फिलीस्तीन, इजराइल, जॉर्जिया, अजरबैजान, इराक, तुर्किस्तान, कुवैत, ईरान, सऊदी अरब, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, सीरिया, जॉर्डन, भारत और चीन, यमन, मंगोलिया ऐसे देश हैं, जहां एक तरफ 11000 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा है, दूसरी तरफ 200 मिलीमीटर वार्षिक जल बरसता है। जहां दुनिया की सबसे कम वर्षा होती है, वहां पर बेपानी होकर कोई आत्महत्या करके मरता नहीं है। जहां सबसे ज्यादा वर्षा है, वहां जलसंकट है। इस संकट का समाधान जल साक्षरता है।
जल उपलब्धता का प्रबंधन और अनुशासित होकर उपयोग करने के लिए जल उपयोग दक्षता बढ़ाना है। इस हेतु अब पूरी दुनिया को जल साक्षरता की आवश्यकता है। एशिया और अफ्रीका को ज्यादा जरूरत है। अफ्रीका में तो समुद्र किनारे के देश जैसे साउथ अफ्रीका, केपटाउन सबसे पहले बेपानी हो गये हैं। इसी प्रकार मिडिल ईस्ट और सेंट्रल एशिया पूर्णतया बेपानी बनने के रास्ते पर चल रहे हैं।
हमें स्पष्ट दिख रहा है कि, जल बे-समझी को बहुराष्ट्रीय उद्योग लाभ के लिए जल निजीकरण और व्यापारीकरण करने हेतु आगे आ रहे हैं। पूरी दुनिया में अब जल का व्यापार कंपनियां कर रही हैं। चीन ने अफ्रीका की जमीन और पानी दोनों ही हथियाने शुरू कर दिए हैं।
भारत में फ्रांस की जल कंपनियां व्यापार करने हेतु 18 शहरों में समझौता कर चुकी हैं। सबसे पहले नागपुर में हुआ है। शेष दिल्ली के नांगलोई, इंदौर, खंडवा आदि सब में काम शुरू कर दिया है। यह जल व्यापार ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही है। पहले व्यापार, फिर राज कायम करना। यूरोप की कंपनियां पूरी दुनिया में इसी प्रकार अपना राज कायम करती थीं।
अब सेवा के नाम पर नया राज करने का यह रास्ता निकाला है। इसी रास्ते पर अब सभी चल रहे हैं। इससे बचना है तो जल साक्षरता करने की जरूरत है। यह अभी नहीं किया गया तो तीसरा विश्वयुद्ध (जल युद्ध) की तैयारी दुनिया में दिख रही है। यह जल युद्ध, पेयजल हेतु शहरों और गांवों के बीच होगा। खेती और उद्योगों के बीच अब चल ही रहा है। खेती में भी सिंचित - असिंचित के बीच में लड़ाई चलेगी। उद्योगों में प्रदूषण और जल शोषण करने वाले तथा जल को बचाने वाले या कम जल उपयोग करने वाले भी आपस में लड़ेंगे। यह लड़ाई गांव से लेकर शहरों, राज्यों और देशों के बीच हो रही है। इस लड़ाई ने स्थाई उजाड़ विस्थापन शुरू कर दिया है।अफ्रीका और मध्य एशिया के देश उजड़कर यूरोप की तरफ प्रस्थान कर रहे हैं। वहां अभी केवल तनाव दिखता है, लेकिन आगे चलकर यही युद्ध में बदलेगा।
जलवायु परिवर्तन शरणार्थी और यूरोप शहरवासियों के बीच युद्ध से बचने के लिए भारत ने पहले अपने देश में शुरुआत की है। दुनिया में शांति कायम रखने हेतु जलयात्रा का पहला चरण सम्पन्न हो गया है। दूसरे की तैयारी चल रही है। इसी से हम सीख रहे और सिखा भी रहे हैं।
मध्य एशिया, अफ्रीका व यूरोप में विश्व जल शांति यात्रा का पहला चरण सम्पन्न हुआ है। इसमें स्पष्ट रूप में समझ आया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ही विस्थापन बढ़ रहा है। यही लड़ाई झगड़ों का मूल कारण बन रही हैं। इस यात्रा का लक्ष्य एशिया-अफ्रीका के देशों में जाकर, उनको मजबूरी में विस्थापन (उजाड़) कम करने हेतु समझना-समझाना और उन्हें जल सहेजने में लगाना है। जिससे इनके पास हमेशा जल उपलब्ध रहे। उन्हें बेपानी होकर उजड़ना नहीं पड़े। फिर यूरोप के इस विस्थापन से संबंधित देशों में जाकर वहां के राज-समाज को उनके साथ सद्भावनापूर्ण व्यवहार करने का मार्गदर्शन दिया है। जिससे उजड़कर आने वालों को सही शरण मिल सके। वे भी अच्छे शरणार्थी सिद्ध होवें। दोनों में ही सद्भावना के बीज बोना ही इसका लक्ष्य रहा है।
