मौसम परिवर्तन के संदर्भ में टिकाऊ जीवन पद्धतियों की समझ

pine forest
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प्रस्तुत दस्तावेज में हमने कोशिश की है कि सदियों से दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र ‘उत्तराखंड‘ में रहने वाले लोगों की जीवन परंपरा में टिकाऊ जीवन शैली के सूत्र तलाशें। हमने यहां रहने वाले लोगों की बुद्धि तथा जीवनशक्ति के संयोग से बने जीवन के आधार - खेती-बाड़ी को अपनी वार्ता का केंद्र बनाया। प्रशिक्षित शोधार्थियों तथा शोध संस्थाओं को यह शोध पत्र ना लगे क्योंकि हमने इसमें आम व्यक्ति तथा आम समाज की कहानियों को संकलित किया। हमने अपने सवाल तय किए तथा जवाब अपने चयनित चरित्रों (साक्षात्कार दाताओं) पर छोड़ दिया। हमने प्रयास किया कि जैसी भी भाषा हो, सुघड़ या अघड़ उस भाषा में उनकी बात को लिखा जाए तथा पाठकों तक पहुँचाया जाए। इस पूरी वार्ता का यह पहला चरण है। इसमें हमने जितने लोगों से वार्ता की उनमें से एक चौथाई लोगों को चुनकर दूसरे चरण की वार्ता के लिए जाएंगे। पहले चरण में हमने खेती बाड़ी को व उसके आस-पास के संसार को आधार बना कर वार्ता की रचना की।

प्राचीन काल से ही पहाड़ के किसान अपनी भोजन की आत्मनिर्भरता के लिए खेती करते हैं। पहाड़ी किसान अपना गांव, अपनी खेती वहीं बनाते आए हैं; जहां पर्याप्त मात्रा में पानी, भरे-पूरे जंगल, खिली धूप व खेती के लिए जमीन मिलती है। क्योंकि इन सब पर उसकी खेती निर्भर रहती है। इसलिए वे भिन्न प्रकार की पहाड़ी ढालों तथा अलग-अलग प्रकार के जलवायु वाले मार्गों व पनढालों पर बसते रहे हैं। इस सबके कारण पहाड़ी लोगों का दृष्टिकोण समग्र व संवेदनशील है। ये लोग प्रकृति के चक्र तथा व्यवहार को आसानी से समझते हैं। ये बेहतर तालमेल के साथ खेती-प्रकृति सभ्यता का गठजोड़ बैठाते आए हैं।

परम्परागत खेती में जमीन के स्वास्थ्य और पोषण का बड़ा ध्यान रखा जाता है, क्योंकि यह समझ बिल्कुल साफ है कि धरती स्वस्थ्य तथा पोषित रहेगी तो उससे उपजा अन्न भी मनुष्य को स्वास्थ्य व पोषण प्रदान करेगा। धरती के पोषण के लिए प्रकृति का पोषण आवश्यक है। जैव-विविधता से भरपूर जंगल ही पोषक खाद के लिए पोषक बिछावन देता है। जंगलों की जैव-विविधता अनाज की विविधता से भोजन की विविधता तक जाती है। परंपरा में यह समझ साफ है कि विविधता- संरक्षण और पोषण सहभागी होते हैं।

वर्षा पानी व मौसम का अनुमान वर्षों प्रकृति के साथ सहचर्य से जीवन में आता है। कब वर्षा होगी, इसका अनुमान लोग आसमान पढ़कर, हवा को छूकर, मिट्टी में हाथ डालकर या पेड़ो के गीत सुनकर (खासकर चीड़) अनुमान लगाते हैं। वर्षा का अनुमान लगाना अवैज्ञानिक भले ही हो लेकिन 80 प्रतिशत बार यह अनुमान सटीक बैठता है।

यह अनुमान शौकिया नहीं है। यह उस ज्ञान का एक अंश है जो पहाड़ी लोगों ने वर्षा, हवा, पानी, मिट्टी तथा जानवरों के साथ बिताए सहजीवन के दौरान सीखा है। बदलते मौसम के मिजाज के चलते वो भी कभी-कभी ठगे जाने लगे हैं। इस प्राकृतिक ठगी में कृषि व खेती-बाड़ी का भी बड़ा नुकसान होने लगा है।

शादी में देवदार का पेड़, पत्थर का धारा (पत्थर का नल जो प्राकृतिक स्रोत पर लगता है), तथा पत्थर की ओखली, अब दहेज में नवविवाहिता को नहीं मिलता होगा। लेकिन शादी के बाद पति के साथ अपने ससुराल (नए घर) आने पर बहु को घर की महिलाओं के साथ सबसे पहले पानी के नौले के पास जाना होता है। जहां पानी के मंगल गीत गाए जाते हैं। जिसमें पानी के संरक्षण तथा पानी से जीवन में समृद्धि मांगी जाती है। धिनाली (धिनाई) पशुपालन, यह शब्द किससे आया इसका पता नहीं, लेकिन आज भी सबसे पहले पूछते हैं कि घर में धिनाई क्या है और कैसी है ? इससे परिवार की समृद्धि का पता लगाते हैं।

टिकाऊ जीवन पद्धति का पहाड़ में सीधा मतलब उत्पादन प्रणालियां तथा उस पर आधारित उपभोग प्रवृत्तियां हैं। क्योंकि टिकाऊ जीवन पद्धति में टिकाऊ उत्पादन प्रणाली प्रमुख है।

