देश के दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से में मालाबार तट पर करीब 39000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में एक बेहद खूबसूरत सूबा बसा हुआ है। नाम है केरल। इस राज्य की खूबसूरती ही है कि इसे ‘ईश्वर का अपना देश’ भी कहा जाता है।
ईश्वर का यह अपना देश बीते चार हफ्ते से राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियाँ बना हुआ है क्योंकि यहाँ सदी की सबसे भयावह बाढ़ ने जबरदस्त कहर बरपाया है।
करीब 3.33 करोड़ की आबादी वाला केरल कई सूचकांकों में दूसरे राज्यों से बेहतर है। प्रदूषण के मामले में भी दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों की तुलना में इस राज्य की चर्चा कम ही होती है। इस लिहाज से यह कल्पनातीत थी कि केरल कभी सदी की सबसे भयावह बाढ़ से रूबरू होगा। इसलिये जब बाढ़ आई, तो आम आवाम से लेकर सरकार तक को एकबारगी समझ नहीं आया कि यह कैसे हो गया और अब क्या करना चाहिए?
फिर भी केन्द्र और राज्य सरकारें, आमलोग और समाजसेवी बाढ़ में फँसी बड़ी आबादी को सुरक्षित निकालने में कामयाब रहे।
बाढ़ का असर कमोबेश हर जिले में देखा गया था और इसके कारण 3 सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई। 11000 किलोमीटर रोड पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया जबकि 20-50 हजार घरों को नए सिरे से बनाना होगा।
पिछले दिनों बारिश में कमी आने के बाद केरल में अब बाढ़ का खतरा धीरे-धीरे कम हो रहा है। लोगबाग भी राहत कैम्पों से अपने घरों की ओर लौटने लगे हैं। पानी जम जाने से घर की जो हालत हुई है, उसे सँवारना खर्चीली प्रक्रिया है।
एक अनुमान के मुताबिक केरल को बाढ़ से जितना नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करने के लिये तकरीबन 21 हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। केरल सरकार ने बाढ़ पीड़ितों को तत्काल राहत के लिये 10-10 हजार रुपए देने का एलान किया है। सरकार ने यह भी कहा है कि बाढ़ से पीड़ित लोग नुकसान का आकलन कर सरकार के पास पंजीयन करा सकते हैं, उन्हें मुआवजा दिया जाएगा।
बाढ़ को लेकर काम करने वाले विशेषज्ञों की मानें, तो बाढ़ के दौरान की समस्याओं को लोग झेल चुके हैं लेकिन, सबसे बड़ी मुश्किल अब दोबारा केरल को सँवारना है। बाढ़ में जितनी मुश्किलें होती हैं, बाढ़ के जाने के बाद उससे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
पानी के चले जाने के बाद सरकार भी यह मान बैठती है कि समस्या खत्म हो गई है और सरकार की तरफ से मदद मिलनी बन्द हो जाती है। लेकिन, बाढ़ का पानी उतरने के बाद जल जनित बीमारियों के साथ ही कई दूसरे तरह के रोग फैलने लगते हैं। इसके साथ ही बुनियादी ढाँचों को जल्द-से-जल्द विकसित करना होता है ताकि जनजीवन सामान्य पटरी पर लौट सके। इसके लिये भारी मानव संसाधन और पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिये सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती अब भी खड़ी है।
केरल में पर्यटन ही आय का सबसे अहम जरिया है और इस बाढ़ ने पर्यटन क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है, इसलिये लोगों के सामने रोजगार का भी संकट होगा।
