भारत में लगभग 42.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती की जाती है। धान-मछली युग्मन से धान की पैदावार में काफी बढ़ोत्तरी की जा सकती है। लेखकों के विचार में धान-मछली कृषि को एक ऐसे पारिस्थितिक तन्त्र के रूप में समझा जा सकता है जहाँ प्राकृतिक स्रोतों का भरपूर उपयोग होता है, ऊर्जा की बचत होती है, तथा फसल विविधीकरण सरल बन जाता है जिसके फलस्वरूप निवेश सम्बन्धी जोखिम कम हो जाता है। प्रस्तुत लेख में इस दिशा में और शोध की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि मछली एवं धान के संयुक्त उत्पादन का जुड़ाव (युग्मन) लगभग 2000 वर्ष पूर्व चीन में डान राजवंश के शासनकाल में हुआ। लेकिन इस प्रयोग में तीव्र विस्तार अब से कुछ वर्ष पूर्व 1970 के दशक के अन्त में आया तथा तब से यह धान उत्पादक किसानों के लिए एक अप्रधान व्यवसाय के रूप में प्रचलित हो गया। इससे किसानों को अतिरिक्त प्रोटीन की प्राप्ति के साथ-साथ अतिरिक्त आय भी होने लगी। आज से दो दशक पहले मछली-धान की युग्मन खेती दुनिया के 107 देशों के लगभग 135 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैले धान के खेतों में प्रचलित थी किन्तु 1975 के आते-आते अधिक उत्पादक धान किस्म के आगमन के फलस्वरूप मछली-धान युग्मन का चलन सिमटकर 44 देशों में रह गया। इस प्रकार कई देशों द्वारा धान के खेतों में मछली पालन की प्रक्रिया रोक दी गई, फिर भी भारत सहित कुछ अन्य देशों में मछली-धान युग्मन कृषि का क्षेत्रफल बढ़ जाने के कारण इस प्रकार की खेती के कुल क्षेत्रफल में कोई विशेष अन्तर नहीं आया।वर्तमान में भारत में लगभग 42.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती की जाती है जिसमें से 20.9 मिलियन हेक्टेयर पूर्वी क्षेत्र में आता है। भारत में मछली उत्पादक धान के खेत कई रूपों में मिलते हैं, जैसे- गहरे पानी वाले बारहमासी खेत, मौसमी जलाक्रांत खंड, वर्षापूरित अवरुद्ध खंड, पहाड़ी घाटी, बाढ़ आक्रांतित खंड, मीठे पानी वाले तथा तटीय क्षेत्रों में स्थित धान के खेत। भारत के पूर्वी भाग में देशी किस्म की मछलियाँ सामान्यतः पानी से भरे हुए धान के खेतों में पाई जाती हैं, जिन्हें किसान जलस्तर कम हो जाने पर तथा धान की फसल कट जाने पर पकड़ते हैं। नदी के आस-पास के कई क्षेत्रों में जलमग्न धान के खेत ही वे स्रोत हैं जहाँ प्राकृतिक रूप से छोटी मछलियाँ पैदा होती हैं। लेकिन अब भी धान के खेतों में मछली पालन के सम्बन्ध में खोज और विकास करने की भारत को काफी जरूरत है।
जीवविज्ञानी सिद्धान्त
धान के खेत जटिल पारिस्थितिक तन्त्र के रूप में काम करते हैं जिसमें अजैव हिस्से के रूप में पानी, उष्मा, प्रकाश, वायु, पोषक तत्व एवं मृदा आदि पर्यावरणीय घटक आते हैं मछली पालन सम्बन्धी पोखर की तुलना में धान का खेत एक उथली जल संरचना के रूप में होता है, जहाँ जल के तापमान में परिवर्तन तथा उर्वरकता की प्रक्रिया में दैनिक विचलन होता रहता है। मछली-धान युग्मन कृषि की स्थिति में मछलियों की श्वसन क्रिया से कार्बन-डाई-ऑक्साइड में वृद्धि होती है, जो धान के लिए लाभकारी होती है। धान के खेतों में जैव हिस्से के रूप में धान स्वयं