विभिन्न जगहों की हवा के साथ आई धूल और दूसरे प्रदूषणों, बैक्टीरिया और दूसरे रंगीन पदार्थ पिघले हुए जल के ऊपर जम जाते हैं। जिससे ग्लेशियर से सूर्य की किरणों का परावर्तन कम होता है, बर्फ में ताप ऊर्जा का अवशोषण बढ़ जाता है। इसका परिणाम बर्फ के पिघलने के रूप में होता है। पिघला हुआ जल सूर्य की किरणों से ऊष्मा को सोखता है। इस प्रकार पिघलने की गति बढ़ती है। पिघला हुआ जल गहरे समुद्र में तैरता रहता है और ग्लेशियर के प्रवाह को बढ़ाता है। अंटार्कटिक (दक्षिण ध्रुव) और आर्कटिक (उत्तर ध्रुव) दोनों क्षेत्रों के हिमखण्ड अभूतपूर्व गति से पिघल रहे हैं। नेचर पत्रिका में छपी ताजा रिपोर्ट के अनुसार अंटार्कटिक की चौथी सबसे बड़ी बर्फपट्टी में विशाल दरार पड गई है जिसकी वजह से यह बर्फ पट्टी कम-से-कम 10 किलोमीटर आगे खिसक आई है। उल्लेखनीय है कि दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों के भूभाग को ढँके ग्लेशियर आज धरती पर मौजूद इकलौते स्थायी हिम-आच्छादन हैं।
धरती का तापमान पिछले दस हजार वर्षों से कमोबेश एक समान रहा है। उसके पहले हिमयुग और थोड़ा गरम मौसम वाला अन्तर-हिमानी युग के दौर गुजरे थे। हिमयुगों के आगमन का कारण धरती की कक्षा में मामूली परिवर्तनों को माना जाता है, हालांकि तापमान में घट-बढ़ का सही-सही कारण अभी तक ठीक से समझा नहीं जा सका है।
दक्षिण ध्रुव (अंटार्कटिक) पर बर्फ की पट्टी का क्षेत्रफल 140 लाख वर्ग किलोमीटर है और इसमें बड़ी मात्रा में जमा हुआ मीठा पानी शामिल है। इसकी तुलना में भारत के कुल भूभाग का क्षेत्रफल केवल 13 लाख वर्ग किलोमीटर है। अगर दक्षिण ध्रुव का समूचा बर्फ-आच्छादन पिघल जाये तो समुद्र का स्तर 60 मीटर ऊपर उठ जाएगा।
बर्फ की पट्टी का कुछ हिस्सा समुद्र में प्रवाहित भी होगा और वह बर्फ की पट्टी पानी के ऊपर तैरता रहेगा जो दूसरे तरह की समस्याएँ पैदा करेगा। पिछले कुछ महीनों में अखबारों में अंटार्कटिक के लारसेन सी सेल्फ में दरार के बढ़ने के बारे में अनेक खबरें आई हैं जो किसी भी समय टूट कर अलग हो सकता है। लारसेन ए और बी 1995 और 2002 में टूट चुके हैं। साधारण तौर पर बर्फ की पट्टी का आकार कुछ हिस्से के टूटकर अलग हो जाने या पिघलने से घट जाता है। पर इस बार खतरा अधिक बडा है।
बर्फ की पट्टी से जब कोई बड़ा टुकड़ा टूटकर अलग होता है, वह समूची पट्टी से अधिक गति से प्रवाहित होता है। चूँकि यह बाकी ग्लेशियर से जुड़ा होता है, इसलिये इस प्रक्रिया में समूचे ग्लेशियर के समुद्र में तैरने की गति बढ़ सकती है। इस प्रकार अगर लारसेन सी अपने आप टूटे तो समुद्र का जलस्तर नहीं बढ़ेगा बल्कि यह जिस ग्लेशियर से जुड़ा है, उसके पिघलने की दर बढ़ जाएगी।
नासा के जेट प्रोपल्सन लैबोरेटरी में रडार साइंस एंड इंजीनियरिंग विभाग में प्रधान वैज्ञानिक एरिक रिंगनोट ने 2014 में कहा था कि पश्चिमी अंटकार्टिका के अमुन्दसेन सी सेक्टर में बर्फ का पीछे हटना अवश्यंभावी है जिसका वैष्विक समुद्री जलस्तर पर जबरदस्त प्रभाव पड़ेगा। पश्चिमी दक्षिण ध्रुवीय बर्फ-पट्टी के पूरी तरह पिघलने में कुछ सैकड़ा से हजारों वर्ष लग सकते हैं, पर यह साफ दिखने लगा है कि इसकी प्रक्रिया और परिणाम को अब रोका नहीं जा सकता।
समुद्री जलस्तर बढ़ना
उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में ग्रीनलैंड बर्फ-पट्टी का समूचा बर्फ अगर पिघल जाये तो समुद्र का स्तर 7 मीटर अर्थात 23 फीट ऊपर उठ जाएगा। पिछले अनेक वर्षों से ग्लेशियरों के अध्येताओं ने गौर किया है कि गर्मी के दिनों में बर्फ का पिघलना बढ़ा है और बीते वर्ष से अधिक इलाके में पिघलने लगा है। वैज्ञानिकों ने अब यह भी पाया है कि हाल में सतह के पिघलने की मात्रा बढ़ी है, इसके साथ ही बर्फ की पट्टी का टूटकर अलग होने की परिघटनाएँ भी हुई हैं।
