वर्ष 1966 का भयानक सूखा-जब अकाल की काली छाया ने पूरे दक्षिण बिहार को अपने लपेट में ले लिया था और शुष्कप्राण धरती पर कंकाल ही कंकाल नजर आने लगे थे... और सन् 1975 की प्रलयंकर बाढ़- जब पटना की सड़कों पर वेगवती वन्या उमड़ पड़ी थी और लाखों का जीवन संकट में पड़ गया था....। अक्षय करुणा और अतल-स्पर्शी संवेदना के धनी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु प्राकृतिकप्रकोप की इन दो महती विभीषिकाओं के प्रत्यक्षदर्शी तो रहे ही, बाढ़ के दौरान कई दिनों तक एक मकान के दुतल्ले पर घिरे रह जाने के कारण भुक्तभोगी भी। अपने सामने और अपने चारों ओर मानवीय विवशता और यातना का वह त्रासमय हाहाकार देखकर उनका पीड़ा-मथित हो उठना स्वाभाविक था। विशेषतः तब, जबकि उनके लिए हमेशा ‘लोग’ और ‘लोगों का जीवन’ ही सत्य रहे। आगे चलकर मानव-यातना के उन्हीं चरम साक्षात्कार-क्षणों को शाब्दिक अक्षरता प्रदान करने के क्रम में उन्होंने संस्मरणात्मक रिपोर्ताज लिखे।
)पानी की धारा एकदम मंद हो गयी। पानी का रंग धारा की गति के साथ ही धीरे-धीरे बदल रहा है। बहाव बंद होते ही पानी का रंग कुछ ही घंटों में हरा हो जायेगा। पानी पर हरे रंग की पपड़ी जम जायेगी और हवा में सूखी मछली की गंध जैसी ‘बिसाइन’ महक।
पास के ही एक फ्लैट के सभी निवासी, जो अब तक बाहर खड़े हंस-बोल रहे थे, अचानक अंदर चले गये। फ्लैट एकदम निःशब्द! टोमेटो ने कुंडी खड़कायी। अभिभावक ने दरवाजे पर प्रकट होकर ऐसी मुखमुद्रा बनायी मानो पूजा का चंदा मांगनेवाले लड़कों से निबटना है-“क्या है? हैजे की सूई? हम लोग तो ताजा-ताजा गरम-गरम खाते हैं। आज कई स्थानीय दैनिक पत्रों ने एक पन्ने का ‘अंक’ निकाला है। पत्रकार मित्र सूर्यनारायण चौधरी कई हिंदी-अंग्रेजी अखबार लेकर आये। डेढ़ पृष्ठों में टेंडर, वांटेड, विश्वविद्यालयों तथा अन्य सरकारी अर्ध-सरकारी संस्थानों की विशेष विज्ञप्तियाँ। बाकी में पटना नगर की बाढ़ के सचित्र समाचारों के बीच-बीच में यत्र-तत्र ‘बॉक्स न्यूज’: दिल्ली से इतने हजार किलोग्राम मार्डन रोटी आ रही है। दिल्लीवालों के दैनिक रासन में रोटी की कटौती : विदेश से ‘केक’ और ‘चीज’ भी। आगरे के पेठे : कलकत्ते से भी रोटियाँ : प्राण-रक्षक दवाइयाँ और कपड़े।
अखबार पढ़ने के बाद बात समझ में आयी कि क्यों कुछ देर पहले छत पर भाईसाहब इतने उत्तेजित, असंतुष्ट और क्रुद्ध थे। निश्चय ही उन्होंने आज का अखबार पहले ही पढ़ लिया था। हमारी छत पर हेलिकॉप्टर से पांच पैकेट जो गिरे थे उन्में से तीन, भाईसाहब तथा उनके परिवार और सगे-संबंधियों के हाथ लगे थे और तीनों में बस चिउरा, भुने चने, पॉप कार्न और दालमोठ? बाकी दो पैकेट में भी यही चीजें थीं।
भाईसाहब के मुँह से, घुले हुए पानी की जाफरानी पीक की गुड़गुड़ाहट के साथ लानत-भरी आवाज निकली- “क्या तमाशा है!” फिर, पीक थूककर चालू हो गये – “एज इफ वी आर लेबरर.. तमाशा है...दिल्ली का ब्रेड कहाँ है? बतलाइए। बटर, केक, ‘चीज’ कुछ भी नहीं, सिर्फ चूड़ा-चना-फरही? ...बोरिंग रोड, कृष्णापुरी या पाटलिपुत्र कोलोनी की बात छोड़िए-यहीं, अभी, राजेंद्रनगर में ही कंट्राक्टर, फलाने प्रसाद सिंह के एरिया में जो पैकेट गिराये गये हैं सबमें ‘ए-वन’ चीजें-मतलब, ब्रेड-बटर-चीज सबकुछ-और हम लोगों की छत पर सिर्फ ये ‘रॉटन’ चबेने? बोलिए, इसका क्या जवाब है? एं? ...खुद, सरकारी रेडियो बोलता है कि ‘राजेंद्रनगर इज ए पाश – एरिया-’ आलीशान इलाका है राजेंद्रनगर और वहां गिरायी जाती हैं...दिस इज सीयर पार्सियालिटी...नहीं तो और क्या...अरे साहब, कहां गया—खा गया, सब खा गया...”
“जो कुछ मिला है आप भी चबा लीजिए। वरना...”
“वरना, क्या...?”
“वरना, नरम हो जाने पर कुरमुराहट नहीं...”
“हुँह! चबा लीजिए? …आई एम नाइदर ए विलेजर नार एक लेबरर, आर ए बेगर...” मेरे मुँह पर अपनी मुँहतोड़ अंग्रेजी में ‘रिटर्न शॉट’ मारकर भाई-साहब का क्रोध तत्काल कुछ कम हो गया। अपनी एक ‘केलिकुंजिका’ से उन्होंने कहा – “पैकेट ले जाओ और उधर ‘झोपड़-पट्टी’ से जो लोग आये हुए हैं उन लोगों को ‘डिस्ट्रिब्यूट’ कर दो...खा गया,, सब खा गया...!!!”
बाकी दो पैकेट पानेवालों ने अपनी छत पर उपस्थित लोगों के बीच ‘भाग बंटवारा’ कर लिया था। चूरा और दालमोठ चबाता हुआ प्रोफेसर साहब का नौकर कहता है – “चूड़ा बहुत ‘फाइन’ है और दालमोठ एकदम पियोर पोस्टमैन में छना है...”
भाईसाहब नीचे गये तो मेरे पास एक दूसरे सज्जन सरककर आ गये। नम्र और दबी हुई आवाज में (फुसफुसाहट में) उनकी शिकायत थी: “उधर प्लास्टिक के बड़े-बड़े ‘कैन’ ...हां, इतने बड़े कि उसमें करीब चार घड़े पानी तो जरूर ...एकदम मिल्की व्हाइटकैन के मुंह पर टाइट किया हुआ जेड ब्लैक कैप...लवली...मैंने कल खुद अपनी आँखों से देखा है। हेलिकॉप्टर से गांधी मैदान में पानी पर ‘थपाथप’ गिराया गया, वहां से आर्मी का आदमी बटोरकर नाव पर लेकर वेस्ट पटना की ओर चले गये...मानता हूं कि हम लोगों के एरिया में पीने के पानी की कमी नहीं है लेकिन, कैन...?”
“उस छत पर अभी ही एक लाल फ्लास्क-छोटा-गिराया है।”
“उधर, लोहानीपुर की एक छत पर कपड़े का बंडल भी गिरा है...शायद, गलती से गिर पड़ा है।”
“एयर ड्रापिंग दो तरीके से करते देखा। एक, मुंह की ओर से –पाइलट के बगल में बैठकर, दूसरा-दुम की ओर से । मुँह की ओर से गिरानेवाला, पैकेट गिराते समय दुम ऊपर की ओर उठाकर, मुंह नीचे की ओर झुका लेता है और दुम की ओर से गिरानेवाला सिर ऊपर की ओर उठा लेता है...कभी-कभी इतना करीब आ जाता है कि उस छत पर लगा कि एक आदमी को हाथों-हाथ पैकेट दे दिया...धन्न है।”
अभी रेडियो से एक आवश्यक सूचना प्रसारित करके लोगों को सावधान किया गया है : ‘कृपया अपनी छतों पर ऐसा सामान नहीं रखें जो उड़ सकते हों। हेलिकॉप्टर जब आपकी छत के ऊपर पहुँचे तो उस समय कपड़े, चटाई, किताबें वगैरह हटा लें, और छोटे बच्चों को भी...’
छोटे बच्चे ही क्यों, हेलिकॉप्टर के बवंडर में पड़कर क्षीणकाय अल्प-प्राण बड़े – बूढ़े भी उड़ जा सकते हैं.....और औरतों को चाहिए कि हेलिकॉप्टर के नीचे जाने के पहले दक्षिणी ढंग से साड़ी पहले लें। नहीं तो, जैसा कि अभी देखा-सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है कि सारी है कि नारी है कि ...खाली बस नारी है।
कुंडी लड़की..मेडिकल कालेज के तीन-चार विद्यार्थी हाथ में स्टील छोटे-छोटे बक्स लेकर खड़े हैं- ‘हैजे की सूई’। मेडिको वालेंटियर की टोली को ‘गाइड’ कर रहा है, हमारे ब्लॉक का किशोर टोमेटो। बेचारा थोड़ा तुतलाता है। और उत्तेजना अथवा उत्साह में तुतलाहट बहुत बढ़ जाती है। हमारे ब्लॉक के रविजी तो मेडिकल स्कवाड के साथ ही हैं? “भाई। वह हैजे और टाइफाइड दोनों एक ही साथवाली दवा नहीं है? क्या नाम है उसका। टी.ए....? सिर्फ हैजे की सूई? तब तो दो बार? ...लगा दो दाहिने हाथ के बाँह पर ही। अब मेरे दायें और बायें हाथ में कोई फर्ख नहीं...इतनी बार सूई ली है, फिर भी सूई देखकर तनिक घबरा ही जाता हूँ। और हैजे की सूई का दर्द बाढ़ में इतना बढ़ जाता है कि...बस, धन्यवाद...!! ”
मेडिको-वालेंटियर ने बुखार की गोलियां, आँख में डालनेवाली दवा और बोरिक पाउडर की पुड़िया दी...जियो। सुखी रहो!!