शरणदाता का हृदय बड़ा हो के इन्हें देखकर पसीजे और इनके लिए दरवाजे खोलें। शरणार्थियों की आंखों में भी पानी आये। प्यार का स्थान पाकर शरणार्थियों की आंखों का पानी देखकर यूरोपियन का दिल पसीजेगा तो अफ्रीकन और मध्य एशियन भी प्यार की पानी की बूंदें आंखों से टपकाएगा। यह आज बेपानी दुनिया के संकट के समय की पुकार है। इन्होंने एक काल में इन पर राज करके इन्हें कमजोर बनाया था। इसलिए अब यूरोप अपने पुराने उस कर्ज को भी चुकाये, यह उसे समझाया है।
हमें यह बार-बार याद करने की ज़रूरत है कि, दुनिया में फैली इस अशांति की जड़ में कहीं न कहीं पानी है। अब आप फिलिस्तीन को ही ले लीजिए; फिलिस्तीन, पानी की कमी वाला देश है। फिलिस्तीन के पश्चिमी तटों पर एक व्यक्ति को एक दिन में मात्र 70 लीटर पानी ही उपलब्ध है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से काफी कम है।
एक व्यक्ति को प्रति दिन कितना पानी चाहिए? इसके आकलन के अलग-अलग आधार होते हैं। आप गांव में रहते हैं या शहर में? आपका शहर सीवेज पाइप वाला है या बिना सीवेज पाइप वाला? यदि आप बिना सीवेज पाइप वाले छोटे शहर के बाशिंदे हैं, तो भारत में आपका काम 70 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन में भी चल सकता है।
सीवेज वाले शहरों में न्यूनतम जरूरत 135 से 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की उपलब्धता होनी चाहिए। भारत सरकार का ऐसा कायदा है। आप किसी महानगर में कार और किचन गार्डन और बाथ टैंक के साथ रहते हैं, तो यह ज़रूरत और भी अधिक हो सकती है| फिलिस्तीन में कुदरती तौर पर ही ऐसा है या जलसंकट के और कारण हैं ? यहां यह समझना जरूरी लगता है।
फिलीस्तीन में पानी का यह संकट कुदरती नहीं है। हालांकि फिलिस्तीन की सरकार, अंतरराष्ट्रीय समुदाय, यहां तक कि वहां का साहित्य भी कहता तो यही है कि, फिलिस्तीन का जलसंकट, क्षेत्रीय जलवायु की देन है। असल में फिलिस्तीन का जलसंकट इज़रायली किबुत्जों द्वारा फिलिस्तीन के जलस्रोतों पर नियंत्रण के कारण है।
फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के साझे स्रोतों को जाकर देखिए तो उनका 85 प्रतिशत पानी इज़रायल ही उपयोग कर रहे हैं। उन्होंने ऑक्युपाइड पैलेस्टिन टेरीटरी (ओपीटी) के इलाके के लोगों को जलापूर्ति के लिए, इजरायल पर निर्भर रहने को मजबूर कर दिया है। कितना अन्यायपूर्ण चित्र है! एक ओर देखिए तो ग्रामीण फिलिस्तीनियों को बहता पानी तक नसीब नहीं है। दूसरी ओर फिलिस्तीन में बाहर से आकर बसे इजरायलियों के पास बड़े-बड़े फार्म हैं, हरे-भरे गार्डन और स्वीमिंग पूल हैं। उनके पास सिंचाई हेतु पर्याप्त पानी है और पानी के शोषण के लिए मशीनें भी हैं।
इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था 'ओस्लो एकर्ड'। इस एकर्ड के मुताबिक, फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के जलस्रोतों में 80 प्रतिशत पर इजरायल का नियंत्रण रहेगा। यह समझौता अस्थायी था। किंतु इस समझौते को हुए आज 20 साल से ज्यादा हो गये। आज फिलिस्तीनियों की तुलना में इजरायली लोग चार गुने अधिक पानी का उपभोग कर रहे हैं, इसके बावजूद फिलिस्तीन कुछ नहीं कर पा रहा है। यह फिलिस्तीन की बेबसी नहीं, तो और क्या है?
