देश के उत्तरी इलाकों में भी इस वर्ष उम्मीद से कम वर्षा हुई है। मौसम विभाग द्वारा प्राप्त आंकड़ों पर गौर करें तो 1 जून से लेकर 21 जुलाई के मध्य इन इलाकों में औसत से 59 फीसदी तक कम वर्षा रिकार्ड की गई है। मानसून के असमान होने पर एक ओर जहां परोक्ष रूप से खाद्यान्न उत्पादन पर असर पड़ता है वहीं प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव किसानों की अर्थव्यवस्था पर भी नजर आता है। जो आज भी पूरी तरह से इसी पर निर्भर हैं। वर्षा के कम होने से पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा के धान की खेती करने वाले किसानों विशेषकर गरीब किसानों की चिंताएं बढ़ गई हैं। मौसम विभाग ने इस वर्ष देश में अच्छे मानसून की भविष्यवाणी की थी। बहुत हद तक यह सच भी साबित हुई। सरकार और आम आदमी के साथ साथ मानसून पर निर्भर रहने वाले किसान को भी फसल अच्छी होने की उम्मीद थी। लेकिन पूर्वानुमान के विपरीत मेघ राजा ने सभी राज्यों में समान रूप से अपना आशीर्वाद नहीं दिया। मध्य और दक्षिण भारत मूसलाधार बारिश और बाढ़ से परेशान रहा तो पूर्वी इलाकों में यह औसत से भी कम होने के कारण सूखा जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी है। सूत्रों के अनुसार इस साल मानसून के समय से पहले आने के आसार को देखते हुए बुआई 15 फीसदी से भी अधिक बढ़ गई थी। लेकिन अब इसके रूठने से एक बार फिर से सबकी चिंता बढ़ गई है। मौसम विभाग से मिली जानकारी के अनुसार 29 जुलाई तक देश भर में सामान्य से 17 प्रतिशत अधिक बारिश हुई है। इनमें मध्य प्रदेश जैसे मध्य भारत में 60 से 80 फीसदी अधिक वर्षा रिकार्ड की गई है। जबकि इसके विपरीत पूर्वी भारत में एक जून से लेकर अभी तक सामान्य से 34 फीसदी कम बारिश हुई है। जबकि इन्हीं इलाकों में सबसे अधिक धान की बुआई होती है और धान की बुआई के लिए अत्याधिक वर्षा को ही वरदान माना जाता है। कमजोर मानसून से पश्चिम बंगाल में धान की बुआई देर से शुरू हुई है।
देश के उत्तरी इलाकों में भी इस वर्ष उम्मीद से कम वर्षा हुई है। मौसम विभाग द्वारा प्राप्त आंकड़ों पर गौर करें तो 1 जून से लेकर 21 जुलाई के मध्य इन इलाकों में औसत से 59 फीसदी तक कम वर्षा रिकार्ड की गई है। मानसून के असमान होने पर एक ओर जहां परोक्ष रूप से खाद्यान्न उत्पादन पर असर पड़ता है वहीं प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव किसानों की अर्थव्यवस्था पर भी नजर आता है। जो आज भी पूरी तरह से इसी पर निर्भर हैं। वर्षा के कम होने से पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा के धान की खेती करने वाले किसानों विशेषकर गरीब किसानों की चिंताएं बढ़ गई हैं। नियमित बारिश नहीं होने के कारण यहां के किसानों को धान की नर्सरी तैयार करने में काफी मुश्किल आ रही है। ऐसे में कम समय में तैयार होने वाली फ़सलों और सीधे बीजों की बुआई करने के विकल्प तलाश रहे हैं या फिर उनके सामने कृषि के अतिरिक्त दूसरा व्यवसाय अपनाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। दोनों ही हालत में नुकसान कृषि का ही होगा। पिछले कई वर्षों से हम खाद्यान्न उत्पादन का रिकार्ड बनाकर खुद की पीठ थपथपाने में लगे हुए हैं। लेकिन इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस वर्ष बारिश कम होगी हमारे पास रिकार्ड को बनाए रखने के लिए क्या क्या उपाए हैं?
