सिंचित क्षेत्रफल 5 फीसदी से बढ़कर 24 फीसदी हो पाया।
अलग -अलग फसलें और सिंचाई (प्रतिशत सिंचित) |
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वर्ष |
गेहूं |
दलहन |
कपास |
धान |
1970-71 |
15 |
6 |
2 |
14 |
1980-81 |
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