मध्यप्रदेश में आजीविका

मध्यप्रदेश की उत्तर-पश्चिमी दिशा में बसे सात जिलों में सहरिया आदिवासी रहते हैं। सहरिया आदिवासी समुदाय को भारत सरकार ने पिछड़ी हुई आदिम जनजातियों की श्रेणी में शामिल किया है। आज इसी समुदाय के बीच से खाद्य असुरक्षा के कारण लोगों की असामयिक मौतों के मामले लगातार आने लगे हैं। मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के कराहल आदिवासी के पूर्वजों के सबसे करीबी रिश्तेदार जंगल थे। जीवन के तीज-त्यौहार, विश्वास, आजीविका सब कुछ जंगल से जुड़े हुये थे। पचास साल पहले तक जंगल ही हमारे परिवार को पालता था। 1960 के दशक में विकास के नाम पर सरकार ने जंगल का जरूरत से ज्यादा दोहन शुरू किया। वनाच्छादित यह इलाका 20 साल में जंगल विहीन हो गया। 1980 के बाद इस इलाके में पत्थर की खदानों के लिये जमीन की खुदाई शुरू हो गई। अब जमीन की सतह पर भी मिट्टी नहीं रही और सतह के नीचे आधार भी नहीं रहा। जंगल से लेकर जमीन तक का भारी दोहन ठेकेदारों ने किया सरकार ने उनके हितों के मद्देनजर ही नीतियां बनाई। पहले जंगल खत्म किया गया। फिर जंगल के संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को अतिक्रमणकारी कहकर संबोधित किया जाने लगा और लक्ष्य बना उन्‍हें जंगल से निकालने की कवायद होने लगी।

ऐसे में ही आजीविका का सवाल धीरे-धीरे महत्वपूर्ण होने लगा। विकास की जिस परिभाषा को राज्य अपना रहा है उससे संसाधनों पर अधिकार और स्थाई आजीविका का अधिकार समाज के एक खास वर्ग को मिला है और समाज का दो तिहाई हिस्सा असुरक्षित अजीविका के जाल में फंसता गया। पिछले 25 वर्षों का अनुभव बताता है कि आजीविका के ऐसे स्रोत (जैसे - कृषि, वन उत्पादन और पशुपालन, मछली पालन) जिनसे बड़े स्तर पर लोगों को रोजगार मिलता था, नीतिगत रूप से उन स्रोतों पर से सरकार का ध्यान द्वितीयक क्षेत्र (जैसे उद्योग और सेवा क्षेत्र) पर केन्द्रित हुआ। इस क्षेत्र में कागजी मुद्रा का विस्तार तो नजर आया किन्तु रोजगार के अवसर बहुत तेजी से कम हुये। मध्यप्रदेश की स्थापना 1956 में हुई थी, इस दौरान सकल राज्य घरेलू उत्पाद तीन गुना बढ़ गया पर बेरोजगारी का स्तर सात फीसदी से बढ़कर 23 फीसदी हो गया ।

मध्यप्रदेश में शहरी क्षेत्र में 63.3 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनमें प्रतिव्यक्ति कुल खर्च रुपये 775.00 प्रतिमाह होता है। एक आंकलन के अनुसार इस राशि से केवल पेट भरने लायक भोजन की व्यवस्था की जा सकती है। स्वास्थ्य, शिक्षा एवं मानवीय विकास की अन्य जरूरतों को इस राशि में पूरा नहीं किया जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो 93.9 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं जिन पर 775.00 रुपये की राशि से भी कम व्यय हो रहा है।

मध्य प्रदेश में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह का खर्च (1000 व्यक्तियों में से शहरी

0 से 300

300 से 350

350 से 425

425 से 500

500 से 575

575 से 665

665 से 775

775 से 915

915 से 1120

1120 से 1500

1500 से 1925

1925 से ज्यादा

कुल

37

36

109

135

102

110

104

94

92

84

42

55

1000

 


स्रोत: भारत में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति, NSSO रिपोर्ट क्रंमांक 560, वर्ष 2004

मध्य प्रदेश में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह का खर्च (1000 व्यक्तियों में से)

0 से 225

225 से 255

255 से 300

300 से 340

340 से 380

380 से 420

420 से 470

470 से 525

525 से 615

615 से 775

775 से 950

950 से ज्यादा

कुल

69

54

111

103

129

99

127

93

88

66

25

36

1000

 


स्रोत: भारत में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति, NSSO रिपोर्ट क्रंमांक 560, वर्ष 2004

दसवीं पंचवर्षीय योजना -


जिस दौर में दसवीं पंचवर्षीय योजना का मसौदा बन रहा था उसी दौरान सरकार यह बता रही थी कि भारत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है क्योंकि सरकारी गोदामों में 6.2 करोड़ टन अनाज भरा हुआ था परन्तु इसी के समानान्तर रोजगार की एक अत्यंत महत्वाकांक्षी योजना सुनिश्चित रोजगार योजना (ईएएस) का विश्‍लेषण यह बता रहा था कि इस योजना में हर परिवार को वर्ष भर में 100 दिन का रोजगार देने का वायदा किया गया था किन्तु वास्तव में ग्रामीण परिवारों को एक वर्ष में कुल आठ दिन का रोजगार मिल पा रहा था। यही वह दौर था जिसमें मध्यप्रदेश के अलग-अलग कोनों से भुखमरी के मामले प्रत्यक्ष रूप से नजर आ रहे थे। ऐसे में मध्यप्रदेश सरकार ने तय किया कि दसवीं पंचवर्षीय योजना में गरीबी की समाप्ति को मुख्य लक्ष्य बनाया जायेगा लेकिन लक्ष्य गरीबी की पूर्ण समाप्ति का नहीं रहा बल्कि सरकार की अपेक्षा थी राज्य और देश की गरीबी के बीच जो अंतर है, वह खत्म हो जाये (मध्यप्रदेश- समरी आफसेलिमेंट फीचर्स आफटेंथप्लान- 2002-2007) यह अंतर तो देश की गरीबी में वृद्धि से भी खत्म हो सकता था, तो क्या मध्यप्रदेश सरकार इसके लिये तैयार थी?

स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों में आजीविका को सामाजिक राजनीति के नजरिये से विश्लेषित करना होगा। इतना ही नहीं आजीविका को रोजगार की सोच के साथ अलग करके भी देखना होगा। रोजगार की परिभाषा में एक नियोक्ता या मालिक होता है, एक काम होता है, काम का एक स्थान होता है और उस श्रम का मूल्य होता है किन्तु उसमें स्थायित्व, सुरक्षा और संसाधनों के अधिकार की बात नहीं होती है। विकास में हमेशा रोजगार के अवसरों में विस्तार का लक्ष्य होता है किन्तु मानव विकास आजीविका के अधिकार को अहम मानता है। स्थाई रूप से आजीविका की परिभाषा गरीबी को एक आर्थिक नजरिये की बजाय मानवीय नजरिये से देखना होगा। गरीबी से मुक्ति के लिये माध्यम (साधन), गतिविधियां, आधिकारिता (Entitlements) और परिसम्पत्तियां रणनीति का हिस्सा हो सकती हैं। परिसम्पत्तियों में जल, जंगल और जमीन ही शामिल नहीं हैं बल्कि सामाजिक सम्बन्ध, सत्ता में सहभागिता, ज्ञान और कौशल का उपयोग करने की स्वतंत्रता शामिल है।

