जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में चिंता का विषय बना हुआ है। मौसम की अनिश्चितता बढ़ गई है। बदलते मौसम की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है। अब कोई भी मौसम अपने समय पर नहीं आता। जबकि किसान का ज्ञान व बीज मौसम के हिसाब से ही हैं। इससे किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन उत्तराखंड के किसानों ने अपनी परंपरागत पहाड़ी खेती व बारहनाजा (मिश्रित) फसलों से यह खतरा काफी हद तक कम कर लिया है।
वैसे तो इस समय हमारे देश के किसान अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहे हैं और यह संकट हरित क्रांति, सरकारी कृषि नीति और बाजार की नीतियों से आया है। जलवायु बदलाव का संकट भी मौजूदा विकास नीतियों से जुड़ा हुआ है। बेतहाशा औद्योगीकरण, शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसे पैदा किया है। लेकिन मौसम बदलाव ने इसे और बढ़ा दिया है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा उन समुदायों को भुगतना पड़ रहा है जिनकी आजीविका सीधे तौर पर प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी है। किसान उनमें से एक है।
हाल ही में मेरा उत्तराखंड जाना हुआ। वहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी के साथ तीन दिन रहा। वे टिहरी-गढ़वाल जिले के एक गांव जड़धार में रहते हैं। उसी गांव के नाम पर उन्होंने अपना नाम कर लिया। वहां गांवों में घूमा। इस दौरान वहां की पहाड़ी खेती को करीब से देखने और किसानों से बात करने का मौका मिला। विजय जड़धारी प्रयोगधर्मी किसान हैं।
करीब तीन दशक पहले शुरू हुआ बीज बचाओ आंदोलन अब पहाड़ में फैल गया है। महिलाएं गांवों में बैठक कर इस चेतना को बढ़ा रही हैं। पहाड़ में लोग अपने पारंपरिक बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। शुद्ध खानपान और पोषण की दृष्टि से जैव विविधता का संरक्षण भविष्य की आशा है।
अगर हम उत्तराखंड की ही बात करें तो यहां सिंचित खेती 13 प्रतिशत है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित खेती में विविधता नहीं है जबकि असिंचित खेती में विविधता है। यह खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है और जैविक भी। जहां देश में हरित क्रांति का संकट सामने आ गया है। देश के जिन इलाकों में किसान खुदकुशी कर रहे हैं, वे वही इलाके हैं जहां हरित क्रांति का असर है।
जलवायु परिवर्तन के दौर में सूखा, अतिवृष्टि में यहां भारी तबाही मचाई है। जून 2013 में तो यहां असमय हुई भारी बारिश व बादल फटने से जो कहर बरपा है, उससे लोग अब तक नहीं उबर पाए हैं। इस बार अच्छी बारिश नहीं हुई। सिर्फ 14-15 अगस्त को अधिक बारिश हुई। बादल फटे। यह अप्रत्याशित थी, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। फिर बारिश नहीं हुई।
आज मौसम धोखा दे रहा है। कोई भी ऋतु समय पर नहीं आती। मानसून को चौमासा कहते हैं। आषाढ़, सावन, भाद्रपद व आश्विन में सबसे ज्यादा बारिश होती थी। अब बारिश कब आती है और चली जाती है, पता ही नहीं चलता। जब ऋतु समय पर नहीं आती तो फसल भी समय पर नहीं आती। हमारे परंपरागत देशी बीज ऋतु के मुताबिक पकते हैं।
कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।चतुर्मास जून के आखिर से शुरू होकर अक्टूबर तक थम जाता था। कहावत है कि आठ गथे आषाढ़-छाला बरसना। मानसून की पहली बारिश बहुत गरजना के साथ होती थी। बादल उमड़-घुमड़ कर चारों तरफ से आते थे। बरसते थे और नमी छा जाती थी।
सावन के महीने को अंधियारा महीना कहते थे। न दिन में सूरज निकलता था, न रात में चांद-तारे। सावन में तारा नहीं दिखना चाहिए। एक तारा दिखाई दिया तो कहते थे- एक विस्वा अनाज कम हो जाएगा।
इस माह में रिमझिम बारिश होती थी। हफ्तों तक झड़ी लगी रहती थी। बारिश के साथ कुहरा होता था। कुहरा जमीन से पैदा होता था। रिमझिम बारिश का पानी जमीन में समा जाता था। ऐसे मौसम में आसमान शांत होता था और गर्जना नहीं होती थी।
भादों में जोर की बारिश होती थी। धूप भी होती थी। कभी-कभी बारिश होती थी और कभी-कभी घाम (धूप) भी होता था। इसी प्रकार शरदकालीन मौसम में नवंबर के मध्य में बारिश होती थी। दिसंबर से बर्फ और पाला पड़ना शुरू हो जाता था।