पास के ही एक फ्लैट के सभी निवासी, जो अब तक बाहर खड़े हंस-बोल रहे थे, अचानक अंदर चले गये। फ्लैट एकदम निःशब्द! टोमेटो ने कुंडी खड़कायी। अभिभावक ने दरवाजे पर प्रकट होकर ऐसी मुखमुद्रा बनायी मानो पूजा का चंदा मांगनेवाले लड़कों से निबटना है- “क्या है? हैजे की सूई? हम लोग तो ताजा-ताजा गरम-गरम खाते हैं। बासी चीजें नहीं खाते। सूई लेने की क्या जरूरत ?”
टोमेटो हकलाता है। किंतु, कभी-कभी मौके पर वाजिब जवाब देते समय उसकी बोली जरा भी नहीं अटकती। उसने कहा- “एक आप ही लोग ताजा और गरम खाते हैं, बाकी सभी लोग बासी, ठंडा और सड़ागला खाना खाते हैं। क्यों?”
दरवाजा सशब्द बंद हो गया। सीढ़ियों से उतरते समय एक लड़का बोला – “असल बात कुछ और है। हम लोगों के साथ कोई लेडी स्टूडेंट नहीं है न। और इस फ्लैट में सब मिलाकर ज्यादा...”
“लेडी स्टूडेंट नहीं। कल से बी.एस.एफ. के जवान रहेंगे साथ। तब देखना कि बिना चीं-चपाड़ किये किस तरह...” शायद, रविजी बोल रहे थे।
अपने ब्लॉक के एक ‘हीरा लड़का’ - रंजन की याद आती है। स्वस्थ, सुंदर, सभ्य और उत्साही। राजीव रंजन। अभी रहता तो निश्चय ही अपने साथियों का अगुआ होता। ढाई महीना पहले मोटर – दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी...
“आ रहा है। हेलिकॉप्टर फिर आ रहा है।” हमारी पूसी बिल्ली सुबह से ही आतंकित है। हेलिकॉप्टर जब तक हमारे ब्लॉक के ऊपर मंडराता रहा, वह अपने नवजात बच्चों को मुँह में लेकर, इस कमरे से उस कमरे में सुरक्षित स्थान में पहुँचाती रही। उसके बाद से हवाई जहाज की भनभनाहट सुनते ही वह दौड़कर अपने बच्चों के पास चली जाती है। मैं उस को डराने के लिए बीच-बीच में कहता हूँ- “आ रहा है हेलिकॉप्टर।” और वह दौड़कर अपने चार दिन के बच्चों के पास पहुँच जाती है।
...आ रहा है। सचमुच, फिर आ रहा है। अब, शायद दोपहर का भोजन –लंच – देने आ रहा है। बिहटा से नहीं, पटना कालेज के मैदान में हेलिपेड बनाया गया है। वहीं से हेलिकॉप्टर में सारे पैकेट लोड किये जाते हैं। यहां का मेला अब वहां चला गया है। हेलिकॉप्टर को उड़ते और धरती पर उतरते देखने के लिए हमेशा जनसमुद्र उमड़ा रहता है। वहाँ गेट पर कड़ा पहरा है, इसके बावजूद... ‘आ गया। चलो छत पर। एक भी बाहरी आदमी को अपने ब्लॉक की छत पर मत रहने देना...कोई लाल कपड़ा ले लिया है न? आ गया। ए! इस बार चिल्लाओ मत। ऐसी जोर की गरगराहट में चिल्लाने से क्या फायदा? हाथ के इशारे से बताओ-हम भूखे हैं, प्यासे हैं।’
पॉश एरिया-आलीशान इलाके की सभी आलीशान इमारतों की छतों पर नर-नारियों की भीड़। धोती-लुंगी-पैंट-अंडर वियर-जाँघिया-साड़ी-बेलबाटम-फ्राक सलवार-मेक्सी-मिनी में झुंड-मुंड!! एक साथ दौड़ते, कभी इधर, कभी उधर। सभी के दोनों हाथ ऊपर आसमान की ओर उठे हुए अथवा हेलिकॉप्टर को अपनी छत की ओर बुलाते हुए, इशारा बताते-लाल झंडियाँ हिलाते हुए।
“...सीं-ई-ई-ई—गरगरगरगरगर-गुड़रगुड़रगुड़र..आ गया, अपने छत पर भी आ गया। अरे रे। फिर कपड़े-कागज-पत्तर सूके पत्ते उड़े...गिरा! गिरा! इस बार तो पैकेट की वर्षा हो रही है। बगल हो जाओ। गिरा, गिर। क्या है? लोफ, लोफ..डबल रोटी गिर रही है इस बार ...दौड़ के। लपक लो। हट जाओ। मेरा है, मैंने लूटा। इधर कहां?..वाह! बहादुर लड़की है..बहादुर नहीं, लुटारू ललना। फिर आयेगा। तैयार रहो...”
सुबह से ही, जब पहली बार पैकेट गिराये जा रहे थे, तभी से ‘एयर ड्रापिंग’ के इस अभूतपूर्व दृश्य के ‘बैक ग्राउंड’ में एक फिल्मी रिकार्ड बजाने का मन कर रहा है। किस फिल्म का वह गाना है, नहीं जानता। किंतु, ‘मुखड़ा’ से लेकर ताल और बोल सब एकदम फिट। अगर मेरे पास रिकार्ड प्लेयर होता और वह रिकार्ड होता तो हर बार एयर ड्रापिंग के समय छत पर निश्चय ही बजाना शुरू कर देता।
चूँकि, मेरे पास कुछ भी नहीं। इसलिए पैकेट गिराते समय मेरे मन में वह गाना मय म्यूजिक और मुखड़े के-कुछ नयो ‘बोल’ लेकर बजता रहता है। सीं-ई।ई।ई।ई। - गरगरगरगर-गुड़रगुड़रगुड़र-आ गया। जी आ गया। गिरा गिरा गिरा...लूट लूट लूट ले..ए पायलट साहेब पैं-पैं-पैं पपम पपम में ए-ए-खाना मिलेगा, पीना मिलेगा, भैया की शादी है। सब कुछ मिलेगा, खाओ मेरे यार, पीओ मेरे यार। लूटो मेरे यार, मीटो मेरे यार ...पैं पैं पैं पपम पपम पैं-ए-एपायलट साहेब, इधर भी गिराइए। जरा रहम खाइए, यों न दौड़ाइए। पानी भी पिलाइए। फ्लास्क भी गिराइए। इधर-इधर-इधर गिरा, उधर-उधर-उधर गिरा। क्या-क्या गिरा, क्या-क्या लूटा। एँ...ये...चूड़ा-चना-दालमोंठ? छोड़ों नहीं यार, फाँको मेरे यार। जो भी गिरे लूट ले, जो भी मिले ठूँस ले।
महँगा है फोकट का माल ...पैं...पैं...पैं पपम पपम पैं-एँ...“अरे? तुम तुम यहाँ बैठे हो। ऊपर छत पर जाकर देखो...”“पाँवरुटियर वृष्टि होच्छे”-लतिका हड़बड़ाती हुई आयी।“सिर्फ पाव रोटी या उसके साथ और भी कुछ?”
“पोलिथिन पेपर के बड़े-बड़े पैकेट गिराये जा रहे हैं। पता नहीं उनमें और क्या –क्या है।”
दो दिन तक सुबह से शाम तक तीन-चार वार, दो-दो हेलिकॉप्टर हमारे गोलंबर के ऊपर ‘लो फ्लाइंग’ करके रिलीफ बरसाते रहे। उनकी गरगराहट मनमनाहट की प्रतिध्वनियाँ, छत पर (सिर पर) ‘भूत-नृत्य’ करते हुए लोगों का कुहराम...उनकी धमाचौकड़ी सहते-सहते अनायास ही तन पत्थर का तथा मन ‘संत’ का हो गया है। दिल्ली की- कलकत्ते की रोटी, आस्ट्रेलियन मक्खन, यूके. का केक, चीज और आगरे के पेठे? मेरी रसना अचानक रसवंती ही नहीं-बाढ़ आ गयी मुंह में। बिना चप्पल के ही छत पर दौड़ा। किंतु, पहुँचते ही हेलिकॉप्टर के बवंडर ने मेरे सिर पर, बाल-आँख-कान, मुँह में टोकरी भर धूल झोंक दिया। पनिआयी हुई जीभ अचानक सूखकर काठ-जैसी हो गयी। छत के एक कोने में दीवार के सहारे खड़ा होकर धूल झाड़ रहा था, आँख मल रहा था कि एक उछलती-कूदती किशोरी –सी दीखनेवाली कन्या ने मेरे हाथ में एक थैला थम्हाते हुए कहा. “यहाँ इस तरह खड़ा रहिएगा तो कुछ भी नहीं मिलेगा। लीजिए।”
‘माल’ से भरा थैला लेकर नीचे उतर आया। लतिकाजी के आगे यह आस्मानी तोहफा डालकर सीधे नहाने के घर में घूसा...मेरी देह के प्रत्येक रोम-कूप में धूल के कण समा गये थे और सारे शरीर में खुजली और जलन हो रही थी। ऊपर छत पर कुहराम और हाय-तोबा जारी था- “लेकिन, मार्डन का ब्रेड कहाँ है? यह तो लोकल अन्नपूर्णा है...दिल्ली वाली रोटी नहीं गिरायी? बटर-केक-चीज कुछ भी नहीं है? पेठा भी नहीं? ...तमाशा है! ब्रेकफास्ट के समय इधर चना-चबेना और अभी लंच में भुआई हुई फफूंद-लगी लोकल लोफ-असल माल सब उधर ही-खा गया! सब खा गया!”
