हमारी दुनिया एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रही है जिसमें ग्रीष्म लहर हो या शीतोष्ण प्रभाव वह लगातार बढ़ने वाला है। अभी तक हो यह रहा था कि 20 सालों में एक दिन ऐसा होता था जिस दिन गर्मी के रिकार्ड टूटते थे लेकिन अब ऐसा हर दो साल में होने की आशंका होगी।
1960 के दशक के मुकाबले आज के समय में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या तीन गुना बढ़ चुकी है। समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। तापमान के बढ़ने से बर्फ पिघल रही है और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। इससे समुद्री इलाकों में बसे शहर और द्वीप समूह की तर्ज पर बसे देशों के सामने अस्तित्व का संकट लगातार बढ़ रहा है। उन इलाकों में जहां बारिश कम होती है, वहां बरसात और कम हो सकती है। इससे कृषि पर असर पड़ेगा। इसके अलावा और भी अलग-अलग तरह के संकट सामने आ रहे हैं और आएंगे। पिछले कुछ सालों से हमारे आस पड़ोस में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर जागरूकता बढ़ी है। इसके साथ-साथ दूसरी बड़ी हकीकत यह भी है कि संकट भी लगातार बढ़ रहा है। एक ओर जहां भूमंडलीय तापमान लगातार बढ़ रहा है वहीं दूसरी तरह की मौसमी आपदाएं भी बढ़ रही हैं। हमारी दुनिया एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रही है जिसमें ग्रीष्म लहर हो या फिर शीतोष्ण प्रभाव वह लगातार बढ़ने वाला है। अभी तक हो यह रहा था कि 20 सालों में एक दिन ऐसा होता था जिस दिन गर्मी के रिकॉर्ड टूटते थे लेकिन अब ऐसा हर दो साल में होने की आशंका होगी। उत्तरी ध्रुवीय इलाका ही इससे बचा रहेगा, लेकिन वहां भी हर पांच साल में एक बार गर्मी के दिन का रिकॉर्ड टूटेगा। इसके साथ-साथ अचानक से थोड़े ही समय के दौरान काफी तेज बारिश के इलाके बढ़ेगे। मुंबई में 2005 की बारिश के दौरान ऐसा ही हुआ था, वह जलवायु परिवर्तन की वजह से ही हुआ था, ऐसा नहीं कहा जा सकता है, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे उदाहरणों की संख्या बढ़ सकती है। यही हालात उन इलाकों में भी होगी जहां बर्फबारी होती है। वहां महज दो-तीन घंटों में इतनी बर्फबारी हो सकती है जो सालों में होती रही हो। ऐसी सूरत में होने वाले नुकसान का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।
अभी हाल ही में अमेरिका का समुद्री तूफान सैंडी रहा हो या फिर दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु राज्य में आया चक्रवाती तूफान नीलम हो, इन दोनों से जनजीवन लगभग ठप हो गया। इन दोनों तूफानों के बीच भले कोई समानता नहीं दिख रही हो लेकिन बुनियादी तौर पर ये दोनों तूफान एक ही वजह से आए हैं। दरअसल, जलवायु परिवर्तन की वजह से ही ऐसी मौसमी आपदाएं सामने आ रही हैं। हाल के दिनों में ऐसी आपदाएं लगातार बढ़ी हैं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो अब तक जलवायु परिवर्तन की समस्या हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है। हमारी संस्था देश के कई हिस्सों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अलग-अलग मसलों पर काम करती है। महाराष्ट्र का एक उदाहरण है- वहां ऐसी जमीनों पर बड़े-बड़े आवासीय इमारतें बनी हैं जिसकी जमीन को कूड़े-करकट से तैयार किया गया था, यह अब दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की समस्या भी बनने वाली है। लेकिन मुंबई पर समुद्र के जल स्तर बढ़ने से स्थिति भयानक हो सकती है। इन इमारतों की नींव अचानक से कमजोर हो जाएंगी। लिहाजा इस इलाके में होने वाली जलवायु परिवर्तन के असर को आंकने के लिए हमने एक सुपर कंप्यूटर लगाया है जो बारीक से बारीक बदलाव को पढ़ने में सक्षम होगा।