स्वपोषित वर्ग में आता है, जबकि मछलियाँ परपोषित वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। पोषक की तीन रीतियों में प्राथमिक पोषण रीति में जलीय खरपतवार, धान के अवशेष, शैवाल एवं पादप-प्लवक आते हैं, द्वितीयक पोषण रीति में अधिकांशतः प्राणि प्लवक आते हैं, जबकि तृतीयक पोषण रीति के अन्तर्गत नितल जीवसमूह आते हैं। धान के खेतों में विभिन्न स्तरों पर बहुत से प्राथमिक और द्वितीयक उत्पादक एवं उपभोक्ता जीव पाए जाते हैं, जिनमें से अधिकांश मानव के उपयोग में नहीं आते। ये उत्पादक एवं उपाभोक्ता जीव विभिन्न पदार्थों एवं ऊर्जा के उपभोग में धान के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। मछली पालन से विभिन्न जीवों के काम में आने वाले पदार्थ एवं ऊर्जा केवल मछली पालन के काम में आ सकते हैं। ऐसा करने से धान की फसल की बढ़वार में वृद्धि तथा सौर ऊर्जा के निर्धारण में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप उपज में बढ़ोत्तरी होती है।
पारिस्थितिकी दबाव
धान-मछली युग्मन कृषि की सबसे बड़ी बाधा जल-स्तर में होने वाला उतार-चढ़ाव है। धान की पौध फूटने की प्रारम्भिक स्थिति में खेतों में पानी दिया जाता है जिसका स्तर धान की बढ़वार के समय अनुकूल बढ़ाया जाता है। जब जलस्तर कम होता है तब छोटी मछलियों को उसमें छोड़ा जाता है। इन मछलियों की बढ़वार जलस्तर में वृद्धि के साथ-साथ होती है हालाँकि मछलियों के अस्तित्व को उस समय गम्भीर संकट उत्पन्न हो जाता है जब फसल कटाई के समय खेत के पानी को पूरी तरह निकालना होता है इसलिए मछलियों का आगे पालन-पोषण करने के लिए खंदक एवं हौदी वगैरह का इन्तजाम करना चाहिए। धान के खेतों में पानी के तापमान में होने वाली घट-बढ़ तथा पी.एच. मछलियों की आवश्यकताओं के अनुकूल होती है। मछलियों को किशोरावस्था में जिस तरह का भोजन (छोटे-छोटे जीवों के रूप में) मिलना चाहिए, वह धान के खेतों में प्राकृतिक रूप से पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। लेकिन धान के खेतों की एक प्रमुख एवं गम्भीर समस्या खरपतवार है। चूँकि धान के खेतों में संवहनी पौधों में नाइट्रोजन की औसत उपलब्धि 3.3 प्रतिशत होती है, तो लगभग 214-603 किग्रा. नाइट्रोजन का उपभोग खरपतवारों द्वारा कर लिया जाता है, जो कि 1965-2745 कि.ग्रा. अमोनियम सल्फेट के समतुल्य होता है। इसलिए निष्कर्ष के रूप में यह विचार करने योग्य है कि खरपतवारों के कारण धान की उपज में 10 प्रतिशत की कमी हो जाती है। किन्तु शाकभक्षी मछलियों से खरपतवारों की उत्पत्ति में 50 प्रतिशत की कमी हो जाती है। अतः कुल मिलाकर धान की उपज में 5 प्रतिशत वृद्धि होती है। धान के खेतों में सर्वभक्षी मछलियों को छोड़ने से प्लवक जीव, जलवासी अन्य जीव, कीट, जीवाणु, कार्बनिक कूड़ा-करकट इत्यादि के प्रभावी उपयोग में भी मदद मिलती है। निष्कर्षतः धान के खेतों से खरपतवारों, प्लवक जीवों, जीवाणुओं, अन्य कीटों तथा कार्बनिक कूड़ा-करकट इत्यादि से कुल मछली उत्पादन 250 किग्रा. प्रति हेक्टेयर प्राप्त होने का अनुमान किया गया है।