हीरा देवी, महरपानी, ग्रामसभा - अमोली, तोक - बाड़ीखेत, बातचीत की तिथि - 24 सितम्बर 2008
हीरा देवी ग्रामसभा अमोली की रहने वाली हैं, उनके परिवार में कुल छः सदस्य हैं। इनका परिवार बुजुर्गों के समय से खेती कर रहा है।

हीरा देवी के अनुसार ससुर जी के समय में हमारे परिवार के पास कुल 12 नाली जमीन थी, अब वह पाँच भाइयों में बँट गई है। तो एक परिवार के हिस्से में दो से ढाई नाली जमीन आई है।

 

 

हीरा देवी


पहले जमीन ज्यादा थी तो धान, मंडुआ, झंगोरा, गहत, भट्ट सब अच्छी मात्रा में होते थे। अब जमीन घट गई है, सारी जमीन उपजाऊ है, गर्मियों के दिनों में पीने के लिए ही पानी नहीं होता तो खेतों के लिए कहां से आएगा। पूरी खेती बारिश पर निर्भर है, यहां ना नदी है ना ही नहर है।

 

 

 

 

बीज की किस्में तथा सुरक्षा


झंगोरा, मंडुवा, गहत, कौणि, भट्ट, मास, गेहूं, धान थोड़ा-थोड़ा सब किस्म के बीज उगाते हैं। वर्तमान में धान की उक्त किस्में उगाते हैं- बाकुल, नानदनी, थापचीन, दलबादल। बीज रखने वाले बर्तन को पहले गोबर से लीपते हैं फिर अखरोट के पत्ते डालकर रखते हैं। अनाज को जितना सुखाएंगे कीड़ा उतना कम लगता है।

 

 

 

 

फसलों का कुल उत्पादन तथा समय


धान लगभग 1-2 बोरा, और गेहूं, गहत, भट्ट, झंगोरा 2 पसेरी के लगभग होता है। मडुवा 50 किलो तक हो जाता है। सरसों की फसल से 8 किलो सरसों प्राप्त हो जाता है, जिससे 3-4 किलो तक तेल बन जाता है। ‘गहत’ जहां सूखा होता है वहां ज्यादा होता है। धान की फसल चैत्र के महीने में बोते हैं। धान की ही फसल के साथ मडुवा, झंगोरा, गहत, भट्ट भी बोते हैं। यह फसल असोज-कार्तिक में तैयार हो जाती है। गेहूं जेठ के महीने में हो जाते हैं।

 

 

 

 

पौष्टिकता


घर का अनाज व सब्जियां बाजार की अपेक्षा अधिक पौष्टिक व स्वादिष्ट होती हैं। बाजार का कन्ट्रोली चावल न जाने कितने गोदामों में से सड़कर यहां पहुंचता है। बाजार के राशन से लोग बीमार भी होते हैं। फिर भी साल भर का अधिकांश अनाज बाजार से ही खरीदना पड़ता है। केवल लकड़ी को बाजार से नहीं खरीदते हैं बाकी सब चीजों के लिए बाजार पर निर्भर है।

 

 

 

 

खाद एवं कीटनाशक


खाद अधिकांशतः घर की इस्तेमाल करते हैं। धान की फसल के समय लगभग 10 किलो बाजार की खाद का इस्तेमाल करते हैं। यहां अधिकांश खेती बिना पानी की है। इसलिए उसमें यूरिया डालने का कोई फायदा नहीं है। बिना पानी के रासायनिक खाद का इस्तेमाल करने से पौधा जल जाता है, गोबर की खाद मिट्टी को ज्यादा मुलायम करती है, जलाती नहीं। खेत में खड़ी फसल की कीड़ों से सुरक्षा के लिए उसमें दानेदार नमक छिड़कते हैं।

 

 

 

 

पशुपालन एवं चारा


घर में एक गाय, दो बैल और एक भैंस है। चारे के रूप में हरी घास व सूखी घास (गाज्यो घास) का ही इस्तेमाल करते हैं। अपना ही पेट नहीं भरता तो जानवरों के लिए चारा बाजार से कहां से खरीदेंगे। हमारे पुराने लोग बोलते हैं- छां हूं जाण, ठेकि कि लुकूण। चारे के लिए यहां हरी पत्तियां कुछ नहीं होती। पूरा जंगल चीड़ का है। हमारी याद्दाश्त के शुरू होने से ही हमने यहां चीड़ के ही पेड़ देखे। चूल्हा जलाने के लिए भी इसी की लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं। यहां न गैस है न कुछ और।

 

 

 

 

औजार


खेती के औजार बाजार से खरीदकर लाते हैं। खेती के सारे औजारों को खरीदने में हजार रूपये लगते हैं। (हल 350 रू., लठ्यूड़ 250रू., जुवा 200रू., नहैण 40रू.)। गांव में हल, दराती को सुधारने वाले लोग नहीं है। अतः औजारों को ठीक भी बाजार से ही करवाते हैं। गांव की नई पीढ़ी ने यह काम नहीं सीखा। लोगों की रूचि इस काम से हट गई है।

 

 

 

 

मौसम


इस बार बारिश ज्यादा हो गई, और गलत समय पर हुई है जिससे धान भूसी (खराब) हो गए हैं। पहले बारिश अच्छी भी होती थी और समय पर भी। अब लोग भी बदल गए हैं और मौसम भी बदल गया है। पहले जेठ के महीने में बारिश नहीं होती थी इस बार जेठ के महीने में भी बारिश हो गई है।

इसी गांव की हरूली देवी कहती हैं -
बिन खाई नी जान भूख,
बिन कई नी जान दुःख।


पहले हम लोग घास के धुरा (जंगल) जाते थे। अब नई बहू-बेटियां जाना नहीं चाहती। जंगलों में कई तरह की जड़ी-बूटियां व फल होते थे। पहले अनाज भी 5-6 महीने के लिए हो जाता था। अब लोग बाजार का राशन खाकर गल गए हैं।