ऐसे तरह-तरह की गतिविधियों को हमने देश भर में बढ़ाने की कोशिश की है। लेकिन वास्तविक संदर्भों में ऐसी कोशिशों का असर तभी कामयाब होता है जब इसमें आम लोगों की भागीदारी बढ़ती है। हर इलाके की स्थानीय समस्याएं होती हैं और उसका निदान भी स्थानीय स्तर पर तलाशा जाना जरूरी है। हमारे महानगरों में शिक्षा और जीवनशैली का स्तर ऊंचा जरूर है लेकिन जलवायु संरक्षण को लेकर आम लोग सजग नहीं हैं। सरकारी व्यवस्थाएं भी इसको लेकर संवेदनशील नहीं हैं। मसलन, परिवहन की व्यवस्था को ही हम देखें तो दिल्ली की सड़कों पर आम लोगों की कारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जबकि होना यह चाहिए कि परिवहन व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि आम लोग सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की ही ज्यादा उपयोग करें। ऐसा नहीं हो रहा है। गर्मियों में इतना ज्यादा एयरकंडीशनर चलाते हैं कि आदमी का बिना कोट के काम नहीं चल सकता है, बिना कंबल के नींद नहीं आ सकती है और जाड़े में इतनी गर्मी लगेगी कि आप टीशर्ट पहनने पर मजबूर हो जाएं। जबकि ऊर्जा के इतने ज्यादा अपव्यय की जरूरत नहीं है।
अगर हॉस्पीटलिटी के क्षेत्र में लोगों को पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूक बनाया जाए तो बस एक कदम से हम पर्यावरण को बचाने में अहम योगदान निभा सकते हैं। आम लोगों को अपने रहने और जीवन जीने में प्राकृतिक संसाधनों का कम-से-कम इस्तेमाल करने का तरीका सीखना होगा। आम आदमी अपने जीवन में औसतन एक घर ही बनाता है या खरीदता है। लेकिन गिनती के लोग ऐसे होते हैं जो सीमित ऊर्जा की खपत वाला घर तलाशते हैं। महानगरों में तो बिल्डरों के फ्लैट की संस्कृति है और उनके लिए भी यह प्राथमिकता में नहीं है। अगर एक आदमी अपने जीवन भर की कमाई से घर खरीद रहा है और उस घर में उसे 50-100 साल रहना भी है तो उसे कम-से-कम इतनी कोशिश तो करनी ही चाहिए कि वह ऐसा घर खरीदे जो कम ऊर्जा की खपत करें। इसके अलावा घरेलू स्तर पर ही पानी का बेहतर इस्तेमाल, ऊर्जा अपव्यय रोकने की कोशिश से शुरुआत हो सकती है।
पर्यावरणीय मुद्दों पर सरकारों को चाहे वह राज्य सरकार हो या फिर केंद्र सरकार, को भी गंभीरता दिखाने की जरूरत है। 30 जून, 2008 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि देश भर में नेशनल एक्शन प्लान ऑफ क्लाइमेट चेंज को लागू किया जा रहा है। आज चार साल से ज्यादा समय बीत चुका है, इसको लागू करने की दिशा में कितना काम हुआ है, इसको लेकर कुछ पता नहीं है। नीतियाँ तो आसानी से बनाई जा सकती हैं, सरकार उन्हें मान भी लेती हैं लेकिन उसे लागू करने को लेकर जिस तरह की प्रतिबद्धता होनी चाहिए उसका अभाव है। यह केवल सरकार की नाकामी नहीं है, क्योंकि इसके लिए हमें संस्थागत स्तर पर बदलाव करने की जरूरत है। जब तक संस्थागत बदलाव नहीं होते तब इन नीतियों को समावेशी तौर पर देश भर में लागू नहीं किया जा सकता।
नवंबर के अंतिम सप्ताह में मै दोहा में जलवायु परिवर्तन में हुई अंतरराष्ट्रीय बैठक में शामिल हुआ और वहां भी मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूकता के स्तर को बढ़ाने पर जोर दिया है। ऐसी बैठकों की एक मुश्किल यह भी है कि इसमें बातचीत राजनीतिक बातचीत में ज्यादा तब्दील हो जाती है, क्योंकि दुनिया भर में हमारे सोचने का आधार पर्यावरणीय मुद्दों पर नहीं हो सका है। क्योटो प्रोटोकॉल को लागू हुए सात साल बीच चुके हैं लेकिन अब तक दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जनों में कोई कमी नहीं आयी है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर एक ग्लोबल अनुबंध भी होना चाहिए था, वह भी नहीं हो सका है। बावजूद इसके, अगर दुनिया भर के आम लोग पर्यावरण को बचाने के लिए अपने स्तर पर कोशिशें शुरू करेंगे तो सरकारों पर भी दबाव निश्चित तौर पर बढ़ेगा।
