मौसम की मार के बीच पिसती कृषि

Monsoon
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देखने में आया है कि अनियमित वर्षा की वजह से धान की खेती कई इलाकों में बंद हो गई है। गेहूं की फसल भी अनियत हो गई है क्योंकि देर से वर्षा के कारण देर तक खेतों में काफी नमी रहती है। इसकी जग नई तरह की खेती के रूप में एसआरआई विधि सरकार की ओर से पेश की गई है।

जलवायु परिवर्तन के आशंकित संकटों को लेकर पिछले 20-22 सालों से दुनिया में घबराहट का माहौल बना हुआ है। इसी के चलते 1992 में रियो दि जनेरियो में आयोजित पहले पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लगातार पृथ्वी सम्मेलनों का आयोजन होता आ रहा है। हाल ही में दोहा चक्र की वार्ता संपन्न हुई है। लेकिन दुखद पहलू यह है कि इसमें भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका है।

दोहा दौर की वार्ता को बचाने की मेजबान देश कतर द्वारा कोशिश किए जाने के बीच बस इतना ही हो सका कि क्योतो प्रोटोकॉल की अवधि बढ़ाने पर सहमति बन गई, जिसके माध्यम से 2020 तक धनी देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित किया जाएगा। वार्ता की अवधि एक दिन तक बढ़ने के बाद भी 8 दिसंबर को वार्ता का समापन करने से पहले केवल एक समझौते तक पहुंचने के राष्ट्रों के संकल्प के बाद करीब 200 देशों ने क्योतो प्रोटोकॉल को अगले आठ साल तक कायम रखने पर सहमति भर जताई। दरअसल यह ऐतिहासिक समझौता इसी महीने के अंत में समाप्त हो रहा है इस पर 1997 में देशों ने सहमति जताई थी।

हालांकि नए समझौते के दायरे में केवल वे विकसित देश आएंगे जिनका वैश्विक ग्रीन हाउस उत्सर्जन में हिस्सेदारी 15 फीसदी से कम है। भारत के अलावा चीन और अमेरिका जैसे बड़े प्रदूषक देश इसके दायरे से बाहर होंगे। यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, स्विटज़रलैंड और आठ अन्य औद्योगिक राष्ट्रों के 2020 तक उत्सर्जन कटौती करने के बाध्यकारी समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के साथ प्रोटोकॉल का विस्तार हो गया। जलवायु सम्मेलन के इस दोहा दौर के अध्यक्ष अब्दुल्ला बिन हमद अल अतीया ने इस समझौते को दोहा क्लाइमेट गेटवे बताया है। समझौते में जो कुछ सकारात्मक है उनमें, ग्लोबल वार्मिंग का मुकाबला करने में गरीब देशों को वित्तीय मदद बढ़ाने और ऊर्जा के स्रोतों को पर्यावरण अनुकूल बनाने की बात शामिल है।

बहरहाल, अमेरिका ने इस सम्मेलन के तहत खुद को किसी नए समझौते से जोड़ने की बात से इनकार किया है। वहीं, रूस ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया जबकि जी 77 एवं चीन, बेसिक समूह के देशों ने दोहा के नतीजों का स्वागत किया है। यह घटनाक्रम वार्ताकारों द्वारा सात दिसंबर की रात भर जटिल ब्योरों और सभी के स्वीकार्य तथ्यों को लेकर किए गये विचार-विमर्श पर बात हुआ है। 12 दिनों तक चली इस वार्ता में गरीब देशों ने इस बात पर जोर दिया कि धनी देश ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का ठोस वादा करें और गरीब देशों को वित्तीय मदद दें।

इससे पहले अनिश्चितता के बीच अमेरिका के नेतृत्व में धनी देशों ने गरीब देशों की इस मांग के आगे झुकने से इनकार कर दिया कि वे वैश्विक तापमान की समस्या से पृथ्वी ग्रह को बचाने के लिए ज्यादा जिम्मेदारी निभाएं। विवाद के केन्द्र में गरीब देशों की मांग है, जिसमें समस्याओं को कम करने और सुधारात्मक कदम उठाने के कदमों के वित्तपोषण तथा जलवायु के कारण होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति का मुद्दा शामिल है।

