मौसम भी लेगा सरकार की परीक्षा

फिलहाल इस वर्ष खराब मानसून के अनुमान के चलते देश के कई क्षेत्र अभी से सहमे हुए हैं। सामान्य से कम बारिश होने की खबर से शेयर बाजार भी ऊपर-नीचे हो रहा है- उद्योग जगत में भी इसकी अटकलें तेज हो गई हैं। साथ ही सरकार के अंदर और बाहर भी खलबली मची हुई है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन ने भी आगे की वित्तीय नीति को मौसम की स्थिति के अनुपात में होने की बात कही हैदेश में लगातार दूसरे साल कमजोर मानसून के चलते बारिश कम होने की आशंका जताई गई है। हालाँकि मौसम विभाग द्वारा लगाया गया पूर्वानुमान 70 से 75 प्रतिशत ही सही होता है। इस साल की भविष्यवाणी के आधार पर 88 फीसदी बारिश होने का अनुमान है, जो बीते अप्रैल में लगाए गए अनुमान से भी पाँच फीसदी कम है। इसके पीछे एक बड़ा कारण एलनीनो है। एलनीनो पेरू के तट के निकट से दिसम्बर के महीने में चलने वाली एक गर्म जलधारा है, जो दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाओं को कमजोर बना देता है। फलस्वरूप भारत में बारिश के आसार कम हो जाते हैं। एलनीनो को पहली बार 1541 में रिकार्ड किया गया था। तबसे अब तक भारतीय मानसूनी हवाओं को प्रत्येक छह से सात वर्षों के अन्तराल पर चपेट में लेता रहा है। अगर इस बार कम बारिश होती है तो देश के कई इलाके सूखे की जद में आ सकते हैं।

पिछले दिनों चार दिन की देरी से 5 जून को मानसून ने केरल में दस्तक दिया, जबकि इसके दिल्ली पहुँचने की सामान्य तारीख 29 जून है। लेकिन पिछले साल की बात करें तो केरल में 6 जून को आने वाला मानसून दिल्ली में 3 जुलाई को पहुँचा था, जबकि वर्ष 2013 में जहाँ मानसून 29 मई को केरल के तट पर था, वहीं 16 जून को दिल्ली में था। गौरतलब है कि पिछले वर्ष बारिश 12 प्रतिशत कम हुई थी, तब अनाज उत्पादन 265 मिलियन टन से गिरकर 251 मिलियन टन पर आ गया था। अब इस बार भी बारिश में 12 प्रतिशत की गिरावट का ही अनुमान है तो जाहिर है कि कृषि उत्पादन दर में एक बार फिर गिरावट आ सकती है।

मौसम विज्ञान की दृष्टि में बारिश यदि 90 फीसदी से कम है तो मानसून बेहद कमजोर माना जाता है। 90 से 96 फीसदी बारिश की स्थिति बनती है तो इसे सामान्य से कम कहा जाएगा, जबकि 96 से 104 फीसद बारिश होने पर सामान्य बारिश का होना माना जाता है। यदि यही प्रतिशत 110 से अधिक हो जाए तो इसे अधिक बारिश वाले मानसून की संज्ञा दी जाती है। पिछले 50 वर्षों में जून से सितम्बर के बीच मानसून के दौरान देश में 89 सेमी बारिश हुई है। वर्ष 2013 में जहाँ औसतन 106 सेमी बारिश हुई, जो सर्वाधिक अच्छे मानसून का रिकॉर्ड है, वहीं 2009 में एलनीनो प्रभाव के चलते 77 सेमी ही बारिश हुई थी, जबकि पिछले वर्ष बारिश का औसत 88 सेमी रहा है। सो इस वर्ष भी कम बारिश होने का अनुमान बड़े संकट का संकेत हो सकता है।

सबसे बड़ा संकट देश के अन्नदाताओं यानी किसानों के लिए है। रबी की फसल पहले ही बेमौसम बारिश का शिकार हो गई, जिसके चलते बड़ी तबाही से किसान गुजर चुके हैं। इतना ही नहीं, हजारों किसानों ने आत्महत्या भी की है। अब इन्हीं किसानों की खरीफ की खेती बिना पर्याप्त पानी के कैसे सम्भव होगी। खरीफ की फसल, जिसमें धान आदि की खेती शामिल है, बिना जल के मुट्ठी भर भी पैदा कर पाना मुश्किल होगा। आज भी देश के आधे से अधिक कृषि क्षेत्र इंद्र देवता पर निर्भर रहते हैं। देखा जाए तो कराह रहे किसानों को अभी राहत मिलने वाली नहीं है। कम बारिश से पैदावार भी घटेगी और खाने-पीने की चीजें महँगी होंगी। पहले से ही महँगाई का जो शिकंजा है, वह और कस जाएगा। यानी एक नए संकट का पदार्पण निकट भविष्य में सामने आ सकता है।