आज की राजनीतिक व्यवस्था में यह नजर आता है कि लोगों या फिर समुदाय को अधिकार तो दिये जा रहे हैं किन्तु उन अधिकारों के उपयोग की ऊर्जा और क्षमता छीन ली गई है। आजीविका का अधिकार भी आज मजदूरी के अधिकार तक ही सीमित होकर रह गया है। अब हर प्राकृतिक और मानवीय संसाधन (कानूनों के जरिये) पर राज्य का मालिकाना हक हो गया है। इसी आजीविका के अधिकार के हनन के कारण अब जीवन में गुणवत्ता की कमी को भंलि-भाति महसूस किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि लोगों में कौशल के कम होने के कारण आजीविका का संकट आया है बल्कि अब लोगों को अवसर मिलने कम हो गये हैं इसलिये उनकी कौशल क्षमता का ह्रास हो रहा है। यह अब जीवन की असुरक्षा का समय है।

बेरोजगारी का आंकलन -


राज्य में बेरोजगारी की स्थिति क्या है इस परिस्थिति का विश्लेषण रोजगार कार्यालयों के माध्यम से किया जाता है। वर्ष 2004-05 में यह तय किया गया था कि रोजगार कार्यालयों को बंद कर दिया जायेगा क्योंकि जब यह तय हो चुका है कि सार्वजनिक क्षेत्र में अब रोजगार के अवसर पैदा ही नहीं होंगे तो फिर रोजगार कार्यालयों का औचित्य क्या है? किन्तु बेरोजगारों की जमात अब एक बड़ी जमात है। उसका कोई उत्पादक मूल्य हो या न हो परन्तु राजनैतिक मूल्य तो है। इसलिए सरकार ने रोजगार कार्यालयों को बंद करने के बजाय वाणिज्य एवं उद्योग विभाग में सम्मिलित कर दिया। संभवत: यह मान लिया गया है कि उद्योग क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा होते रहेंगे और केवल वहीं होंगे अन्य किसी क्षेत्र में नहीं। शायद इसीलिए रोजगार कार्यालयों का अस्तित्व उद्योगों तक सीमित कर दिया गया। वर्ष 2005 में मध्यप्रदेश के रोजगार कार्यालयों में 21.18 लाख व्यक्तियों के नाम रोजगार की अपेक्षा में पंजीकृत थे। इसके पहले वर्ष 2004 में यह संख्या 20.29 लाख थी।

जब शिक्षित बेरोजगारों की संख्या पर नजर डाली जाती है तो यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हमारी शिक्षा कितनी तेजी से कौशल, क्षमता और आजीविका के अवसरों से कितनी दूर होती जा रही है। राज्य में जीवित पंजी पर कुल 16.71 लाख शिक्षित बेरोजगारों के नाम दर्ज थे। प्रदेश में अब संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में बेरोजगारी तेज गति से बढ़ रही है। इस बेरोजगारी के बढ़ने का बड़ा कारण सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा सीमित होता जाना और असंगठित क्षेत्र में निजीकरण-आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव है। प्रदेश में वर्ष 2000 में सरकारी क्षेत्र में कुल 529274 कर्मचारी कार्य कर रहे थे जो वर्ष 2002 में 504863 (मध्यप्रदेश का सांख्यिकीय संक्षेप-2004 आर्थिक एवं सांख्‍यिकी संचालनालय म.प्र. शासन) और वर्ष 2003 में 498929 रह गये। इसका मतलब यह है कि सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में निरन्तर कमी आ रही है। यदि समग्र सार्वजनिक क्षेत्र की बात की जाये तो प्रदेश में रोजगार की संख्या घटकर 9.20 लाख रह गई है जिसमें महिलाओं की संख्या 1­23 लाख है। एक तरह से इस क्षेत्र में 2.01 प्रतिशत रोजगार की कमी हुई (मध्यप्रदेश का आर्थिक सर्वेक्षण वर्ष 2005-2006)। जब हम 30 साल पहले यानी 1975 से 1980 के दौर पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि तब इस क्षेत्र में 2.87 प्रतिशत की दर से रोजगार में वृद्धि हो रही थी तब कुल रोजगार 1097584 थे। परन्तु यह दर अब घटकर ऋणात्मक (-) 2.01 प्रतिशत हो गई है (मध्यप्रदेश का आर्थिक सर्वेक्षण वर्ष 2005-2006)।

राज्य में रोजगार की स्थिति -


वर्तमान स्थिति में मध्यप्रदेश में लगभग 66 लाख लोग हर रोज रोजगार के अवसरों की तलाश होती है। राज्य में 15 लाख लोग ही संगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जबकि शेष 94 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या अब भी असंगठित क्षेत्र में ही काम करते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या मूलत: पारम्परिक पेशे (जैसे- चर्म उद्योग, वानिकी, बीड़ी निर्माण, स्लेट-पेंसिल उद्योग, कपड़ा-दरी निर्माण, निर्माण मजदूर और घरेलू कर्मचारी आदि) जैसे कार्यों और उद्योगों में संलग्न है। मध्यप्रदेश की जनसंख्या में हर साल 13 लाख लोगों की वृद्धि हो जाती है और मध्यप्रदेश के तीसरे मानव विकास प्रतिवेदन के अनुसार राज्य में हर वर्ष 10 लाख नये रोजगार के अवसर सृजित करने होंगे। इसमें कोई विवाद नहीं है कि राज्य का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा है और विकास दर पांच-छह फीसदी रही है किन्तु यह भी एक सच्चाई है कि राज्य में रोजगार वृद्धि की दर 0.9 प्रतिशत के निम्न स्तर पर पा चुकी है। यहां सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर अब लगभग पूरी तरह से खत्म हो रहे हैं और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जा रहा है किन्तु संकट यह है कि निजी क्षेत्र रोजगार की आवश्यकता की पूर्ति कर पाने में सक्षम नहीं है। राज्य का मानव विकास प्रतिवेदन भविष्य में रोजगार की अनिश्चितता को स्पष्ट रूप से पेश करता है। यह प्रतिवेदन बताता है कि वर्ष 2001 में 2.96 करोड़ लोगों को रोजगार की जरूरत थी और यह जरूरत वर्ष 2020 में बढ़कर 4.4 करोड़ अवसरों तक पहुंच जायेगी। तब लगभग 1.8 करोड़ नये रोजगार के अवसरों की जरूरत होगी। इसका मतलब यह है कि राज्य को ऐसी नीतियों, योजनाओं और प्रयासों से बचना होगा या कहें कि उन्हें नकारना होगा, जिनसे विकास दर तो बढ़ती है किन्तु लोगों के हाथों को रोजगार नहीं मिलता है।

मध्यप्रदेश में विभिन्न रोजगारों में संलग्न परिवार/प्रति 1000 में से

शहरी क्षेत्र

स्वरोजगार

नियमित मजदूरी एवं वैतनिक

अनियमित श्रमिक

अन्य

कुल

418

366

132

84

1000

 


स्रोत: मध्यप्रदेश का आर्थिक सर्वेक्षण वर्ष 2005-2006

ग्रामीण क्षेत्र

स्वरोजगार

खेतिहर मजूदर परिवार

अन्य श्रमिक परिवार

अन्य

 कुल

कृषि

गैर कृषि

कुल

कुल

454

98

551

277

90

81

 


