मानव- पर्यावरण संबंध का मानव स्वास्थ्य पर प्रभावः एक भौगोलिक अध्ययन

मानव- पर्यावरण संबंध का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव,PC-H&F
मानव- पर्यावरण संबंध का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव,PC-H&F
सारांश-

मानव अपनी जीवन की उत्पत्ति से ही पर्यावरण से संबंधित रहा है। मानव पर्यावरण का संबंध मनुष्य के लिए अपेक्षाकृत अधिक लाभकारी रहा है। पिछली चार शताब्दियों में मानव की गतिविधियों के कारण पृथ्वी के मूल तत्वों हवा, पानी, मिट्टी तथा रासायनिक संगठन में परिवर्तन हुआ है, जिसके कारण पृथ्वी के भौतिक और रासायनिक विशेषताओं में तेजी से रूपांतरण हुआ है इस रूपांतरण के कारण बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रदूषण हुआ है। परिणामस्वरूप लोगों के जीवन पर अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। यह अध्ययन मानव पर्यावरण संबंध का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव की जांच करता है। डाटा का विश्लेषण मुख्य रूप से द्वितीयक श्रोतों से किया गया है जो बताता है बहुत सारे लोग जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं वह मानवजनित गतिविधियों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण का परिणाम है अवलोकन में मानव पर्यावरण संबंध को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण संसाधनों के बेहतर तरीके से उपयोग एवं संरक्षण पर जोर दिया गया है।

मुख्य शब्द- पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य, निर्वनीकरण, प्रदूषण, कृषि

परिचय -

मानव पर्यावरण का संबंध प्रारंभिक काल से रहा है। उसका पर्यावरण के साथ गहन अंतसंबंध है वह प्राकृतिक पर्यावरण से अंतरसंबंध स्थापित करके अपना जीवन यापन करता है। पर्यावरण ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है। इसलिए अब मानव का कर्तव्य एवं नैतिक दायित्व है कि वह पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करें, जिससे भावी मानव पीढ़ी के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न ना हो। किंतु स्थिति इसके विपरीत है. आज मनुष्य की क्रियाएं एवं शोषणात्मक प्रवृत्ति से पर्यावरण की मौलिकता समाप्त होने लगी है। वायु जिसमें मनुष्य सांस लेता, पानी जिससे वह प्यास बुझाता, भोजन जिससे उसे पोषण मिलता तथा ऊर्जा प्रवाह जिससे उसकी आवश्यकताएं पूरी होती है सभी में परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन न सिर्फ विनाशकारी हो सकता है अपितु समस्त मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा भी पैदा कर सकता है। (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम 2019 ) CRT ज्यादातर मनुष्य पर्यावरण में हेरफेर करके खुद का विकास करते हैं, किंतु दुर्भाग्यवश इसकी वजह से वातावरण के महत्वपूर्ण तत्वों को नष्ट कर देते हैं। उदाहरण के लिए हम एक बाँध निर्माण पोर्टेबल पानी प्रदान करने या फसल की पैदावार में सुधार करने के उद्देश्य से करते हैं किंतु जब यह पानी संक्रमित हो जाता है तब आसपास के समुदायों के लोगों में सिस्टोसोमियासिस महामारी के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। (डब्ल्यूएचओ अंतरराष्ट्रीय यात्रा और स्वास्थ्य रिपोर्ट) दूसरी तरफ मानव बांध बनाने तथा खेती करने के लिए बहुत सारे पेड़ों को काटता तथा जंगलों को जलाता है। इसकी वजह से वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है तथा संपूर्ण पर्यावरण को पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है (Elegbeleye Oladipo 2015 ) मनुष्य और उसके वातावरण के बीच का संबंध व्यवहारिक रूप से मनुष्य के लिए लाभदायक होता है किंतु जब वह अविवेकपूर्ण तरीके से पृथ्वी के वातावरण के साथ अंतरक्रिया करता है तो वातावरण के मूल तत्व वायु, जल तथा मिट्टी में परिवर्तन होता है। परिणामस्वरूप पृथ्वी की समस्त जलवायु में बदलाव होता है (Sasmita Mohanty and Other 2009) इन सभी परिवर्तनों के कारण बड़े पैमाने पर पर्यावरण की क्षति हुई है जिसके कारण लोगों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव देखे गए हैं। (Kanu & Others 2018 )