लोग असोज की 1 पैट को खतड़ू मनाते थे। यह गाय, भैसों का त्यौहार हुआ करता था। उस दिन लोग जानवरों को पेट भर घास-फूस खिलाते थे। कहते हैं कि इससे खाजी-खसोरा दूर होता था। लोग एक चीड़ का छोटा पेड़ जमीन में गाड़ते थे, उसकी पूजा करते थे, बाद में कंडाली घास से उसे फतोड़ते (पीटते) थे। बाद में आग लगाते थे। जब से खतड़ू नहीं मना रहे हैं, तब से बारिश समय पर नहीं हो रही है। खतड़ू जाड़ा शुरू होने का भी सूचक है। अब हर चीज लोग फैशन के लिए करते हैं। लोगों की मानसिकता पर टिप्पणी करते हुए हरूली देवी कहती हैं -

गढाव उजड़ गई भैंसन में,
कत्यूरी उजड़ि गई फैशन में।


गांउली देवी, उम्र-60 वर्ष, ग्राम -रतौड़ा
गांउली देवी, रतौड़ा गांव की रहने वाली एक सामान्य वृद्ध महिला हैं, उनके तीन लड़के और तीन लड़कियां हैं। सबकी शादी हो चुकी है। तीनों लड़के अलग-अलग रहते हैं। वे कहती है कि पहले हमारे पास 13 नाली जमीन थी। अब वह 3 लड़कों के हिस्सों में बंट गई है। एक लड़के के हिस्से में लगभग 4 नाली जमीन आई है। सबसे बड़ा लड़का लोहारी का काम करता है, दूसरा और तीसरा लड़का लकड़ी चीरान का काम करता है। बाकी समय खेती करते हैं। सारी जमीन तलाऊं की है।

गांउली देवी - जो जितनी मेहनत करता है उसका उतना अनाज होता है। एक परिवार में चार-चार कुन्टल होता है। केवल धान व गेहूं की फसल उगाते हैं। बीज घर का ही इस्तेमाल करते हैं। बाजार का मोल लिया हुआ खा लिया और घर का अनाज अगले वर्ष के बीज के लिए रखते हैं। घर का बीज अच्छा होता है। उसमें पहाड़ नामक अनुपयोगी घास नहीं होती हैं। गेहूं में कउली भी नहीं लगती है। मैं सबसे बड़े लड़के के साथ रहती हूं।

उसने दो बैल व एक गाय पाली है। चारे के लिए घास के लूटे (सूखी घास) खरीदते हैं। एक लूटे की कीमत हजार से डेढ़ हजार है। फल में नाशपाती, आड़ू, नारंगी, माल्टा व केले के कुछ पेड़ हैं। जिनके फल बच्चों के खाने के लिए होते हैं। आलू, प्याज और थोड़ा लहसुन घर पर हो जाता है। लौकी, कद्दू भी खाने के लिए ही होते हैं बेचने के लिए नहीं। गोभी का फूल तो न अनम देखा न जनम। साग-पात सब मोल ही लाते हैं। खेती बाड़ी से एक पैसा नहीं दिखता है। कमा सके तो खाया, नहीं कमा सके तो ऐसा ही हुआ। आटा 15 रूपये किलो हो गया है। एल कि खानू भौ कि खानू वाली स्थिति है।

सारे जंगल में चीड़ के ही पेड़ है। पहले भी चीड़ के ही थे। पहले जमाने में बारिश समय पर होती थी। अब बारिश हुई तो लगातार होती है, नहीं हुई तो होती ही नहीं। इस बार ज्यादा बारिश हुई तो धान की फसल भूसी (खराब) गई है। ऐसा जमाना बज्र पड़ा है, क्या होता है कह रहे हो।

बारिश का घाट आता है तो उमस ज्यादा होती है और लगता है कि अब बारिश होगी। घाम पड़ गए तो लगता है अब बारिश नहीं होगी। वैसे हमारे यहां सिंचाई का संसाधन नहर भी है।

लाल सिंह, उम्र -32 साल, ग्राम-मुझारचैरा, बातचीत की तिथि: 27 सितम्बर 2008
लाल सिंह, ग्राम-मुझारचैरा के रहने वाले हैं। उनके परिवार में कुल 18 सदस्य हैं। तीन भाई बाहर सर्विस करते हैं। बाकी सदस्य खेती का काम करते हैं। इनके पास कुल 100 नाली जमीन है। जिसमें से 60 प्रतिशत तलाऊं व 40 प्रतिशत उपराऊं है।

पशुपालन एवं चारा
जानवरों में 1 जोड़ा बैल, 1 गाय व दो बछड़े हैं। चारा खेत से भी लाते हैं व हरी घास तथा हरी पत्तियां काफी मात्रा में जंगल से भी प्राप्त करते हैं। हरी घास तथा अनाज का चारा भी सूखाकर रखते है। ताकि जाड़े के दिनों में सूखी घास को हरी घास के साथ मिलाकर जानवरों को दिया जा सके। घास के लिए बरसिमी की खेती भी करते हैं। जंगली पौधों में चारे के लिए बांज, फल्यांट, क्वैराव, भीमल, खड़िक की पत्तियों का इस्तेमाल करते हैं। दूब वाली घास व खेतों की मेड़ों पर प्राप्त होने वाली प्राकृतिक घास को भी चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जो जमीन खेती के लायक नहीं है वो घास के लिए इस्तेमाल करते हैं।