दरवाजे पर आकर एक ‘भद्र स्त्री’ भाषण देने लगी – “यह तो गरीबों को बाँटने के लिए गिराया जा रहा है। हम लोगों ने सुबहवाला सब सामान बांट दिया है और अभी भी जितना मिला है, सब गरीबों को दे देंगें।”
लतिका कह रही थी- “हम लोग भी बाँट देंगे। रिक्शेवाले हैं, दाई हैं।” किंतु वह भद्र स्त्री कहती जा रही थी- ‘दाई और रिक्शेवाले गरीब थोड़े हैं। हम लोग उधर जाकर ....’
मैं बाथरूम में नहाता हुआ ठंडे दिमाग से सब कुछ समझ रहा था...बात यह हुई होगी कि इनकी छोटी बहन ने कहा होगा कि एक थैला ‘तीस नंबर’ को दे दिया। इस पर परिवार के सभी उसकी मूर्खता पर नाराज हुए होंगे और उनको विश्वास हो गया होगा कि तीस नंबर को जो थैला दिया गया है, उसी में सब ‘असल माल’ –मार्डन ब्रेड, बटर, केक, चीज और पेठे...
“आपसे यह किसने कह दिया कि हम गरीब नहीं हैं? मैं बाथरूम से बाहर निकलकर बोला। हमने दरवाजा बंद ही किया था कि दस्तक पड़ी। खोलकर देखा, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के नये मकान के बाढ़पीड़ितों का एक छोटा – सा जत्था – चार-पांच छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ और दो-तीन मर्द। एक औरत – “बाबू! मालूम हुआ है कि हजूर एक झोला भरकर रोटी लूटे हैं...बच्चा सब भूखल हैं।”
यह पूछने की जरूरत नहीं समझी कि कहां और किससे मालूम हुआ है। थैला उनके सुपुर्द कर दिया। जत्थे के अगुआ ने रोटियों को गिनकर कहा- “बस ? ई तो छवे गो है। मालूम हुआ कि” उस दिन सांझ तक हर दस-पंद्रह मिनट के बाद दरवाजे की कुंडी खट-खटाती रही – “बाबू ! सुना कि आपको एक बोरा रोटी और विलायती गुलगुला और दूध का पौडर हाथ ‘लागल’ है...अरे हजूर बाबू साहब ! आप लोगों को भगवानजी बहुत दिया है ....’कोनों’ चीज का ‘कम्मी’ है? थोड़ा ‘गरीबों’ का खियाल करिये एक तो गिरानेवाला एक ‘चश्मखोर’ कि जहां पर गिराना चाहिए वहां नहीं गिराया तिस पर आप लोग ‘बाबू भैया’ होकर ऐसा ‘गरीब मार’ करियेगा तो ...गरीबन के हक...भला उतना बड़ा थैला में छवे गो रोटी होगा...खाली रोटिये होगा भला...?”
“भद्र स्त्री ने अच्छी सजा दी!”
दो दिन तक सुबह से शाम तक तीन-चार वार, दो-दो हेलिकॉप्टर हमारे गोलबर के ऊपर ‘लो फ्लाइंग’ करके रिलीफ बरसाते रहे। उनकी गरगराहट मनमनाहट की प्रतिध्वनियाँ, छत पर (सिर पर) ‘भूत-नृत्य’ करते हुए लोगों का कुहराम...उनकी धमाचौकड़ी सहते-सहते अनायास ही तन पत्थर का तथा मन ‘संत’ का हो गया है।
एक ओर, गुरू-गौरव गर्जन के साथ ऊपर से करुणा और दया बरसायी जा रही है। दूसरी ओर स्वयंसेवी संस्थाएं चुपचाप ट्रकों, नावों और ठेलों पर खिचड़ी, चावल, रोटी, दूध, नमक, पानी, मोमबत्ती, दियासलाई, कपड़े और दवाइयाँ-स्लम तथा गरीब मुहल्लों में बाँट रही हैं।
रोज-रोज कोई-न-कोई नयी राहत की घोषणा होती रहती है। प्रत्येक b‘कार्ड होल्डर’ को पांच किलो गेहूँ मुफ्त : रिक्शाचालकों को भी! पाँच किलो अनाज मुफ्त में मिलेगा। सरकारी कर्मचारियों को पंद्रह दिनों का वेतन अग्रिम मिलेगा। सिर्फ पंद्रह ही दिनों का नहीं ...पुनर्विचार के बाद फैसला लिया गया है। एक महीने का वेतन बतौर मिलेगा जिसका भुगतान बाद में धीरे-धीरे किया जा सकेगा। सेना के सभी अंग राहत में लगे हुए हैं। जलसेना (नेवी) को भी सतर्क और तैयार रहने का आदेश दिया गया है। बी.एस.एफ. के जवान डाक्टरों को लेकर संक्रामक रोगों से बचने के लिए लोगों को टीके...! और एंफिबियन (मेढक गाड़ी) आ रही है जो जल और थल में समान रूप से दौड़ेगी...
पानी का बहाव बंद होने के बाद सड़ांध के साथ ‘ब्लिचिंग-पाउडर’ की उत्कट गंध से हवा बोझिल रहती है। किंतु मेरी पंचेद्रियों में से अधिकांश शिथिल हो गयी हैं। इसलिए, किसी तरह का कष्ट नहीं हो रहा।
ऐसी ही मनःस्थिति में – पता नहीं क्यों सेल्फ से ‘परती : परिकथा’ निकालकर ले आता हूँ। थोड़ी देर, पृष्ठों को उलट-पलटकर पढ़ने की चेष्टा करता हूँ। पढ़ता हूँ – ‘कोनार नदी के के किनारे –डैमसाइट पर, एक विशाल ‘केन’ की छाया में बैठते हुए कहा था जीत ने – न जाने कोसी का काम कब शुरू हो...यह मेरा इलाका है। कोसी-कवलित अंचल। जहां हर साल लाखों प्राणियों की बलि लेती है कोसी महारानी.....’
“जितेंद्र ने इरावती से कहा था- ‘आपका दुख मैं समझता हूँ। अनुभव करता हूं, आपके यहां की नदियों में खून की बाढ़ आयी थी। एक अंधवेग, एक पागलपन, एक जुनून। रक्त की धाराएं बहीं...सिर्फ बाढ़ ही नहीं, दावानल भी। भयंकर लपटें उठानेवाला। सब कुछ जल गया। धन-संपत्ति, कला-कौशल। मैं उसकी भीषणता की कल्पना कर सकता हूँ। और, आप भी कल्पना कीजिए उस भूभाग की। डायन कोसी के सुफेद-बलुवाही आंचल पर बिखरे लाखों नये नरकंकालों की कल्पना से आप डर तो नहीं जायेंगी...?”
“इरावती का सपना : उसका प्यार फिर पनप रहा है। इंसान सिर्फ कत्ल और बलात्कार ही नहीं करता। इंसान गढ़ भी सकता है। गढ़ रहा है। बना रहा है। रचना कर रहा है-समाज के लिए, आवाम के लिए। वीरान को बसाने के लिए, वंध्या धरती को शस्य-श्यामला बनाने के लिए?...”
“समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक बनाना ही मुक्ति का एक-मात्र पंथ है। हमारी मिट्टी में सांस्कृतिक सोना फल सकता है...प्राण नहीं, अनुभूति नहीं। अब मनुष्य को यंत्र चला रहा है...टेक्नालोजी के युग में हम लोग जीवन-उपभोग का मूल तकनीक ही खो बैठे हैं...”
‘परती : परिकथा’ की इन पंक्तियों को रेखांकित करके रख देता हूँ। फिर ‘जुलूस’ निकाल लाता हूँ। अंतिम पृष्ठ की अंतिम पंक्तियों को पढ़ता हूँ : ‘मैं एक विशाल परिवार की बेटी हूं...इन आत्मीय स्वजनों के बीच पारस्परिक सहानुभूति और सहयोगिता फिर से पनपाऊँगी ....मैं अपनी सत्ता को इस समाज में विलीन कर रही हूँ...लोक संस्कृति – मूलक समाज के गठन के लिए...!!’
‘कलरबक्स’ उठाकर लाता हूँ। कूची से ‘परती : परिकथा’ तथा ‘जुलूस’ की चिह्नित पंक्तियों पर गहरा काला रंग पोतकर भी संतोष नहीं होता। मन में जमी हुई अशांति पिघलती नहीं। तब दियासलाई की एक सलाई जलाकर इन पृष्ठों को छुलाता हूँ। अचानक, कोने में बैठे देवता चिल्ला उठते हैं- “ए-ए-ए की होच्छे? यह क्या हो रहा है? तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या?”
