अध्ययन बताते हैं कि बेंवर खेती से जंगल को नुकसान नहीं पहुँचता है। इसमें बड़े लकड़ी पेड़ों को नहीं जलाया जाता। बल्कि इससे जैव विविधता कायम रहती है, जो कार्बन उत्सर्जन के नुकसान को नियंत्रित करती है। जलवायु बदलाव के नुकसान को रोकने में बिना जुताई और वृक्ष खेती की वकालत की जाती है जो कि इसमें मौजूद ही है। मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियाँ आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बेंवर खेती सबसे उपयुक्त है। जिस तरह से बैगा आदिवासी तीज-त्योहार व उत्सवों पर रंग-बिरंगी पोषाकों में आकर्षित करते हैं वैसे ही उनकी अनोखी बेंवर खेती मोहित करती है। रंग-बिरंगे छोटे-बड़े दानों वाले देशी बीज, खेत में लहलहाती हरी-भरी फसलें , मोतियों से दाने वाले चमकीले भुट्टे, भरी बालियां और झुमके सी लटकती फलियां। अगर कवि दृष्टि से देखें तो निहारते ही रहो। बहुत ही मनमोहक दृश्य। अपूर्व सौंदर्य से भरपूर इस अनूठी खेती का खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा जैव विविधता, मौसम बदलाव, पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से काफी महत्व है। मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले के बैगा आदिवासी पीढ़ियों से बेंवर झूम खेती करते आ रहे हैं। सतपुड़ा की मैकल पहाड़ियों में बसे और आदिम जनजाति में शुमार बैगा आदिवासियों का जंगल से गहरा लगाव है। उनकी आजीविका व जीवनशैली जंगल आधारित है। जंगल से जड़ी-बूटी एकत्र करना, वनोपज एकत्र करना, और बेंवर खेती उनकी जीविका के साधन हैं। इस बेंवर खेती में न केवल खाद्य सुरक्षा व भोजन के लिए जरूरी पोषक तत्व मौजूद हैं बल्कि जलवायु बदलाव से होने वाले नुकसानों से बचाने की क्षमता भी है। मिट्टी-पानी के संरक्षण के साथ इससे जैव विविधता समृद्ध होती है व पर्यावरण का संरक्षण होता है। यह पूरी तरह प्राकृतिक, जैविक व पर्यावरण के अनुकूल है।
बेंवर खेती बिना जुताई की जाती है। ऐसी मान्यता है कि हल से धरती मां की छाती पर घाव होगा और उसे पीड़ा होगी। ग्रीष्म ऋतु में पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों, पत्ते, घास और छोटी झाड़ियों को एकत्र कर उनमें आग लगा दी जाती है और फिर उसकी राख की पतली परत पर बीजों को बिखेर दिया जाता है जब बारिश होती है तो उन बीजों में अंकुर आ जाते हैं। धीरे-धीरे उगे पौधे बड़े होते हैं और फसलें लहलहा जाती हैं। धरती मां की इस फसल को देखकर किसी भी किसान का दिल उछल सकता है।
एक जगह पर एक वर्ष में खेती की जाती है। अगले साल दूसरी जगह पर खेती होती है। इस खेती को स्थानांतरित खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) कहते हैं। हालांकि इस खेती पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन मध्य प्रदेश के बैगाचक इलाके में यह प्रचलन में है। अब स्थान की कमी के कारण एक ही खेत को तीन साल तक बोने लगे हैं। फिर तीन साल दूसरे को और तीन साल तीसरे खेत में खेती करते हैं और ऐसे 9 साल बाद फिर उसी खेत में आ जाते हैं जिसमें पहले खेती की थी।
कोदो, कुटकी, ज्वार,सलहार (बाजरा) मक्का, सांवा, कांग, कुरथी, राहर, उड़द, कुरेली, बरबटी, तिली जैसे अनाज बेंवर खेती में बोये जाते हैं। इसमें 16 प्रकार के अनाज को बैगा बोते हैं। इन 16 अनाजों की 56 किस्में हैं। चूंकि इस खेती में बैलों का उपयोग नहीं है। इसलिए ज्यादातर काम हाथ से करना होता है। और खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं। वे खेत तैयार करना, बोवनी, निंदाई-गुड़ाई, कटाई और बीजों का भंडारण करना आदि काम करती हैं। इसके अलावा, वे ही पैरों से या लकड़ी से अनाज को कूटती हैं। ओखली में कूटकर उसके छिलके निकालती हैं और भोजन पकाकर सबको खिलाती हैं।
बेंवर पर अध्ययन करने वाले नरेश विश्वास कहते हैं कि यह खेती जैविक, पारिस्थितिकी और मिश्रित है। यह सुरक्षित खेती भी है कि चूंकि इसमें मिश्रित खेती होती है अगर एक फसल मार खा गई तो दूसरी से इसकी पूर्ति हो जाती है। इसमें कीट प्रकोप का खतरा भी नहीं रहता। इसमें रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती।