बीज एवं फसल चक्र
मुख्य फसल धान व गेहूं है। गेहूं अक्टूबर के अंत में व नवम्बर के पहले सप्ताह में बोया जाता है। अप्रैल व मई के महीने में तैयार हो जाता हैं। गेहूं की कटाई के बाद मई के महीने में धान की पौध लगाते हैं। और जून माह में धान की रोपाई की जाती है। अक्टूबर माह में धान की फसल तैयार हो जाती है। मंडुवा, झंगोरा, गहत, भट्ट, मास, राजमा, सोयाबीन भी धान की फसल के साथ-साथ होता है। गेहूं की फसल के साथ मटर व मसूर बोते हैं। बाजरा, जौ, चना, अरहर, की फसल भी उगाते हैं। पहले भी थोड़ी-थोड़ी मात्रा में इन सब अनाजों को उगाते थे, आज भी उगाते हैं। धान, गेहूं, बाजरा, झंगोरा, सोयाबीन व दालों का बीज घर पर ही तैयार करते हैं। गोभी, टमाटर आदि सब्जियों का बीज बाहर से मंगाते हैं।

फल एवं सब्जियां
गोभी, टमाटर, बैंगन, शिमला मिर्च, फ्रांसबीन, मटर, अरबी, अदरक, खीरा, करेला, ककड़ी ये सभी सब्जियां उगाते हैं। फलों में संतरा, अखरोट, आड़ू, पुलम, आम, नाशपाती, केला आदि होते हैं। जो किसान मोटर मार्ग से दूर रहते हैं, उनको बीज दवा-पानी की सूचना समय से नहीं मिल पाती। मैं इतना काम कर रहा हूं तो अपनी भाग-दौड़ से कर रहा हूं। हर आदमी इतना न भागे तो वह इतना काम कर ही नहीं सकता।

खाद एवं कीटनाशक
बीज को सुरक्षित रखने के लिए गाय के गोबर की राख का इस्तेमाल करते हैं। अखरोट या नीम की पत्तियां बीज में रखकर या गोमूत्र को छिड़क कर भी इससे बीज में कीड़ा नहीं लगता है। फिर सुखा कर बीज को सीलबंद कर देते हैं। और स्टोर कर देते हैं। सब्जियों के लिए कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं। चूहामार दवा का इस्तेमाल भी करते हैं। वैसे बिमारियां कम ही होती है।

अधिकतर गोबर के खाद का इस्तेमाल करते हैं। मैंने वर्मी कम्पोस्ट यूनिट भी बना रखी है। यह खाद गोबर में केंचुआ छोड़कर तैयार की जाती है। 40 दिन में खाद तैयार हो जाती हैं। बाजार की यूरिया खाद केवल धान के लिए इस्तेमाल करते हैं। रोपाई के सीजन में लगभग 50 किलो यूरिया खाद लग जाती है। गोबर की खाद को ज्यादातर सब्जियों के लिए इस्तेमाल करते हैं। जैविक खाद जमीन को ढीला करती है और इससे जमीन का टिकाऊपन बना रहता है। यूरिया पेड़ को जल्दी बढ़ा देता है पर इससे जमीन टाइट हो जाती है। जानवर कम है जमीन ज्यादा इसलिए यूरिया का भी इस्तेमाल करते हैं। मिट्टी के लिए गोबर की खाद ही सबसे अच्छी खाद है और वो आसानी से उपलब्ध हो जाती है। इससे जमीन की उर्वरकता बढ़ती है साथ ही मिट्टी भी ढीली रहती है। साग-सब्जी व अनाज में ताकत होती है। यूरिया से उत्पादित अनाज में ताकत कम होती है केवल बढ़ोत्तरी ज्यादा है। घरेलू खाद बनाने के लिए चीड़ की पत्तियां, बांज की पत्तियां अच्छी होती हैं।

उत्पादन, पहले और आज
पहले की अपेक्षा धान व गेहूं की फसल कम हो गई है। पहले जो उत्पादन होता था वो अब नहीं हो रहा है। खेतों की देख-रेख (निराई, गुड़ाई, खुदाई, नालियां निकालना, मेड़ बनाना,) ठीक से ना हो पाने के कारण व समय से खाद, पानी न मिल पाने के कारण पौष्टिकता व उर्वरकता में भी कमी आई है। अधिकांश लोगों की रूचि खेती से हट गई है। पहाड़ में अभी 45 प्रतिशत आदमी ही खेती कर रहे हैं। लगभग आधे आदमी बाहर काम कर रहे हैं। जो घर में हैं वो भी करना नहीं चाहते। आदमी शॉर्ट रास्तों से पैसा कमाना चाह रहा है। मेहनत से भाग रहा है। मैं भी अकेला आदमी हूं, ज्यादा कुछ कर नहीं पाता हूं फिर भी मैं कुछ-कुछ करता रहता हूं । साल के 365 दिनों में से मैं एक दिन भी छुट्टी नहीं करता हूं।

जंगल, वनस्पति व मौसम
40 साल पहले दादाजी के समय में जंगल में बांज के पेड़ ज्यादा थे। पर लोगों ने कोयले बनाकर बेचने शुरू कर दिए। जंगल से अब काफल भी खत्म हो गए हैं, चीड़ ही चीड़ है। चीड़ में आग जल्दी लग जाती है। और हर साल आग लगती है। साथ ही इसके आस-पास अन्य वनस्पतियां पैदा नहीं हो पाती। हमने तो अपनी जमीन पर पेड़ों को बचा रखा है। मेरे पिताजी आर्मी में थे। उन्होंने रिटायर्ड होने के बाद नर्सरी बनाई व 5000 बांज के पेड़ लगाए। जो अभी जिंदा अवस्था में है।