फूट-फूटकर रोता हुआ कहता हूँ- “ठाकुर! तुम तो जानते हो – कितनी अगाध आस्था, अटूट विश्वास और दृढ़ निष्ठा के साथ मैंने ये पंक्तियां लिखी थीं। इन चरित्रों के निर्माण के लिए मैंने अपने हृदय का कितना रक्त...!”
“साला। गांजाखोर, अंहकारी। बोल, तुमने लिखी थीं ये पंक्तियाँ...? …मैं-मैं-मैं- करके तभी से बकरे की तरह मेंमिया रहा है और औरतों की तरह रो रहा है? तुमने लिखी थीं...?”
होश में आया – “नहीं ठाकुर ! मैं कौन होता हूँ लिखनेवाला – चरित्र गढ़नेवाला? तुमने जो भी, जैसा भी लिखवाया – लिखता गया।”
“तो, फिर अपने मन से इन पंक्तियों पर कालिख क्यों पोत दिया? आग क्यों लगा रहा था? और कालिख पोतने से, आग लगाने से क्या ‘अक्षर’ मिट जायेंगे? ...मैंने मानुष की क्या परिभाषा दी है? याद है?”
“जिसकों अपने मान का होश हो-वह ‘मानुष’....”
“तब ? हमेशा अपने मान का होश रखो। मानुष बने रहो। रोने से कुछ नहीं होगा। यों मार्डन की रोटी और विलायती गुलगुला तुम नहीं लूट सके, इसका दुख मुझे भी है।” –ठाकुर हंसे- “अब जरा बाहर निकलकर खोजो। कहीं मिल ही जाये।”
मन का अवसाद दूर हो गया। किताबों को सिर से छुलाकर सेल्फ में रख दिया।
उस दिन सुबह । ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ के प्रतिनिधि जनार्धन ठाकुर आये । जनार्दन जी अंग्रेजी के पत्रकार हैं। लेकिन, मुझसे हमेशा मैथिली में हो बोलते हैं। आते ही बोले- “हमर किछु प्रश्न अछि – बाढ़ क संबंध में...”
“बाढ़ क संबंध में? ...मुझसे इस बाढ़ का क्या संबंध?”
“संबंध है।”
“जनार्दनजी! दया करके बाढ़ के बारे में कोई चर्चा नहीं । बाढ़ की बातें भी अब गंधाने लगी हैं।”
उन्होंने मेरी बात को अनसुनी करके पूछा – “पटना का क्या भविष्य है अर्थात् भविष्य क्या होगा? ...हां मैं जानता हूं कि आप कोई भविष्यज्ञाता, ज्योतिषी नहीं रचनाकार हैं।” जनार्दनजी का मुखमंडल गंभीर था।
मैं कुछ देर चुप रहा फिर कहने लगा- “बिहार की राजधानी को पटना से हटाकार फिर राजगीर ले चलिए। यदि यह संभव नहीं तो फिर ऐसा कीजिए कि सारे नगर के हर घर की छत पर नाव, लाइफ बेल्ट यानी किसी स्टीमर पर संकट की घड़ी में प्राणरक्षा के लिए जो-जो उपकरण रहते हैं- रखना अनिवार्य कर दीजिए ...प्लास्टिक के सामान बनानेवाली कंपनियों से छोटी-छोटी डोंगियाँ बनाने को कहिए ...हर मकान के ग्राउंड फ्लोर के रेंट में सैंकड़े पचहत्तर की कमी और ऊपर के तल्लों में थोड़ी सी वृद्धि ...जीवन भीमा निगमवालों से परामर्श करके- हर मकान मालिक से हर महीने के भाड़े में जीवन बीमा का अनिवार्य अंश...और पटना ही क्यों, बाढ़ से किसी भी प्रदेश का पिंड कभी नहीं छूटने का...।”
मैंने देखा, जनार्दनजी अपनी चोटी-सी डायरी में नोट कर रहे हैं –“अरे! आप तो सचमुच...?”
“सचमुच नहीं तो और क्या ? ” वे डायरी अपने पाकेट में रखकर उठ खड़े हुए।
मैंने अपना प्रण पूरा किया। बाढ़ के पानी में पैर नहीं दिया। छत के रास्ते दूसरे फ्लैट की सीढि़यों से उतरकर – ईंटों पर पैर रखता हुआ-सड़क पर आया और रिक्से पर अकेला बैठकर उधर ही चला जिधर से बाढ़ के जल को पहले-पहल आते देखा था...रास्ते में देखा – दीवारों पर लाल दाग लगाकर अंग्रेजी में काले रंग से एच.एफ.एल. 75 लिखा जा रहा है। रास्ते चलते एक युवक ने दूसरे से कहा- “एफ.एल. तो सुना था। यह एच.एप.एल. क्या है भाई?”
सरकारी कर्मचारियों को पंद्रह दिनों का वेतन अग्रिम मिलेगा। सिर्फ पंद्रह ही दिनों का नहीं ...पुनर्विचार के बाद फैसला लिया गया है। एक महीने का वेतन बतौर मिलेगा जिसका भुगतान बाद में धीरे-धीरे किया जा सकेगा। सेना के सभी अंग राहत में लगे हुए हैं। जलसेना (नेवी) को भी सतर्क और तैयार रहने का आदेश दिया गया है। कॉफी हाउस खुला देखकर प्रसन्न हुआ। लेकिन, अंदर कदम रखते ही फफूंद की गंध लगी तो लौटना चाहा था। देखा, सारे कॉफी हाउस में बस एक मात्र सतीश आनंद – कला संगम नाट्य संस्था के प्राण – चुपचाप बैठे हैं। उनका चेहरा देखकर डरा – बाढ़ में निश्चय ही इनका बहुत नुकसान हुआ होगा, शायद ...मुझे देखकर उनका चेहरा तनिक खिला। बोले – “आज ही, अभी ही थोड़ी देर पहले खुला है। मैं ही पहला ग्राहक हूँ और आप दूसरे...”
“दूसरे तो सत्यनारायण ही हो सकते हैं...और क्या हाल हैं? इतने उदास क्यों हे?”
“उदास? जी, उदास नहीं चिंतित।”
“अरे राम। कॉफी है या क्लोरोकॉफी? ...कैसी चिंता? सार्वजनिक या व्यक्तिगत?”
“साहब, एक नया नाटक खेलने को सोचा था। वह तो अब निकट भविष्य क्या दूर भविष्य में भी...अजब है, स्टेज के लिए कोई लड़की या स्त्री मिल ही नहीं रही... ”
“आपने क्या उम्मीद की थी? इस बाढ़ में कहीं से भंसती हुई आ जायेगी?” मैंने पूछा।
सतीश अप्रतिभ हुए। फिर कुछ याद करके बोले – “इधर आपकी मुलाकात “यौनाचार्य” से नहीं हुई है? इस बाढ़ ने उनकी सारी दमित वासनाएँ...लीजिए, नाम लिया और आप प्रकट हो गये।” – सतीश ने बाहर की ओर देखकर कहा।
हमारे कॉफी हाउस के एक एडवोकेट मित्र है। पिछले साल हिंदी में यौन- मनोविज्ञान की कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित करवाया है। पुस्तक प्रकाशन के बाद मित्रों ने उन्हें ‘यौनाचार्य’ की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपना परिचय देते समय वह यह कहना नहीं चूकते कि वे चार-चार बार रस्टीकेट हो चुके हैं और यह कि वे छात्रों के ‘चिर नेता’ हैं और ताउम्र रहेंगे।
यौनाचार्य ने सगर्व स्वीकार किया – “भाई ! इस बाढ़ से पटना नगर और इसके नवागरिकों की जो भी तबाही हुई हो – मैं तो फायदे में क्या ...जो आज तक कभी नसीब नहीं-वह इस बाढ़ के प्रताप से या महिमा से कहिए तीन-तीन यंग लड़कियाँ और कई स्त्रियां मेरे घर में शरणार्थी होकर आयीं...सुबह में कोई चाय दे रही है तो कोई हलुआ तो कोई आमलेट तलकर ला रही है। कोई दोपहर को अपनी प्रेमकहानी कहती तो कोई रात में दो बजे तक गाना सुनाती। और मेरा बाथरूम चलकर जरा सूँघ लीजिए – नहीं विश्वास हो तो- लेवेंडर की सुरभि से सदा सुरभित रहता है ...अब आपको क्या बतायें?”
उस दिन ही नहीं, एक सप्ताह तक अपनी किस्मत खुलने का किस्सा लोगों को कॉफी पिला-पिलाकर सुनाते रहे। यहाँ तक कि दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार बाढ़ के सिलसिले में पटना आये थे। उनको भी अपना भाग्य फिरने का किस्सा सुनाने पहुँचे। होटल में मौका नहीं मिला तो हवाई अड्डे तक पहुँचकर वकत्व्य देने के लहजे में उनसे कहा- “साहब. आदमी क्या? इस बाढ़ में तो मछलियाँ भी ‘सेक्सी’ हो गयी थीं...”