विशेषज्ञ जानते हैं कि ग्लेशियर के पिघलने की एक व्यवस्था है, हालांकि वह ठीक ठीक क्या है और इसकी प्रक्रिया और उसके तेज होने की गति अभी शोध का विषय है। पर विभिन्न जगहों की हवा के साथ आई धूल और दूसरे प्रदूषणों, बैक्टीरिया और दूसरे रंगीन पदार्थ पिघले हुए जल के ऊपर जम जाते हैं। जिससे ग्लेशियर से सूर्य की किरणों का परावर्तन कम होता है, बर्फ में ताप ऊर्जा का अवशोषण बढ़ जाता है। इसका परिणाम बर्फ के पिघलने के रूप में होता है। पिघला हुआ जल सूर्य की किरणों से ऊष्मा को सोखता है। इस प्रकार पिघलने की गति बढ़ती है। पिघला हुआ जल गहरे समुद्र में तैरता रहता है और ग्लेशियर के प्रवाह को बढ़ाता है।
लेकिन ग्लेशियर के पिघलने के गति बढ़ाने वाली दूसरी परिघटनाएँ भी होती है। उत्तर ग्रीनलैंड का तापमान गरम होता है और वास्तव में सतह के पिघलने, समुद्री स्तर के अधिक होने में ग्रीनलैंड के योगदान को 1992-2011 के बीच दोगुना कर दिया है जो 0.74 मिलीमीटर प्रतिवर्ष है। वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता 400 पीपीएम से अधिक हो गई है जो पिछले 4 लाख वर्षों में सर्वाधिक है।
ग्लेशियर पिघलने का मॉडल बनाना बहुत ही जटिल है क्योंकि यह पानी के तापमान, समुद्र की धारा और दूसरे कारकों से प्रभावित होता है जिन्हें अभी ठीक से समझा नहीं गया है। जाने-माने जलवायु विज्ञानी जेम्स हानसेन और उनके सहयोगियों ने पिछले वर्ष एक शोधपत्र प्रकाशित किया कि समुद्र का जलस्तर बढ़ना कोई एकरेखीय प्रक्रिया नहीं है। उन्होंने पिछले भूवैज्ञानिक कालों की परिघटनाओं का उदाहरण दिया और कहा कि हमें अगले 50 से 150 वर्षों में समुद्री स्तर में कई मीटर बढ़ोत्तरी के लिये तैयार रहना चाहिए। इसका मतलब है कि आज जो लोग जीवित हैं उनमें से कई अपने जीवनकाल में ही समुद्र के जलस्तर में व्यापक बढ़ोत्तरी को देख सकेंगे।
वैश्विक सक्रियता आवश्यक
वैश्विक स्तर पर सबको पता है कि कई बड़े और सघन आबादी वाले महानगर समुद्र तट पर और कम ऊँचे मुहाने क्षेत्र में बसे हैं। समुद्र तट की हिफाजत करना महंगा कारोबार है और डाइक, सी-वाल एवं इस तरह की संरचनाएँ आंशिक सुरक्षा ही दे पाती हैं। भारत में पूर्वी तट खासकर कुछ निचले जिले प्रचंड तूफानों से बेहद जोखिमग्रस्त है जिनकी वजह से बाढ, खारापानी की घुसपैठ और भूमि व आजीविका की क्षति होती है।
पश्चिमी तट पर आमतौर पर आँधी-तूफान कम आते हैं लेकिन तटों का कटाव और समुद्री जलस्तर के बढ़ने से बाढ़ का खतरा है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने और तटीय क्षेत्रों में सम्भावित प्रभाव की चर्चा करने में इसे केवल समुद्र तटीय परिघटना के तौर पर नहीं, बल्कि यह समझना होगा कि इसका प्रभाव समूची अर्थव्यवस्था पर होता है।
इस सन्दर्भ में बंगलुरु के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॅालिसी की प्रमुख वैज्ञानिक सुजाता बायरावन की यह सलाह है कि तटीय नियमन क्षेत्र कानूनों को लागू करना, जोखिमग्रस्त जिलों का संरक्षण और सर्वाधिक जोखिमग्रस्त समुदायों जो अपनी आजीविका के लिये समुद्र पर निर्भर करते हैं को मजबूती प्रदान करने की जरूरत है। जलवायु पीड़ित शरणार्थियों के मामले में क्षेत्रीय समझौते करने की जरूरत है। भारत ऐसा देश है जहाँ तिब्बत, नेपाल, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका से विस्थापित शरणार्थी आश्रय लेते रहे हैं, इसलिये भारत को मौसम की चरम घटनाओं के सन्दर्भ में पहल करनी होगी।
(यह आलेख तैयार करने में द हिन्दू में प्रकाशित सुजाता बायरावन के आलेख की सहायता ली गई है।)
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Post By: Editorial Team