20-25 साल पहले बारिश समय से होती थी। अब मौसम चक्र खिसक गया है। पहले सावन-भादौ में बारिश होती थी इस साल एक महीना पहले हो गई। मौसम एक महीना आगे-पीछे हो गया हैं। पिछले साल 2007 में एक महीना बाद में बारिश हुई। सर्दी में भी आजकल कभी गर्मी बढ़ रही है तो कभी सर्दी बढ़ती जा रही है। पिछले साल दिसम्बर-जनवरी में एकदम गर्मी हो गई फिर बारिश हुई, मार्च अप्रैल में इतनी सर्दी हो गई थी कि जैसे सर्दी का ही मौसम है। फसल में भी इसका प्रभाव पड़ा है। इसका कारण आजकल जंगल में आग ज्यादा लगने लगी हैं। लोगों ने पेड़-पौधे लगाने बंद कर दिए हैं। पानी उत्पन्न करने वाले व लंबी उम्र के पेड़ बांज, फल्याट कम हो गए हैं। चीड़ ज्यादा हो गया है।

सिंचाई के लिए 50 प्रतिशत खेती बारिश पर निर्भर हैं। बाकी सिंचाई के लिए टंकी, नाला है और नहर भी बना रखी हैं।

औजार
घास काटने के लिए दराती, गुड़ाई के लिए छोटी कुदाल, खोदने के लिए कुदाल, करछी, गैंदी का इस्तेमाल करते हैं। खेत जोतने के लिए हल व पेड़ काटने के लिए कुल्हाड़ी, दराती का इस्तेमाल करते हैं। कृषि औजारों के लिए लगभग बाजार पर ही निर्भर है ये औजार गांव में बहुत कम ही लोग बनाते हैं एवं अब लोगों ने बनाना कम कर दिया है। नई पीढ़ी की रूचि खत्म हो गई है। वो कोई अच्छा काम करना चाहते हैं। आय भी शायद कम ही होती होगी। अधिकांश लोग इसको गंदा काम समझते हैं। लोहार के बेटे से पूछा तो बोला कि आज का युग बदल गया है कोई और काम करेंगे। पढ़-लिख कर किसी अच्छे जाॅब में जाएंगे। इस तरह से सोच बदल गई है। खेती में काम आने वाले औजारों के लिए खुद अपने जंगल से बांज, फल्याट, अखरोट, दाड़िम की लकड़ी प्राप्त करते हैं। बांज की लकड़ी से फावड़े, गैंदी, कुदाल, व दरांती के बिंडे बनाते हैं। अब अखरोट व चीड़ का भी इस्तेमाल ज्यादा होने लग गया है। दाड़िम, पयां के भी बिंडे बनते हैं। हल की लकड़ी व लोहे के औजार बाजार से मंगवाते हैं। कृषि औजार बनाने वाले कारीगर को लकड़ी दे दी तो वह बना लेता है। कृषि औजार बनाने वाले लोगों (लोहार कारीगर) को उनका मेहनताना सीजन में अनाज देकर चुकाते हैं, कभी-कभी पैसे के रूप में भी देते हैं।

लकड़ी के औजार इस्तेमाल करने में हल्के होते हैं। लोहे के औजारों में वेल्डिंग लगी होती है जिसमें टूटने के आसार होते हैं। वह भारी भी होता है। कुछ समय बाद उनके नट भी ढीले पड़ जाते हैं। इसलिए हम लकड़ी के ही इस्तेमाल करते है।

परिवार की 60 प्रतिशत आजीविका कृषि पर निर्भर है। धान, दालें व सब्जियां साल भर के लिए घर पर ही हो जाती हैं। गेहूं 8 महीने के लिए हो जाता है। सिर्फ तेल व जरूरी सामान बाजार से लेते हैं।

बीज, दवा, खाद व मजदूर का कुल खर्च लगाकर साल भर में 25 हजार तक आ जाता है। और साल में कुल आय 60 हजार तक हो जाती है।

मुख्य त्यौहार दीपावली, दशहरा, होली, बसंत पंचमी, हरेला, घुघुतिया, रक्षा बंधन आदि है।

दिनेश राम, उम्र - 50, ग्राम- दुदिला, बातचीत की तिथि: 30 सितम्बर 2008
दिनेश राम, ग्राम-दुदिला के रहने वाले हैं। उनके परिवार में 7 लोग हैं। परिवार में कोई नौकरी पेशा नहीं है, बच्चे पढ़ने वाले हैं। दूदिला गांव में लगभग 125 परिवार हैं। जिसमें 3 तोक हैं, दूदिला, भंगस्यूड़ा व लोहारी। इनके पास कुल 6 नाली जमीन है और 30 नाली जमीन अधिया में कमा रखी है। 6 नाली जमीन उपराऊं की है और 30 नाली तलाऊं की।

पशुपालन एवं चारा
जानवर 1 भैंस, 1 गाय, 3 बैल, एक भैस का बच्चा और एक गाय का बच्चा है। जिनके लिए चारा (हरी घास) खेतों से ही प्राप्त हो जाता है। जंगल में बांस, फल्याट, पाले हुए पेड़ और चीड़ ही चीड़ भरा है।

उत्पादन
पहले धान, मंडुवा, गहत, भट्ट, गेहूं उगाते थे जो कि काफी होता था। लेकिन अब 5 प्रतिशत भी नहीं हो रहा है। पहले मंडुवा, भट्ट, गहत दो-दो बोरे हो जाते थे। अब नाममात्र का हो रहा है। जो घरवाली जमीन है उसमें गहत, भट्ट, मडुवा होता है। यह जमीन उपराऊं है, उपराऊं जमीन में धान में कीड़ा लग जाता है इसलिए इसमें धान नहीं होता है।