दोहा की वार्ता 7 दिसंबर को अचानक पटरी से उतर गई क्योंकि विकसित देश इस बात पर जोर दे रहे थे कि दीर्घकालिक सहयोगात्मक कार्य मंच, जिसे एलसीए भी कहा जा रहा है, की कार्यवाही दोहा में बंद हो गई। इसमें विकासशील देशों की शिकायत है कि उनकी चिंताओं का निराकरण नहीं हो पाया। बार-बार संशोधनों के प्रस्ताव आने के बावजूद अमीर और गरीब देशों के बीच दीर्घकालिक सहयोगात्मक कार्यवाई पर सहमति नहीं बन पाई। अमेरिका और यूरोपीय संघ जहां एलसीए मुद्दे को जल्द पूरा करने पर जोर दे रहे थे, वहीं भारत और चीन सहित विकासशील देशों का तर्क था कि इसमें वित्तीय तथा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दों का समुचित हल नहीं हो पाया। भारत और अन्य विकासशील देशों का कहना है कि एलसीए ट्रैक को सफलतापूर्वक बंद करने के लिए उसके तहत आने वाले सभी मुद्दों को संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में एक अन्य प्रक्रिया के तहत लाए जाने की जरूरत है।

यह तो हुई दोहा दौर की बात और उसमें आ रहीं बाधाएं, लेकिन इनमें जो बातें हो रही हैं और जिस ओर वार्ता चली उससे आगे भी किसी ठोस नतीजे निकलने के आसार नहीं है। दूसरी ओर, इसके दीर्घकालिक रूप को देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन की गतिविधियां केवल पर्यावरण का ही मुद्दा नहीं है बल्कि इससे आनेवाली पीढी के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न होनेवाली है। एक आकलन के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से हो रहे नुकसान का 75 से 80 प्रतिशत मूल्य विकासशील देशों को चुकाना पड़ेगा। इसके लिए विकासशील देशों को हर साल 80 अरब डॉलर की जरूरत होगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन का अध्ययन करनेवाली संस्था आईडीएमसी के मुताबिक, 2010 में बाढ़ एवं सूखे की वजह से दुनिया भर में करीब 4 करोड़ महिलाओं और बच्चों को पलायन करना पड़ा है। आईडीएमसी के अनुसार, अगले 30 सालों में 16 देशों में जलवायु संकट बुरी से प्रभाव डालेगा। इनमें से 10 देश केवल एशिया के हैं। खेतिहर किसान, मजदूर, पशुपालक और मछुआरे इसके प्रभाव में आनेवाले सबसे सरल लक्ष्य हैं।

विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर ग्रामीण और कृषि आधारित समुदायों पर पड़नेवाला है। फसलों के चक्र में परिवर्तन उनका नाश और लोगों के विस्थापन इस समस्या के अभिन्न अंग होंगे। दुनिया की आबादी में करीब 1.7 अरब लोग आज भी कृषि पर निर्भर हैं। इसलिए जलवायु परिवर्तन की कोई भी सार्थक बातचीत कृषि की उपेक्षा कर नहीं की जा सकती।

हालांकि, जलवायु परिवर्तन से होनेवाले नुकसान पर नियंत्रण के बड़े-बड़े दावे भी किए जा रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद प्रकृति में बदलाव को रोका नहीं जा सका है। प्रभाव साफ हैं कि मानसून का चक्र बिगड़ रहा है। मौसम का मिजाज बदल रहा है। इसका असर दूरदराज तक गांवों, खेत-खलिहानों तक में हो रहा है। सबसे अधिक प्रभाव तो कृषि पर पड़ रहा है, जहां परंपरागत रूप से उत्पादित होती आ रहीं बड़ी संख्या में फसलों का नामो-निशान तक मिट गया है। इन फसलों की जगह शुद्ध रूप से बड़ी कंपनियों द्वारा निर्देशित-नियंत्रित बीजों और उनके द्वारा बताए बीजों ने ले लिया है, जिसके पैदावार और पुनरुत्पादन पर उनका ही पूरा नियंत्रण हो रहा है। कम पानी और रासायनिक खादों के बिना पैदा होने वाली कई फसलें समाप्त हो चुकी हैं और उसकी जगह नई फसलों ने ले लिया है। इनमें बड़ी मात्रा में रासायनिक खादों, कीटनाशकों, परिमार्जित बीजों और सिंचाई की जरूरत पड़ती है।