मछली और धान के पारस्परिक सहजीवन की अंतःक्रिया न केवल दोनों के अल्पकालिक लाभ के लिए है बल्कि दीर्घकालिक रूप से भी धान-मछली कृषि चक्रण के लिए लाभकारी है। धान-मछली कृषि एक ऐसे पारिस्थितिक तन्त्र के रूप में समझी जा सकती है जहाँ प्राकृतिक स्रोतों का भरपूर उपयोग होता है, ऊर्जा की बचत होती है, अवशिष्ट पदार्थ उपयोग में आ जाते हैं तथा फसल विविधिकरण सरल बन जाता है और इसके फलस्वरूप निवेश सम्बन्धी जोखिम कम हो जाता है। मछली-धान युग्मन से मछली और धान की सहक्रियता बढ़ती है। जिससे धान की उपज के साथ-साथ भूसे की उपज में भी वृद्धि होती है। धान के खेत में मछलियों की उपस्थिति से मृदा की गुणवत्ता में भी सुधार होता है क्योंकि मछलियों की भोजन खोजने सम्बन्धी गतिविधियों के कारण पानी में घुलनशील ऑक्सीजन की सान्द्रता बढ़ती है। धान के खेतों में पाए जाने वाले घोंघो को मछलियों द्वारा नियन्त्रित किया किया जा सकता है। इनके द्वारा परभक्षी कीटों में भी 12 से 75 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सकती है। वर्ष भर रोजगार की सम्भावनाएँ, अल्प निवेश एवं अधिक लाभ आदि भी धान-मछली युग्मन के अन्य सकारात्मक पहलू हैं। सामान्यतः तीन तरह के डिजाइन वाले खेतों में मछली एवं धान की समवर्ती कृषि, जिसमें चक्रण तरीके के तहत धान के बाद मछलियाँ पैदा की जाती हैं, का प्रचलन लगभग पूरे एशिया में है। फिलीपिन्स, इंडोनेशिया एवं चीन में धान के खेतों में उथली खाई बनाई जाती है। इंडोनेशिया, भारत, थाईलैंड एवं चीन में धान के खेतों के पार्श्व (बगल) में आश्रयदाई पोखर होते हैं; भारत एवं बंग्लादेश में गहरे पानी वाले धान के खेत होते हैं।
धान-मछली युग्मन पर कुछ कार्य मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में किया गया है। इन पद्धतियों से आमतौर पर प्राप्त होने वाली मछलियों की उपज 225-750 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तक पहुँच गई है, हालाँकि 2250 किग्रा./हेक्टेयर उपज के बारे में भी सूचनाएँ मिली हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इस पद्धति को भोजन एवं आय प्राप्त करने के एक अतिरिक्त स्रोत के रूप में मान्यता मिल चुकी है।
इस पद्धति के अन्तर्गत धान के उपज में वृद्धि औसतन 4.6 से 28.6 प्रतिशत तक होती है। धान-मछली युग्मन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कई वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है किन्तु अब तक निम्नभूमि, मध्यम भूमि एवं सिंचित नहरी क्षेत्र के लिए धान-मछली युग्मन सम्बन्धी मनक-धारणीय तकनीक एवं डिजाइन का विकास नहीं किया गया है।
तन्त्र में सुधार
धान के खेतों के प्रचलित पारिस्थितिक तन्त्र की जलीय उत्पादकता उर्वरकों के बार-बार उपयोग के बावजूद कम है। ऐसा सम्भवतः धान के पौधों एवं जलीय खरपतवार की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा एवं छायाकरण के कारण होता है। खरपतवार के कारण मछलियों के प्राकृतिक भोज्य पदार्थों में कमी होना तथा द्विफसली पद्धति के अल्पकालिक होने से और इसके साथ-साथ शाकनाशी और कीटनाशकों का प्रयोग करने से मछली उत्पादन प्रभावित होता है। मध्यम भूमि, निम्न-भूमि एवं सिंचित नहरी क्षेत्र में धान-मछली युग्मन शुरू करने के लिए मछली की प्रजाति का चुनाव, भंडारण घनत्व एवं तकनीक का अभाव कुछ अन्य प्रमुख समस्याएँ हैं जो इस पद्धति के सुधार में आड़े आ जाती हैं।