इन चुनौतियों से जूझने के साथ ही सरकार को अब यह भी देखने की जरूरत है कि आखिरकार चूक कहाँ हो गई कि बाढ़ ने इतनी खतरनाक शक्ल अख्तियार कर ली। बाढ़ के कारणों के हर पहलू पर गम्भीरता से शोध करने की आवश्यकता है ताकि आने वाले समय में इस तरह के विध्वंस की आशंकाओं को पूरी तरह टाला जा सके या इसके असर को न्यूनतम स्तर पर लाया जाये।
1924 में भी आई थी भयावह बाढ़
केरल की बाढ़ पर चर्चा हो रही है, तो यह भी बता दें कि आज से करीब 95 वर्ष पहले (जुलाई 1924 में) भी केरल में भयावह बाढ़ आई थी, जिसे ‘99 की भयावह बाढ़’ भी कहा जाता है।
99 की बाढ़ इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मलयाली कैलेंडर के अनुसार वह साल 1099 (अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 1924) था।
यह भी कहा जाता है कि उस बाढ़ में एक पहाड़ और सड़क तक बह गए थे। सैकड़ों लोगों ने जल समाधि ले ली थी। हजारों घर जमींदोज हो गए थे। हजारों लोगों के सर से छत छिन गई थी। केरल को वर्षों लग गए थे, उस आपदा से ऊबरने में।
कहा जाता है कि पेरियार नदी में अत्यधिक पानी आ जाने के कारण बाढ़ आई थी। असल में उस साल केरल में लगातार तीन हफ्ते तक बारिश होती रही थी जिस कारण बेतहाशा पानी भर गया था।
आँकड़े बताते हैं कि उस वर्ष मानसून के सीजन में यानी जून से सितम्बर तक 3368 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई थी, जो सामान्य से 64 प्रतिशत अधिक थी।
भारी बारिश के कारण नदियाँ उफान पर थीं। कहते हैं कि मुल्लापेरियार स्लुइस को खोल दिया गया था, जिस कारण स्थिति और भी खराब हो गई थी। स्लुइस खुलने से यक-ब-यक भारी मात्रा में पानी राज्य में प्रवेश कर गया था और रास्ते में जो कुछ आया, उसे बहाकर अपने साथ ले गया।
1924 में केरल में आई बाढ़ का मुख्य कारण मोटे तौर पर अत्यधिक बारिश होना था। वहीं, केरल में इस साल आई बाढ़ के कारणों के बारे में अब तक ठोस तौर पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सका है। अलबत्ता इसके पीछे कई तरह की थ्योरीज जरूर दी जा रही है।
बाढ़ में मुल्लापेरियार बाँध का रोल
केरल में बाढ़ को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के दौरान केरल सरकार ने बताया था कि कर्नाटक सरकार द्वारा मुल्लापेरियार बाँध से केरल में पानी छोड़े जाने के कारण केरल बाढ़ में डूब गया।
कर्नाटक सरकार ने इस आरोप को बेबुनियाद करार दिया। दोनों सरकारों के मुख्तलिफ बयानों के बीच मुल्लापेरियार बाँध भी चर्चा के केन्द्र में आ गया।
इस बाँध का निर्माण अंग्रेजी हुकूमत ने सन 1887 में शुरू करवाया था, जिसे बनकर पूरी तरह तैयार होने में 8 साल का वक्त लग गया। 176 फीट ऊँचा और करीब 1200 फीट लम्बा यह बाँध वैसे तो केरल में स्थित है, लेकिन इसकी देखभाल और ऑपरेशन का अधिकार तमिलनाडु के पास है।
मुल्ला और पेरियार नदी के मुहाने से शुरू हुए इस बाँध में इस साल अगस्त के मध्य में पानी 142 फीट पर पहुँच गया था, जो किसी भी साल से ज्यादा था।