चूंकि मनुष्य और पर्यावरण के बीच एक स्थाई संबंध है इसलिए हमारा स्वास्थ्य काफी हद तक पर्यावरणीय गुणवत्ता द्वारा निर्धारित होता है। इसलिए पर्यावरण और स्वास्थ्य का निकटतम संबंध है जिस वातावरण में हम रहते हैं, काम करते हैं तथा आराम करते हैं वह हमारे स्वास्थ्य और सेहत को निर्धारित करता है। पर्यावरण के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक कारक हमारे स्वास्थ्य पर शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से प्रभाव डाल सकते हैं (OECD ENVIRONMENTAL OUTLOOK 2001)

विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा स्वास्थ्य को शारीरिक, मानसिक और सामाजिक खुशहाली के रूप में परिभाषित करने पर जोर दिया गया है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार स्वास्थ्य का संबंध केवल बीमारी या कमजोरी से नहीं है बल्कि इसका संबंध मानव जीवन के संपूर्ण भौतिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण या खुशहाली की स्थिति है। हालांकि पर्यावरण और स्वास्थ्य के बीच का संबंध अत्यंत जटिल है। यद्यपि बहुत सी स्वास्थ्य समस्याएं पर्यावरण प्रदूषण से संबंधित हैं किंतु इन सभी स्वास्थ्य समस्याओं की गंभीरता तथा संबंधित कारणों का सही आकलन करना अत्यंत जटिल है (डब्ल्यूएचओ 2014)

यह शोध पत्र पर्यावरण पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव की जांच करता है तथा यह पता लगाने की कोशिश की गयी है कि पर्यावरण प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य पर किस हद तक प्रभाव डालता है। इस शोध पत्र में पर्यावरणीय संसाधनों के रणनीतिक उपयोग पर जोर दिया गया है ताकि पर्यावरण संतुलन बना रहे और भावी पीढ़ी को भी इसका लाभ मिल सके।

वैचारिक एवं सैद्धांतिक मुद्दे

वायुमंडल, जलमंडल, स्थलमंडल तथा जैवमंडल प्राकृतिक पर्यावरण के भाग है। इन सभी मंडलों में विभिन्न प्रकार के तत्व पाए जाते हैं जो मानव को विभिन्न गतिविधियां करने के लिए प्रेरित करते हैं। वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण पाया जाता है जो सजीव व निर्जीव दोनों के लिए आवश्यक होती है। (Richard P Tuckett 2009) जलमंडल बहुत बड़ा प्राकृतिक हाइड्रोलॉजिकल क्षेत्र है। (Chaochao Li & Others 2016) स्थलमंडल पृथ्वी की सतह एवं कोर के बीच के सभी भौतिक, रासायनिक तथा जैविक पदार्थों को समाहित करता है। (A. Richling Doc. Dr. 1983) स्थलमंडल में पाए जाने वाले पदार्थों का मनुष्य के लिए अत्यधिक महत्व है। ओएबांडे 1995 के अनुसार जीव मंडल में मनुष्य एवं उसके सामाजिक जीवन को शामिल किया जाता है जहां पर बहुत-सी मानवीय गतिविधियां होती हैं। यह वास्तव में सामाजिक आर्थिक क्षेत्र होता है। आमतौर पर मनुष्य पर्यावरण संबंध को लोग केवल लाभ के रूप में देखते हैं इसलिए पर्यावरण से सही संबंध स्थापित करने में मनुष्य नाकाम रहा है। उसके कार्यों के परिणामस्वरूप कई पर्यावरणीय समस्याएँ तथा प्रकोप उत्पन्न हुये हैं जो हमारे स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। (C. Sudhakar Reddy & Others 2015 )

पर्यावरण एक प्राकृतिक क्षेत्र है जिसका संपूर्ण या कोई विशेष भौगोलिक क्षेत्र मानवीय गतिविधियों से प्रभावित होता है। सामान्यतया कहा जा सकता है कि पर्यावरण हमारे आसपास का वातावरण है जिसमे मानव, अन्य जीव तथा पेड़ पौधे होते हैं ये सभी आपस मे संबन्धित होते है तथा अंतरक्रिया स्थापित करते हैं (Virendra Shende & Others 2015)

मानव- पर्यावरण

Edward Wilson Ansah (2015) के अनुसार मानव पर्यावरण को चार प्रमुख घटकों भौतिक रासायनिक, जैविक एवं मानव का सामाजिक वातावरण में विभाजित किया गया है। भौतिक वातावरण में तापमान, प्रकाश, दाब, आद्रता, विकिरण, शोर तथा कंपन शामिल है। इस तथ्य के बावजूद कि यह पैरामीटर मानव पर्यावरण के घटक है, इनकी अधिकता से मनुष्य में विभिन्न प्रकार के विकार हो सकते हैं।