यह खेती संयुक्त परिवार की तरह है। एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि उनमें सहकार है। एक से दूसरी को मदद मिलती है। मक्के के बड़े पौधे कुलथी को हवा से गिरने से बचाते हैं। फल्लीवाले पौधों के पत्तों से नत्रजन मिलती है। कुछ अनाजों को बीमारी व बच्चे जन्मने पर महिलाओं को खिलाया जाता है। यानी ये अनाज बीमारी में उपचार के काम में आते हैं।
इन अनाजों में शरीर के लिए जरूरी सभी पोषक तत्व होते हैं। रेशे, लौह तत्व, कैल्शियम, विटामिन, प्रोटीन व अन्य खनिज तत्व मौजूद हैं। चावल व गेहूं के मुकाबले इनमें पौष्टिकता अधिक होती है। हरित क्रांति के बाद इन अनाजों में हम फिसड्डी हो गए हैं।इससे दाल, चावल, पेज (सूप की तरह पेय), दाल, सब्जी सब कुछ मिलता है। कुछ ऐसी भी उपज मिलती है जैसे-बैगानी राहर। इस यह राहर का बाजार में दाम महंगा होता है। पेज कोदो व मक्का का पेय होता है जिसमें स्वाद के लिए नमक डाल दिया जाता है। यह ग़रीबों का भोजन होता है। कम अनाज और पानी ज्यादा। मेहमान आ गए तो उतने ही अनाज में पानी की मात्रा बढ़ा दी जाती है।बेंवर खेती के अलावा गैर खेती भोजन भी बैगाओं की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती है। कंद-मूल, सब्जी-भाजी, फल-फूल, पत्ते, मशरूम, मछली व केकड़े आदि भी इन्हें जंगल व नदियों से मिलते हैं। कंद-मूल में कनिहाकांदा, डोनचीकांदा, कडुगीठकांदा, बैचांदीकांदा, लोडंगीकांदा, सैदूकांदा आदि हैं। अध्ययनकर्ता विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी ने बैगाओं के 26 प्रकार के अनाज, 28 कंद-मूल, 48 सब्जियां व भाजियां, 45 फल, 21 मशरूम आदि की सूची बनाई है।
बेंवर से खाद्य सुरक्षा बनी रहती है। एक के बाद एक फसल पकती जाती है और उसे काटकर भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। सबसे पहले भादो के महीने में कांग की फसल आ जाती है और कार्तिक तक सभी फसलें पक जाती हैं।
अध्ययन बताते हैं कि बेंवर खेती से जंगल को नुकसान नहीं पहुँचता है। इसमें बड़े लकड़ी पेड़ों को नहीं जलाया जाता। बल्कि इससे जैव विविधता कायम रहती है, जो कार्बन उत्सर्जन के नुकसान को नियंत्रित करती है। जलवायु बदलाव के नुकसान को रोकने में बिना जुताई और वृक्ष खेती की वकालत की जाती है जो कि इसमें मौजूद ही है। मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियाँ आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बेंवर खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती पर किताब लिखने वाले नरेश विश्वास का कहना है कि जिस तरह अंग्रेजों ने बैगाचक में बेंवर खेती को छूट दी थी पर बाद में इस पर प्रतिबंध लगा दिया। अब इस पर प्रतिबंध हटा लेना चाहिए, यह सभी दृष्टियों से उपयोगी होगा। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। इसलिए हमें मिट्टी-पानी की संरक्षण वाली इस अनोखी जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए।
बेंवर खेती बिना जुताई की जाती है। ऐसी मान्यता है कि हल से धरती मां की छाती पर घाव होगा और उसे पीड़ा होगी। ग्रीष्म ऋतु में पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों, पत्ते, घास और छोटी झाड़ियों को एकत्र कर उनमें आग लगा दी जाती है और फिर उसकी राख की पतली परत पर बीजों को बिखेर दिया जाता है जब बारिश होती है तो उन बीजों में अंकुर आ जाते हैं। धीरे-धीरे उगे पौधे बड़े होते हैं और फसलें लहलहा जाती हैं। धरती मां की इस फसल को देखकर किसी भी किसान का दिल उछल सकता है।
एक जगह पर एक वर्ष में खेती की जाती है। अगले साल दूसरी जगह पर खेती होती है। इस खेती को स्थानांतरित खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) कहते हैं। हालांकि इस खेती पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन मध्य प्रदेश के बैगाचक इलाके में यह प्रचलन में है। अब स्थान की कमी के कारण एक ही खेत को तीन साल तक बोने लगे हैं। फिर तीन साल दूसरे को और तीन साल तीसरे खेत में खेती करते हैं और ऐसे 9 साल बाद फिर उसी खेत में आ जाते हैं जिसमें पहले खेती की थी।