मुझे उसी दिन लगा था कि यौनाचार्य अब ‘काम’ से गये। और इन पंक्तियों के लिखते समय उनके मित्रों से तथा स्वयं उनके मुँह से सुना कि उनकी अवस्था संगीन है। सिर चकराता है और सिर के अंदर ‘वैकुअम’ जैसा लगता है। आँखों के आगे सरसों के फूल नजर आते हैं। डाक्टरों ने कोई सिरियस रोग बताया है। जिसका संबंध –नाक तथा आंख के जरिए – दिमाग से है...भगवान उनको चंगा करें।
यों, पटना शहर भी बीमार ही है। इसके बाँह में हैजे की सूई का और दूसरी में टाइफायड के टीके का घाव हो गया है। पेट से ‘टेप’ करके जलोदर का पानी निकाला जा रहा है। आँखें जो कंजक्टिवाइटिस (जाये बांग्ला) से लाल हुई थीं- तरह-तरह की नकली दवाओं के प्रयोग के कारण क्षीणज्योति हो गयी है। कान तो एकदम चौपट ही समझिए- हियरयिंग एड से भी कोई फायदा नहीं। बस, ‘आइरन लंग्स’ अर्थात् रिलीफ की सांस के भरोसे अस्पताल के बेड पर पड़ा हुआ किसी तरह ‘हुक-हुक’ कर जी रहा है।
“ऊँ सर्वविघ्नानुत्सारय हुँ फट् स्वाहा...” (1975)
फणीश्वरनाथ रेणु के बाढ़ के अनेक रिपोर्ताज में से एक -
)पानी की धारा एकदम मंद हो गयी। पानी का रंग धारा की गति के साथ ही धीरे-धीरे बदल रहा है। बहाव बंद होते ही पानी का रंग कुछ ही घंटों में हरा हो जायेगा। पानी पर हरे रंग की पपड़ी जम जायेगी और हवा में सूखी मछली की गंध जैसी ‘बिसाइन’ महक।
पास के ही एक फ्लैट के सभी निवासी, जो अब तक बाहर खड़े हंस-बोल रहे थे, अचानक अंदर चले गये। फ्लैट एकदम निःशब्द! टोमेटो ने कुंडी खड़कायी। अभिभावक ने दरवाजे पर प्रकट होकर ऐसी मुखमुद्रा बनायी मानो पूजा का चंदा मांगनेवाले लड़कों से निबटना है-“क्या है? हैजे की सूई? हम लोग तो ताजा-ताजा गरम-गरम खाते हैं। आज कई स्थानीय दैनिक पत्रों ने एक पन्ने का ‘अंक’ निकाला है। पत्रकार मित्र सूर्यनारायण चौधरी कई हिंदी-अंग्रेजी अखबार लेकर आये। डेढ़ पृष्ठों में टेंडर, वांटेड, विश्वविद्यालयों तथा अन्य सरकारी अर्ध-सरकारी संस्थानों की विशेष विज्ञप्तियाँ। बाकी में पटना नगर की बाढ़ के सचित्र समाचारों के बीच-बीच में यत्र-तत्र ‘बॉक्स न्यूज’: दिल्ली से इतने हजार किलोग्राम मार्डन रोटी आ रही है। दिल्लीवालों के दैनिक रासन में रोटी की कटौती : विदेश से ‘केक’ और ‘चीज’ भी। आगरे के पेठे : कलकत्ते से भी रोटियाँ : प्राण-रक्षक दवाइयाँ और कपड़े।
अखबार पढ़ने के बाद बात समझ में आयी कि क्यों कुछ देर पहले छत पर भाईसाहब इतने उत्तेजित, असंतुष्ट और क्रुद्ध थे। निश्चय ही उन्होंने आज का अखबार पहले ही पढ़ लिया था। हमारी छत पर हेलिकॉप्टर से पांच पैकेट जो गिरे थे उन्में से तीन, भाईसाहब तथा उनके परिवार और सगे-संबंधियों के हाथ लगे थे और तीनों में बस चिउरा, भुने चने, पॉप कार्न और दालमोठ? बाकी दो पैकेट में भी यही चीजें थीं।
भाईसाहब के मुँह से, घुले हुए पानी की जाफरानी पीक की गुड़गुड़ाहट के साथ लानत-भरी आवाज निकली- “क्या तमाशा है!” फिर, पीक थूककर चालू हो गये – “एज इफ वी आर लेबरर.. तमाशा है...दिल्ली का ब्रेड कहाँ है? बतलाइए। बटर, केक, ‘चीज’ कुछ भी नहीं, सिर्फ चूड़ा-चना-फरही? ...बोरिंग रोड, कृष्णापुरी या पाटलिपुत्र कोलोनी की बात छोड़िए-यहीं, अभी, राजेंद्रनगर में ही कंट्राक्टर, फलाने प्रसाद सिंह के एरिया में जो पैकेट गिराये गये हैं सबमें ‘ए-वन’ चीजें-मतलब, ब्रेड-बटर-चीज सबकुछ-और हम लोगों की छत पर सिर्फ ये ‘रॉटन’ चबेने? बोलिए, इसका क्या जवाब है? एं? ...खुद, सरकारी रेडियो बोलता है कि ‘राजेंद्रनगर इज ए पाश – एरिया-’ आलीशान इलाका है राजेंद्रनगर और वहां गिरायी जाती हैं...दिस इज सीयर पार्सियालिटी...नहीं तो और क्या...अरे साहब, कहां गया—खा गया, सब खा गया...”
“जो कुछ मिला है आप भी चबा लीजिए। वरना...”
“वरना, क्या...?”
“वरना, नरम हो जाने पर कुरमुराहट नहीं...”
“हुँह! चबा लीजिए? …आई एम नाइदर ए विलेजर नार एक लेबरर, आर ए बेगर...” मेरे मुँह पर अपनी मुँहतोड़ अंग्रेजी में ‘रिटर्न शॉट’ मारकर भाई-साहब का क्रोध तत्काल कुछ कम हो गया। अपनी एक ‘केलिकुंजिका’ से उन्होंने कहा – “पैकेट ले जाओ और उधर ‘झोपड़-पट्टी’ से जो लोग आये हुए हैं उन लोगों को ‘डिस्ट्रिब्यूट’ कर दो...खा गया,, सब खा गया...!!!”
बाकी दो पैकेट पानेवालों ने अपनी छत पर उपस्थित लोगों के बीच ‘भाग बंटवारा’ कर लिया था। चूरा और दालमोठ चबाता हुआ प्रोफेसर साहब का नौकर कहता है – “चूड़ा बहुत ‘फाइन’ है और दालमोठ एकदम पियोर पोस्टमैन में छना है...”
भाईसाहब नीचे गये तो मेरे पास एक दूसरे सज्जन सरककर आ गये। नम्र और दबी हुई आवाज में (फुसफुसाहट में) उनकी शिकायत थी: “उधर प्लास्टिक के बड़े-बड़े ‘कैन’ ...हां, इतने बड़े कि उसमें करीब चार घड़े पानी तो जरूर ...एकदम मिल्की व्हाइटकैन के मुंह पर टाइट किया हुआ जेड ब्लैक कैप...लवली...मैंने कल खुद अपनी आँखों से देखा है। हेलिकॉप्टर से गांधी मैदान में पानी पर ‘थपाथप’ गिराया गया, वहां से आर्मी का आदमी बटोरकर नाव पर लेकर वेस्ट पटना की ओर चले गये...मानता हूं कि हम लोगों के एरिया में पीने के पानी की कमी नहीं है लेकिन, कैन...?”
“उस छत पर अभी ही एक लाल फ्लास्क-छोटा-गिराया है।”
“उधर, लोहानीपुर की एक छत पर कपड़े का बंडल भी गिरा है...शायद, गलती से गिर पड़ा है।”
“एयर ड्रापिंग दो तरीके से करते देखा। एक, मुंह की ओर से –पाइलट के बगल में बैठकर, दूसरा-दुम की ओर से । मुँह की ओर से गिरानेवाला, पैकेट गिराते समय दुम ऊपर की ओर उठाकर, मुंह नीचे की ओर झुका लेता है और दुम की ओर से गिरानेवाला सिर ऊपर की ओर उठा लेता है...कभी-कभी इतना करीब आ जाता है कि उस छत पर लगा कि एक आदमी को हाथों-हाथ पैकेट दे दिया...धन्न है।”
अभी रेडियो से एक आवश्यक सूचना प्रसारित करके लोगों को सावधान किया गया है : ‘कृपया अपनी छतों पर ऐसा सामान नहीं रखें जो उड़ सकते हों। हेलिकॉप्टर जब आपकी छत के ऊपर पहुँचे तो उस समय कपड़े, चटाई, किताबें वगैरह हटा लें, और छोटे बच्चों को भी...’
छोटे बच्चे ही क्यों, हेलिकॉप्टर के बवंडर में पड़कर क्षीणकाय अल्प-प्राण बड़े – बूढ़े भी उड़ जा सकते हैं.....और औरतों को चाहिए कि हेलिकॉप्टर के नीचे जाने के पहले दक्षिणी ढंग से साड़ी पहले लें। नहीं तो, जैसा कि अभी देखा-सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है कि सारी है कि नारी है कि ...खाली बस नारी है।
कुंडी लड़की..मेडिकल कालेज के तीन-चार विद्यार्थी हाथ में स्टील छोटे-छोटे बक्स लेकर खड़े हैं- ‘हैजे की सूई’। मेडिको वालेंटियर की टोली को ‘गाइड’ कर रहा है, हमारे ब्लॉक का किशोर टोमेटो। बेचारा थोड़ा तुतलाता है। और उत्तेजना अथवा उत्साह में तुतलाहट बहुत बढ़ जाती है। हमारे ब्लॉक के रविजी तो मेडिकल स्कवाड के साथ ही हैं? “भाई। वह हैजे और टाइफाइड दोनों एक ही साथवाली दवा नहीं है? क्या नाम है उसका। टी.ए....? सिर्फ हैजे की सूई? तब तो दो बार? ...लगा दो दाहिने हाथ के बाँह पर ही। अब मेरे दायें और बायें हाथ में कोई फर्ख नहीं...इतनी बार सूई ली है, फिर भी सूई देखकर तनिक घबरा ही जाता हूँ। और हैजे की सूई का दर्द बाढ़ में इतना बढ़ जाता है कि...बस, धन्यवाद...!! ”
मेडिको-वालेंटियर ने बुखार की गोलियां, आँख में डालनेवाली दवा और बोरिक पाउडर की पुड़िया दी...जियो। सुखी रहो!!