सब्जी एवं फल
सब्जियों में लौकी, कद्दू, मूली, लाई, मेथी, धनिया, आलू, ककड़ी, प्याज आदि होता है। फल नाशपाती, अखरोट, पुलम, आलू-बुखारा, आड़ू आदि होता है।

बीज, खाद एवं कीटनाशक
धान, गेहूं, मडुवा, झंगोरे का बीज घर पर ही हो जाता है। सब्जियों के बीज बाजार से लाते हैं, हॅार्टीकल्चर से लाते हैं। गहत के बीज में गोमूत्र डालते हैं। खेतों की फसल में कीड़ा ना लगे इसके लिए कृषि रक्षा इकाई से दवा लाते हैं। खाद बाजार से एक किस्त (सीजन) में 100 किलो खरीदते हैं। गोबर की खाद भी डालते हैं क्योंकि अगर सिर्फ रासायनिक खाद डालेंगे तो मिट्टी किरकीटी हो जाएगी। रासायनिक खाद व गोबर की खाद दोनों को डालने से पैदावार ज्यादा होती है। वैसे गोबर की खाद अधिक अच्छी होती है क्योंकि उसमें गौमूत्र भी होता है।

खाद बनाने के लिए चीड़ के पत्ते, हरे पत्तों का इस्तेमाल करते हैं। खाद बनाने के लिए एक-दो गड्ढ़े भी बना रखे हैं। जो जमीन अधिया ली है उस 30 नाली जमीन पर सिंचाई के लिए नहर है। और उपराऊं की खेती पूरी बारिश पर निर्भर है।

औजार
खेती के लिए लकड़ी का हल, नहैणा, जुआ बाहर (तराई भाबर) से मंगाते हैं। बिंडे यहीं से बनवाते हैं। दरांती लोहारों से बनवा लेते हैं। रिपेयरिंग का पैसा देते हैं। पहले अनाज देने का रिवाज था। अब ये रिवाज खत्म हो गया है।

मौसम
पहले काफी बारिश होती थी। ‘सतझड़’ लगते थे यानि 7 दिन और 7 रात लगातार बारिश होती थी। आज सतझड़ नहीं लगते हैं, न बरसात में, न जाड़ों में इसलिए पानी में थोड़ा कमी आ गई है।

इस बार बारिश फिर भी अच्छी हुई है। फसल भी अच्छी हुई है लेकिन ’बुरसौल’ (स्थानीय) नदी नहीं आई। पता नहीं नदी न आने का क्या कारण हुआ। पहले तड़के वाली (मोटी वाली) बारिश होती थी तो नदी आती थी। लेकिन अब ऐसी बारिश नहीं हो रही।

गर्मी तो पहले से बहुत बढ़ गई है। आसमान में कई यंत्र लगाए गए हैं। इसका भी मौसम पर कुछ प्रभाव पड़ रहा है।

मौसम का अनुमान, जब जमीन पर ज्यादा घने जाले लग गए तो समझिए मौसम साफ रहेगा, धूप रहेगी। लेकिन अगर वो जाले कम मात्रा में हुए तो बारिश होने की संभावना रहेगी।

तारों से भी हिसाब लगाते थे। तारे कम मात्रा में दिखाई देंगे तो बारिश कम होने की संभावना है। अगर ज्यादा मात्रा में दिखाई देंगे तो बारिश होगी। कहते हैं कि सावन-भादौ के महीने में अगर एक भी तारा दिखेगा तो 100 खावों का अनाज नष्ट हो जाता है। आसमान ने उस समय बादलों से बंद रहना हुआ (ये समय धान की रोपाई करने का होता है)।

खेती पर खर्च
खेती पर एक सीजन में 2000 रूपए खर्च करते हैं। 50 किलो. खाद का बोरा 260 रुपये का है। खेती के काम के लिए मजदूर लगाने पड़ते हैं, एक सीजन में 600 रूपये मजदूर पर खर्च करते हैं।

खेती से आय
अनाज बेचते नहीं हैं। खाने के लिए ही नहीं होता है। बंदर ही अनाज की सारी फसल खत्म कर देते हैं। सुबह से शाम तक बंदरों का आतंक रहता है। सब्जी बेचते हैं। कद्दू, लौकी, तोरई, भिंडी, जाड़ों में लाई, मूली, गोभी। हर रविवार के दिन बाजार में 200-300 रूपये की सब्जी बेचते ही हैं। एक सीजन में 4-5 हजार रूपये की सब्जी बेचते हैं।

राजेन्द्र प्रसाद, उम्र - 33, ग्राम-दुदिला
राजेन्द्र प्रसाद, उम्र-33, ग्राम दुदिला के रहने वाले हैं। उनके परिवार में 7 लोग हैं। इनके पिता टेलर मास्टर (दर्जी) थे। ये स्वयं मिस्त्री का काम करते हैं। पिछले 4 महीने से राजेंद्र की तबियत खराब है, जिस कारण वो काम नहीं कर पाए हैं, और उन पर 4000 रूपया कर्ज हो गया है। उनकी मां कहती हैं कि कभी राजेंद्र ठीक होगा तो कर्ज तारेगा।

जमीन 1 नाली है। जो कि उपराऊं है। जिसमें हम सब्जी व मक्का बोते हैं। सब्जी- लाई, कद्दू, लौकी, मूली आदि बोते हैं। फल, आड़ू, नींबू, आलू बुखारा इत्यादि होते हैं।

