मौत के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी

यह सच है कि पदार्थ जगत की शक्ति बहुत ही भयावह होती है तथा भूकंप जैसी घटनाएं विनाश से बचने की हमारी क्षमता पर लगातार प्रश्नचिह्न लगाती हैं, फिर भी ज्ञान-विज्ञान और संसाधनों की हमारी वर्तमान सीमा में जितना कुछ संभव है, वह भी अगर नहीं किया जाता तो यही मानना होगा कि सृष्टि की क्रूरता निर्ममता की सीमा में आती है, तो यह निर्ममता क्रूरता की सीमा में आती है।

जीवन के विधान में ही मृत्यु का स्थान बना हुआ है, यह मानव जाति बहुत दिनों से जानती है। तब से जबसे उसने मृत्यु को एक घटना के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया के रूप में देखा होगा। समस्त प्राणी जगत मृत्यु से गुजरता है, उसकी प्रचंड यातना से दो-चार होता है, लेकिन यह मनुष्य का विशेषाधिकार है कि उसे अपने अनुभवों को एक संदर्भ में रखने की बौद्धिक क्षमता प्रदान की गई, इसलिये मृत्यु उसके लिये एक घटना ही नहीं, एक प्रत्यय भी है। शायद यह भी कहा जा सकता है कि उसने यह क्षमता अपनी कुछ बुनियादी शक्तियों का प्रयोग और विकास करते हुए प्राप्त की हुई है। कोई चीज जितनी भयावह होती है, मनुष्य की स्मृति में उसके लिये उतना ही गहरा स्थान होता है। इसीलिये हमारी भाषा में मृत्यु से अधिक कारुणिक कोई शब्द नहीं है।

उस सामूहिक मृत्यु के बारे में क्या कहा जाये, जिसका एक करूण उदाहरण दक्षिण-पूर्व और दक्षिण एशिया में सुनामी लहरों का महातांडव है? निश्चय ही, मानव जाति की स्मृति में इस प्रकार की घटनाएं बहुत ही गहराई में दर्ज हैं, क्योंकि शायद ही कोई समूह हो, जिसने प्रकृति के इस भयावह विधान का अपने अतीत के किसी विगत खंड में अनुभव न किया हो। जाति या देश के सामूहिक अवचेतन में प्रलय की स्मृतियां अकाट्य कलम से नहीं लिखी हुई हैं? भारतीय चित्त में तो प्रलय मानो उसी तरह खुदा हुआ है, जैसे सृष्टि, स्रष्टा, ब्रह्मांड और जीवन! हमने प्रलय के दो भेद भी कर रखे हैं- पूर्ण प्रलय और खंड प्रलय। हम यह भी जानते हैं कि दोनों के बाद भी जीवन की संभावना बनी रहती है।

इसीलिये सृष्टि हमारे लिये एक ऐसे सर्प की तरह है, जिसकी पूंछ घूमकर उसके मुख से लगी हुई है और इसीलिये हमारी सृष्टि की हमारी अवधारणा चक्राकार है। यानी जीवन और मृत्यु एक महाचक्र के भीतर अवस्थित एक छोटा- सा चक्र है, हम जिसका विषय हैं, नियंता नहीं। यहीं कारण है कि विचार के स्तर पर मृत्यु को दार्शनिक उदासीनता के साथ स्वीकार करते हुए हमें कोई दुविधा नहीं होती। सुनामी तांडव हमें एक बार फिर यह याद करने को विवश करता है कि हम जो यह मानकर चलते हैं कि जीवन और खासकर मानव जीवन का उत्पादन सृष्टि-विधान का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है, वह एक आधारहीन मान्यता भी हो सकती है। प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन ही सबसे मूल्यवान लगता है, लेकिन यह देख पाने का सौभाग्य हम मनुष्यों को ही मिला हुआ है कि हम इस विस्तृत सृष्टि का अनिवार्य अंग नहीं हैं। अन्यथा क्या कारण है कि प्रकृति इतनी बड़ी संख्या से मानव जीवन की सृष्टि करती है और हर सौ-पचास साल बाद उसके एक बड़े हिस्से को इस तरह लील जाती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो और उसके बाद जीवन पहले की तरह ही चलता जाता है? लेकिन इस महाप्रश्न का एक उप-उत्तर भी है, जो हमारे आश्चर्य को थोड़ा कम कर सकता है।

हम सभी जानते हैं कि प्रकृति को विशालता और प्रभूतता पसंद है। अगर हम ईश्वर को विधाता के रूप में स्वीकार कर लें तो उसकी पहली विशेषता यानी ऐश्वर्य ही प्रभूतता का संकेतक है। आज भी वैज्ञानिक अपने फीते लेकर नापने में लगे हुए है कि हमारे इस ब्रहमांड का आकार क्या है। अभी तक तो उसकी कोई सीमा निश्चित नहीं की जा सकी है और 'असीम' शब्द रहस्यवाद की दुनिया में जितना सार्थक है, वैज्ञानिकता की दुनिया में भी उतना ही अर्थपूर्ण बना हुआ है। जो असीम न हुआ, वह ऐश्वर्य ही क्या! इसका दूसरा अर्थ यह है कि प्रकृति की योजना में सभी कुछ इतने बड़े पैमाने पर घटित होता है कि करोड़ और अरब जैसी मामूली संख्याओं की कोई अहमियत नहीं है। एक मामूली-सा पेड़ अपने कुछ वर्षों के जीवन में इतनी विशाल संख्या में अपने बीज छोड़ जाता है कि वे सभी वृक्ष के रूप में विकसित हो जाएं तो पृथ्वी पर हमारे पैर रखने की जगह नहीं बचेगी। यानी, पदार्थ जगत की विराटता की एक बहुत ही छोटी-सी झांकी जीवन जगत में भी दिखाई देती है।