पास के ही एक फ्लैट के सभी निवासी, जो अब तक बाहर खड़े हंस-बोल रहे थे, अचानक अंदर चले गये। फ्लैट एकदम निःशब्द! टोमेटो ने कुंडी खड़कायी। अभिभावक ने दरवाजे पर प्रकट होकर ऐसी मुखमुद्रा बनायी मानो पूजा का चंदा मांगनेवाले लड़कों से निबटना है- “क्या है? हैजे की सूई? हम लोग तो ताजा-ताजा गरम-गरम खाते हैं। बासी चीजें नहीं खाते। सूई लेने की क्या जरूरत ?”
टोमेटो हकलाता है। किंतु, कभी-कभी मौके पर वाजिब जवाब देते समय उसकी बोली जरा भी नहीं अटकती। उसने कहा- “एक आप ही लोग ताजा और गरम खाते हैं, बाकी सभी लोग बासी, ठंडा और सड़ागला खाना खाते हैं। क्यों?”
दरवाजा सशब्द बंद हो गया। सीढ़ियों से उतरते समय एक लड़का बोला – “असल बात कुछ और है। हम लोगों के साथ कोई लेडी स्टूडेंट नहीं है न। और इस फ्लैट में सब मिलाकर ज्यादा...”
“लेडी स्टूडेंट नहीं। कल से बी.एस.एफ. के जवान रहेंगे साथ। तब देखना कि बिना चीं-चपाड़ किये किस तरह...” शायद, रविजी बोल रहे थे।
अपने ब्लॉक के एक ‘हीरा लड़का’ - रंजन की याद आती है। स्वस्थ, सुंदर, सभ्य और उत्साही। राजीव रंजन। अभी रहता तो निश्चय ही अपने साथियों का अगुआ होता। ढाई महीना पहले मोटर – दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी...
“आ रहा है। हेलिकॉप्टर फिर आ रहा है।” हमारी पूसी बिल्ली सुबह से ही आतंकित है। हेलिकॉप्टर जब तक हमारे ब्लॉक के ऊपर मंडराता रहा, वह अपने नवजात बच्चों को मुँह में लेकर, इस कमरे से उस कमरे में सुरक्षित स्थान में पहुँचाती रही। उसके बाद से हवाई जहाज की भनभनाहट सुनते ही वह दौड़कर अपने बच्चों के पास चली जाती है। मैं उस को डराने के लिए बीच-बीच में कहता हूँ- “आ रहा है हेलिकॉप्टर।” और वह दौड़कर अपने चार दिन के बच्चों के पास पहुँच जाती है।
...आ रहा है। सचमुच, फिर आ रहा है। अब, शायद दोपहर का भोजन –लंच – देने आ रहा है। बिहटा से नहीं, पटना कालेज के मैदान में हेलिपेड बनाया गया है। वहीं से हेलिकॉप्टर में सारे पैकेट लोड किये जाते हैं। यहां का मेला अब वहां चला गया है। हेलिकॉप्टर को उड़ते और धरती पर उतरते देखने के लिए हमेशा जनसमुद्र उमड़ा रहता है। वहाँ गेट पर कड़ा पहरा है, इसके बावजूद... ‘आ गया। चलो छत पर। एक भी बाहरी आदमी को अपने ब्लॉक की छत पर मत रहने देना...कोई लाल कपड़ा ले लिया है न? आ गया। ए! इस बार चिल्लाओ मत। ऐसी जोर की गरगराहट में चिल्लाने से क्या फायदा? हाथ के इशारे से बताओ-हम भूखे हैं, प्यासे हैं।’
पॉश एरिया-आलीशान इलाके की सभी आलीशान इमारतों की छतों पर नर-नारियों की भीड़। धोती-लुंगी-पैंट-अंडर वियर-जाँघिया-साड़ी-बेलबाटम-फ्राक सलवार-मेक्सी-मिनी में झुंड-मुंड!! एक साथ दौड़ते, कभी इधर, कभी उधर। सभी के दोनों हाथ ऊपर आसमान की ओर उठे हुए अथवा हेलिकॉप्टर को अपनी छत की ओर बुलाते हुए, इशारा बताते-लाल झंडियाँ हिलाते हुए।
“...सीं-ई-ई-ई—गरगरगरगरगर-गुड़रगुड़रगुड़र..आ गया, अपने छत पर भी आ गया। अरे रे। फिर कपड़े-कागज-पत्तर सूके पत्ते उड़े...गिरा! गिरा! इस बार तो पैकेट की वर्षा हो रही है। बगल हो जाओ। गिरा, गिर। क्या है? लोफ, लोफ..डबल रोटी गिर रही है इस बार ...दौड़ के। लपक लो। हट जाओ। मेरा है, मैंने लूटा। इधर कहां?..वाह! बहादुर लड़की है..बहादुर नहीं, लुटारू ललना। फिर आयेगा। तैयार रहो...”
सुबह से ही, जब पहली बार पैकेट गिराये जा रहे थे, तभी से ‘एयर ड्रापिंग’ के इस अभूतपूर्व दृश्य के ‘बैक ग्राउंड’ में एक फिल्मी रिकार्ड बजाने का मन कर रहा है। किस फिल्म का वह गाना है, नहीं जानता। किंतु, ‘मुखड़ा’ से लेकर ताल और बोल सब एकदम फिट। अगर मेरे पास रिकार्ड प्लेयर होता और वह रिकार्ड होता तो हर बार एयर ड्रापिंग के समय छत पर निश्चय ही बजाना शुरू कर देता।
चूँकि, मेरे पास कुछ भी नहीं। इसलिए पैकेट गिराते समय मेरे मन में वह गाना मय म्यूजिक और मुखड़े के-कुछ नयो ‘बोल’ लेकर बजता रहता है। सीं-ई।ई।ई।ई। - गरगरगरगर-गुड़रगुड़रगुड़र-आ गया। जी आ गया। गिरा गिरा गिरा...लूट लूट लूट ले..ए पायलट साहेब पैं-पैं-पैं पपम पपम में ए-ए-खाना मिलेगा, पीना मिलेगा, भैया की शादी है। सब कुछ मिलेगा, खाओ मेरे यार, पीओ मेरे यार। लूटो मेरे यार, मीटो मेरे यार ...पैं पैं पैं पपम पपम पैं-ए-एपायलट साहेब, इधर भी गिराइए। जरा रहम खाइए, यों न दौड़ाइए। पानी भी पिलाइए। फ्लास्क भी गिराइए। इधर-इधर-इधर गिरा, उधर-उधर-उधर गिरा। क्या-क्या गिरा, क्या-क्या लूटा। एँ...ये...चूड़ा-चना-दालमोंठ? छोड़ों नहीं यार, फाँको मेरे यार। जो भी गिरे लूट ले, जो भी मिले ठूँस ले।
महँगा है फोकट का माल ...पैं...पैं...पैं पपम पपम पैं-एँ...“अरे? तुम तुम यहाँ बैठे हो। ऊपर छत पर जाकर देखो...”“पाँवरुटियर वृष्टि होच्छे”-लतिका हड़बड़ाती हुई आयी।“सिर्फ पाव रोटी या उसके साथ और भी कुछ?”
“पोलिथिन पेपर के बड़े-बड़े पैकेट गिराये जा रहे हैं। पता नहीं उनमें और क्या –क्या है।”
दो दिन तक सुबह से शाम तक तीन-चार वार, दो-दो हेलिकॉप्टर हमारे गोलंबर के ऊपर ‘लो फ्लाइंग’ करके रिलीफ बरसाते रहे। उनकी गरगराहट मनमनाहट की प्रतिध्वनियाँ, छत पर (सिर पर) ‘भूत-नृत्य’ करते हुए लोगों का कुहराम...उनकी धमाचौकड़ी सहते-सहते अनायास ही तन पत्थर का तथा मन ‘संत’ का हो गया है। दिल्ली की- कलकत्ते की रोटी, आस्ट्रेलियन मक्खन, यूके. का केक, चीज और आगरे के पेठे? मेरी रसना अचानक रसवंती ही नहीं-बाढ़ आ गयी मुंह में। बिना चप्पल के ही छत पर दौड़ा। किंतु, पहुँचते ही हेलिकॉप्टर के बवंडर ने मेरे सिर पर, बाल-आँख-कान, मुँह में टोकरी भर धूल झोंक दिया। पनिआयी हुई जीभ अचानक सूखकर काठ-जैसी हो गयी। छत के एक कोने में दीवार के सहारे खड़ा होकर धूल झाड़ रहा था, आँख मल रहा था कि एक उछलती-कूदती किशोरी –सी दीखनेवाली कन्या ने मेरे हाथ में एक थैला थम्हाते हुए कहा. “यहाँ इस तरह खड़ा रहिएगा तो कुछ भी नहीं मिलेगा। लीजिए।”
‘माल’ से भरा थैला लेकर नीचे उतर आया। लतिकाजी के आगे यह आस्मानी तोहफा डालकर सीधे नहाने के घर में घूसा...मेरी देह के प्रत्येक रोम-कूप में धूल के कण समा गये थे और सारे शरीर में खुजली और जलन हो रही थी। ऊपर छत पर कुहराम और हाय-तोबा जारी था- “लेकिन, मार्डन का ब्रेड कहाँ है? यह तो लोकल अन्नपूर्णा है...दिल्ली वाली रोटी नहीं गिरायी? बटर-केक-चीज कुछ भी नहीं है? पेठा भी नहीं? ...तमाशा है! ब्रेकफास्ट के समय इधर चना-चबेना और अभी लंच में भुआई हुई फफूंद-लगी लोकल लोफ-असल माल सब उधर ही-खा गया! सब खा गया!”