जानवर - 2 गाय, तीन बछड़े हैं। चारा जंगल से लाते हैं। यहां पात-पतेल वाले पेड़ नहीं होते हैं। पहले से ही चीड़ है। खाद गोबर की ही डालते हैं। बाजार से खरीदने के लिए पैसे चाहिए जो कि हमारे पास नहीं हैं। सब्जियों का बीज बाजार से ही खरीदते हैं।

खेती के औजार दरांती, कुदाल बाजार से ही खरीदते हैं। घर की आजीविका मजदूरी करके चलती है। वह कहते हैं कमाया, खरीदा और खाया। जब राजेंद्र प्रसाद स्वस्थ थे तो उन दौरान उन्हें जो काम मिल जाता था उसकी मजदूरी से वो 2000 या फिर 1500 रूपया महीना कमाते थे।

तारा सिंह बिष्ट, उम्र - 77 वर्ष, ग्राम - बजवाड़
तारा सिंह जी के परिवार में 8 सदस्य हैं। बाप-दादाओं के समय से खेती कर रहे हैं।

जमीन
हमारे पास कुल 133 नाली जमीन है। खेती उपराऊं ज्यादा है, तलाऊं कम।

जानवर एवं चारा
3 भैंसे हैं, दो ब्याने वाली हैं; एक दूध देती है। एक जोड़ा बैल है, एक गाय है। खेतों से हरी घास का चारा उपलब्ध हो जाता है। मार्गशीर्ष तक तो हमारे पास हरी घास ही रहती है। उसके बाद भीमल का चारा; गेहूं, चावल, चना मिलाकर खिलाते हैं। घर की घास को लूटे बनाकर इकट्ठा करते हैं। चीड़ की पत्तियां बिछावन के लिए लाते हैं।

बीज
बीज बाजार से नहीं खरीदते हैं। बाजार में धान का एक बीज आया है ‘चाइनाफोर’। पिछले 50 साल से इसको उगा रहे हैं। पहले इसका अच्छा धान होता था। अब नहीं हो रहा है। इस धान की प्रकृति बदली है। जो धान हमारे बाप-दादाओं के समय में था वो अब किसी के घर में नहीं मिलेगा। अब समय बदल गया है, सरकार भंडारों से बीज दे रही है। अब ’श्रीधान’ आ गया है। उसमें डेढ़ फिट की दूरी में 1 पेड़ लगाना होता है। लेकिन कास्तकारों को ठीक से बताया नहीं गया। उसकी 1 बाली पर 30-35 शाखाएं निकलती हैं। खाली जगह वो भर जाता है। श्रीधान का बीज ज्येष्ठ में रखेंगे तो ये पौसेगा (खिलना) नहीं, बाली नहीं आएगी। वैसे ये धान कम ही हो रहा है। घर के धान के बीज का बिनौड़ा 2 महीने पहले रख लेते हैं। बीज का बिनौड़ा रखने के 45 दिन बाद उसको खेत पर लगाया जाता है। 45 दिन के अंतर्गत नहीं लगेगा तो फसल अच्छी नहीं होगी। इसमें दो तरह की जड़ होती है। पहले बारीक जड़ आती है। 45 दिन बाद एक और जड़ निकलती है उस को ’गुच्छी जड़’ कहते हैं। गुच्छी जड़ को बिनौड़े में लगाकर खेत पर लगाना पड़ता है। कौन करे इतना ! 45 दिन के अंदर जो धान लगना है उसका बिनौड़ा ज्येष्ठ माह में रखेंगे। बीज को सुरक्षित रखने के लिए बहुत सुखाते हैं। खूब सुखाया और रख दिया कुछ नहीं होता है।

सरकार द्वारा जो बीज मिलता है उसका यहां पता ही नहीं चलता है। जो ब्लाॅक के नजदीक हैं उनको पता चलता होगा। यहां सूचना नहीं मिल पाती है।

फसल
इस साल अच्छी बारिश हुई। ये 35-36 साल का रिकाॅर्ड है। 35-36 साल पहले ऐसी बारिश हुई थी। फसल के लिए ये बारिश ठीक हुई। इस बार खेती में थोड़ा-थोड़ा सब अनाज हुआ है। सिर्फ एक लाल मिर्च नहीं हुई, वो गल गई। पूरी पैदावार ही बारिश पर निर्भर है; अन्य साधन कुछ है नहीं। इस बार बारिश होने की वजह से धान, मडुवा, गडेरी, अदरक, गहत, भट्ट आदि ये ठीक हो रहा है। जिसका बारिश से नुकसान हुआ है उसको तो खैर दुःख होगा ही। हमारे यहां ओला वृष्टि वगैरह भी नहीं हुई हैं। धान की फसल गर्मियों में ही होती है। धान, मडुवा, गहत, मटर, मास, मिर्च, अदरक, मूली, गडेरी इस सीजन की फसल हैं। चौमास में आलू, लौकी, तोरई, चिचिण्डा, कद्दू, भिण्डी, बैंगन, शिमला मिर्च सब उगाते हैं। गडेरी भी लगाते हैं। बाजार की सब्जी महंगी है, पौष्टिकता भी उतनी नहीं है। घर में पैदा हुई सब्जी स्वादिष्ट होती है, पौष्टिक होती है। बाजार की सब्जी पता नहीं कितनी जगह से होकर आती है, उसमें क्या पौष्टिकता होनी है। फसल की सुरक्षा के लिए दवाई का इस्तेमाल करते हैं पर काफी कम मात्रा में, क्योंकि बीमारी भी कम ही लगती है।