अभी पिछली जुलाई के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दखल से एक द्विपक्षीय समझौता हुआ भी तो आप देखेंगे कि, यह महज एक कमर्शियल डील है। यह समझौता इजरायल को किसी भी तरह बाध्य नहीं करता कि वह पश्चिमी तटीय फिलिस्तीन के जलसंकट के निदान के लिए कुछ आवश्यक ढांचागत उपाय करे। यह समझौता, फिलिस्तीन प्राधिकरण को सिर्फ एक छूट देता है कि वह चाहे तो इजरायल से 32 मिलियन क्यूबिक मीटर तक पानी खरीद सकता है। इसमें से 22 मिलियन क्यूबिक पश्चिमी तटीय इलाके को मिलेगा, जो 3.3 सिकिल प्रति क्यूबिक मीटर की दर से होगा। शेष 10 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी गाजा पट्टी के लिए होगा, जो 3.2 सिकिल प्रति क्यूबिक मीटर की दर से मिलेगा। (3.3 सिकिल यानी 0.9 डॉलर) यह सब देख-सुनकर मैं बहुत दुःखी हुआ।
यदि आपको कभी फिलिस्तीनियों से मिलने का मौका मिले, तो आप पायेंगे कि वे दिल के अच्छे हैं। लेकिन वे जो पानी पी रहे हैं, वह विषैली अशुद्धियों से भरा हुआ है। वे किडनी में पथरी जैसी कई जलजनित बीमारियों के शिकार हैं। उनका ज्यादातर पैसा, समय और ऊर्जा इलाज कराने में जा रहा है। फिलिस्तीनियों के पास जमीनें हैं, लेकिन वे इतनी सूखी और रेगिस्तानी हैं कि, वे उनमें कम पानी की फसलें भी नहीं उगा सकते वे मांसाहारी हैं, लेकिन मांस उत्पादन को भी तो पानी चाहिए।। यही वजह है कि फिलिस्तीनी, एक दुःखी खानाबदोश की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। वे किसी तरह अपने ऊंट और दूसरे मवेशियों के साथ घुमक्कड़ी करके अपना जीवन चलाते हैं। पहले मवेशी को बेचकर, कुछ हासिल हो जाता था। फिलिस्तीनी कहते हैं कि, अब तो वह समय भी नहीं रहा।
फिलिस्तीन सरकार ने सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ज़रूर कुछ किया है; किंतु वह अपर्याप्त है। मुझे तो ज्यादातर फिलिस्तीनी असहाय ही दिखे। खानाबदोश फिलिस्तीनियों को खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा की कितनी जरूरत है; यह बात आप इसी से समझ सकते हैं कि, अपनी जरूरत पूरी करने के लिए वे कभी-कभी लूट भी करने लगे हैं। मजबूरी में उपजी इस नई हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण वे कभी-कभी सीरिया के सुन्नी और फिलिस्तीन के शिया के बीच संघर्ष का हिस्सा भी बन जाते हैं। किंतु क्या इस झगड़े की उपज वाकई सांप्रदायिक कारणों से हुई है? हमें यह सवाल बार-बार अपने से पूछना चाहिए।
वहां जाकर मुझे जो पता चला कि, यह है तो शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो कि जब किसी न किसी इज़रायली और फिलिस्तीनी के बीच पानी को लेकर मारपीट न होती हो। किंतु दोनों देशों की सरकारें आपसी जल विवाद के त्वरित समाधान के लिए कोई संजीदगी नहीं दिखा रहीं, क्यों? क्योंकि न तो दोनों देशों की सरकारें ही एक-दूसरे पर भरोसा करती हैं और न ही लोग। अतः सबसे पहले जरूरी है कि, दोनों देशों की सरकारें और लोग आपस में सकारात्मक संवाद के मौके बढ़ाएं।