दरवाजे पर आकर एक ‘भद्र स्त्री’ भाषण देने लगी – “यह तो गरीबों को बाँटने के लिए गिराया जा रहा है। हम लोगों ने सुबहवाला सब सामान बांट दिया है और अभी भी जितना मिला है, सब गरीबों को दे देंगें।”
लतिका कह रही थी- “हम लोग भी बाँट देंगे। रिक्शेवाले हैं, दाई हैं।” किंतु वह भद्र स्त्री कहती जा रही थी- ‘दाई और रिक्शेवाले गरीब थोड़े हैं। हम लोग उधर जाकर ....’
मैं बाथरूम में नहाता हुआ ठंडे दिमाग से सब कुछ समझ रहा था...बात यह हुई होगी कि इनकी छोटी बहन ने कहा होगा कि एक थैला ‘तीस नंबर’ को दे दिया। इस पर परिवार के सभी उसकी मूर्खता पर नाराज हुए होंगे और उनको विश्वास हो गया होगा कि तीस नंबर को जो थैला दिया गया है, उसी में सब ‘असल माल’ –मार्डन ब्रेड, बटर, केक, चीज और पेठे...
“आपसे यह किसने कह दिया कि हम गरीब नहीं हैं? मैं बाथरूम से बाहर निकलकर बोला। हमने दरवाजा बंद ही किया था कि दस्तक पड़ी। खोलकर देखा, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के नये मकान के बाढ़पीड़ितों का एक छोटा – सा जत्था – चार-पांच छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ और दो-तीन मर्द। एक औरत – “बाबू! मालूम हुआ है कि हजूर एक झोला भरकर रोटी लूटे हैं...बच्चा सब भूखल हैं।”
यह पूछने की जरूरत नहीं समझी कि कहां और किससे मालूम हुआ है। थैला उनके सुपुर्द कर दिया। जत्थे के अगुआ ने रोटियों को गिनकर कहा- “बस ? ई तो छवे गो है। मालूम हुआ कि” उस दिन सांझ तक हर दस-पंद्रह मिनट के बाद दरवाजे की कुंडी खट-खटाती रही – “बाबू ! सुना कि आपको एक बोरा रोटी और विलायती गुलगुला और दूध का पौडर हाथ ‘लागल’ है...अरे हजूर बाबू साहब ! आप लोगों को भगवानजी बहुत दिया है ....’कोनों’ चीज का ‘कम्मी’ है? थोड़ा ‘गरीबों’ का खियाल करिये एक तो गिरानेवाला एक ‘चश्मखोर’ कि जहां पर गिराना चाहिए वहां नहीं गिराया तिस पर आप लोग ‘बाबू भैया’ होकर ऐसा ‘गरीब मार’ करियेगा तो ...गरीबन के हक...भला उतना बड़ा थैला में छवे गो रोटी होगा...खाली रोटिये होगा भला...?”
“भद्र स्त्री ने अच्छी सजा दी!”
दो दिन तक सुबह से शाम तक तीन-चार वार, दो-दो हेलिकॉप्टर हमारे गोलबर के ऊपर ‘लो फ्लाइंग’ करके रिलीफ बरसाते रहे। उनकी गरगराहट मनमनाहट की प्रतिध्वनियाँ, छत पर (सिर पर) ‘भूत-नृत्य’ करते हुए लोगों का कुहराम...उनकी धमाचौकड़ी सहते-सहते अनायास ही तन पत्थर का तथा मन ‘संत’ का हो गया है।
एक ओर, गुरू-गौरव गर्जन के साथ ऊपर से करुणा और दया बरसायी जा रही है। दूसरी ओर स्वयंसेवी संस्थाएं चुपचाप ट्रकों, नावों और ठेलों पर खिचड़ी, चावल, रोटी, दूध, नमक, पानी, मोमबत्ती, दियासलाई, कपड़े और दवाइयाँ-स्लम तथा गरीब मुहल्लों में बाँट रही हैं।
रोज-रोज कोई-न-कोई नयी राहत की घोषणा होती रहती है। प्रत्येक b‘कार्ड होल्डर’ को पांच किलो गेहूँ मुफ्त : रिक्शाचालकों को भी! पाँच किलो अनाज मुफ्त में मिलेगा। सरकारी कर्मचारियों को पंद्रह दिनों का वेतन अग्रिम मिलेगा। सिर्फ पंद्रह ही दिनों का नहीं ...पुनर्विचार के बाद फैसला लिया गया है। एक महीने का वेतन बतौर मिलेगा जिसका भुगतान बाद में धीरे-धीरे किया जा सकेगा। सेना के सभी अंग राहत में लगे हुए हैं। जलसेना (नेवी) को भी सतर्क और तैयार रहने का आदेश दिया गया है। बी.एस.एफ. के जवान डाक्टरों को लेकर संक्रामक रोगों से बचने के लिए लोगों को टीके...! और एंफिबियन (मेढक गाड़ी) आ रही है जो जल और थल में समान रूप से दौड़ेगी...
पानी का बहाव बंद होने के बाद सड़ांध के साथ ‘ब्लिचिंग-पाउडर’ की उत्कट गंध से हवा बोझिल रहती है। किंतु मेरी पंचेद्रियों में से अधिकांश शिथिल हो गयी हैं। इसलिए, किसी तरह का कष्ट नहीं हो रहा।
ऐसी ही मनःस्थिति में – पता नहीं क्यों सेल्फ से ‘परती : परिकथा’ निकालकर ले आता हूँ। थोड़ी देर, पृष्ठों को उलट-पलटकर पढ़ने की चेष्टा करता हूँ। पढ़ता हूँ – ‘कोनार नदी के के किनारे –डैमसाइट पर, एक विशाल ‘केन’ की छाया में बैठते हुए कहा था जीत ने – न जाने कोसी का काम कब शुरू हो...यह मेरा इलाका है। कोसी-कवलित अंचल। जहां हर साल लाखों प्राणियों की बलि लेती है कोसी महारानी.....’
“जितेंद्र ने इरावती से कहा था- ‘आपका दुख मैं समझता हूँ। अनुभव करता हूं, आपके यहां की नदियों में खून की बाढ़ आयी थी। एक अंधवेग, एक पागलपन, एक जुनून। रक्त की धाराएं बहीं...सिर्फ बाढ़ ही नहीं, दावानल भी। भयंकर लपटें उठानेवाला। सब कुछ जल गया। धन-संपत्ति, कला-कौशल। मैं उसकी भीषणता की कल्पना कर सकता हूँ। और, आप भी कल्पना कीजिए उस भूभाग की। डायन कोसी के सुफेद-बलुवाही आंचल पर बिखरे लाखों नये नरकंकालों की कल्पना से आप डर तो नहीं जायेंगी...?”
“इरावती का सपना : उसका प्यार फिर पनप रहा है। इंसान सिर्फ कत्ल और बलात्कार ही नहीं करता। इंसान गढ़ भी सकता है। गढ़ रहा है। बना रहा है। रचना कर रहा है-समाज के लिए, आवाम के लिए। वीरान को बसाने के लिए, वंध्या धरती को शस्य-श्यामला बनाने के लिए?...”
“समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक बनाना ही मुक्ति का एक-मात्र पंथ है। हमारी मिट्टी में सांस्कृतिक सोना फल सकता है...प्राण नहीं, अनुभूति नहीं। अब मनुष्य को यंत्र चला रहा है...टेक्नालोजी के युग में हम लोग जीवन-उपभोग का मूल तकनीक ही खो बैठे हैं...”
‘परती : परिकथा’ की इन पंक्तियों को रेखांकित करके रख देता हूँ। फिर ‘जुलूस’ निकाल लाता हूँ। अंतिम पृष्ठ की अंतिम पंक्तियों को पढ़ता हूँ : ‘मैं एक विशाल परिवार की बेटी हूं...इन आत्मीय स्वजनों के बीच पारस्परिक सहानुभूति और सहयोगिता फिर से पनपाऊँगी ....मैं अपनी सत्ता को इस समाज में विलीन कर रही हूँ...लोक संस्कृति – मूलक समाज के गठन के लिए...!!’
‘कलरबक्स’ उठाकर लाता हूँ। कूची से ‘परती : परिकथा’ तथा ‘जुलूस’ की चिह्नित पंक्तियों पर गहरा काला रंग पोतकर भी संतोष नहीं होता। मन में जमी हुई अशांति पिघलती नहीं। तब दियासलाई की एक सलाई जलाकर इन पृष्ठों को छुलाता हूँ। अचानक, कोने में बैठे देवता चिल्ला उठते हैं- “ए-ए-ए की होच्छे? यह क्या हो रहा है? तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या?”
फूट-फूटकर रोता हुआ कहता हूँ- “ठाकुर! तुम तो जानते हो – कितनी अगाध आस्था, अटूट विश्वास और दृढ़ निष्ठा के साथ मैंने ये पंक्तियां लिखी थीं। इन चरित्रों के निर्माण के लिए मैंने अपने हृदय का कितना रक्त...!”
“साला। गांजाखोर, अंहकारी। बोल, तुमने लिखी थीं ये पंक्तियाँ...? …मैं-मैं-मैं- करके तभी से बकरे की तरह मेंमिया रहा है और औरतों की तरह रो रहा है? तुमने लिखी थीं...?”