एंथनी (2009) ने पर्यावरण को उन सभी गैर-मानवीय तत्वों के रूप में परिभाषित किया जो प्राकृतिक परिवेश में पाए जाते हैं, जिनके कारण मानव अस्तित्व में है, जिसे कभी-कभी प्राकृतिक वातावरण कहा जाता है। इसे समानता संपूर्ण पृथ्वी ग्रह के रूप में देखा जा सकता है।

 

यूएन रिपोर्ट 2003
यूएन रिपोर्ट 2003 

 

मनुष्य की गतिविधियों का पर्यावरण पर प्रभावः स्वास्थ्य निहितार्थ

समान्यतः प्रत्येक व्यक्ति एक आर्थिक व्यक्ति है जो अपने वातावरण से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इसका निष्कर्ष यह हुआ कि मनुष्य का अस्तित्व उसके पर्यावरणीय संसाधनों के शोषण पर निर्भर करता है। अपने वातावरण में मनुष्य की गतिविधियों में कृषि करना, खनन, उत्खनन, जल संसाधनों का उपयोग, निर्वनीकरण, सड़क एवं रेल नेटवर्क निर्माण, पुलों का निर्माण, पानी, दूध तथा कच्चा तेल के परिवहन के लिए पाइप लाइनों का बिछाना आदि शामिल है। इन गतिविधियों को करना मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य है अपनी जरूरतों को पूरा करना हालांकि यह पर्यावरण पर अत्यधिक निर्भरता है, जिसके कारण कई पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई है जो स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है। इन समस्याओं में शामिल है-

ओजोन परत क्षरण

ओजोन परत वायुमंडल का हिस्सा है जो पृथ्वी ग्रह तथा समस्त जीवन को पराबैगनी किरणों के प्रत्यक्ष प्रभाव से रक्षा करती है। इस परत का तेजी से क्षरण हो रहा है जिसका प्रमुख कारण मानव निर्मित एंथ्रोपोजेनिक गैसे हैं, विशेष रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन एक कार्बनिक योगिक है जिसका उपयोग रेफ्रिजरेटर, एरोसॉल अनुप्रयोगों में पैकिंग सामग्री तथा विलायक के तौर पर व्यापक रूप से होता है। हाल के वर्षों में वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस में 5 प्रतिशत की वृद्धि प्रति वर्ष हुई है परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान, सूखे की अवधि, दिल से जुड़ी बीमारियों में वृद्धि एवं त्वचा कैंसर तथा मोतियाबिंद आदि समस्याएं उत्पन्न होती है जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।

A.T.D.R रिपोर्ट
A.T.D.R रिपोर्ट 

 

 

निर्वनीकरण और अतिचारण 

निर्वनीकरण और अतिचारण का एक मुख्य परिणाम यह है कि वायुमंडल में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है क्योंकि जंगलों द्वारा कार्बनिक पदार्थों के एक बड़े हिस्से की खपत की जाती है। दूसरी तरफ यदि जंगलों को जलाया जाए या वनाग्नि के कारण भी वायुमंडलीय कार्बन में वृद्धि हो जाती है। कृषि अपशिष्ट को जलाने तथा सड़ाने से भी कार्बनिक पदार्थों का 25 से 30 प्रतिशत उत्सर्जन होता है (Cornelius Oertel & Others 2016 )

निर्वनीकरण से कार्बन का उत्सर्जन होता है मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में अन्य ग्रीनहाउस गैसें जैसे मीथेन तथा नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि जंगलों वाली भूमि को कृषि भूमि परिवर्तन के कारण होता है। हाल के दशकों में मानवीय गतिविधियों के कारण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदि इसी तेजी से मानवीय गतिविधियां जारी रही तो उत्सर्जन बढ़कर 50 प्रतिशत हो सकता है। ग्रीन हाउस गैसें वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा को कम करती है तथा वैश्विक तापमान में वृद्धि करती है परिणामस्वरूप हमारे स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
 (Cornelius Oertel & Others 2016 डब्ल्यूएचओ के अनुसार ऑक्सीजन मानव के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। ऑक्सीजन का उत्पादन पेड़ पौधों में प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया द्वारा होती है। निर्वनीकरण तथा  अतिचारण से वायुमंडल में ऑक्सीजन का स्तर कम हो सकता है, जिससे लाल रक्त कोशिकाओं में क्रॉनिक हाइपोऑक्सिजनेशन हो सकता है। हमारा शरीर ऑक्सीजन के द्वारा इन लाल रक्त कोशिकाओं की कमी को प्लाज्मा के अनुपात में पूरा करने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया को पॉलीसिथेमिया कहा जाता है। ऑक्सीजन की कमी से जब पॉलीसिथेमिया प्रक्रिया बाधित होती है तो रक्त की चिपचिपाहट में वृद्धि होती है जिसके कारण थ्रोम्बो एम्बोलीसिस के विकास की संभावना में वृद्धि होती है, यह एक ऐसी स्थित है जो स्ट्रोक का कारण बन सकती है।

