बदलते मौसम के अनुसार विभिन्न आवासीय क्षेत्रों में अलग-अलग जीव समूहों की सड़कों पर मरने की आवृत्ति में अंतर पाया गया है। इससे पहले अन्य अध्ययनों में भी वन्य क्षेत्रों में सड़कों को स्थानीय आवास के नुकसान, जीवों की गतिविधियों में बाधक, मिट्टी के कटाव, भूस्खलन, जल-तंत्र सम्बन्धी बदलाव, आक्रामणकारी पौधों के प्रसार और प्रदूषण के लिये जिम्मेदार पाया गया है।
सड़कों का जाल लगातार फैल रहा है। लेकिन, उष्ण कटिबंधीय एवं संरक्षित वन्य क्षेत्रों में सड़क निर्माण का असर स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र, वन्यजीवों और वाहनों की चपेट में आने से वन्यजीवों की मृत्यु के मामले बढ़ रहे हैं। भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में ये तथ्य उभरकर आए हैं।अध्ययनकर्ताओं के अनुसार सड़कों पर वन्यजीवों की सबसे अधिक मौतें मानसून के दौरान होती हैं। गर्मी के मौसम में वाहनों की चपेट में आकर जान गंवाने वाले जीवों की अपेक्षा मानसून में मरने वाले जीवों की संख्या 2.4 प्रतिशत अधिक दर्ज की गई है।
पश्चिमी घाट के वाल्परई पठार, अन्नामलाई टाइगर रिजर्व और इसके आस-पास के क्षेत्रों के आश्रय-स्थलों और मौसम को केंद्र में रखकर मैसूर स्थित नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के शोधकर्ताओं द्वारा यह अध्ययन किया गया है। सड़क पर वाहनों की चपेट में आने से सर्वाधिक 44 प्रतिशत उभयचर जीवों की मौत होती है और मानसून में मेंढक जैसे उभयचर जीव सड़क पर सबसे अधिक वाहनों का शिकार बनते हैं।
अध्ययन के दौरान 3-12 किलोमीटर लंबे ग्यारह सड़क-खंडों का 9-12 बार मानसून और गर्मी के मौसम में सर्वेक्षण किया गया है। घोंघे जैसे जीव (मालस्क), उभयचर जीव, रेंगने वाले जीव, पक्षी, केंचुए जैसे ऐनेलिडा समूह के खंडयुक्त कीड़े, मकड़ी एवं बिच्छू जैसे अष्टपाद कीट (ऐरेक्निड), शतपाद कीट (सेन्टिपीड), केकड़े, सहस्रपाद जीव (मिलपीड) और स्तनधारी जीवों के ग्यारह वर्ग-समूहों के अलावा अज्ञात वर्ग के जीव अध्ययन में शामिल हैं। कशेरुकी और अकशेरुकी जीवों को दो विस्तृत वर्गीकरण के आधार पर अध्ययन में शामिल किया गया है।
सड़क पर मरने वालों में 14 प्रतिशत रेंगने वाले जीव पाए गए हैं, जिनमें सर्वाधिक 80 प्रतिशत से अधिक संख्या सांपों की होती है। इन जीवों में सिपाही बुलबुल, इंडियन स्किमिटर बैबलर, व्हाइट थ्रॉट किंगफिशर, गुलदुम बुलबुल समेत पक्षियों की अन्य कई प्रजातियाँ शामिल हैं। इसके अलावा चूहे, धारीदार गिलहरी, चमगादड़, छछूंदर, ब्लैक नेप्ड हेयर, बोनट मकॉक, इंडियन क्रेस्टेड पोर्क्यूपाइन, इंडियन पाम स्क्वीरल, ब्राउन पाम सीवेट, केंचुए, घोंघे, तितलियाँ और मकड़ियों समेत कीट-पतंगों की प्रजातियाँ भी वाहनों की चपेट में आने से मारी जाती हैं।
बदलते मौसम के अनुसार विभिन्न आवासीय क्षेत्रों में अलग-अलग जीव समूहों की सड़कों पर मरने की आवृत्ति में अंतर पाया गया है। इससे पहले अन्य अध्ययनों में भी वन्य क्षेत्रों में सड़कों को स्थानीय आवास के नुकसान, जीवों की गतिविधियों में बाधक, मिट्टी के कटाव, भूस्खलन, जल-तंत्र सम्बन्धी बदलाव, आक्रामणकारी पौधों के प्रसार और प्रदूषण के लिये जिम्मेदार पाया गया है।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार “वाहनों एवं पर्यटकों की बढ़ती आवाजाही, सड़कों का चौड़ीकरण, सड़कों के किनारे स्थानीय पौधों की प्रजातियों को हटाने और दीवार खड़ी करने से वन्यजीवों की गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। ऐसे क्षेत्रों के लिये सड़कों का डिजाइन कुछ इस तरह होना चाहिए, जिससे जीवों की गतिविधियाँ प्रभावित न हों और उन्हें मरने से बचाया जा सके। सड़कों पर विभिन्न जीवों के मरने की आवृत्ति और मौसम एवं आवास के आधार पर इसमें पायी जाने वाली विविधता से जुड़ी जानकारियाँ इस दिशा में कारगर हो सकती हैं।”
यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है। अध्ययनकर्ताओं की टीम में पी. जगन्नाथन, दिव्या मुदप्पा, एम. आनंद कुमार और टी.आर. शंकर रमन शामिल थे।
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