आजीविका
खेती पर ही निर्भर है सब कुछ। हमारे पास काम का कोई और साधन नहीं है। खेती स्वयं ही करते हैं, मजदूर नहीं लगाते हैं। साग-सब्जी बेचते हैं। आलू-प्याज, धान भी बेचते हैं। इसी से गुजर-बसर (नमक, तेल, चाय-पानी खरीदते हैं) करते हैं।

खाद
घर की खाद का इस्तेमाल करते हैं। यूरिया खाद से उत्पादन बढ़ता है पर पौष्टिकता कम होती है। धान में 10 किलो यूरिया जरूर डालते हैं - पहले की अपेक्षा पैदावार कम हुई है। खादों के प्रयोग से स्वाद घट गया है। दवा के प्रयोग से भी फसल कम हुई है। इसके इस्तेमाल में जमीन सख्त हो रही है। फट रही है। मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले निकल रहे हैं। वो गलते ही नहीं हैं। घर की कम्पोस्ट खाद डालेंगे तो खेत बिल्कुल (फंग) हो जायेगा यानि खिल जायेगा। कोमल होगा। रासायनिक खाद के इस्तेमाल के कारण बड़े ढेले निकल रहे हैं। यदि दूसरे-तीसरे दिन उसको तोड़ने जाओ तो वो टूटता ही नहीं है।

जंगल की वनस्पतियां
चीड़ के अलावा कुछ नहीं है। पहले से चीड़ ही है। अब उगाने के लिए चौड़ी पत्ती वाले पेड़ मिल रहे हैं। जिन जगहों में पहले से बांज है उनमें अभी भी बांज है। जिन जगहों में पहले से चीड़ है उनमें बांज, बुराश कुछ नहीं है। चीड़ के जंगल के अंदर अन्य कोई वनस्पति नहीं होती, ये पानी को भी खींच लेता है। सूखा कर देता है। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ पानी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। चौड़ी पत्ती वाला एक पेड़ अपने खाने के बाद 150 लीटर पानी बाहर फेकता है। हमने ऐसा सुना है। जंगलों में एक ही परिवर्तन हुआ है। पहले घने थे। अब कट रहे हैं। जंगल खाली हो रहे हैं। आजकल हिमाचल प्रदेश से बांज, फल्याट का बीज आ रहा है वो यहां के वातावरण में नहीं हो सकता है। मणिपुरी बांज आ रहा है। वो कहीं उग भी रहा है तो उसको जानवर भी नहीं खा रहे हैं। दिखने में भी कुछ खास नहीं है। सारे इलाके की खेती बारिश पर निर्भर हैं। चीड़ के पेड़ के जड़ की घास को लाओ जानवर नहीं खाएंगे। बांज के जड़ की घास को लाओ, दूध देने वाली भैंस को खिलाओ वो शाम को पाव भर दूध ज्यादा देगी। क्योंकि बांज की जड़ों के पास कोमल घास मिलती है।

मौसम का अनुमान
1. गर्मी पड़ी है भयंकर और आप मिट्टी के अंदर हाथ डालो, नमी आ जाएगी तो समझो 3-4 दिनों में बारिश हो जाएगी।
2. चीड़ के पेड़ मंगल गीत गाते हैं। भयंकर गर्मी पड़ गई बारिश नहीं हुई तो इन पर स्वर आता है। राग आता है। चीड़ के पेड़ो से आवाज आनी शुरू हो जाएगी तो अवश्य बारिश हो जाएगी।

मौसम परिवर्तन
अब मौसम बिल्कुल बदल गया है। 36 साल बाद बारिश हुई है इस बार। 1976 में हिमपात हुआ। 1976 में 6-7 इंच बर्फ पड़ी थी। 1976 से अभी तक हिमपात नहीं हुआ। हिमपात होना भी जरूरी है। क्योंकि वायुमंडल में काफी मात्रा में नाइट्रोजन होता है। जो हिमपात के साथ जमीन पर आता है। वो खेतों को लाभ पहुंचाता है। अब गर्मी ज्यादा हो गई है। तापमान बढ़ गया है। बर्फ ही नहीं पड़ी। 1943 में 3 दिन बर्फ पड़ी थी। उसके बाद 1976 में पड़ी- 6-7 दिन तक पड़ी, तब से बर्फ ही नहीं देखी। नए छोकरों को पता ही नहीं बर्फ कैसे पड़ती है, कैसी होती है।

औजार
हल, पटेला (मौई), डिलार, कुदाल, फावड़ा, दराती। लोहार बनाते हैं कि लोहा बाजार से खरीद कर लाते हैं। फावड़े, ब्यल्चा, हल बाजार से लाते हैं। हल, नहैणा, लठ्यूड़ साल-शीशम के होते हैं जो बाजार से आते हैं। बांज का हल, लाठा, नस्यूड़ा बनता है। सानड़ तराई से आता है। हमारे वहां बांज पहले से है। लोहारों को मेहनताना अनाज के रूप में देते हैं। कोई पैसा भी देता है। लोहे के बीन वाले औजार इस्तेमाल नहीं करते हैं। लकड़ी का ही करते हैं क्योंकि लोहा हाथ खा जाता है; लकड़ी का हल्का होता है। लोहे का हल 1 मन से ज्यादा बैठेगा। हमारे वहां छोटे बैल होते हैं। लोहे के हल को तो बड़े बैल भी नहीं खींच सकते हैं।

हिमालय स्वराज अभियान-अध्ययन श्रृंखला तीन, स्वराज भवन, गढ़सेर, पोस्ट-बैजनाथ, बागेश्वर, उत्तराखंड

 

 

 

 

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