जड़धारी बताते हैं कि उनके गांव में तीस साल पहले तीन फुट बर्फ पड़ती थी, अब तीन इंच भी नहीं पड़ती है। और एकाध इंच पड़ी भी तो जल्द ही पिघल जाती है। 1980 के बाद से बर्फ ही नहीं देखी है।
तापमान इतना कम हो जाता था कि बाल्टी में पाले की परत जम जाती थी। बिल्कुल कांच की तरह। तालाबों में पाले की परत पत्थर से भी नहीं टूटती थी। आंगन में जमी बर्फ को पिघलाकर पशुओं को पानी पिलाते थे।
खेतों की फसलें जैसे गेहूं बर्फ के नीचे दब जाता था। गेहूं दबने से उसमें ज्यादा कंसे फूटते थे। ज्यादा बालियां आती थीं। बर्फ के पानी से खेत में मई-जून तक नमी बनी रहती थी। जबकि अप्रैल में ही गेहूं की फसल आ जाती हैं।
बर्फ और पाले से दो फायदे थे-एक, भूमि में जितने भी फसलों के लिए हानिकारक कीट व कीड़े-मकोड़े होते थे, वे मर जाते थे और दूसरा, फसलें भी अच्छी होती थीं। यहां की अच्छी जलवायु, अच्छी बारिश व अच्छी बर्फ के कारण यहां के किसान एक जमाने में खाद्यान्न, जंगली फल-फूल, सब्जियों की उपज के कारण संपन्नता और खुशहाली थी।
लेकिन अब चार माह गायब हो गए हैं। पहले पूरे देश का मानसून एक होता था। पर अब अलग-अलग मानसून हो गया है। अब एक ही गांव में दो-तीन तरह की बारिश होती है। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और पीछे की ओर भाग रहे हैं। सैकड़ों सालों से जमी बर्फ पिघल रही है। नई बर्फ नहीं बन रही है।
लेकिन मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं। और के हिसाब से वे अपने खेतों में फसल बोते हैं। जहां जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूं की फसल पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं। मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुई। 2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूं की अनेक पारंपरिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं।
बर्फानी नदियां हैं- जैसे गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, रामगंगा, कोसी, पिंडर आदि। लेकिन इनका पानी खेतों में नहीं जाता। बड़ी नदियों के अलावा यहां कई गाड-गधेरा यानी गैर-बर्फानी छोटी-छोटी नदियां हैं। यही नदियां लोगों की आजीविका का मुख्य आधार रही हैं। क्योंकि इनसे ही सिंचाई के लिए नहरें निकालकर लोगों ने अपने प्यासे खेतों को पानी पिलाया है।
उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल इलाके में किसान और खास कर महिला किसान अपने परंपरागत देशी बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। बारहनाजा यानी बारह अनाज। लेकिन इसमें अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा वाली फसलें शामिल हैं। ये सभी मिश्रित फसलें ही बारहनाजा है।
यहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा में 12 फसलें ही हों, यह जरूरी नहीं। भौगोलिक परिस्थिति, खान-पान की संस्कृति के आधार पर इसमें 20 से अधिक फसलें भी होती हैं। जिनमें कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास नौरंगी, उड़द, सुंटा लोबिया, रगड़वास, गुरूंष, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण सन, काखड़ी खीरा इत्यादि फसलें हैं।
आज जहां पारंपरिक बीज ढूंढने से नहीं मिलते वहीं बीज बचाओ आंदोलन के पास उत्तराखंड की धान की 350 प्रजातियां, गेहूं की 30 , जौ 4, मंडुआ 12, झंगोरा 8, ज्वार 3, ओगल 2, मक्की 10, राजमा 220, गहथ 3, भट्ट 5, नौरंगी 12, सुंटा 8, तिल 4, भंगजीर 3 प्रजातियां हैं। इनकी समस्त जानकारी है। उनके पास जिंदा जीन बैंक है। इसके अलावा दुर्लभ चीणा, गुरूश, पहाड़ी काखड़ी, जख्या सहित दर्जनों तरह की साग-सब्जी के बीज उगाए जा रहे हैं और किसानों को दिए जा रहे हैं।
उत्तराखंड जैव विविधता के मामले में और जगहों से आज भी अच्छा है। यहां सैकड़ों पारंपरिक व्यंजन हैं। फल, फूल, पत्ते और कंद-मूल हैं, जो लोगों को निरोग बनाते हैं। पानी के स्रोत सूख न जाएं इसलिए जंगल बचाने का काम किया जा रहा है।