सकारात्मक संवाद बढ़ने से ही विश्वास बढ़ता है। विश्वास के बिना फिलिस्तीन के जलसंकट का कोई समाधान नहीं निकल सकता। जब सकारात्मक संवाद शुरू होगा, तो पानी इंजीनियरिंग, तकनीक और अनुशासित उपयोग के मामले में फिलिस्तीन को सिखाने के लिए इजरायल के पास बहुत कुछ है। फिलिस्तीन उससे सीख सकता है। इसी साझी सकारात्मकता से इस क्षेत्र में जल संतुलन कायम होगा। इसी से इस क्षेत्र में शांति बहाल होगी, वरना पानी के लिए विश्व युद्ध की भविष्यवाणी तो बहुत पहले की ही जा चुकी है।
इससे पहले कि, आप यह बताएं कि इजरायल के पास क्या है सिखाने लायक, मेरे मन में एक जिज्ञासा है। आप इतने देश गये। आपको भाषा की दिक्कत नहीं आई?
मैंने कहा नहीं, वैसे दूसरों को समझाने लायक इंग्लिश तो मैं बोल लेता हूं, फिर भी यदि कहीं आवश्यकता हुई तो ज्यादातर जगह मुझे ट्रांसलेटर मुहैया करा दिए जाते हैं। फिर मैं वहां कोई आम सभाओं को संबोधित करने तो जाता नहीं हूं। मुझे विदेश में ज्यादातर जगह, शासकीय-प्रशासकीय अफसरों, नेताओं अथवा समाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के बीच बोलने के लिए बुलाया जाता है। व्यक्तिगत बातचीत में हिंदी-अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषा के व्यक्ति से बात करने की ज़रूरत हुई, तो कोई न कोई मदद कर ही देता है। शुरू में मुझे सबसे ज्यादा कठिनाई जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों से बातचीत करने में आयी थी। आखिर में वहां मुझे अपने आप ही अच्छे अनुवादक मिल गये।
इजराइल का फिलिस्तीन के पानी पर दादागिरी का वर्णन आप सुना चुके। इससे पहले कि आप इजराइल के पानी प्रबन्धन के बारे में बताएं, बेहतर होगा कि आप वहां से जुड़े पानी का कोई और विवाद हो तो बताएं।
हां, है न। इजराइल और जॉर्डन के बीच पानी का विवाद बहुत पुराना है। यह विवाद, जॉर्डन नदी के रेपेरियन राइट से जुड़ा है। अब आप देखिए कि, लेबनान, सीरिया, जॉर्डन, इजराइल और कुछ हिस्सा फिलिस्तीन का कायदे से जॉर्डन नदी के पानी के उपयोग में इन सभी की हकदारी है। ताजे जल निकासी तंत्र की बात करें तो खासकर इजराइल, जॉर्डन और फिलिस्तीन के लिये जॉर्डन नदी का विशेष महत्व है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि जॉर्डन के पानी पर सबसे बड़ा कब्जा, इजराइल का है। इजराइल ने फिलिस्तीन के राष्ट्रीय प्राधिकरण को पानी देने से साफ-साफ मना कर रखा है।
लोग भूल जाते हैं कि, दुनिया के 195 देशों में से करीब-करीब 150 देश ऐसे हैं, जिनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वहां पानी का कोई संकट नहीं है। आप जड़ में जाएंगे तो पाएंगे कि पानी के संकट के कारण आई अस्थिरता ही आगे चलकर अन्य, सामाजिक, आर्थिक और सामरिक समस्याओं के रूप में उभरी है। आप नजर घुमाकर अपने ही देश में देख लीजिए। बांग्लादेश के हमारे पर्यावरण मित्र, फरक्का बांध को लेकर अक्सर सवाल करते हैं। हम चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी की हरकतों पर सवाल उठाते हैं। नेपाल से आने वाली नदियों में बांधों से अचानक छोड़े पानी के कारण तबाही पर चर्चा होती ही है। पाकिस्तान और हमारे बीच विवाद का एक मुद्दा, पानी भी है। है कि नहीं?
