हमारे यहां जलस्रोत, जल संरचनाएं बहुत हैं। बारिश भी कमोबेश ठीक होती है,लेकिन हम पानी को भूगर्भ में उतार कर सहेजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों को दूषित कर रखा है। नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने और औद्योगिक इकाइयां लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अपशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रही है। पानी के बाजारीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है।
मौसम विभाग की भविष्यवाणी लगातार बदलती रहती है। मई की शुरुआत में सामान्य से पांच फीसद कम बारिश होने की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन नौ जून को कहा गया कि औसत से सात फीसद कम वर्षा होगी। मसलन, 95 फीसद बारिश का जो अनुमान था, वह घटकर 93 फीसद रह गया।विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री ने कहा कि सरकार ने कमजोर मानसून के तहत एहतियाती कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कमजोर मानसून का जिक्र किया। उन्होंने यह आशंका भी जताई कि मौसम विभाग की भविष्यवाणी कई मर्तबा अनुमानों पर खरी नहीं उतरी हैं। मौसम विभाग के आधुनिकीकरण और तकनीकी क्षमता बढ़ाने पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए हैं।
अब जिन सोलह मानक सूचनाओं और संकेतों के अध्ययन के आधार पर भविष्यवाणी की जा रही हैं, वह विश्वस्तरीय वैज्ञानिक प्रणाली है। इसके बावजूद सटीक भविष्यवाणी न होना चिंता की बात है। बीते साल भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी भी की गई थी और वर्षा समय-सीमा में ही होना जताई थी। लेकिन यह अवधि गुजर जाने के बाद भी रुक-रुक कर बरसात होती रही।
यहां तक की अप्रैल-मई में खेतों में कटी पड़ी फसल को भी बेमौसम बरसात की मार झेलनी पड़ी। नतीजतन, रबी की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ा। यह असर कश्मीर से कन्याकुमारी तक देखने में आया। इस वजह से महाराष्ट्र में एक लाख हेक्टेअर से भी ज्यादा कृषि भूमि में चने की फसल चौपट हो गई।
राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में सरसों की पैदावर की जो उम्मीद थी, उस पर ओले पड़ गए।
उत्तर प्रदेश और बिहार में आलू को नुकसान हुआ। मध्य प्रदेश में तो इतनी ओलावृष्टि हुई कि तेरह हजार करोड़ की गेहूं, चना की फसलें नष्ट हो गईं। लाखों किसानों को सही मुआवजा भी नहीं मिला। भविष्य में इसका असर अर्थव्यवस्था और खाद्य उत्पादों की बढ़ी कीमतों पर भी देखने में आ सकता है। पूरे उत्तर भारत में तेज गर्मी भी पड़ रही है और रह-रह कर बारिश भी हो रही है। मानसून की यह अनिश्चितता किसानों की चिंता बढ़ा रही है।
भारत में साठ प्रतिशत खेती मौसमी बारिश पर टिका है। देश की सत्तर फीसद आबादी को रोजी-रोटी खेती-किसानी और कृषि आधारित मजदूरी से मिलती है। मानसून मुनासिब नहीं रहा तो अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिरेगी। खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। मौसम की जानकारी देने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां अलनीनो खतरे की चेतावनी दे चुकी है।
जापान के मौसम विभाग ने मई माह में भविष्यवाणी की थी कि अलनीनो का खतरा 50 फीसद है। अलनीनो प्रशांत महासागर में करवट लेने वाली एक प्राकृतिक घटना है।
भारतीय वायुमंडल में अलनीनो के संकेत असरकारी होंगे या नहीं, निश्चित नहीं कहा जा सकता। दुनिया में 113 साल के भीतर जो ग्यारह भयानक सूखे पड़े हैं, उनकी वजह अलनीनो ही रहा है। भारत में यही प्रभाव दिख रहा है। अब चेरापूंजी में कम बारिश होने लगी है, जबकि राजस्थान के रेगिस्तान में इतनी ज्यादा मात्रा में बारिश होने लग गई है कि बाढ़ के हालात से भी लोगों को सामना करना पड़ रहा है।
वैसे हम अलनीनो या मानसून की किसी भी विपदा से निपट सकते हैं, क्योंकि अभी भी हमारे यहां जलस्रोत, जल संरचनाएं बहुत हैं। बारिश भी कमोबेश ठीक होती है,लेकिन हम पानी को भूगर्भ में उतार कर सहेजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी नदियों को दूषित कर रखा है।
नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने और औद्योगिक इकाइयां लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अपशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रही है।
पानी के बाजारीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है। यह ठीक है कि मौसम पर हमारा वश नहीं है, लेकिन जो पानी बारिश के रूप में धरती पर आ रहा है, उसका संचय करके कम बारिश या अलनीनो जैसे खतरों से तो बचा ही जा सकता है?
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