होश में आया – “नहीं ठाकुर ! मैं कौन होता हूँ लिखनेवाला – चरित्र गढ़नेवाला? तुमने जो भी, जैसा भी लिखवाया – लिखता गया।”
“तो, फिर अपने मन से इन पंक्तियों पर कालिख क्यों पोत दिया? आग क्यों लगा रहा था? और कालिख पोतने से, आग लगाने से क्या ‘अक्षर’ मिट जायेंगे? ...मैंने मानुष की क्या परिभाषा दी है? याद है?”
“जिसकों अपने मान का होश हो-वह ‘मानुष’....”
“तब ? हमेशा अपने मान का होश रखो। मानुष बने रहो। रोने से कुछ नहीं होगा। यों मार्डन की रोटी और विलायती गुलगुला तुम नहीं लूट सके, इसका दुख मुझे भी है।” –ठाकुर हंसे- “अब जरा बाहर निकलकर खोजो। कहीं मिल ही जाये।”
मन का अवसाद दूर हो गया। किताबों को सिर से छुलाकर सेल्फ में रख दिया।
उस दिन सुबह । ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ के प्रतिनिधि जनार्धन ठाकुर आये । जनार्दन जी अंग्रेजी के पत्रकार हैं। लेकिन, मुझसे हमेशा मैथिली में हो बोलते हैं। आते ही बोले- “हमर किछु प्रश्न अछि – बाढ़ क संबंध में...”
“बाढ़ क संबंध में? ...मुझसे इस बाढ़ का क्या संबंध?”
“संबंध है।”
“जनार्दनजी! दया करके बाढ़ के बारे में कोई चर्चा नहीं । बाढ़ की बातें भी अब गंधाने लगी हैं।”
उन्होंने मेरी बात को अनसुनी करके पूछा – “पटना का क्या भविष्य है अर्थात् भविष्य क्या होगा? ...हां मैं जानता हूं कि आप कोई भविष्यज्ञाता, ज्योतिषी नहीं रचनाकार हैं।” जनार्दनजी का मुखमंडल गंभीर था।
मैं कुछ देर चुप रहा फिर कहने लगा- “बिहार की राजधानी को पटना से हटाकार फिर राजगीर ले चलिए। यदि यह संभव नहीं तो फिर ऐसा कीजिए कि सारे नगर के हर घर की छत पर नाव, लाइफ बेल्ट यानी किसी स्टीमर पर संकट की घड़ी में प्राणरक्षा के लिए जो-जो उपकरण रहते हैं- रखना अनिवार्य कर दीजिए ...प्लास्टिक के सामान बनानेवाली कंपनियों से छोटी-छोटी डोंगियाँ बनाने को कहिए ...हर मकान के ग्राउंड फ्लोर के रेंट में सैंकड़े पचहत्तर की कमी और ऊपर के तल्लों में थोड़ी सी वृद्धि ...जीवन भीमा निगमवालों से परामर्श करके- हर मकान मालिक से हर महीने के भाड़े में जीवन बीमा का अनिवार्य अंश...और पटना ही क्यों, बाढ़ से किसी भी प्रदेश का पिंड कभी नहीं छूटने का...।”
मैंने देखा, जनार्दनजी अपनी चोटी-सी डायरी में नोट कर रहे हैं –“अरे! आप तो सचमुच...?”
“सचमुच नहीं तो और क्या ? ” वे डायरी अपने पाकेट में रखकर उठ खड़े हुए।
मैंने अपना प्रण पूरा किया। बाढ़ के पानी में पैर नहीं दिया। छत के रास्ते दूसरे फ्लैट की सीढि़यों से उतरकर – ईंटों पर पैर रखता हुआ-सड़क पर आया और रिक्से पर अकेला बैठकर उधर ही चला जिधर से बाढ़ के जल को पहले-पहल आते देखा था...रास्ते में देखा – दीवारों पर लाल दाग लगाकर अंग्रेजी में काले रंग से एच.एफ.एल. 75 लिखा जा रहा है। रास्ते चलते एक युवक ने दूसरे से कहा- “एफ.एल. तो सुना था। यह एच.एप.एल. क्या है भाई?”
सरकारी कर्मचारियों को पंद्रह दिनों का वेतन अग्रिम मिलेगा। सिर्फ पंद्रह ही दिनों का नहीं ...पुनर्विचार के बाद फैसला लिया गया है। एक महीने का वेतन बतौर मिलेगा जिसका भुगतान बाद में धीरे-धीरे किया जा सकेगा। सेना के सभी अंग राहत में लगे हुए हैं। जलसेना (नेवी) को भी सतर्क और तैयार रहने का आदेश दिया गया है। कॉफी हाउस खुला देखकर प्रसन्न हुआ। लेकिन, अंदर कदम रखते ही फफूंद की गंध लगी तो लौटना चाहा था। देखा, सारे कॉफी हाउस में बस एक मात्र सतीश आनंद – कला संगम नाट्य संस्था के प्राण – चुपचाप बैठे हैं। उनका चेहरा देखकर डरा – बाढ़ में निश्चय ही इनका बहुत नुकसान हुआ होगा, शायद ...मुझे देखकर उनका चेहरा तनिक खिला। बोले – “आज ही, अभी ही थोड़ी देर पहले खुला है। मैं ही पहला ग्राहक हूँ और आप दूसरे...”
“दूसरे तो सत्यनारायण ही हो सकते हैं...और क्या हाल हैं? इतने उदास क्यों हे?”
“उदास? जी, उदास नहीं चिंतित।”
“अरे राम। कॉफी है या क्लोरोकॉफी? ...कैसी चिंता? सार्वजनिक या व्यक्तिगत?”
“साहब, एक नया नाटक खेलने को सोचा था। वह तो अब निकट भविष्य क्या दूर भविष्य में भी...अजब है, स्टेज के लिए कोई लड़की या स्त्री मिल ही नहीं रही... ”
“आपने क्या उम्मीद की थी? इस बाढ़ में कहीं से भंसती हुई आ जायेगी?” मैंने पूछा।
सतीश अप्रतिभ हुए। फिर कुछ याद करके बोले – “इधर आपकी मुलाकात “यौनाचार्य” से नहीं हुई है? इस बाढ़ ने उनकी सारी दमित वासनाएँ...लीजिए, नाम लिया और आप प्रकट हो गये।” – सतीश ने बाहर की ओर देखकर कहा।
हमारे कॉफी हाउस के एक एडवोकेट मित्र है। पिछले साल हिंदी में यौन- मनोविज्ञान की कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित करवाया है। पुस्तक प्रकाशन के बाद मित्रों ने उन्हें ‘यौनाचार्य’ की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपना परिचय देते समय वह यह कहना नहीं चूकते कि वे चार-चार बार रस्टीकेट हो चुके हैं और यह कि वे छात्रों के ‘चिर नेता’ हैं और ताउम्र रहेंगे।
यौनाचार्य ने सगर्व स्वीकार किया – “भाई ! इस बाढ़ से पटना नगर और इसके नवागरिकों की जो भी तबाही हुई हो – मैं तो फायदे में क्या ...जो आज तक कभी नसीब नहीं-वह इस बाढ़ के प्रताप से या महिमा से कहिए तीन-तीन यंग लड़कियाँ और कई स्त्रियां मेरे घर में शरणार्थी होकर आयीं...सुबह में कोई चाय दे रही है तो कोई हलुआ तो कोई आमलेट तलकर ला रही है। कोई दोपहर को अपनी प्रेमकहानी कहती तो कोई रात में दो बजे तक गाना सुनाती। और मेरा बाथरूम चलकर जरा सूँघ लीजिए – नहीं विश्वास हो तो- लेवेंडर की सुरभि से सदा सुरभित रहता है ...अब आपको क्या बतायें?”
उस दिन ही नहीं, एक सप्ताह तक अपनी किस्मत खुलने का किस्सा लोगों को कॉफी पिला-पिलाकर सुनाते रहे। यहाँ तक कि दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार बाढ़ के सिलसिले में पटना आये थे। उनको भी अपना भाग्य फिरने का किस्सा सुनाने पहुँचे। होटल में मौका नहीं मिला तो हवाई अड्डे तक पहुँचकर वकत्व्य देने के लहजे में उनसे कहा- “साहब. आदमी क्या? इस बाढ़ में तो मछलियाँ भी ‘सेक्सी’ हो गयी थीं...”
मुझे उसी दिन लगा था कि यौनाचार्य अब ‘काम’ से गये। और इन पंक्तियों के लिखते समय उनके मित्रों से तथा स्वयं उनके मुँह से सुना कि उनकी अवस्था संगीन है। सिर चकराता है और सिर के अंदर ‘वैकुअम’ जैसा लगता है। आँखों के आगे सरसों के फूल नजर आते हैं। डाक्टरों ने कोई सिरियस रोग बताया है। जिसका संबंध –नाक तथा आंख के जरिए – दिमाग से है...भगवान उनको चंगा करें।
यों, पटना शहर भी बीमार ही है। इसके बाँह में हैजे की सूई का और दूसरी में टाइफायड के टीके का घाव हो गया है। पेट से ‘टेप’ करके जलोदर का पानी निकाला जा रहा है। आँखें जो कंजक्टिवाइटिस (जाये बांग्ला) से लाल हुई थीं- तरह-तरह की नकली दवाओं के प्रयोग के कारण क्षीणज्योति हो गयी है। कान तो एकदम चौपट ही समझिए- हियरयिंग एड से भी कोई फायदा नहीं। बस, ‘आइरन लंग्स’ अर्थात् रिलीफ की सांस के भरोसे अस्पताल के बेड पर पड़ा हुआ किसी तरह ‘हुक-हुक’ कर जी रहा है।
“ऊँ सर्वविघ्नानुत्सारय हुँ फट् स्वाहा...” (1975)
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