देश के भीतर देखिए, सतलुज, कावेरी आदि पर विवाद-ही-विवाद हैं। इन्हीं विवादों का जब राजनीतिक इस्तेमाल होता है, तो ये ही दो सत्ताओं के बीच की तनातनी की बुनियाद बन जाते हैं। आज चीन, रूस, अमेरिका जैसे देश रासायनिक हथियारों को मुद्दा बनाकर सीरिया के पक्ष-विपक्ष में भले ही खड़े दिखाई दे रहे हों; दुनिया को ऊपरी तौर पर भले ही लग रहा हो कि तीसरे विश्वयुद्ध का कारण हथियारों की होड़ या वर्ग आधारित उन्माद है। किन्तु क्या आप इनकार कर सकते हैं कि आमने-सामने खड़े देशों में एक की नीयत, दूसरे देश के प्राकृतिक संसाधनों को हड़प लेने की नहीं है?
आप देखें कि इजराइल ने 156 मील लम्बी जॉर्डन नदी पर क्या कर रखा है? उसने एक बांध बना रखा है। यह बांध, जॉर्डन देश की ओर बहकर जाने वाले पानी को रोक देता है। इजराइल यह सब इसके बावजूद करता है, जबकि जॉर्डन और उसके बीच पानी को लेकर 26 फरवरी, 2015 को हतस्ताक्षरित एक औपचारिक द्विपक्षीय समझौता अभी अस्तित्व में है। इस समझौते के तहत पाइपलाइन के जरिए रेड सी को डेड सी से जोड़ने तथा एक्युबा
गल्फ में खारे पानी को मीठा बनाने के एक संयंत्र को लेकर सहमति भी शामिल है। ताजा पानी मुहैया कराने तथा तेजी से सिकुड़ते डेड सी की दृष्टि से इस समझौते का महत्व है। आलोचना करने वालों का कहना है कि, ऐसा कोई समझौता तब तक प्रभावी नहीं हो सकता, जब तक कि इजराइल द्वारा की जा रही पानी की चोरी रुक न जाये। इजराइल द्वारा की जा रही पानी की इस चोरी ने जॉर्डन की खेती और उद्योग... दोनों को नुकसान पहुंचाया है। जॉर्डन के पास घरेलू उपयोग के लिये भी कोई अफरात पानी नहीं है। यहां भी वही हुआ? जॉर्डन में भी लोगों ने पहले पानी के लिये संघर्ष किया और फिर अपना देश छोड़कर स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड और बेल्जियम चले गए।
हालांकि, जॉर्डन के लोग यह भी महसूस करते हैं कि, समझौते के बावजूद, 'जलसंकट बरकरार रहने वाला है। वे मानते हैं कि, इसका पहला कारण, जॉर्डन में भी गर्मी तथा मौसमी बदलाव की बढ़ती प्रवृत्ति है। इसकी वजह से जॉर्डन में भूमि कटाव और गाद में बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरा वे मानते हैं कि, यदि वे प्रदूषित पानी को साफ कर सकें, तो उनके पास उपयोगी पानी की उपलब्धता बढ़ सकती है। किन्तु उनके पास इसकी तकनीक का अभाव है।
वर्षा जल का उचित संचयन और प्रबंधन वहां कारगर हो सकता है। किन्तु जॉर्डन के इंजीनियर, छोटी परियोजनाओं में रुचि नहीं लेते। उनकी ज्यादा रुचि, नदी घाटी आधारित बड़ी बांध परियोजनाओं में रहती है। लोग आगे आएं तो यह हो सकता है। किंतु खुद के पानी प्रबंधन के लिये उनमें प्रेरणा का अभाव है। जॉर्डन में पानी पर सरकार का अधिकार है लोगों के बीच पानी प्रबंधन की स्वस्फूर्त प्रेरणा के अभाव के पीछे एक कारण यह भी दिखता है।