स्रोत- भारत में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति, NSSO रिपोर्ट क्रंमांक 560, वर्ष 2004

शहरी एवं ग्रामीण संदर्भों में रोजगार के साधनों में बहुत अधिक भिन्नता नजर आती है। जहां एक ओर शहरी क्षेत्र में 41.8 प्रतिशत लोग स्वरोजगार और वेतन से अपना जीवनयापन करते हैं वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में 73.1 प्रतिशत परिवार या तो खेती से सीधे जुड़े हैं (45.4 प्रतिशत) या फिर खेतिहर मजदूर (27.7 प्रतिशत) हैं।

मध्यप्रदेश में आजीविका और कृषि -


मध्यप्रदेश भारत के मध्यांचल में बसा हुआ राज्य है। यह न तो रेगिस्तान की गर्मी से जूझता है न ही हिम की ठण्डी चुभन से। समुद्र के तूफान भी इसे प्रभावित नहीं करते हैं इसके बावजूद इस राज्य के समुदाय आजीविका की गंभीर संकट से जूझ रहे हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक मध्यप्रदेश की जनसंख्या 6.03 करोड़ है और इसमें से कार्यशील (रोजगार से सम्बद्ध) जनसंख्या 2.57 करोड़ है जो कि कुल जनसंख्या का 42.57 प्रतिशत हिस्सा है। इस कार्यशील जनसंख्या में से 1.10 करोड़ खेती-बाड़ी यानी कृषि व्यवसाय से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुये है। जबकि 73.80 लाख लोग कृषि मजदूरी का काम कर रहे हैं। जब जानकारियाँ यह स्पष्ट करती हैं कि कृषि राज्य की आजीविका का मुख्य साधन है तब विश्लेषण में भी हमें इस पर विशेष ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। 1960-61 में मध्यप्रदेश में किसानों के पास औसतन 4.1 हेक्टेयर जमीन होती थी जो अब (वर्ष 2005 में) घटकर 2.3 हेक्टेयर हो गई है। विगत पंद्रह वर्षों में कृषि की लागत में 130 प्रतिशत की वृद्धि हुई है परन्तु बाजार में कृषि उत्पादों के दाम में 60 फीसदी की और न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है। इसका स्पष्ट सा अर्थ है कि किसानों पर आर्थिक दबाव बढ़ा है। पर्याप्त लाभ न मिलने के कारण किसानों को कर्ज के जाल में भी फंसना पड़ा और आज मध्यप्रदेश के पचास प्रतिशत किसान 11000 रुपये से ज्यादा के औसतन कर्जे में फंसे हैं। इस क्षेत्र में जनोन्मुखी बुनियादी बदलाव की जरूरत है। इस तथ्य को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है कृषि क्षेत्र आज भले ही सकल राज्य घरेलू उत्पाद में 23 से 27 प्रतिशत हिस्से का योगदान देता हो किन्तु वहीं दूसरी ओर वर्ष 2000-01 में प्रदेश में कुल खाद्यान्न उत्पादन 101 लाख टन से बढ़कर अगले वर्ष 135 लाख टन तक पहुंचा। अब यह उत्पादन 158 लाख टन है। इसका मतलब यह है कि राज्य में प्रति व्यक्ति 249 किलो खाद्यान्न का उत्पादन हो रहा है। आर्थिक संकट के बावजूद खाद्यान्न की जरूरत को यह राज्य पूरा करने की कोशिश कर रहा है।

अब भी मध्यप्रदेश के किसानों की सुबह और शाम मानसून की दस्तक पर टिकी होती है। केवल 24 प्रतिशत कृषि क्षेत्र (कृषि भूमि) पर दो फसलें ली जाती हैं शेष 76 प्रतिशत पर साल भर में एक बार ही फसल ली जाती है। यही कारण है कि जब वर्ष 2003-04 में वर्षा अच्छी हुई तो इसके कारण पिछले वर्ष (यानी 2002-03 की तुलना में) कृषि उत्पादन में 39.92 प्रतिशत की वृद्धि हुई पर वर्ष 2004-05 में यह दर गिरकर बहुत नीचे आई। इस वर्ष उत्पादन (-) 3.47 प्रतिशत कम हो गया। जब खेती में इतने उतार चढ़ाव होते हैं तो इसका मतलब है कि इतनी ही अनिश्चितता कृषि के व्यवसाय से जुड़े दो करोड़ लोगों के जीवन पर सीधा प्रभाव डाली है। छोटे आकार के खेत, सिंचाई की कमी और भूमि उत्पादकता में कमी कृषि क्षेत्र के लिये बड़ी चुनौतियां हैं।

कृषि का वाणिज्य फसलों से सम्बन्ध-


मध्यप्रदेश में अब नीतिगत रूप से नकद फसलों को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया चल रही है। राज्य में कपास, गन्ने और सोयाबीन को अहम स्थान दिया जाने लगा है। सोयाबीन राज्य के कुल कृषि उत्पादन में 18.07 प्रतिशत का योगदान देता है। राज्य में 73613 हेक्टेयर क्षेत्र में गन्ने की और 6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास का उत्पादन हो रहा है।

जंगल से जुड़े आजीविका के साधन-


मध्यप्रदेश में 19 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी समुदाय की है और कुल 22600 गांव जंगलों मे या जंगल की सीमा से सटकर बसे हुए हैं। यहां पारम्परिक रूप से समुदाय जंगल और जंगल से मिलने वाले उत्पादों से आजीविका के साधन जुटाता रहा है। यह एक सच्चाई है कि वन एवं पर्यावरण नीति और उद्योग नीति का सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव 1.14 करोड़ आदिवसियों और 90 लाख अनुसूचित जाति की जनसंख्या पर पड़ा। इनके व्यापक अधिकार अब बहुत सीमित हो गये हैं। वर्तमान स्थिति में लघु वनोपज संग्रहरण प्राथमिक लघुवनोपज समितियाँ करती हैं। लघु वनोपज के संग्रहरण और विपणन का काम इनके मुख्य दायित्व हैं। राज्य में 1066 प्राथमिक लघु वनोपज समितियाँ और 60 जिला लघु वनोपज यूनियन बनाये गये हैं। यहां आदिवासियों को अराष्ट्रीयकृत वनोपज जैसे - चिरौंजी, शहद, महुआ, आंवला और औषधीय वनोपज का नि:शुल्क संग्रहरण कराने की छूट (अधिकार नहीं) दी गई है। अब तेंदू पत्ता के लिये नई नीति लागू है। वर्ष 2004 में क्षेत्रीय निविदायें (Regional Tenders) के जरिये तेंदू पत्ते के व्यापार की व्यवस्था की गई है। अब ठेकेदार प्राथमिक वनोपज समितियों के माध्यम से तेंदू पत्ता संग्रहित करते हैं। वर्ष 2005 में राज्य में 16.71 लाख मानक बोरे तेंदूपत्ता इकट्ठा किया गया। इसमें से 13.34 लाख बोरे बिके जिससे 104.52 करोड़ की राशि प्राप्त हुई।