कुछ ऐसा ही हाल बिहार में भी देखने को मिल रहा है। वर्षा देव के रूठने के कारण इस राज्य के अधिकतर जिलों में बहुत कम मात्रा में बुआई होने के आंकड़े प्राप्त हो रहे हैं। जबकि कुछ जिलों में अत्याधिक वर्षा से बाढ़ की स्थिती उत्पन्न हो गई है। जो आने वाले सालों में खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार संतोष सारंग कहते हैं कि बाढ़ और सूखा बिहार की नियति बन चुकी है। कोसी, बागमती एवं गंगा के कुछ मैदानी इलाकों में बाढ़ किसानों के लिए त्रासदी बनी हुई है, तो राज्य के शेष हिस्से सूखे की चपेट में हैं। राज्य के सिर्फ 8 जिले सीवान, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, मधेपुरा, अरवल, कटिहार, बेगूसराय व पूर्णिया में सामान्य बारिश हुई है। सीतामढ़ी, वैशाली, गया, नवादा, औरंगाबाद व लखीसराय जिलों की स्थिति काफी खराब है। इन जिलों में 60 से 100 फीसदी कम बारिश हुई है। राज्य के 10 जिले ऐसे हैं, जहां 10 फीसदी से भी कम धान की रोपनी हो सकी है।
ये जिले हैं-जमुई, नवादा, नालंदा, शेखपुरा, गया, जहानाबाद, लखीसराय, भोजपुर, बांका, औरंगाबाद। इस वर्ष राज्य में 34 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की रोपनी का एवं 91 लाख टन धान उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब नहीं लगता है कि यह लक्ष्य प्राप्त होगा। मुज़फ्फरपुर स्थित कुढ़नी प्रखंड के बसौली पंचायत के अनेक किसानों को इस वर्ष वर्षा नहीं होने पर फसल खराब होने की चिंता सता रही है। खेतों में उचित मात्रा में पानी नहीं मिलने से धान की खड़ी फसल बर्बाद होने का खतरा मंडराने लगा है। किसान खेतों में बिचड़ा डालकर तैयार हैं। लेकिन मौसम की बेरुखी से लगता है इस वर्ष मायूसी ही हाथ लगेगी। अब खेतों में सिचाई के लिए पंपिग सेट ही एकमात्र सहारा है। लेकिन डीजल महंगा होने के कारण सभी किसानों की जेब तक इसकी पहुंच मुमकिन नहीं हो पा रही है। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती है, इसके अतिरिक्त यहां के औसत किसान कृषि से संबंधित अनेक समस्याएं ग्रसित हैं। पिछले कुछ वर्षों में यहां बाढ़ की समस्या ने फसल को खराब किया है। लेकिन इस बार वर्षा नहीं होने के कारण समस्या उत्पन्न हो गई है। कृषि में होने वाली कठिनाइयों के कारण गांव से युवाओं का पलायन हो रहा है। नौजवान रोजी रोटी के लिए खेती से अधिक परदेस जाने को प्राथमिकता दे रहे हैं। गांव के 55 वर्षीय किसान राज किशोर यादव के अनुसार फसल को पूर्णतः या अंशतः क्षति होने पर मुआवज़े के रूप में सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता राशि भी राजनीति की शिकार होकर रह जाती हैं। ऐसे में चुनौतियों से स्वंय लड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है।
आर्थिक स्तर पर मज़बूती और बढ़ते औद्योगिकीकरण के बावजूद भारत को आज भी कृषि प्रधान देश के रूप में ही माना जाता है। इसके लिए समय-समय पर प्रभावी नीतियाँ लागू करने का प्रयास भी किया जाता रहा है। परिणामस्वरूप कभी खाद्यान्न संकट से गुजरने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि वह अब दूसरे देशों को निर्यात भी करता हैं। लेकिन इसके बावजूद समन्वय और जागरूकता में कमी हमें अब भी शत-प्रतिशत आत्मनिर्भर बनाने में बाधक बन रहा है। इस देश में बिजली, फोन, इंटरनेट और टीवी जैसे बड़े बड़े विकास के साधन के साथ साथ कृषि भी विकास की मुख्य धारा में शामिल है। इस धारा के प्रवाह में तेजी लाने के लिए समय-समय पर सरकार की ओर से कई प्रकार की कार्य योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिनमें राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना और किसान कॉल सेंटर प्रमुख है। परंतु यह योजनाएं जो एक पहल के रूप में सामने लाई जाती हैं क्या वह सार्थक रूप से किसानों तक पहुंच पाती है? क्या ज़मीन पर उन योजनाओं का सही अर्थों में क्रियान्वयन हो पाता है? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढे बगैर हम कृषि में स्वंय को आत्मनिर्भर नहीं बना सकते हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश जहां देश की 70 प्रतिशत आबादी इसी पर आश्रित हैं, यदि कृषि को प्राकृतिक आपदा से बचाने के दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिती भयानक हो सकती है। किसानों के सामने चुनौतियाँ मुंह बाए खड़ी है। जिसका समाधान कहीं नजर नहीं आ रहा है। उन्हें एकमात्र उम्मीद सरकार से है। जिसके पास कृषि रोड मैप तो है लेकिन उस मैप में किसानों की समस्या का समाधान नजर नहीं आ रहा है।
देश के उत्तरी इलाकों में भी इस वर्ष उम्मीद से कम वर्षा हुई है। मौसम विभाग द्वारा प्राप्त आंकड़ों पर गौर करें तो 1 जून से लेकर 21 जुलाई के मध्य इन इलाकों में औसत से 59 फीसदी तक कम वर्षा रिकार्ड की गई है। मानसून के असमान होने पर एक ओर जहां परोक्ष रूप से खाद्यान्न उत्पादन पर असर पड़ता है वहीं प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव किसानों की अर्थव्यवस्था पर भी नजर आता है। जो आज भी पूरी तरह से इसी पर निर्भर हैं। वर्षा के कम होने से पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा के धान की खेती करने वाले किसानों विशेषकर गरीब किसानों की चिंताएं बढ़ गई हैं। नियमित बारिश नहीं होने के कारण यहां के किसानों को धान की नर्सरी तैयार करने में काफी मुश्किल आ रही है। ऐसे में कम समय में तैयार होने वाली फ़सलों और सीधे बीजों की बुआई करने के विकल्प तलाश रहे हैं या फिर उनके सामने कृषि के अतिरिक्त दूसरा व्यवसाय अपनाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। दोनों ही हालत में नुकसान कृषि का ही होगा। पिछले कई वर्षों से हम खाद्यान्न उत्पादन का रिकार्ड बनाकर खुद की पीठ थपथपाने में लगे हुए हैं। लेकिन इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस वर्ष बारिश कम होगी हमारे पास रिकार्ड को बनाए रखने के लिए क्या क्या उपाए हैं?
कुछ ऐसा ही हाल बिहार में भी देखने को मिल रहा है। वर्षा देव के रूठने के कारण इस राज्य के अधिकतर जिलों में बहुत कम मात्रा में बुआई होने के आंकड़े प्राप्त हो रहे हैं। जबकि कुछ जिलों में अत्याधिक वर्षा से बाढ़ की स्थिती उत्पन्न हो गई है। जो आने वाले सालों में खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार संतोष सारंग कहते हैं कि बाढ़ और सूखा बिहार की नियति बन चुकी है। कोसी, बागमती एवं गंगा के कुछ मैदानी इलाकों में बाढ़ किसानों के लिए त्रासदी बनी हुई है, तो राज्य के शेष हिस्से सूखे की चपेट में हैं। राज्य के सिर्फ 8 जिले सीवान, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, मधेपुरा, अरवल, कटिहार, बेगूसराय व पूर्णिया में सामान्य बारिश हुई है। सीतामढ़ी, वैशाली, गया, नवादा, औरंगाबाद व लखीसराय जिलों की स्थिति काफी खराब है। इन जिलों में 60 से 100 फीसदी कम बारिश हुई है। राज्य के 10 जिले ऐसे हैं, जहां 10 फीसदी से भी कम धान की रोपनी हो सकी है।