निर्वनीकरण तथा अतिचारण से पर्यावरणीय समस्याओं में मिट्टी का कटाव तथा बाढ़ भी शामिल है। वन मिट्टी को संगठित करके रखते है तथा जलचक्र मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब वनों को काट दिया जाता है तो ढाल वाले क्षेत्रों में बाढ़ तथा भूस्खलन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा बाद में सूखा की स्थिति बनती है (Elegbeleye Oladipo, 2015)

निर्माण प्रक्रिया एवं शहरीकरण

इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ चीजों का निर्माण जैसे घर, सड़क, पुल तथा बांध आदि के अनेक लाभ हैं किंतु इनकी वजह से पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाता है, जैसे बाघ के निर्माण हेतु बहुत बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पड़ती है जिसके लिए वनों को काटना पड़ता है। परिणामस्वरूप बाढ़, सूखा, मृदा अपरदन तथा कृषि भूमि की कमी की समस्याएं होती हैं इन सभी का प्रभाव स्थानीय समुदाय की फसल उत्पादन पर नकारात्मक रूप से पड़ता है जिससे लोग कुपोषण का शिकार हो जाते हैं (WHO Report 2003) तो प्रश्न उठता है क्या हम यह निर्माण करना बंद कर दें? नहीं, बिल्कुल नहीं। हमें इस प्रकार की गतिविधियां करते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि स्थानीय पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो।

हमें निर्माण प्रक्रिया में निर्वनीकरण हुए क्षेत्र की भरपाई के लिए वृक्षारोपण करना चाहिए तथा विभिन्न गड्डो तथा खाई को उपयोग में लाना चाहिए जैसे तालाब बनाकर मछली पालन तथा अवशिष्ट प्रबंधन के लिए ऐसे क्षतिग्रस्त क्षेत्र जिसका उपयोग न किया जा सके वहां गंदगी या बीमारियों का घर न बनने दिया जाए। गंदगी जमने वाले क्षेत्रों में मच्छर (मलेरिया रोग) चूहे तथा साक्लोप (वेक्टर) तथा सर्केरिया ( सर्केरिया रोग) आदि समस्याएं होती है।

अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण रोजगार हेतु लोग ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र की ओर जा रहे इसकी वजह से शहरी आबादी में तेजी से वृद्धि हो रही है। फलस्वरूप शहरी क्षेत्रों में आवास की तेजी से कमी हो रही है तथा मलिन बस्तियों की संख्या तथा उनमें रहने वाले लोगों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। विश्व बैंक रिपोर्ट 2018 के अनुसार भारत के नगरों की 35 प्रतिशत जनसंख्या मलिन बस्तियों में रहती है। मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों में डायरिया (स्वच्छ पानी न मिलने से ट्यूबरक्लोसिस (अत्यधिक भीड और प्रजनन के कारण ) तथा कुपोषण (गरीबी के कारण) आदि स्वास्थ्य समस्याएं देखने को मिलती है।

पर्यावरण प्रदूषण

पर्यावरण प्रदूषण आधुनिक औद्योगिक समाज की देन है। प्रायः पर्यावरण प्रदूषण औद्योगिक गतिविधियों से निकलने वाली गैसों, अपशिष्ट तथा शोर आदि का सम्मिलित प्रभाव है, जिसके कारण आसपास के परिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है (Sasmita Mohanty and Other, 2009) औद्योगिक क्षेत्रों में अत्यधिक शोर के कारण बहरेपन की समस्या आम है जबकि गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापन में वृद्धि हुई है जिससे त्वचा कैंसर हो सकता है। वैश्विक तापन से मरुस्थलीकरण में वृद्धि तथा फसल उत्पादकता में कमी हो सकती है। परिणामस्वरूप कुपोषण (कई बार कुपोषित गर्भवती मां से शिशु भी कुपोषित हो जाता है) तथा भुखमरी जैसी समस्याएं उत्पन्न होती है। (Kelishadi Roya (2012).