पशुधन-


प्रदेश में पशुपालन भी आजीविका का एक बड़ा स्रोत है। यहां पशुधन में वृद्धि की व्यापक संभावनायें हैं। मध्यप्रदेश में 1997 में पशुधन 3.49 करोड़ था जो वर्ष 2003 में बढ़कर 3­56 करोड़ हो गया। इसमें गौ एवं भैंस प्रजाति के पशुओं की संख्या 100.23 लाख है। इसी अवधि (1997-2003 में कक्कुट एवं बतख की संख्या में बेहतर वृद्धि हुई है। यह धन 72.61 करोड़ से बढ़कर 117.06 करोड़ हो गया है।

मत्स्य उत्पादन -


मध्यप्रदेश में बांध और जलाशयों का जबरदस्त विस्तार हुआ है। प्रदेश में कुल 3 लाख हेक्टेयर का जल क्षेत्र उपलब्ध है जिसमें से 2.92 लाख हेक्टेयर जल क्षेत्र में मत्स्य पालन होने लगा है। अब तक नीति यह थी कि समुदाय और पुर्नवासित परिवारों को मत्स्यपालन के अवसर प्रभावित रूप से दिये जायेंगे किन्तु आर्थिक लाभ को देखते हुये निजी क्षेत्र के समूह भी अब प्रभाव के बल पर इस क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं।

उद्योग क्षेत्र-


अब विकास की रणनीति में उद्योगों का विस्तार सबसे अहम हिस्सा बन गया है। सरकार मानती है कि संसाधनों के दोहन का एक सूत्रीय अधिकार समुदाय के पास नहीं रहना चाहिये। इससे बाजार के विस्तार में कमी आती है और एक बड़ा वर्ग उपभोक्ता के बजाय उत्पादक उपभोक्ता बन जाता है। अब तक उद्योगों की स्थापना की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया रही है। अत: सरकार ने एकल खिड़की प्रणाली लागू की है। अब कम से कम उद्योग स्थापित करने वालों को जगह-जगह भटकना नहीं पड़ेगा। अलग बात यह है कि गरीब व्यक्ति को यदि राशन कार्ड बनवाना हो तो उसके लिये कई खिड़कियों को खटखटाना होगा।

सरकार ने उद्योगों के लिये विशेष आर्थिक प्रक्षेत्र (Special Economic Zone) भी स्थापित करने के लिये 140 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। राज्य में कारखाना अधिनियम 1948 के अन्तर्गत वर्ष 2005 में पंजीकृत उद्योगों की संख्या 8.2 हजार थी जिनमें कुल 3.97 लाख का औसत दैनिक रोजगार नियोजन हो रहा था। इसके पहले वर्ष 2005 में इन उद्योगों में 3.95 लाख लोग काम कर रहे थे, यानी एक वर्ष में कुल दो हजार मजदूरी के अवसर बढ़े थे। इस उद्योग क्षेत्र में मुख्यत: कृषि से संबंधित सेवायें, खाद्य एवं मादक पदार्थों का निर्माण, सूती वस्त्र निर्माण, रसायन एवं रासायनिक पदार्थों का निर्माण, मूलधातु एवं मिश्र धातु उद्योग, अधात्विक खनिज उत्पादों का निर्माण, धातु उत्पादों एवं हिस्सों का निर्माण, बिजली की मशीनें एवं उनके यंत्रों का निर्माण किया जा रहा था।

शासन के स्तर से हो रहे प्रयास


अब आजीविका या कहें कि रोजगार की चिंता को सरकार अस्थाई योजनाओं से दूर करने की कोशिश करती रही है। वर्तमान स्थिति में हर गरीबी मिटाने के लिये चलाई जा रही योजना में रोजगार के अवसर पैदा करने की कोशिश हो रही है। ये योजनायें खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में संचालित हो रही हैं क्योंकि वहां कृषि पर छाये संकट का अंधेरा 73.1 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या पर सीधा नजर आने लगा है। राज्य के 14 जिलों में विश्व बैंक के सहयोग से जिला गरीबी उन्मूलन योजना क्रियान्वित की जा रही है। इस योजना में गरीब और वंचित परिवारों के सदस्यों को मिलाकर समूह बनाये गये हैं और उन्हें आर्थिक मदद दी जा रही है। अनुभव बताता है कि सामाजिक-राजनैतिक शोषण और महिला हिंसा जैसे मुद्दों पर हस्तक्षेप किये बिना यह कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है। इस योजना में 53 विकासखण्डों के 2.9 हजार गरीब शामिल हैं। स्वरोजगार के अवसरों को प्रोत्साहित करने के लिये स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना का क्रियान्वयन हो रहा है जिसके अन्तर्गत 2.33 लाख स्वयं सहायता समूहों का निर्माण किया गया है। सरकार के हिसाब से इनसे 11.68 हजार दलित, 15.29 हजार आदिवासी, 22.90 हजार महिलायें और 1.24 हजार विकलांग व्यक्तियों को फायदा पहुंचाया गया है। स्वरोजगार के लिये चलाई गई इस योजना में बाजार को गरीबोन्मुखी बनाने के लिये कोई ठोस पहल दिखाई नहीं देती है।

रोजगार गारण्टी कानून और मजदूर संगठन


असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को आजीविका के हर तरह के अवसरों में शोषण का सामना करना पड़ा है। अगस्त 2005 में भारत सरकार ने देश के 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र के, मजदूरों को रोजगार के शोषण मुक्त अवसर उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया और 2 फरवरी 2006 से देश के सबसे जरूरतमंद और मानव विकास के नजरिये से पिछड़े हुए 200 जिलों में लागू किया। इस कानून के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले हर परिवार को वर्ष में एक सौ दिन शारीरिक श्रम आधारित रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यह एक मांग आधारित योजना है जिसमें न्यूनतम मजदूरी पर श्रम करने वाले हर व्यक्ति को उसके द्वारा मांग किये जाने पर रोजगार उपलब्ध कराया जायेगा। यदि रोजगार मांगने के 15 दिन के भीतर रोजगार नहीं दिया जाता है तो बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में पंचायत और प्रशासन के स्तर पर दायित्व और कर्तव्यों का स्पष्ट चित्रण किया गया है। इस योजना का मकसद केवल मजदूरी के अवसर उपलब्ध करवाना नहीं है बल्कि स्थाई विकास की संभावनाओं का उपयोग करते हुए जल-जंगल-जमीन की उन्नति के लिए योजनाएं बनाकर क्रियान्वित करना भी है। अब तक असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए संघर्ष का कोई कानूनी मंच उपलब्ध नहीं था पर यह कानून अब इस तरह के कानूनी मंच की उपलब्धता सुनिश्चित करता है।