ये जिले हैं-जमुई, नवादा, नालंदा, शेखपुरा, गया, जहानाबाद, लखीसराय, भोजपुर, बांका, औरंगाबाद। इस वर्ष राज्य में 34 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की रोपनी का एवं 91 लाख टन धान उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब नहीं लगता है कि यह लक्ष्य प्राप्त होगा। मुज़फ्फरपुर स्थित कुढ़नी प्रखंड के बसौली पंचायत के अनेक किसानों को इस वर्ष वर्षा नहीं होने पर फसल खराब होने की चिंता सता रही है। खेतों में उचित मात्रा में पानी नहीं मिलने से धान की खड़ी फसल बर्बाद होने का खतरा मंडराने लगा है। किसान खेतों में बिचड़ा डालकर तैयार हैं। लेकिन मौसम की बेरुखी से लगता है इस वर्ष मायूसी ही हाथ लगेगी। अब खेतों में सिचाई के लिए पंपिग सेट ही एकमात्र सहारा है। लेकिन डीजल महंगा होने के कारण सभी किसानों की जेब तक इसकी पहुंच मुमकिन नहीं हो पा रही है। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती है, इसके अतिरिक्त यहां के औसत किसान कृषि से संबंधित अनेक समस्याएं ग्रसित हैं। पिछले कुछ वर्षों में यहां बाढ़ की समस्या ने फसल को खराब किया है। लेकिन इस बार वर्षा नहीं होने के कारण समस्या उत्पन्न हो गई है। कृषि में होने वाली कठिनाइयों के कारण गांव से युवाओं का पलायन हो रहा है। नौजवान रोजी रोटी के लिए खेती से अधिक परदेस जाने को प्राथमिकता दे रहे हैं। गांव के 55 वर्षीय किसान राज किशोर यादव के अनुसार फसल को पूर्णतः या अंशतः क्षति होने पर मुआवज़े के रूप में सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता राशि भी राजनीति की शिकार होकर रह जाती हैं। ऐसे में चुनौतियों से स्वंय लड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है।
आर्थिक स्तर पर मज़बूती और बढ़ते औद्योगिकीकरण के बावजूद भारत को आज भी कृषि प्रधान देश के रूप में ही माना जाता है। इसके लिए समय-समय पर प्रभावी नीतियाँ लागू करने का प्रयास भी किया जाता रहा है। परिणामस्वरूप कभी खाद्यान्न संकट से गुजरने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि वह अब दूसरे देशों को निर्यात भी करता हैं। लेकिन इसके बावजूद समन्वय और जागरूकता में कमी हमें अब भी शत-प्रतिशत आत्मनिर्भर बनाने में बाधक बन रहा है। इस देश में बिजली, फोन, इंटरनेट और टीवी जैसे बड़े बड़े विकास के साधन के साथ साथ कृषि भी विकास की मुख्य धारा में शामिल है। इस धारा के प्रवाह में तेजी लाने के लिए समय-समय पर सरकार की ओर से कई प्रकार की कार्य योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिनमें राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना और किसान कॉल सेंटर प्रमुख है। परंतु यह योजनाएं जो एक पहल के रूप में सामने लाई जाती हैं क्या वह सार्थक रूप से किसानों तक पहुंच पाती है? क्या ज़मीन पर उन योजनाओं का सही अर्थों में क्रियान्वयन हो पाता है? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढे बगैर हम कृषि में स्वंय को आत्मनिर्भर नहीं बना सकते हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश जहां देश की 70 प्रतिशत आबादी इसी पर आश्रित हैं, यदि कृषि को प्राकृतिक आपदा से बचाने के दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिती भयानक हो सकती है। किसानों के सामने चुनौतियाँ मुंह बाए खड़ी है। जिसका समाधान कहीं नजर नहीं आ रहा है। उन्हें एकमात्र उम्मीद सरकार से है। जिसके पास कृषि रोड मैप तो है लेकिन उस मैप में किसानों की समस्या का समाधान नजर नहीं आ रहा है।
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