इसके कारण ग्राम्य जीवन में भी बदलाव आया है। तत्काल कृषि की जरूरतों के मुताबिक हल-बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले लिया है और परंपरागत अनुभवों और ज्ञान के आधार पर चली आ रही खेती की जगह अब विशेषज्ञों द्वारा निर्देशित खेती लेती जा रही है। इस तरह की खेती व्यापार का रूप ले रही है, जिसमें समाज की न तो कोई भूमिका होती है और न ही उनकी जरूरतों और इच्छाओं का सम्मान। इस प्रकार अनियमित मौसम की वजह से खेती व खाद्य सुरक्षा की समस्या उत्पन्न हो रही है।

एक उदाहरण उत्तर बिहार का है। बिहार के इस इलाके में इसी तरह के कई फसलों का लोप पिछले दो दशकों में हो गया है जो पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर हुआ करते थे। वर्षा चक्र के अनियमित होने और जमीन की उर्वरा शक्ति में कमी से रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग बड़ी मात्रा में होने लगा है। इससे खेती का खर्च बढ़ा है और खेती के तरीके में बदलाव आया है। इसका सीधा असर ग्रामीण कृषक समाज के जीवन स्तर और रहन-सहन पर पड़ रहा है। जो समाज अपनी खेती और उससे जुड़े पशुपालन में घूमता रहता है, वहां अब कृषि के खर्चीला होने और उसमें पालतू पशुओं के उपयोग खत्म हो जाने से अन्य धंधों की ओर जाने को विवश हुआ है। खेती में उपज तो बढ़ी लेकिन लागत कई गुना अधिक हो गई, जिससे अधिशेष यानी, मार्जिन का संकट पैदा हो गया। वर्षा के अनियत होने से पेट्रोलियम या बिजली चालित पंपिंग सेटों से सिंचाई पर निर्भरता आ गई। गर्मी, जाड़े और बरसात के मौसम में कुछ फेरबदल से फसलों की बुवाई, सिंचाई और कटाई का मौसम बदला और जल्दी खेती करने के दवाब में पशुओं को छोड़ मोटर चालित यंत्रों पर निर्भरता आई। इनका परिणाम हुआ कि पूरी तरह किसानी पर निर्भर रहनेवाला समाज बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। क्योंकि खेती घाटे का सौदा हो गया। अब हर परिवार को खेती के अलावा कोई दूसरा काम करना मजबूरी हो गई।

देखने में आया है कि अनियमित वर्षा की वजह से धान की खेती कई इलाकों में बंद हो गई है। गेहूं की फसल भी अनियत हो गई है क्योंकि देर से वर्षा के कारण देर तक खेतों में काफी नमी रहती है। इसकी जग नई तरह की खेती के रूप में एसआरआई विधि सरकार की ओर से पेश की गई है। जिसमें बताया गया है कि धान की खेती में कम से कम पानी और उर्वरकों की जरूरत पड़ती है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखने में आया है कि यह विधि इतनी जटिल है कि किसानों के परंपरागत प्रव़ृत्ति से मेल नहीं खाती। यही कारण है कि किसानों में यह विधि प्रचलित नहीं हो पा रही है।

दूसरी ओर जिले में परंपरागत तौर पर उगनेवाली फसलों जिन्हें आमतौर पर मोटा अनाज कहा जाता है, फसल चक्र के अव्यवस्थित होने से नष्ट हो गए हैं। अब तो इनके बीज भी गांवों में देखने को नहीं मिलते। इनमें शमां, चीना, कोदो, मड़ूवा, उड़द और भादों में बोए जानेवाला मक्का की फसल है। इसके साथ ही साल भर में तैयार होनेवाला अरहर भी अब देखने को नहीं मिलता। इसके कारण पशुओं को चारे की कमी हो रही है तो जलावन का संकट भी आ रहा है। इससे पशु गांवों में लगभग खत्म हो गए हैं। इससे पशुओं का उपयोग खेती में खत्म हुए और इसकी जगह डीजल आधारित ट्रैक्टर जैसे मशीन आ गए हैं। जो पर्यावरण को नष्ट करने का काम करते हैं।

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