जड़धार का जंगल जो कभी उजड़ चुका था, अब हरा-भरा हो गया है। बांज-बुरास का यह जंगल कई जलस्रोतों का उद्गम स्थल है, जिससे सीधे पाइप के माध्यम से लोगों को बारहमास पानी उपलब्ध है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियां आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
वैसे तो इस समय हमारे देश के किसान अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहे हैं और यह संकट हरित क्रांति, सरकारी कृषि नीति और बाजार की नीतियों से आया है। जलवायु बदलाव का संकट भी मौजूदा विकास नीतियों से जुड़ा हुआ है। बेतहाशा औद्योगीकरण, शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसे पैदा किया है। लेकिन मौसम बदलाव ने इसे और बढ़ा दिया है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा उन समुदायों को भुगतना पड़ रहा है जिनकी आजीविका सीधे तौर पर प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी है। किसान उनमें से एक है।
हाल ही में मेरा उत्तराखंड जाना हुआ। वहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी के साथ तीन दिन रहा। वे टिहरी-गढ़वाल जिले के एक गांव जड़धार में रहते हैं। उसी गांव के नाम पर उन्होंने अपना नाम कर लिया। वहां गांवों में घूमा। इस दौरान वहां की पहाड़ी खेती को करीब से देखने और किसानों से बात करने का मौका मिला। विजय जड़धारी प्रयोगधर्मी किसान हैं।
करीब तीन दशक पहले शुरू हुआ बीज बचाओ आंदोलन अब पहाड़ में फैल गया है। महिलाएं गांवों में बैठक कर इस चेतना को बढ़ा रही हैं। पहाड़ में लोग अपने पारंपरिक बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। शुद्ध खानपान और पोषण की दृष्टि से जैव विविधता का संरक्षण भविष्य की आशा है।
अगर हम उत्तराखंड की ही बात करें तो यहां सिंचित खेती 13 प्रतिशत है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित खेती में विविधता नहीं है जबकि असिंचित खेती में विविधता है। यह खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है और जैविक भी। जहां देश में हरित क्रांति का संकट सामने आ गया है। देश के जिन इलाकों में किसान खुदकुशी कर रहे हैं, वे वही इलाके हैं जहां हरित क्रांति का असर है।
जलवायु परिवर्तन के दौर में सूखा, अतिवृष्टि में यहां भारी तबाही मचाई है। जून 2013 में तो यहां असमय हुई भारी बारिश व बादल फटने से जो कहर बरपा है, उससे लोग अब तक नहीं उबर पाए हैं। इस बार अच्छी बारिश नहीं हुई। सिर्फ 14-15 अगस्त को अधिक बारिश हुई। बादल फटे। यह अप्रत्याशित थी, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। फिर बारिश नहीं हुई।
आज मौसम धोखा दे रहा है। कोई भी ऋतु समय पर नहीं आती। मानसून को चौमासा कहते हैं। आषाढ़, सावन, भाद्रपद व आश्विन में सबसे ज्यादा बारिश होती थी। अब बारिश कब आती है और चली जाती है, पता ही नहीं चलता। जब ऋतु समय पर नहीं आती तो फसल भी समय पर नहीं आती। हमारे परंपरागत देशी बीज ऋतु के मुताबिक पकते हैं।
कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।चतुर्मास जून के आखिर से शुरू होकर अक्टूबर तक थम जाता था। कहावत है कि आठ गथे आषाढ़-छाला बरसना। मानसून की पहली बारिश बहुत गरजना के साथ होती थी। बादल उमड़-घुमड़ कर चारों तरफ से आते थे। बरसते थे और नमी छा जाती थी।
सावन के महीने को अंधियारा महीना कहते थे। न दिन में सूरज निकलता था, न रात में चांद-तारे। सावन में तारा नहीं दिखना चाहिए। एक तारा दिखाई दिया तो कहते थे- एक विस्वा अनाज कम हो जाएगा।
इस माह में रिमझिम बारिश होती थी। हफ्तों तक झड़ी लगी रहती थी। बारिश के साथ कुहरा होता था। कुहरा जमीन से पैदा होता था। रिमझिम बारिश का पानी जमीन में समा जाता था। ऐसे मौसम में आसमान शांत होता था और गर्जना नहीं होती थी।
भादों में जोर की बारिश होती थी। धूप भी होती थी। कभी-कभी बारिश होती थी और कभी-कभी घाम (धूप) भी होता था। इसी प्रकार शरदकालीन मौसम में नवंबर के मध्य में बारिश होती थी। दिसंबर से बर्फ और पाला पड़ना शुरू हो जाता था।
जड़धारी बताते हैं कि उनके गांव में तीस साल पहले तीन फुट बर्फ पड़ती थी, अब तीन इंच भी नहीं पड़ती है। और एकाध इंच पड़ी भी तो जल्द ही पिघल जाती है। 1980 के बाद से बर्फ ही नहीं देखी है।