मध्यप्रदेश में शुरूआती दौर में 18 जिलों में यह योजना लागू की गई है। उन जिलों में कुल 42 लाख ग्रामीण परिवार निवास करते हैं। इन सभी परिवारों का रोजगार गारंटी योजना के अन्तर्गत पंजीयन किया जा चुका है और रोजगार गारंटी कार्ड भी वितरित किए जा चुके हैं। दूसरे शब्दों में पंजीयन और रोजगार गारंटी कार्ड की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद अब मजदूरों के बीच संगठन निर्माण की संभावनायें भी बढ़ जाती हैं। हम सभी यह जानते हैं कि आदर्श कानून बन जाने के बाद भी व्यवस्थाओं में सुधार नहीं होता है क्योंकि उन कानूनी अधिकारों का राजनैतिक नजरिए से उपयोग ही नहीं किया जाता है। अब गुजरात के गोधरा जिले में मानो रोजगार गारण्टी कानून की आत्मा भी जन्म ले रही है। रोजगार को एक संवैधानिक हक के रूप में स्वीकार करने की वकालत करने वाले हमेशा से यह मानते रहे हैं कि इस कानून से न केवल रोजगार और मजदूरी का अधिकार मिलेगा वरन् असंगठित क्षेत्र को संगठित करने के लिये भी यही कानून सबसे अहम् भूमिका भी निभायेगा। गुजरात राज्य के छह जिले रोजगार गारण्टी कानून के अन्तर्गत चुने गये हैं। इस राज्य को हमेशा चमकते भारत का प्रतिनिधित्व करते देखा गया है। उदारवाद के समर्थक विशेषज्ञ इसे आधुनिक विकास के तीर्थक्षेत्र के रूप में पेश करते रहे हैं। गुजरात को ही सामने रखकर यह बताया जाता रहा है कि आलीशान इमारतें, सपाट सड़कें, भारी उद्योगों की स्थापना से गरीबी को मिटाया जा सकता है परन्तु वास्तव में इस विश्लेषण के इस यथार्थ को छिपाया गया कि पर्यावरण के विनाश और सामाजिक द्वेष भाव की जिस नई परम्परा को वहां जन्म मिला है उससे लोकतांत्रिक समाज के लिये नये संकट भी पैदा हुए हैं। दुखद तथ्य यह है कि यह संकट ज्यादा खतरनाक है।

भारत के अन्य राज्यों की ही तरह गुजरात में भी 2 फरवरी 2006 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून लागू हुआ और पांच माह की अवधि में ही वहां विकास के रंगीन पर्दे के पीछे छिपी गरीब मजदूरों के शोषण की कहानी सामने आने लगी। यहां व्यापक रूप से मजदूरों को रोजगार गारण्टी कानून और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के उल्लंघन के कारण शोषण का सामना करना पड़ा। साबरकांठा जिले के बलिसाना गांव में 700 मजदूरों ने 14 फरवरी से 18 दिन तक हाड़तोड़ मजदूरी की। राज्य में रोजगार गारण्टी कानून के अन्तर्गत काम करने वाले मजदूरों को यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें 35 रुपये रोज मजदूरी मिलेगी किन्तु जब मई के अंतिम सप्ताह में अलग-अलग कार्य स्थलों पर भुगतान किये गये तब मजदूर अचंभित रह गये क्योंकि उन्हें केवल चार से सात रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी जा रही थी। इतना ही नहीं व्यापक स्तर पर रोजगार कानून के सबसे अहम प्रावधानों (जैसे सात से पन्द्रह दिन के भीतर अनिवार्य रूप से मजदूरी का भुगतान, महिलाओं को समान मजदूरी, बच्चों के लिये झूलाघर और मजदूरों के काम की सही माप करना) का हर कदम पर उल्लंघन किया गया। केन्द्र सरकार द्वारा बनाये गये कानून का प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि मजदूरों को दी जाने वाली न्यूनतम मजदूरी 60 रुपये प्रतिदिन से कम नहीं होगी परन्तु राज्य सरकार ने यहां भी तुगलकी रवैया अख्तियार किया और मजदूरों के कानूनी हक छीने। ऐसे में पहले मजदूरों ने कानून और राज्य की योजना के प्रावधानों के अनुसार व्यक्तिगत स्तर अपने हकों की मांग की परन्तु जल्दी ही वे समझ गये कि संगठित हुये बिना उन्हें अधिकार नहीं मिल पायेंगे। तब इन जिलों में मजदूरों ने आपस में चर्चा करना शुरू की। अंतत: गोधरा में लगभग साढ़े पांच हजार मजदूर इकट्ठा हुये और यहां राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना मजदूर यूनियन का निर्माण हुआ।

मूलत: रोजगार गारण्टी कानून के सार्थक क्रियान्वयन के लिये ईमानदार राजनैतिक प्रतिबद्धता होना एक जरूरी शर्त है। यह शर्त समाज में बेरोजगारी की परिस्थितियों में बदलाव लाने में क्या भूमिका निभा सकती है इसे मध्यप्रदेश और गुजरात का तुलनात्म्क विश्लेषण करके महसूस किया जा सकता है। मध्यप्रदेश की ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में 18 जिलों के 43 लाख परिवार शामिल हैं और इन सभी परिवारों का पंजीयन भी हो चुका है और रोजगार कार्ड भी जारी किये जा चुके हैं। यहां प्रयास कागजी कार्रवाई तक सीमित नहीं हैं प्रदेश में 18 लाख से ज्यादा मजदूरों को 61.37 रुपये की दर पर मजदूरी तो मिल ही रही है साथ ही 20 हजार से ज्यादा सड़कों, तालाबों और अन्य सामुदायिक संरचनाओं का काम पूरा हो चुका है। राज्य में पलायन में 40 प्रतिशत की कमी आई है और खुले बाजार में होने वाला शोषण भी कम हुआ है। परन्तु वहीं दूसरी ओर गुजरात में रोजगार योजना के छह जिलों में बसे लगभग 70 लाख परिवारों में से केवल सवा सात लाख परिवारों का ही पंजीयन हो पाया है और इनमें से भी कुछ को ही रोजगार कार्ड जारी किये गये हैं। राज्य में अब तक योजना के सम्बन्ध में पुख्ता दिशा निर्देश जारी नहीं हुये हैं न ही सम्बन्धित अधिकारियों-जनप्रतिनिधियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम हुये हैं।

ऐसी परिस्थितियों में विश्लेषण के बहुत सारे पक्ष हो सकते हैं परन्तु सबसे अहम पक्ष यह है कि क्या वास्तव में देश के असंगठित क्षेत्र में काम करके हर रोज शोषण का शिकार होने वाले मजदूर संगठित होकर अपने हकों को हासिल और इस्तेमाल कर पायेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि कभी भी कोई भी अधिकार तब तक बेमानी है जब तक कि उसे उसकी मूल भावना के साथ उपयोग न लाया जाये। जब रोजगार गारण्टी कानून के लिये जनसंघर्ष चल रहा था तब उसके संघर्ष का सबसे अहम आधार वक्तव्य यही था कि देश की कुल कार्यशील जनसंख्या का 93 फीसदी हिस्सा असंगठित मजदूर वर्ग के लिये न तो सरकारी संरक्षण है न ही किसी कानून का सहारा और चूंकि ये असंगठित हैं इसलिये राजनैतिक संघर्ष के अवसर भी शून्य ही हो जाते हैं। अपेक्षा यही थी कि रोजगार गारण्टी कानून से लोक आधारित विकास सही दिशा मिलेगा और यदि इस कानून के क्रियान्वयन की दिशा भटकेगी तो मजदूरों को संगठित होकर कानूनी रूप से इसे सही दिशा देने का अधिकार भी मिलेगा। गुजरात में यही हुआ भी है।