(लेखक इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के प्रमुख और द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के महानिदेशक हैं)
1960 के दशक के मुकाबले आज के समय में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या तीन गुना बढ़ चुकी है। समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। तापमान के बढ़ने से बर्फ पिघल रही है और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। इससे समुद्री इलाकों में बसे शहर और द्वीप समूह की तर्ज पर बसे देशों के सामने अस्तित्व का संकट लगातार बढ़ रहा है। उन इलाकों में जहां बारिश कम होती है, वहां बरसात और कम हो सकती है। इससे कृषि पर असर पड़ेगा। इसके अलावा और भी अलग-अलग तरह के संकट सामने आ रहे हैं और आएंगे। पिछले कुछ सालों से हमारे आस पड़ोस में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर जागरूकता बढ़ी है। इसके साथ-साथ दूसरी बड़ी हकीकत यह भी है कि संकट भी लगातार बढ़ रहा है। एक ओर जहां भूमंडलीय तापमान लगातार बढ़ रहा है वहीं दूसरी तरह की मौसमी आपदाएं भी बढ़ रही हैं। हमारी दुनिया एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रही है जिसमें ग्रीष्म लहर हो या फिर शीतोष्ण प्रभाव वह लगातार बढ़ने वाला है। अभी तक हो यह रहा था कि 20 सालों में एक दिन ऐसा होता था जिस दिन गर्मी के रिकॉर्ड टूटते थे लेकिन अब ऐसा हर दो साल में होने की आशंका होगी। उत्तरी ध्रुवीय इलाका ही इससे बचा रहेगा, लेकिन वहां भी हर पांच साल में एक बार गर्मी के दिन का रिकॉर्ड टूटेगा। इसके साथ-साथ अचानक से थोड़े ही समय के दौरान काफी तेज बारिश के इलाके बढ़ेगे। मुंबई में 2005 की बारिश के दौरान ऐसा ही हुआ था, वह जलवायु परिवर्तन की वजह से ही हुआ था, ऐसा नहीं कहा जा सकता है, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे उदाहरणों की संख्या बढ़ सकती है। यही हालात उन इलाकों में भी होगी जहां बर्फबारी होती है। वहां महज दो-तीन घंटों में इतनी बर्फबारी हो सकती है जो सालों में होती रही हो। ऐसी सूरत में होने वाले नुकसान का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।
अभी हाल ही में अमेरिका का समुद्री तूफान सैंडी रहा हो या फिर दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु राज्य में आया चक्रवाती तूफान नीलम हो, इन दोनों से जनजीवन लगभग ठप हो गया। इन दोनों तूफानों के बीच भले कोई समानता नहीं दिख रही हो लेकिन बुनियादी तौर पर ये दोनों तूफान एक ही वजह से आए हैं। दरअसल, जलवायु परिवर्तन की वजह से ही ऐसी मौसमी आपदाएं सामने आ रही हैं। हाल के दिनों में ऐसी आपदाएं लगातार बढ़ी हैं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो अब तक जलवायु परिवर्तन की समस्या हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है। हमारी संस्था देश के कई हिस्सों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अलग-अलग मसलों पर काम करती है। महाराष्ट्र का एक उदाहरण है- वहां ऐसी जमीनों पर बड़े-बड़े आवासीय इमारतें बनी हैं जिसकी जमीन को कूड़े-करकट से तैयार किया गया था, यह अब दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की समस्या भी बनने वाली है। लेकिन मुंबई पर समुद्र के जल स्तर बढ़ने से स्थिति भयानक हो सकती है। इन इमारतों की नींव अचानक से कमजोर हो जाएंगी। लिहाजा इस इलाके में होने वाली जलवायु परिवर्तन के असर को आंकने के लिए हमने एक सुपर कंप्यूटर लगाया है जो बारीक से बारीक बदलाव को पढ़ने में सक्षम होगा।