बताया जाता है कि पेरियार नदी के पानी को सूखा प्रवण क्षेत्र मद्रास की तरफ मोड़ने के लिहाज से इस बाँध का निर्माण किया गया था। उस वक्त इस बाँध को बनाने के लिये करीब 104 लाख रुपए खर्च हुए थे। बाँध निर्माण में चूना और सुर्खी का इस्तेमाल किया गया था।
आजादी से पहले बाँध की देखरेख के लिये अंग्रेजों और स्थानीय राजा के बीच अनुबन्ध हुआ था। यही अनुबन्ध देश की आजादी के बाद भी लागू रहा और इस तरह बाँध की देखरेख और ऑपरेशन का अधिकार तमिलनाडु के हाथों में ही रहा।
केरल की माँग थी कि बाँध को लेकर सबसे ज्यादा संकट केरल पर मँडराता है, इसलिये उसकी देखरेख और ऑपरेशन का जिम्मा उसे ही दिया जाये। वहीं, तमिलनाडु सरकार का कहना था कि कई क्षेत्रों की खेती इसी बाँध के पानी पर निर्भर है, इसलिये बाँध की देखरेख और ऑपरेशन का जिम्मा उसके हाथों में ही रहने देना चाहिए। विवाद बाँध में जलस्तर बढ़ाने को लेकर भी था।
बताया जाता है कि जलस्तर बढ़ाने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था। कोर्ट ने इसके लिये एक कमेटी बनाई थी जिसने तमिलनाडु सरकार को यह अधिकार दिया कि वह बाँध में जलस्तर बढ़ा सकती है।
बहरहाल, हम लौटते हैं मुल्लापेरियार बाँध से पानी छोड़ने के आरोपों की ओर। केरल सरकार का दावा है कि मुल्लापेरियार बाँध से पानी छोड़े जाने के कारण बाढ़ आई है जबकि तमिलनाडु सरकार का कहना है कि अन्य रिजर्वायरों से पानी छोड़े जाने के कारण पानी फैला और मुल्लापेरियार का मामला इसलिये उछाला जा रहा है ताकि इस बाँध में ज्यादा पानी नहीं रखा जाये।
सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दाखिल कर केरल सरकार ने कहा, ‘इंजीनियरों की ओर से आगाह किये जाने के बाद तमिलनाडु सरकार से अपील की गई थी कि मुल्लापेरियार बाँध से सन्तुलित मात्रा में ही पानी छोड़ा जाये। लेकिन, ऐसा नहीं किया गया। नतीजतन मुल्लापेरियार बाँध से आये पानी को रोकने के लिये दूसरे रिजर्वायर से पानी छोड़ना पड़ा, जिससे बाढ़ आई।’
हालांकि, मुल्लापेरियार बाँध को बाढ़ का कारण बताए जाने के बीच एक सच तो यह भी है कि केरल के सभी 35 रिजर्वायर में 10 अगस्त तक बेतहाशा पानी जमा हो गया था, जिस वजह से इडुक्की बाँध के गेट खोलने पड़े थे।
इसके अलावा यह भी सच है कि जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक गर्मी के कारण मध्य और दक्षिण भारत के राज्यों में मानसून की बारिश में इजाफा हुआ है। सरकार को चाहिए था कि वह मानसून की बारिश में बढ़ोत्तरी के साल-दर-साल आँकड़े जुटाती। इन आँकड़ों के जरिए सरकार को यह मूल्यांकन करने में सहूलियत होती कि कब मानसून की बारिश अधिक होने वाली है। इससे समय रहते एहतियाती कदम उठाने में सहूलियत होती और नुकसान कम-से-कम होता।
अब तक की बहसों में जो एक बात सामने आई है, वह ये है कि भारी बारिश बाढ़ की एक बड़ी वजह रही। यह संकेत नासा की ओर से जारी सेटेलाइट ईमेज में भी मिलता है। सेटेलाइज ईमेज में पता चला है कि 13 से 20 अगस्त तक केरल के आसमान में भारी मात्रा में बादल मँडरा रहे थे, जिसकी वजह से एक हफ्ते में कम-से-कम दो बार भारी बारिश हुई।
क्यों याद आई गाडगिल रिपोर्ट