सरकार और समाज के बीच पुल बने, तो प्रेरणा को ज़मीन पर उतारने में सफलता मिल सकती है। लेकिन मुझे तो वहां ऐसे उत्साही पानी कार्यकर्ताओं का भी अभाव ही दिखाई दिया। जॉर्डन चाहे, तो इजराइल के पानी प्रबन्धन से सीख ले सकता है किन्तु दो देशों के बीच विश्वास का अभाव यहां भी आड़े आता है।इजराइल की होशियारी देखिए कि, जहां पराए पानी को हथियाने के मामले में वह दादागिरी से काम ले रहा है, वहीं अपने पानी के उपयोग के मामले में बेहद समझदारी से।
इजराइल, जल-संरक्षण तकनीकों के बारे में अपने नागरिकों को लगातार शिक्षित करता रहता है। विविध भूगोल तथा विविध आर्थिक परिस्थितियों के कारण भारत जैसे देश के लिये यह भले ही अनुचित हो, लेकिन इजराइल ने पानी के केन्द्रित और वास्तविक मूल्य आधारित प्रबंधन को अपनाया है। इजराइल सरकार ने वहां जल नियंत्रकों की नियुक्ति की है।
इजराइल ने खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाया है। हालांकि यह बेहद महंगी तकनीक है; फिर भी इजराइल ने इसे अपनाया है तो इसके पीछे एक कारण है। इजराइल जानता है कि, उसके पास पानी का अपना एकमात्र बड़ा जलस्रोत, गलिली सागर (अन्य नाम: किन रेट लेक) है। उसके पास कोई अन्य स्थानीय विकल्प
नहीं है। इजराइल की एक-तिहाई जलापूर्ति, गलिली सागर से ही होती है। खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक के मामले में इजराइली संयंत्रों की खूबी यह है कि वे इतनी उम्दा ऊर्जा क्षमता व दक्षता के साथ संचालित किये जाते हैं कि खारे पानी को मीठा बनाने की इजराइली लागत, दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में कम पड़ती है।
गौर करने की बात है कि, इजराइल में घरेलू जरूरत के पानी की मांग में से 60 प्रतिशत की पूर्ति, इस प्रक्रिया से मिले मीठे पानी से ही हो जाती है। जॉर्डन नदी पर रोके पानी को वह पूरी तरह पेयजल की मांग पूरी करने के लिये सुरक्षित कर लेता है। फिलिस्तीन के पश्चिमी घाट के जलस्रोतों का इस्तेमाल वह कर ही रहा है।
इजराइल ने अपने देश में एक बार उपयोग किये जा चुके, कुल पानी में से 80 प्रतिशत को पुन: शुद्ध करने तथा पुनरुपयोग की क्षमता हासिल कर ली है। इजराइल अपने समस्त सीवेज वाटर का उपचार करता है। वह ऐसे कुल उपचारित सीवेज जल में से 85 प्रतिशत का उपयोग खेती-बागवानी में करता है; 10 प्रतिशत का इस्तेमाल नदी प्रवाह को बनाए रखने व जंगलों की आग बुझाने के लिये करता है और 5 प्रतिशत पानी को समुद्र में छोड़ देता है।
इजराइल में उपचारित जल का कृषि में उपयोग इसलिये भी व्यावहारिक हो पाया है, क्योंकि इजराइल में 270 किबुत्ज हैं। सामूहिक खेती आधारित बसावटों को इजराइल में 'किबुत्ज' कहते हैं। सामूहिक खेती आधारित बसावटों का यह चलन, इजराइल में अनोखा है। यह चलन, पुनर्चक्रित जल की आपूर्ति को व्यावहारिक बनाने में मददगार साबित हुआ है।