ऐसे तरह-तरह की गतिविधियों को हमने देश भर में बढ़ाने की कोशिश की है। लेकिन वास्तविक संदर्भों में ऐसी कोशिशों का असर तभी कामयाब होता है जब इसमें आम लोगों की भागीदारी बढ़ती है। हर इलाके की स्थानीय समस्याएं होती हैं और उसका निदान भी स्थानीय स्तर पर तलाशा जाना जरूरी है। हमारे महानगरों में शिक्षा और जीवनशैली का स्तर ऊंचा जरूर है लेकिन जलवायु संरक्षण को लेकर आम लोग सजग नहीं हैं। सरकारी व्यवस्थाएं भी इसको लेकर संवेदनशील नहीं हैं। मसलन, परिवहन की व्यवस्था को ही हम देखें तो दिल्ली की सड़कों पर आम लोगों की कारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जबकि होना यह चाहिए कि परिवहन व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि आम लोग सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की ही ज्यादा उपयोग करें। ऐसा नहीं हो रहा है। गर्मियों में इतना ज्यादा एयरकंडीशनर चलाते हैं कि आदमी का बिना कोट के काम नहीं चल सकता है, बिना कंबल के नींद नहीं आ सकती है और जाड़े में इतनी गर्मी लगेगी कि आप टीशर्ट पहनने पर मजबूर हो जाएं। जबकि ऊर्जा के इतने ज्यादा अपव्यय की जरूरत नहीं है।
अगर हॉस्पीटलिटी के क्षेत्र में लोगों को पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूक बनाया जाए तो बस एक कदम से हम पर्यावरण को बचाने में अहम योगदान निभा सकते हैं। आम लोगों को अपने रहने और जीवन जीने में प्राकृतिक संसाधनों का कम-से-कम इस्तेमाल करने का तरीका सीखना होगा। आम आदमी अपने जीवन में औसतन एक घर ही बनाता है या खरीदता है। लेकिन गिनती के लोग ऐसे होते हैं जो सीमित ऊर्जा की खपत वाला घर तलाशते हैं। महानगरों में तो बिल्डरों के फ्लैट की संस्कृति है और उनके लिए भी यह प्राथमिकता में नहीं है। अगर एक आदमी अपने जीवन भर की कमाई से घर खरीद रहा है और उस घर में उसे 50-100 साल रहना भी है तो उसे कम-से-कम इतनी कोशिश तो करनी ही चाहिए कि वह ऐसा घर खरीदे जो कम ऊर्जा की खपत करें। इसके अलावा घरेलू स्तर पर ही पानी का बेहतर इस्तेमाल, ऊर्जा अपव्यय रोकने की कोशिश से शुरुआत हो सकती है।
पर्यावरणीय मुद्दों पर सरकारों को चाहे वह राज्य सरकार हो या फिर केंद्र सरकार, को भी गंभीरता दिखाने की जरूरत है। 30 जून, 2008 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि देश भर में नेशनल एक्शन प्लान ऑफ क्लाइमेट चेंज को लागू किया जा रहा है। आज चार साल से ज्यादा समय बीत चुका है, इसको लागू करने की दिशा में कितना काम हुआ है, इसको लेकर कुछ पता नहीं है। नीतियाँ तो आसानी से बनाई जा सकती हैं, सरकार उन्हें मान भी लेती हैं लेकिन उसे लागू करने को लेकर जिस तरह की प्रतिबद्धता होनी चाहिए उसका अभाव है। यह केवल सरकार की नाकामी नहीं है, क्योंकि इसके लिए हमें संस्थागत स्तर पर बदलाव करने की जरूरत है। जब तक संस्थागत बदलाव नहीं होते तब इन नीतियों को समावेशी तौर पर देश भर में लागू नहीं किया जा सकता।
नवंबर के अंतिम सप्ताह में मै दोहा में जलवायु परिवर्तन में हुई अंतरराष्ट्रीय बैठक में शामिल हुआ और वहां भी मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूकता के स्तर को बढ़ाने पर जोर दिया है। ऐसी बैठकों की एक मुश्किल यह भी है कि इसमें बातचीत राजनीतिक बातचीत में ज्यादा तब्दील हो जाती है, क्योंकि दुनिया भर में हमारे सोचने का आधार पर्यावरणीय मुद्दों पर नहीं हो सका है। क्योटो प्रोटोकॉल को लागू हुए सात साल बीच चुके हैं लेकिन अब तक दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जनों में कोई कमी नहीं आयी है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर एक ग्लोबल अनुबंध भी होना चाहिए था, वह भी नहीं हो सका है। बावजूद इसके, अगर दुनिया भर के आम लोग पर्यावरण को बचाने के लिए अपने स्तर पर कोशिशें शुरू करेंगे तो सरकारों पर भी दबाव निश्चित तौर पर बढ़ेगा।
(लेखक इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के प्रमुख और द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के महानिदेशक हैं)
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