कोदो, कुटकी, ज्वार,सलहार (बाजरा) मक्का, सांवा, कांग, कुरथी, राहर, उड़द, कुरेली, बरबटी, तिली जैसे अनाज बेंवर खेती में बोये जाते हैं। इसमें 16 प्रकार के अनाज को बैगा बोते हैं। इन 16 अनाजों की 56 किस्में हैं। चूंकि इस खेती में बैलों का उपयोग नहीं है। इसलिए ज्यादातर काम हाथ से करना होता है। और खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं। वे खेत तैयार करना, बोवनी, निंदाई-गुड़ाई, कटाई और बीजों का भंडारण करना आदि काम करती हैं। इसके अलावा, वे ही पैरों से या लकड़ी से अनाज को कूटती हैं। ओखली में कूटकर उसके छिलके निकालती हैं और भोजन पकाकर सबको खिलाती हैं।
बेंवर पर अध्ययन करने वाले नरेश विश्वास कहते हैं कि यह खेती जैविक, पारिस्थितिकी और मिश्रित है। यह सुरक्षित खेती भी है कि चूंकि इसमें मिश्रित खेती होती है अगर एक फसल मार खा गई तो दूसरी से इसकी पूर्ति हो जाती है। इसमें कीट प्रकोप का खतरा भी नहीं रहता। इसमें रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती।
यह खेती संयुक्त परिवार की तरह है। एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि उनमें सहकार है। एक से दूसरी को मदद मिलती है। मक्के के बड़े पौधे कुलथी को हवा से गिरने से बचाते हैं। फल्लीवाले पौधों के पत्तों से नत्रजन मिलती है। कुछ अनाजों को बीमारी व बच्चे जन्मने पर महिलाओं को खिलाया जाता है। यानी ये अनाज बीमारी में उपचार के काम में आते हैं।
इन अनाजों में शरीर के लिए जरूरी सभी पोषक तत्व होते हैं। रेशे, लौह तत्व, कैल्शियम, विटामिन, प्रोटीन व अन्य खनिज तत्व मौजूद हैं। चावल व गेहूं के मुकाबले इनमें पौष्टिकता अधिक होती है। हरित क्रांति के बाद इन अनाजों में हम फिसड्डी हो गए हैं।इससे दाल, चावल, पेज (सूप की तरह पेय), दाल, सब्जी सब कुछ मिलता है। कुछ ऐसी भी उपज मिलती है जैसे-बैगानी राहर। इस यह राहर का बाजार में दाम महंगा होता है। पेज कोदो व मक्का का पेय होता है जिसमें स्वाद के लिए नमक डाल दिया जाता है। यह ग़रीबों का भोजन होता है। कम अनाज और पानी ज्यादा। मेहमान आ गए तो उतने ही अनाज में पानी की मात्रा बढ़ा दी जाती है।बेंवर खेती के अलावा गैर खेती भोजन भी बैगाओं की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती है। कंद-मूल, सब्जी-भाजी, फल-फूल, पत्ते, मशरूम, मछली व केकड़े आदि भी इन्हें जंगल व नदियों से मिलते हैं। कंद-मूल में कनिहाकांदा, डोनचीकांदा, कडुगीठकांदा, बैचांदीकांदा, लोडंगीकांदा, सैदूकांदा आदि हैं। अध्ययनकर्ता विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी ने बैगाओं के 26 प्रकार के अनाज, 28 कंद-मूल, 48 सब्जियां व भाजियां, 45 फल, 21 मशरूम आदि की सूची बनाई है।
बेंवर से खाद्य सुरक्षा बनी रहती है। एक के बाद एक फसल पकती जाती है और उसे काटकर भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। सबसे पहले भादो के महीने में कांग की फसल आ जाती है और कार्तिक तक सभी फसलें पक जाती हैं।
अध्ययन बताते हैं कि बेंवर खेती से जंगल को नुकसान नहीं पहुँचता है। इसमें बड़े लकड़ी पेड़ों को नहीं जलाया जाता। बल्कि इससे जैव विविधता कायम रहती है, जो कार्बन उत्सर्जन के नुकसान को नियंत्रित करती है। जलवायु बदलाव के नुकसान को रोकने में बिना जुताई और वृक्ष खेती की वकालत की जाती है जो कि इसमें मौजूद ही है। मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियाँ आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बेंवर खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती पर किताब लिखने वाले नरेश विश्वास का कहना है कि जिस तरह अंग्रेजों ने बैगाचक में बेंवर खेती को छूट दी थी पर बाद में इस पर प्रतिबंध लगा दिया। अब इस पर प्रतिबंध हटा लेना चाहिए, यह सभी दृष्टियों से उपयोगी होगा। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। इसलिए हमें मिट्टी-पानी की संरक्षण वाली इस अनोखी जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए।
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