कृषि गतिविधियां

विश्व में प्रचलित कृषि पद्धतियों तथा कृषि की विस्तृत विविधता के आधार पर पर्यावरण पर भिन्न-भिन्न प्रभाव होते हैं। वर्तमान समय में कृषि में आधुनिकरण के कारण उत्पादन में वृद्धि हेतु विभिन्न रसायनों का अत्यधिक मात्रा में उपयोग किया जा रहा है जिससे मृदा गुणवत्ता हास, जल प्रदूषण, जैव विविधता नाश, भूमिगत जलस्तर में गिरावट वायु प्रदूषण, भूमि उपयोग परिवर्तन तथा अपशिष्ट प्रबंधन आदि पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई है। यह कारक मानव स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न कर रहे है। (Rohila Anil Kumar, 2017)

कृषि गतिविधियों में रसायनों के उपयोग से विभिन्न जलाशयों जैसे नदी तथा तालाब में कार्बन और पारा जैसे रसायनों की वृद्धि हो रही है जिसका प्रभाव मत्स्य पालन पर पड़ रहा है इन क्षेत्रों से उत्पादन की गई मछलियों को खाने से लोगों में गुर्दे की क्षति, उच्च रक्त रक्तचाप तथा नेफ्रिटिक सिंडोम (शरीर सूजन) की समस्याएं हो सकती है यह ऐसी बीमारी है जिसका इलाज न कराया गया तो तेजी से मौत का कारण बन सकती है।

निष्कर्ष और सुझाव

इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को गंभीर नुकसान हुए हैं। पर्यावरण की क्षति मनुष्य के स्वास्थ्य को हमेशा से प्रभावित करती आ रही है। इनमें से ज्यादातर स्वास्थ्य समस्याएं पर्यावरण प्रदूषण से जुड़ी है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि पर्यावरण प्रदूषण की गंभीर समस्या पर्यावरण संसाधनों के अविवेकपूर्ण उपयोग से जुड़ी है। यदि हम संसाधनों को संरक्षण तथा कम से कम उपयोग करते तो विकराल समस्याओं से बचा जा सकता था।

विनाशकारी पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने के लिए बहुत सारे नियंत्रण उपायों की आवश्यकता है क्योंकि इसके गंभीर प्रभाव समस्त मानव जीवन पर पड़ रहे हैं। सार्वजनिक पर्यावरण जागरूकता अभियान तथा पर्यावरण प्रबंधन हेतु राष्ट्रीय नीतियों के द्वारा लोगों को विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति सजग किया जा सकता है। पर्यावरणीय मुद्दे समस्त मानव जीवन के व्यवहार तथा जीवन गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। इसलिए आवश्यकता है कि मनुष्य अधिक से अधिक संरक्षण की नियत के साथ वातावरण से विवेकपूर्ण संबंध रखें।

कई पर्यावरणीय समस्याएं मनुष्य की अनभिज्ञता से उत्पन्न होती है इसलिए संबंधित सरकारी विभागों तथा संस्थाओं को लोगों की गतिविधियों से होने वाली पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहिए. विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को बताना चाहिए कि बातावरण और मानव स्वास्थ्य का संबंध किस प्रकार है।

सरकार को ऐसे पर्यावरण संरक्षण आयोग की स्थापना करनी चाहिए जो पर्यावरण मंत्रालय के अधीन हो इस आयोग का मुख्य उद्देश्य स्थानीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करना तथा पर्यावरण निगरानी करना होना चाहिए।

वैश्विक स्तर पर यहा ध्यान देने योग्य है कि अधिकांश कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन से होती है, इसलिए ऊर्जा संरक्षण तथा नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग पर बल दिया जाना चाहिए। इससे जलवायु परिवर्तन की समस्या कम होगी। हम व्यक्तिगत योगदान से जैसे व्यक्तिगत परिवहन का कम से कम उपयोग, पब्लिक परिवहन तथा साइकिल उपयोग आदि से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम कर सकते हैं। इसके अलावा यदि भवनों या इमारतों पर ऊर्जा हेतु सोलर क्षमता स्थापित कर ले तो 2050 तक 2 गीगाटन कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। (Cunningham & Ann 2008) विश्व की विभिन्न सरकारों को उष्णकटिबंधीय वन विनाश पर रोक लगानी चाहिए तथा विश्व में प्रचलित विभिन्न परंपरागत कृषि पद्धतियों को रोककर पर्यावरण हितैषी पद्धतियों को अपनाने हेतु लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

 

प्रथम लेखक- सुलेमान, रिसर्च स्कॉलर, भूगोल विभाग ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती विश्वविद्यालय लखनऊ:

द्वितीय लेखक - डॉ० प्रवीण कुमार राय, एसोसिएट प्रोफेसर, भूगोल विभाग, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय लखनऊ.

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Post By: Shivendra
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