अब इतने बड़े जीव जगत का कितना भी बड़ा हिस्सा विध्वंस की भेंट चढ़ जाये, सृष्टि के मूल विधान में क्या परिवर्तन आ सकता है! जरा पदार्थ जगत में होने वाले विशाल परिवर्तनों की श्रृंखला को याद कीजिये। हमारी पृथ्वी जितने बड़े-बड़े पिंड रोज बनते-बिगड़ते रहते हैं। पृथ्वी के भीतर होने वाले नियमित परिवर्तन भी कोई मामूली नहीं है। महाद्वीप के महाद्वीप अपने स्थान से खिसकते रहते हैं, महासागरीय धाराएं वेग से बहती रहती हैं और सूक्ष्म जगत में असंख्य जीवन जन्म लेते और मरते रहते हैं। जहां इतने बड़े पैमाने पर परिवर्तन का चक्र चल रहा हो, जिसे संख्याओं में रूपांतरित नहीं किया जा सकता, वहां एक-दो लाख आदमियों की मौत का हिसाब ही कौन रखता है! इस विराटता का थोड़ा-सा अनुभव करने के बाद ही हम सुनामी धाराओं से पैदा होने वाली विभीषिकाओं का कुछ अनुमान कर सकते हैं।

इस विराटता के सन्मुख हमें नतमस्तक होना ही चाहिये, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम मृत्यु को अनिवार्य मानकर जीवन की उपेक्षा करना शुरू कर दें। जब एक व्यक्ति के सौ साल के जीवन में होने वाले दुखों, बीमारियों, कष्टों की ओर से हम संवेदनहीन नहीं हो सकते तो सामूहिक मौतों की घटनाओं के खिलाफ़ जितनी मोर्चाबंदी संभव है, वह क्यों नहीं की जा सकती? प्लेग, हैजा और चेचक जैसी महामारियों के खिलाफ, जिनकी चपेट में आकर अतीत में लाखों-करोड़ों लोग काल-कवलित होते रहे हैं, मोर्चाबंदी कर हमने इन जीवन-भक्षी महामारियों की रोकथाम करने में सफलता पाई है। फिर कोई वजह नहीं कि प्राकृतिक घटनाओं से होने वाली विनाशलीला को कम नहीं किया जा सके। यह सच है कि पदार्थ जगत की शक्ति बहुत ही भयावह होती है तथा भूकंप जैसी घटनाएं विनाश से बचने की हमारी क्षमता पर लगातार प्रश्नचिह्न लगाती हैं, फिर भी ज्ञान-विज्ञान और संसाधनों की हमारी वर्तमान सीमा में जितना कुछ संभव है, वह भी अगर नहीं किया जाता तो यही मानना होगा कि सृष्टि की क्रूरता निर्ममता की सीमा में आती है, तो यह निर्ममता क्रूरता की सीमा में आती है।

सुनामी धाराओं की शब्दावली भारत की अधिकांश शिक्षित आबादी के लिये भी बिलकुल नई है, क्योंकि हमारी जन-स्मृति में इस किस्म के तांडवों को कोई वैज्ञानिक नाम नहीँ दिया गया है, लेकिन हमारे विद्वान भी क्या इस वर्ग की घटनाओं से अपरिचित रहे हैं? भारत सरकार में एक पूरा विभाग महासागर विकास का रहा है और अक्सर यह विभाग प्रधानमंत्रियों की निजी देख-रेख में रहा है। अंतरिक्ष के लिये भी एक विभाग है। ये विभाग अभी तक क्या करते रहे हैं? सही है कि इन लहरों के तांडव को रोकने या उसे सीमित करने की टेक्नोलॉजी अभी खोजी नहीं जा सकी है, पर उनके उद्भव की सूचना तो मिनटों में संकलित की जा सकती है और जहां-जहां जन-संहार आशंकित हैं, वहां-वहां चेतावनी देने और लोगों को वहां से तीव्रता के साथ स्थानांतरित करने का अभियान तो चलाया ही जा सकता है।

चूंकि यह विभीषिका प्राय: कई राष्ट्रों को एक साथ ग्रस्त करती है, इसलिये पूरे एशिया के स्तर पर एक सामूहिक तैयारी तो की ही जा सकती है। कोई विपत्ति रोज-रोज नहीं आती, दशकों या शताब्दियों में एकाध बार आती है, तो क्या हम उसे भुलाये रखेगें? फिर हमारे इस दावे का क्या अर्थ लगाया जायेगा कि भारत ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी की दुनिया में महान प्रगति की है और हम अब विश्व के थोड़े-से समुन्नत देशों में एक है? विपत्ति के समय ही किसी व्यक्ति था समुदाय की वास्तविक क्षमताओं और उपलब्धियों का पता चलता है।

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