केरल में बाढ़ को लेकर जितनी थ्योरियाँ दी जा रही हैं, उनमें एक अहम बिन्दू है गाडगिल रिपोर्ट की अनदेखी। गाडगिल रिपोर्ट असल में वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल (western ghats ecology expert panel) की रिपोर्ट है। इस पैनल के चेयरमैन पर्यावरणविद माधव गाडगिल थे, जिस कारण पैनल की रिपोर्ट को गाडगिल रिपोर्ट भी कहा जाता है।
पैनल ने अगस्त 2011 में रिपोर्ट जमा की थी, जिसमें कई अहम अनुशंसाएँ की गई थीं, लेकिन उस वक्त रिपोर्ट का खूब विरोध किया गया था।
गाडगिल रिपोर्ट में खनन पर प्रतिबन्ध लगाने की वकालत की गई थी और पहाड़ी ढलानों पर खेती नहीं करने को कहा गया था। इसके अलावा पहाड़ी ढलानों पर ज्यादा-से-ज्यादा पेड़-पौधे लगाने की सलाह दी गई थी और निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की अनुशंसा की गई थी।
रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के 37 प्रतिशत हिस्से को पारिस्थितिक रूप से बेहद संवेदनशील करार देने को कहा गया था। रिपोर्ट में चिन्ता जताई गई थी कि मानव के हस्तक्षेप के चलते पश्चिमी घाट (western ghats) गम्भीर खतरे में है। इस खतरे से बचाने के लिये पश्चिमी घाट में सख्त उपाय करने की भी वकालत की गई थी। इसके लिये उस क्षेत्र को विश्व धरोहर घोषित करने की बात भी कही गई थी।
यही नहीं, गाडगिल रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पश्चिमी घाट के ज्यादातर रिजर्वायर में गाद जम गया है और उनके आसपास अतिक्रमण कर जंगलों को काट दिया गया है।
इस रिपोर्ट की उस वक्त तीखी आलोचना की गई थी और खासकर ईसाई समुदायों की तरफ सबसे ज्यादा विरोध हुआ था। क्योंकि ज्यादातर ईसाई समुदाय के लोग ही पहाड़ी ढलानों पर खेती कर रहे थे।
केरल की सरकार ने तो उस समय की यूपीए सरकार से इस रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करने की माँग की थी।
गाडगिल रिपोर्ट को लेकर भारी विरोध के मद्देनजर कस्तूरीरंगन कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी ने गाडगिल रिपोर्ट का समर्थन किया था और बहुत मामूली बदलाव किये थे, लेकिन राजनीतिक वजहों से रिपोर्ट को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका।
हालांकि, काफी मशक्कत करने के बाद केन्द्र की एनडीए सरकार ने पिछले साल पश्चिमी घाट के 57000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील अधिसूचित किया। इस अधिसूचित क्षेत्र में खनन, बड़े निर्माण, थर्मल पावर प्लांट और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग को प्रतिबन्धित किया गया है।
विशेषज्ञों की राय है कि अगर गाडगिल रिपोर्ट को लागू कर दिया गया होता, तो केरल में अगर बाढ़ आती भी, तो आज जितनी बड़ी तबाही हुई है, वैसी तबाही नहीं होती।
गाडगिल के पैनल में सदस्य रहे प्रो. वीएस विजयन के अनुसार, गाडगिल कमेटी ने वर्ष 2011 में ही सिफारिशें की थीं। अगर सरकार ने उस वक्त इसे लागू कर दिया होता, तो आज केरल में जितना नुकसान हुआ है, उसका महज 50 फीसदी नुकसान होता।
वहीं, पैनल के चेयरमैन रहे माधव गाडगिल का कहना है कि केरल में जो कुछ भी हुआ है उसमें वहाँ के लोगों की गतिविधियाँ भी जिम्मेवार हैं। उन्होंने कहा, ‘केरल में आज जो भी समस्या हुई, उसका कम-से-कम एक हिस्सा मानव निर्मित है।’