वर्षा, वाष्पीकरण एवं रिसन को ध्यान में रखकर तटबंधयुक्त धान के खेतों में से बाहर छलके हुए अतिरिक्त जल को वर्षा के मौसम में धान के खेतों से थोड़ा नीचे आश्रयदायी पोखर में एकत्रित किया जा सकता है। जहाँ मध्यम भूमि में चार-पाँच महीने की छोटी अवधि के लिए छोटी मछलियाँ पाली जा सकती हैं। सिंचित नहर क्षेत्र में धान के ऐसे खेत बनाए जा सकते हैं जिनके बीच आश्रयदायी पोखर बनाए गए हो। इन पोखरों के जल को बदलने की भी व्यवस्था की जा सकती है जिससे मछली उत्पादन बढ़ सकता है। उच्च खिंचाव वाली निम्न भूमि में ऊँचे तटबंधों तथा आश्रयदायी पोखर से युक्त खंड काम में लाए जा सकते हैं। मध्यम खिंचाव की स्थिति में नियमित अन्तराल पर चौड़ी नालियाँ बनाई जानी चाहिए तथा खनन की गई मिट्टी को दो नालियों के बीच के स्थान पर डाल देना चाहिए। इससे समवर्ती दो नालियों के बीच के स्थान में जल की कम गहराई को बनाए रखा जा सकता है तथा जिसका उपयोग गहरे जल वाली धान की किस्मों के लिए किया जा सकता है। नालियों को निम्न खिंचाव पर स्थित संग्राहक बेसिन (खाड़ी) से जोड़ा जाता है जिससे नालियों के साथ-साथ संग्राहक बेसिन में भी आवरण पद्धति अपना कर मछली पालन सम्भव हो सके। खेतों को तैयार करते समय ऊँचे तटबंध बनाने चाहिए जिससे मछलियाँ बाहर न जा सके। प्लावक जीवों के उत्पादों के लिए तथा मछलियों के लिए आश्रयदायी अतिरिक्त स्थान के रूप में परिसीमा खाई खोदी जानी चाहिए। अम्लीय मृदा की प्रचलित समस्या को कम करने के लिए चूना एवं कार्बनिक खाद का प्रयोग किया जाना चाहिए। खेतों को तैयार करते समय शाकनाशियों का प्रयोग किफायत और बुद्धिमानी से करना चाहिए। किशोर मछलियों के लिए पादप एवं प्राणिप्लवक को अधिक प्रभावी ढँग से भोज्य पदार्थों के रूप में प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक स्थितियों में जलीय खरपतवार को साफ किया जाना चाहिए।
गंदलापन-प्रबंधन का उपज बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। गंदलापन जितना कम होगा उतना ही अधिक प्रकाश का प्रवेश पानी में होगा, जिससे भोज्य पदार्थों की उत्पादकता बढ़ेगी। कार्बामैट एवं आर्गेनोफास्फेट आधारित कीटनाशकों का प्रयोग किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप प्लावक जैवमात्रा में वृद्धि हो सकती है। अल्पावधि बढ़वार वाली समस्या से निपटने के लिए धान के खेतों में छोटी मछलियाँ छोड़ी जानी चाहिए तथा उनके लिए अधिक ऊर्जा वाले भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए। चक्रण फसल पद्धति अपना कर, बत्तख पालन कर एवं खेतों के तटबंधों को फल-सब्जी की फसलों के लिए उपयोग कर अतिरिक्त लाभ भी कमाया जा सकता है। फिर भी किसी भी सिफारिश को कार्यान्वित करने से पहले लाभ-लागत विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि अरसे से किसान धान-मछली की कृषि बिना अधिक कार्यकारी लागत खर्च के करते आ रहे हैं।
(लेखकद्वय पूर्वांचल जल प्रौद्योगिकी केन्द्र, भुवनेश्वर से संबद्ध हैं।)
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