तापमान इतना कम हो जाता था कि बाल्टी में पाले की परत जम जाती थी। बिल्कुल कांच की तरह। तालाबों में पाले की परत पत्थर से भी नहीं टूटती थी। आंगन में जमी बर्फ को पिघलाकर पशुओं को पानी पिलाते थे।
खेतों की फसलें जैसे गेहूं बर्फ के नीचे दब जाता था। गेहूं दबने से उसमें ज्यादा कंसे फूटते थे। ज्यादा बालियां आती थीं। बर्फ के पानी से खेत में मई-जून तक नमी बनी रहती थी। जबकि अप्रैल में ही गेहूं की फसल आ जाती हैं।
बर्फ और पाले से दो फायदे थे-एक, भूमि में जितने भी फसलों के लिए हानिकारक कीट व कीड़े-मकोड़े होते थे, वे मर जाते थे और दूसरा, फसलें भी अच्छी होती थीं। यहां की अच्छी जलवायु, अच्छी बारिश व अच्छी बर्फ के कारण यहां के किसान एक जमाने में खाद्यान्न, जंगली फल-फूल, सब्जियों की उपज के कारण संपन्नता और खुशहाली थी।
लेकिन अब चार माह गायब हो गए हैं। पहले पूरे देश का मानसून एक होता था। पर अब अलग-अलग मानसून हो गया है। अब एक ही गांव में दो-तीन तरह की बारिश होती है। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और पीछे की ओर भाग रहे हैं। सैकड़ों सालों से जमी बर्फ पिघल रही है। नई बर्फ नहीं बन रही है।
लेकिन मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं। और के हिसाब से वे अपने खेतों में फसल बोते हैं। जहां जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूं की फसल पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं। मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुई। 2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूं की अनेक पारंपरिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं।
बर्फानी नदियां हैं- जैसे गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, रामगंगा, कोसी, पिंडर आदि। लेकिन इनका पानी खेतों में नहीं जाता। बड़ी नदियों के अलावा यहां कई गाड-गधेरा यानी गैर-बर्फानी छोटी-छोटी नदियां हैं। यही नदियां लोगों की आजीविका का मुख्य आधार रही हैं। क्योंकि इनसे ही सिंचाई के लिए नहरें निकालकर लोगों ने अपने प्यासे खेतों को पानी पिलाया है।
उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल इलाके में किसान और खास कर महिला किसान अपने परंपरागत देशी बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। बारहनाजा यानी बारह अनाज। लेकिन इसमें अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा वाली फसलें शामिल हैं। ये सभी मिश्रित फसलें ही बारहनाजा है।
यहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा में 12 फसलें ही हों, यह जरूरी नहीं। भौगोलिक परिस्थिति, खान-पान की संस्कृति के आधार पर इसमें 20 से अधिक फसलें भी होती हैं। जिनमें कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास नौरंगी, उड़द, सुंटा लोबिया, रगड़वास, गुरूंष, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण सन, काखड़ी खीरा इत्यादि फसलें हैं।
आज जहां पारंपरिक बीज ढूंढने से नहीं मिलते वहीं बीज बचाओ आंदोलन के पास उत्तराखंड की धान की 350 प्रजातियां, गेहूं की 30 , जौ 4, मंडुआ 12, झंगोरा 8, ज्वार 3, ओगल 2, मक्की 10, राजमा 220, गहथ 3, भट्ट 5, नौरंगी 12, सुंटा 8, तिल 4, भंगजीर 3 प्रजातियां हैं। इनकी समस्त जानकारी है। उनके पास जिंदा जीन बैंक है। इसके अलावा दुर्लभ चीणा, गुरूश, पहाड़ी काखड़ी, जख्या सहित दर्जनों तरह की साग-सब्जी के बीज उगाए जा रहे हैं और किसानों को दिए जा रहे हैं।
उत्तराखंड जैव विविधता के मामले में और जगहों से आज भी अच्छा है। यहां सैकड़ों पारंपरिक व्यंजन हैं। फल, फूल, पत्ते और कंद-मूल हैं, जो लोगों को निरोग बनाते हैं। पानी के स्रोत सूख न जाएं इसलिए जंगल बचाने का काम किया जा रहा है।
जड़धार का जंगल जो कभी उजड़ चुका था, अब हरा-भरा हो गया है। बांज-बुरास का यह जंगल कई जलस्रोतों का उद्गम स्थल है, जिससे सीधे पाइप के माध्यम से लोगों को बारहमास पानी उपलब्ध है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियां आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
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Post By: Shivendra