उन्होंने इण्डियन एक्सप्रेस के साथ बातचीत में कहा, ‘हाँ, यह सच है कि भारी बारिश के कारण ऐसा हुआ है। लेकिन, मुझे विश्वास है कि विगत कुछ वर्षों में विकास के नाम पर इस तरह की घटनाओं को रोकने की क्षमता के साथ समझौता हुआ है और ऐसी घटनाओं की संगीनता बढ़ गई है। अगर सही कदम उठाए गए होते, तो आज जो विध्वंस देख रहे हैं वैसा बिल्कुल भी नहीं होता।’
एक अन्य शोध वनों की बेतहाशा कटाई की तरफ इशारा करता है। शोध के अनुसार, वर्ष 1920 से 1990 तक पश्चिमी घाट के तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के हिस्से के 40 प्रतिशत वनों को या तो खत्म कर दिया या फिर उन्हें खेतों में तब्दील कर दिया गया।
इससे समझा जा सकता है कि वनों पर किस हद तक कुल्हाड़ियाँ चलाई गई हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, पेड़-पौधे पानी को रोकने का काम करते हैं। अगर वनों का कटाव इस स्तर तक नहीं किया गया होता, तो बाढ़ का असर कुछ कम होता।
बाढ़ का फैलता दायरा
केरल में तबाही मचाने के बाद अब कर्नाटक में बाढ़ का कहर शुरू हो गया है। कर्नाटक में अब तक बाढ़ से एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और तकरीबन 5 हजार लोग बेघर हो गए हैं।
बताया जा रहा है कि भारी बारिश के चलते कर्नाटक बाढ़ की चपेट में आया है। बाढ़ में 800 घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं। वहीं, 123 किलोमीटर रोड को नुकसान पहुँचा है। दर्जनों पुल और सरकारी दफ्तरों को क्षति पहुँची है। यहाँ भूस्खलन की खबरें हैं। भूस्खलन की स्थिति से निबटने के लिये हिमाचल प्रदेश सरकार से मदद माँगी गई है।
कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु, ओड़िशा, गोवा और हिमाचल प्रदेश में भी भारी बारिश के कारण बाढ़ की आशंका बनी हुई है।
माधव गाडगिल ने कहा है कि गोवा में वैसे तो पश्चिमी घाट नहीं है, लेकिन वहाँ भी मानव ने अपने स्वार्थों के लिये प्रकृति को बहुत नुकसान पहुँचाया। इसलिये गोवा में भी केरल जैसी ही विध्वंसक बाढ़ आ सकती है।
क्या है समाधान
बिहार और बंगाल व कुछ अन्य राज्यों की बात करें, तो यहाँ बाढ़ की वाजिब वजहें हैं। नतीजतन लोग भी बाढ़ को बर्दाश्त करने के आदि हो गए हैं। इन राज्यों की बाढ़ के पीछे वनों की कटाई या अन्य वजहें नहीं हैं।
इसके उलट दक्षिण भारत के राज्यों की बात करें, तो इन राज्यों में बाढ़ बहुत कम आती है। इसी वजह से यहाँ जब भी बाढ़ आती है, तो इसके पीछे मानवीय कारण ज्यादा होते हैं।
केरल में आई बाढ़ की बात करें, तो यहाँ भी मनुष्य जनित कारण सामने आये हैं। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि एहतियाती कदम अभी से उठाए जाएँ, ताकि भविष्य में बाढ़ आये भी तो नुकसान कम-से-कम हो। इसके लिये सबसे जरूरी है विकास के उस मॉडल को अपनाना जो पर्यावरण व प्रकृति को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाता हो।
ज्यादा-से-ज्यादा पेड़-पौधे लगाए जाने चाहिए और इसके साथ ही प्रकृति के मूल चरित्र को अक्षुण्ण रखने की भी आवश्यकता है।
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