इजराइल ने सिंचाई तकनीक के क्षेत्र में जो इनोवेशन किये हैं, उनकी खूबी सिर्फ यह नहीं है कि वे पानी की बर्बादी रोकते हैं अथवा कम पानी में फसल तैयार कर देते हैं; उनकी खूबी यह है कि वे फसल के उत्पादन की मात्रा व गुणवत्ता को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। उनके ये नवाचार, ऐसे बीजों से भी संबंध रखते हैं, जो कि कम ताजे पानी में भी बेहतर उत्पाद दे पाते हैं। इजराइल ऐसे बीजों को तैयार करने वाला दुनिया का अग्रणी देश है।
इजराइल का जलापूर्ति प्रबन्धन सीखने लायक है। इजराइल ने पानी पाइपलाइनों की लीकेज रोकने के बेहतरीन प्रबन्ध किये हैं। इजराइल ने पानी को प्रबन्धन की दृष्टि से तीन श्रेणियों में बांटा है - ए, बी और सी। वर्षा जल और नदियों के बहते जल को 'ए' श्रेणी में रखा है। नगरों को आपूर्ति किये जा रहे ताजे जल यानी नदी जल की पाइप अलग हैं और इनका रंग भी अलग। ये नीले रंग की हैं। खेती में उपयोग के लिये
भेजे जा रहे पुनर्चक्रित जल की पाइपों का रंग भूरा है। उद्योग के पुनर्चक्रित पानी को उपयोग के लिये उद्योगों को ही भेजा जाता है। उद्योग को जाने वाले पुनर्चक्रित जल की पाइपों का रंग, लाल रखा गया है। कह सकते हैं कि इजराइल, दुनिया का ऐसा देश है, जिसने पानी के लिये अपना प्रबन्धन कौशल, इंजीनियरिंग, संसाधन तथा सामरिक व सांस्कृतिक शक्ति सब कुछ समर्पित भाव से झोंक दिया है।
उसके इस समर्पण का ही परिणाम है कि, कुल इजराइली भूगोल में से 60 प्रतिशत भू-भाग के मरुभूमि होने तथा 1948 की तुलना में 40 गुना आबादी हो जाने के बावजूद, इजराइल के पास आज उसकी जरूरत से इतना ज्यादा पानी है कि वह अपने पड़ोसियों को पानी बेचता है। निःसन्देह, इसमें दादागिरी से हासिल दूसरे के पानी का भी योगदान है, किन्तु इजराइली पानी प्रबंधन का योगदान भी कम नहीं है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि पानी की तकनीक बेचने का इजराइली व्यापार भी आज करीब 2.2 अरब डॉलर प्रतिवर्ष का है।
अब आप पूछेंगे कि क्या भारत में ऐसा हो सकता है?
--तो मैं कहूंगा कि इजराइल ऐसा कर पा रहा है क्योंकि मलिन जल को उपचारित करते हुए वह शुद्धता के उच्चतम मानकों की अनदेखी नहीं करता है। इस बारे में वहां अनुशासित है। पानी प्रबंधन के ज्ञान को जमीन पर उतारने की इजराइली प्रक्रिया और तंत्र... जितना मैंने जाना है, भ्रष्टाचार में डूबे हुए नहीं हैं; वरना पानी प्रबंधन का भारतीय ज्ञानतंत्र, कम अनूठा नहीं है। भारत की कई कंपनियों ने इजराइल के पानी प्रबंधन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
यदि भारत अपने पानी की नीति और नीयत दोनों को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की ठान ले, तो भारत का पानी प्रबंधन, दुनिया को राह दिखाने वाला बन सकता है। यह प्यासे को पानी पिलाने का ही काम नहीं, दुनिया में अमन और शान्ति बहाल करने का भी काम होगा। भारत की सरकार और समाज को इस बारे में संजीदगी से सोचना चाहिए।
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