यह सही है कि कानून स्पष्ट रूप से न्यूनतम मजदूरी की परिभाषा, कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारण्टी, बेरोजगारी भत्ते, कार्यस्थल पर पीने के पानी, बच्चों के लिये झूलाघर, प्राथमिक चिकित्सा के अधिकार की बात करता है परन्तु हमारी सामाजिक व्यवस्था में वंचितों का शोषण बिना फायदे के भी किया जाता है ताकि ताकतवर का भय बना रहे और इसी भय के वातावरण को बनाये रखने के लिये सरकारी तंत्र, राजनीति के नेता और समाज के दबंग इन प्रावधानों को नहीं लागू होने देना चाहते हैं। वे स्पष्ट हैं कि मजदूर को सशक्तिकरण का अहसास नहीं होना चाहिए।

इतना ही नहीं पहली मर्तबा कोई कानून जनसंघर्ष की महत्ता को न केवल स्वीकार कर रहा है बल्कि सामाजिक अंकेक्षण और पारदर्शिता के प्रावधानों के रूप में उसे वैधानिक रूप भी प्रदान करता है। बहरहाल कानून तो बन गया किन्तु कानून बन जाना इस बात की गारण्टी नहीं है कि मजदूरों को उनका हर हक थाली में सजाकर परोस दिया जायेगा। सामाजिक अंकेक्षण केवल भ्रष्टाचार को नियंत्रित नहीं करेगा बल्कि गांव में सामाजिक सत्ता के समीकरणों को भी पलट कर रख देगा। जब कानून यह कर सकता है तो इसका साफ मतलब यह है कि बिना संगठित हुये कानून को मूल भावना के साथ लागू कर पाना संभव नहीं है। हम बेरोजगारी भत्ते का साधारण सा उदाहरण ले सकते हैं। कानून कहता है कि व्यक्ति के रोजगार मांगने की तारीख से 15 दिन की अवधि में यदि सरकार ने रोजगार नहीं दिया तो अगले दिन से उसे बेरोजगारी भत्ता देना होगा। यह बहुत स्पष्ट रूप से लिखा गया है परन्तु जब नियम बने तो 11 ऐसी बाधायें खड़ी कर दी गई जिनके कारण बेरोजगारी भत्ता पाना लगभग असंभव हो गया है। सरकार भी कहती है कि यदि पूरे गांव को काम नहीं मिला और वे बेरोजगारी भत्ता चाहते हैं तो सरकार स्वप्रेरणा से बेरोजगारी भत्ता नहीं देगी बल्कि उन्हें इसके लिये भी आवेदन देना होगा और भत्ते की पात्रता सिद्ध करना होगा। इतना ही नहीं पूरा गांव इसके लिये एक साथ संगठित होकर आवेदन नहीं करेगा बल्कि हर व्यक्ति को अपना अलग आवेदन देना होगा। एक-एक व्यक्ति यदि एक-एक स्वार्थ को पूरा करने की प्रक्रिया में जायेगा तो इस कानून के कोई मायने नहीं होंगे।

निजी हकों को संगठित हकों में और निजी प्रयासों को संगठित रूप देने का सिद्धांत ही समाज में बदलाव ला पायेगा। रोजगार गारंटी योजना में मजदूरी के सवाल पर शोषणकारी व्यवस्था बनने की व्यापक संभावनायें हैं। अनुभव यह सिद्ध कर रहे है। कि लक्ष्य आधारित (टास्क आधारित) मजदूरी निर्धारण होने के कारण मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल पा रही है। अभी एक-एक मजदूर अपनी मजदूरी का सवाल बहुत ही निजी स्तर पर उठाकर शांत हो जाता है। भ्रष्टाचार और शोषण करने वाले जानते हैं कि मजदूरों की आवाज संगठित नहीं है। इसलिये वे थोड़ा जोखिम उठाने से पीछे नहीं हटते हैं। किन्तु ऐसी स्थिति में जब मजदूरी का सवाल हर मजदूर का सवाल बनेगा तो यह तय है कि उस आवाज को दबाया नहीं जा सकेगा। सामाजिक अंकेक्षण न केवल सवाल-जवाब करके जांच-पड़ताल करने की एक प्रक्रिया है बल्कि एक तरह की न्यायिक प्रक्रिया है जिसमें भ्रष्टाचार और विकास की परिभाषा को विकृत करने वालों की जवाबदेही तय करने के साथ-साथ उन्हें दण्डित किये जाने की भी व्यवस्था है। सीधी सी बात है कि भ्रष्टाचार वह करता है जिसका प्रक्रिया पर नियंत्रण होता है। और प्रक्रिया पर नियंत्रण ताकतवर का होता है। यह ताकत राजनीति की हो सकती है, जाति की हो सकती है या धन-बल की। जब हम यह अपेक्षा करते हैं कि ग्रामसभा और मजदूरों की निगरानी समिति सामाजिक अंकेक्षण को भ्रष्टाचार को रोकें; तब सवाल यह उठता है कि क्या बिना संगठन के सामाजिक अंकेक्षण के कानूनी प्रावधान को भी लागू किया जा सकता है। निश्चित रूप से संगठनों के निर्माण से सामाजिक संघर्ष के प्रयासों को एक ठोस आधार मिलेगा। लोक निर्माण विभाग से एक मजदूर मस्टररोल की कॉपी चाहकर भी हासिल नहीं कर सकता है परन्तु मजदूरों की यूनियन संगठित रूप से तमाम दस्तावेज हासिल कर सकती है। एक तरह से संगठन सत्ता के समीकरण बदल देता है। मजदूर यूनियनों का दायरा केवल मजदूरी या बेरोजगारी भत्ते तक ही सीमित रखकर नहीं देखा जाना चाहिए। मसला रोजगार गारंटी योजना के अन्तर्गत निर्मित होने वाली स्थाई सम्पत्तियों पर समुदाय के अधिकार का भी नहीं है। संभवत: ग्रामसभा और पंचायतें वहां बनने वाली सम्पत्तियों की मालिक होंगी और संगठन इस मालिकाना हक को हासिल करने के लिये ग्रामसभा की मदद कर पायेंगे।

भविष्य में संगठन निर्माण की संभावनाओं को ट्रेड यूनियन के रूप में चरितार्थ किया जा सकता है। हमें यह भी देखना होगा कि कहीं स्वयं सहायता समूहों की अवधारणा के जाल में मजदूरों के समूह न जा फंसे। आय बढ़ने के कारण स्वयं सहयता समूहों को अब ज्यादा सक्रिय करने की कोशिशें की जायेगी और उन्हें ही मजदूरों के संगठन के रूप में परिभाषित किया जायेगा। हमें स्पष्ट रहना होगा कि मजदूरों का अपने हकों के संघर्ष के लिये संगठित होने की जरूरत है; जबकि बाजार अब तीस करोड़ नये उपभोक्ताओं का इंतजार कर रहा है।

न्यूनतम मजदूरी का सच


मध्यप्रदेश में 66 लाख सीमांत मजदूर हैं और 37 लाख छोटे-सीमांत किसान। इसका मतलब यह है कि 97.06 लाख परिवारों की आजीविका के साधन में मजदूरी एक अहम भूमिका निभाती है। ये लोग शारीरिक श्रम पर मुख्य रूप से निर्भर हैं। प्रदेश में अब तक 94 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करके जीवनयापन करते रहे हैं जहां उनका व्यापक स्तर पर शोषण होता है। आज की स्थिति में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून बन जाने के बाद मजदूरों को, जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए न्यूनतम मजदूरी मिलने की संभावनायें बढ़ी हैं। मध्यप्रदेश में कृषि श्रमिकों के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर न्यूनतम मजदूरी की दर तय की जाती है। वर्तमान स्थिति में कृषि श्रमिकों ने लिये न्यूनतम मूल वेतन रुपये 411.00 प्रति माह और रुपये 47.67 प्रतिदिन का प्रावधान है। इन दोनों मदों को मिलाकर राज्य में अकुशल कृषि तय की गई है अब सवाल यह है कि ताजातरीन माहौल में क्या मानव विकास के सूचकों के आधार पर न्यूनतम मजदूरी की इस दर को व्यावहारिक माना जा सकता है। श्रमिकों के लिये न्यूनतम मजदूरी का रुपये 1841.00 प्रतिमाह यानी रुपये 61.37 प्रतिदिन।