कम बारिश होगी तो बड़े बाँधों का भी पानी घटेगा और इसका सीधा असर बिजली उत्पादन पर पड़ेगा। ऐसे में पहले से हो रही बिजली कटौती को और बल मिलेगा। इतना ही नहीं, बिजली के अभाव में उद्योग-धंधों, कल-कारखानों और यहाँ तक कि आम दिनचर्या भी प्रभावित हो सकती है। जिस प्रकार भू-जल की समस्या से देश गुजर रहा है, कम बारिश की वजह से इसमें भी बढ़त होगी। भू-जल का ज्यादा दोहन होगा, जबकि जमीन के अंदर पानी कम जमा होगा। इससे पानी पर दोहरी मार पड़ेगी। फिलहाल इस वर्ष खराब मानसून के अनुमान के चलते देश के कई क्षेत्र अभी से सहमे हुए हैं। सामान्य से कम बारिश होने की खबर से शेयर बाजार भी ऊपर-नीचे हो रहा है- उद्योग जगत में भी इसकी अटकलें तेज हो गई हैं। साथ ही सरकार के अंदर और बाहर भी खलबली मची हुई है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन ने भी आगे की वित्तीय नीति को मौसम की स्थिति के अनुपात में होने की बात कही है।

सूखे से मुकाबला करने में सरकार की रणनीति में भी फेरबदल की बाकायदा गुंजाइश है। कृषि मन्त्रालय के साल भर की उपलब्धियों पर रिपोर्ट देने के लिए आयोजित प्रेस वार्ता में कृषि मन्त्री राधा मोहन सिंह ने बीते दिनों कहा ही था कि सूखे के हालात पैदा होने की स्थिति में मूल्य वृद्धि पर सरकार सतर्क है। नुकसान होना तय है, परन्तु खेती के नुकसान को कम करने का हर सम्भव प्रयास किया जाएगा। केन्द्र से कुल 580 जिलों को आपात योजना भेज दी गई है। हालाँकि किसानों को सब्सिडी देने की बात भी सरकार की ओर से कही जा रही है। यहाँ रोचक तथ्य यह है कि इस सबके बावजूद सरकार अच्छे दिन की भावना से पीछे नहीं हटी है। दरअसल, सूखे की स्थिति में जहाँ एक ओर अन्न उत्पादन की मात्रा घटती है, वहीं दूसरी ओर बिचौलिए गोदामों में जमा अन्न से दोहरा मुनाफा वसूल करते हैं।

एक तरफ महँगाई से चारों ओर बिलबिलाहट की स्थिति पैदा होती है तो दूसरी तरफ कृषि विकास दर में गिरावट आती है। जैसा कि हम जानते ही हैं कि भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है और यहाँ की पारिस्थितिकी कहीं अधिक विविधता से परिपूर्ण है। औसत वन प्रतिशत जो किसी भी स्वस्थ पर्यावरण के लिए 33 प्रतिशत होना चाहिए, इस मामले में अभी भी हमारे यहाँ 10 फीसदी की गिरावट है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते भी कम बारिश वाली समस्या पनपी है। ऐसा जलवायु में परिवर्तन के चलते भी सम्भव हुआ है। एलनीनो की समस्या नई नहीं है, इसके बावजूद यह देश के विकास में कोई खास रुकावट नहीं बन पाई है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मन्त्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा है कि मौसम विभाग यह सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहा है कि अनुमान सही हो, लेकिन इस बार हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि संशोधित अनुमान सही न हो।

हालाँकि मौसम विभाग के अनुमानों को लेकर सरकार भी शंका से परे नहीं होगी। मौसम के आशंकित संकट से निपटने के सारे इन्तजाम और रणनीति का भले ही सरकार द्वारा खुलासा न हुआ हो, पर सूखे की समस्या से बेहतर ढँग से निपटने के उपायों की तलाश में तो वह लगी ही होगी। सरकार और साख का एक गहरा नाता है, सो प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी इसे कतई कमजोर होने देना नहीं चाहेंगे। ऐसे में अच्छे रणनीतिकार की भूमिका में अव्वल उतरना उनके लिए एक परीक्षा भी होगी और जनता के लिए पड़ताल का मौका भी। दरअसल, ऐसी परिस्थितियाँ कुछ कर गुजरने और बड़े सुधार का भी दौर लाती हैं और शासकों को पुख्ता होने का एक बेहतर अवसर भी देती हैं। मोदी न्यूनतम सरकार और अधिकतम सुशासन के पक्षधर हैं, यहाँ उनकी यह सोच कसौटी पर हो सकती है।

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