शिवपुरी के मझेरा गांव में आज रोजगार के कोई ठोस विकल्प नहीं हैं। यहां पर अवैध पत्थर की खदानों से जबर्दस्त नुकसान होने के बाद उन्हें बन्द कर दिया गया। लोगों के पास अब रोजगार का दूसरा विकल्प रोजगार गारंटी योजना के रूप में सामने आया। इसके अन्तर्गत उन्होंने 25 दिन के काम की मांग की और उन्हें काम उपलब्ध भी कराया गया परन्तु दो दिन बाद ही उन्होंने काम पर जाना बन्द कर दिया। हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद उन्हें जो न्यूनतम मजदूरी मिल रही थी उससे वे न तो अपने परिवार का पेट भर सकते थे और ना ही स्वास्थ्य, शिक्षा और कपड़ों जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकते थे। यह मामला केवल मझेरा का नहीं है बल्कि हर उस गांव का है जहां लोग न्यूनतम मजदूरी पर काम करके अपनी जरूरतें पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान न्यूनतम मजदूरी की केवल के दर और राशि में ही नहीं बल्कि सोच में ही आमूल-चूल परितर्वन करने की जरूरत है। अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि प्रचलित न्यूनतम मजदूरी की व्यवस्था गरीबी को मिटाने का नहीं बल्कि बढ़ाने का काम कर रही है। मध्यप्रदेश में अभी जो न्यूनतम मजदूरी तय की गई है उससे दो वक्त का भरपेट खाना भी जुगाड़ पाना कठिन है, स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास के अधिकार तो सपने हैं।

राज्य में मजदूरों को उनके श्रम के एवज में कितनी मजदूरी मिलेगी यह दरों की अनुसूची से तय होता है। मध्यप्रदेश में सामान्य सतह होने की स्थिति में 100 क्यूबिक फिट खुदाई को न्यूनतम लक्ष्य माना गया है जबकि कठोर मिट्टी या मुरूम होने पर 64 क्यूबिक फिट की खुदाई करने पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मिलेगी, यही मापदण्ड है। दरों की यह अनुसूची वास्तव में उस स्थिति में महत्वपूर्ण मानी जाती थी जब सरकारी योजनाओं में निर्माण कार्य ठेकेदारों के जरिये संपादित कराये जाते थे। उस परिस्थिति में महत्वपूर्ण यह नहीं होता था कि मजदूरों को रोजगार मिले और वे भूख के संकट से मुक्ति पा सकें। तब मकसद निर्माण कार्य पूरा करना ही रहता था। परन्तु अब मजदूरों के हक और जनकल्याण का सिद्धांत राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून में बहुत महत्वपूर्ण सैद्धांतिक आधार है। ऐसी स्थिति में यह देखना बहुत जरूरी है कि शारीरिक रूप से कमजोर मजदूर सरकार द्वारा तय किये गये कठोर श्रम मापदण्डों के अनुरूप काम कर पायेंगे अथवा नहीं। कई दलित एवं आदिवासी समुदाय शारीरिक रूप से इतने कमजोर हो चुके हैं कि वे भारी शारीरिक श्रम कर न्यूनतम मजदूरी नहीं कमा पायेंगे। वहीं दूसरी ओर यदि मजदूरी के निर्धारण की प्रक्रिया देखें तो पता चलता है कि निर्माण कार्य की प्रगति को पूरा दिखाने के लिये सरकार नियमों का कठोरता से पालन करती है और परिणाम यह होता है कि जिन मजदूरों को मजदूरी की बहुत जरूरत होती है उन्हें वह पूरी नहीं मिल पाती है। ऐसे में कुपोषण और भूख की यथास्थिति बनी रहती है।

पहली विडम्बना यह है कि राज्य सरकार द्वारा तय की गई दरों में भौगोलिक परिस्थितियों और क्षेत्रीय चरित्रों को कोई स्थान नहीं मिलता है। होशंगाबाद की नरम मिट्टी और बड़वानी की सामान्यत: कठोर सतहों को एक ही नजरिये से मापा जाता रहा है। जबकि व्यावहारिकता के स्तर पर देखा जाये तो पता चलता है कि मिट्टी के नरम या कठोर सतह वाले इलाकों में मजदूर उतना काम नहीं कर पाते हैं तो उन्हें आलसी माना जाता है। इतना ही नहीं जब केवल लक्ष्य को पूरा करने के बाद ही न्यूनतम मजदूरी के सिद्धांत को भी यदि रोजगार गारण्टी कानून में प्रथमिकता दी जायेगी तो तय है कि महिलाओं को समान मजदूरी का अधिकार भी नहीं मिल पायेगा उन्हें मजदूर के श्रम के आधार पर नहीं बल्कि औरत के श्रम के आधार पर मजदूरी मिलती है। व्यापक स्तर पर महिलाओं के समानता के हक का उल्लंघन तो हो ही रहा है। ऐसी स्थिति में जरूरी है सामुदाय, भौगोलिक परिस्थितियां और जन कल्याण के सिद्धांत के आधार पर मजदूरी तय करने की प्रक्रिया शुरू हो। इतना ही नहीं इसे बुनियादी अधिकार से जोड़कर परिभाषित किया जाना चाहिए ताकि दरों में वृद्धि हो सके।

दूसरे नजरिये से यह भी देखा जाना जरूरी है कि मजदूरी भुगतान की वर्तमान प्रक्रिया औसत से ज्यादा श्रम की मांग करती है जबकि मजदूर वर्ग का एक हिस्सा विकलांगता, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के संकट का सामना कर रहा है। इस वर्ग के लिये टास्क आधारित मजदूरी का भुगतान शोषण का माध्यम भर है। आज की स्थिति में श्रम के तकनीकी और मशीनीकरण के षड़यंत्र को तोड़ने की जरूरत है और इसके लिये सबसे पहले मजदूरी की दरों का मानवीय नजरिये से युक्तियुक्तकरण करना होगा। मजदूरी को जितना ज्यादा उत्पादकता आधारित बनाने की कोशिश होगी उतना ही ज्यादा मशीनों को प्राथमिकता देने का सिद्धांत प्रभावी होगा। अंतत: यह स्थापित कर दिया जायेगा कि मजदूर विकास और प्रगति की गति को नहीं बढ़ा पा रहे हैं इसलिये उन्हें मजदूरी के बजाय मजदूरी का मुआवजा देकर सरकार को अपना दायित्व पूरा कर देना चाहिये। यह अपने आप में एक गंभीर संकट होगा। इसलिये यह जरूरी है कि हम रोजगार के अधिकार को सुनिश्चित करने वाले कानून का गरीबी और सामयिक परिस्थितियों में विश्लेषण करें।

हालांकि भारत का न्यूनतम मजदूरी कानून, 1948, संविधान के अनुच्छेद 43 की भावना पर खड़ा हुआ है। संविधान स्पष्ट करता है कि सरकार सभी मजदूरों को सम्मानजनक जीवन जीने के लिये जरूरी मजदूरी की दर तय करेगी। न्यूनतम मजदूरी कानून भी अपने आप में ऐसी मजदूरी तय करने की वकालत नहीं करता है जिससे मजदूर और उसका परिवार दो वक्त पेट भर खाना भी हासिल न कर सके। कानून कहता है कि हर मजदूर को कम से कम इतनी मजदूरी तो मिलना ही चाहिए जिससे परिवार के हर वयस्क व्यक्ति को 2700 कैलोरी का भोजन, परिवार के लिये 72 गज कपड़ा, आवास की जरूरत पूरी हो सके। इतना ही नहीं रोशनी और खाना पकाने के लिये ईंधन की जरूरत पूरा करने के लिये न्यूनतम मजदूरी की 20 फीसदी राशि तय हो। इसके बाद 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधायें सामाजिक समारोह आयोजित करने की क्षमता और वृद्धों की जरूरत को पूरा करने के लिये न्यूनतम मजदूरी की भेंट की 25 फीसदी राशि और जोड़ी जाये। परन्तु राज्य लगातार संविधान कानून और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को ताक पर रखता रहा है। वर्तमान में मध्यप्रदेश में अनुकूल श्रमिकों के लिये न्यूनतम मजदूरी 61 रुपये 37 पैसे तय है जिसके आधार पर 42 लाख ग्रामीण परिवारों को मध्यप्रदेश ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून के अन्तर्गत 100 दिन का रोजगार देने के प्रयास चल रहे हैं। कठोर श्रम के एवज में मिलने वाली इस राशि के पांच सदस्यों के हिस्से में 12.12 रुपये आते हैं यानि एक वक्त के भोजन के लिये 6.6 रुपये। यदि न्यूनतम मजदूरी कानून 2700 कैलोरी भोजन उपलब्ध कराने की बात करता है तो हमें यह जरूर समझ लेना चाहिये कि भरपेट भोजन के लिये ही एक व्यक्ति पर 20 रुपये खर्च करने होंगे।

कपड़े, शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरत को जोड़ा जाये तो 12 रुपये प्रतिदिन अतिरिक्त की जरूरत होगी। इसका साफ मतलब यह है कि 160 रुपये की जरूरत को मध्यप्रदेश सरकार 61.37 रुपये में पूरा कर रही है। इस सम्बन्ध में एक विरोधाभास गरीबी की रेखा के सम्बन्ध में भी है। सरकार की परिभाषा के अनुसार ही 1800 रुपये प्रतिमाह से कम व्यय करने वाला परिवार भुखमरी की कगार पर है परन्तु वहीं दूसरी ओर सरकार, मजदूरों को केवल 500 रुपये प्रतिमाह की मजदूरी पर जीवनयापन करने के लिये मजबूर कर रही है। यूं तो भारत की सरकारें खुले बाजार और वैश्विकीकरण का तहेदिल से स्वागत करती है। परन्तु गरीबी की रेखा के वैश्विक मापदण्डों के सामने आंखे मूंद लेती हैं। वह ऐसे मापदण्ड स्वीकार कर लागू नहीं करती हैं जो गरीबों का संरक्षण करते हो। गरीबी की रेखा के अन्तर्गत मानक दो डॉलर यानी 90 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का व्यय है परन्तु भारत का योजना आयोग 12 से 14 रुपये हर रोज खर्च करके व्यक्ति सम्मानजनक जीवन हासिल कर सकता है। इस नजरिये को बदलने की जरूरत है। भारत में गरीबी की रेखा वास्तव में भुखमरी की रेखा है। यह भी एक सच्चाई है कि आज हमारे जनप्रतिनिधियों को भी न्यूनतम मजदूरी की कड़वी सच्चाई का आभास नहीं है। हाल ही में संसद की स्थायी समिति ने भी न्यूनतम मजदूरी की दर पर आश्चर्य ही व्यक्त किया।

प्रदेश में इस वक्त 66.90 लाख वंचित और सीमांत मजदूर हैं। जिनमें से 45.52 लाख महिलायें हैं। इसका मतलब यह है कि न्यूनतम मजदूरी की शोषण कर रही व्यवस्था की सबसे बड़ी शिकार महिलायें ही हो रही हैं। सरकार को यह सिद्धांत समझ लेना होगा कि जब तक मजदूरों को बेहतर मजदूरी नहीं मिलेगी तब तक उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता का विकास नहीं हो पायेगा। और इस विकास के अभाव में उनकी उत्पादकता में भी वृद्धि नहीं होगी। वास्तव में यदि सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना का एक ऐतिहासिक कदम उठाया है तो उसे मजदूरी की दर को भी नये सिरे से परिभाषित करने की पहल करना होगा। वैसे भी यदि केन्द्र सरकार मजदूरी पर होने वाले व्यय का भार वहन कर रही है तो राज्य सरकार को अपने मजदूरों को उनके हक दिलाने की राजनैतिक कोशिश करना चाहिये। इसका भार राज्य सरकार पर नहीं पड़ने वाला है। एक बेहतर कदम होगा यदि अब असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को भी संगठित क्षेत्र के कर्मकार इसलिये आज बेहतर स्थिति में हैं क्योंकि वे संगठित होकर अपने हकों के लिये लड़ते रहे है। ऐसे में संगठित हुये बिना ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून भी उन्हें संरक्षण नहीं दे पायेगा। भूमण्डलीकरण के दौर में लोकतंत्र के चारों स्तंभ बिना जनदबाव के जनमुद्दों, पर विचार नहीं करेंगे इसलिये संघर्ष की जरूरत को एक सच्चाई के रूप में स्वीकार कर लेना होगा।

मध्य प्रदेश में आजीविका

1.

राज्य में कुल कार्यशील जनसंख्या

19077568

2.

काश्तकारों की कुल संख्या

11058500

3.

कुल कार्यशील जनसंख्या का प्रतिशत

42.93 प्रतिशत

4

खेतिहर मजदूरों की संख्या

7880878

5.

कुल कार्यशील जनसंख्या का प्रतिशत

28.66 प्रतिशत

6.

गृह उद्योग में लगे व्यक्तियों की संख्या

1010067

7.

कुल कार्यशील जनसंख्या का प्रतिशत

3.92 प्रतिशत

8.

अन्य रोजगारित व्यक्तियों की संख्या

6307040

9.

कुल कार्यशील जनसंख्या का प्रतिशत

24.49 प्रतिशत

10.

राज्य में सीमांत कर्मियों की संख्या

6678971

11.

राज्य में पंजीकृत कारखाने

11034

12.

पंजीकृत कारखानों में दैनिक औसत रोजगार

634860

13.

प्रति लाख जनसंख्या पर औसत दैनिक नियोजन

1026

14.

राज्य में शिक्षित बेरोजगार

16.71 लाख

15.

सार्वजनिक क्षेत्र में कुल रोजगार

9.20 लाख

16.

राज्य में बाल मजदूरों की कुल संख्या

1065259

 

 

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