मानसून और मेघदूतों से टूटता रिश्ता

तीन पैसे में सौ लीटर पानी कंपनियों को प्राप्त हो रही हैं, और हमसे कंपनियां एक लीटर का 15 रुपए वसूल कर रहीं हैं। मुनाफे के इस कारोबार के खिलाफ कोई आवाज सुनाई नहीं देता

जल धरती पर प्रकृति का वरदान है। जीवन के किसी रूप की इसके बिना कल्पना नहीं की जा सकती। अपने तरल अवस्था में ज्यादा इस्तेमाल होता है। पर जल की कई रासायनिक अवस्थाएं हैं, ठोस यानी बर्फ और भाप के भी रूप में भी धरती पर जल की उपस्थिति है। धरती का तीन चैथाई भाग ‘जलमय’ है। मानव शरीर का भी तीन-चैथाई भाग ‘जलमय’ है। संसार का हरेक प्राणी जल का ‘तलबगार’ है। शायद यही कारण है कि जल को ‘जीवन’ कहा जाता है।

हमें पर्वतों, पर्वतों से झरने, झरने से नदियों के साथ ही ताल-तलैयों, कुओं-बावडि़यों से पानी प्राप्त होता है। हमारी अनदेखी, नासमझी और स्वार्थ के साथ ही तकनीकी प्रयोगों के अहंकार ने पानी को दुर्लभ किया है। जीवन के पांच तत्वों में से एक पानी हमारे जीवन से दूर होता जा रहा है। जीवन की उत्पत्ति का पहला स्रोत पानी में से अब लगभग जीवन खत्म हो चुका है। किसी भी नदी में जल-जीवन अधिकांश खत्म हो चुका है।

पानी पर किसकी मालकियत हो? यह सवाल अब गंभीर होता जा रहा है। पानी लोक जीवन और मानस से दूर होता जा रहा है। पानी अब लोगों की प्यास बुझाने के बजाय मुनाफे की प्यास बुझाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है।

बोतलों में बंदकर पानी, जल बोर्डों पर काबिज होती कंपनियां, नदियों-बांधों के पानी को अपने लिए खरीदकर मुनाफे की प्यास को बड़ा करने में लगी हुई हैं। दुनिया की दस बड़ी कंपनियां पानी के हर अच्छे स्रोत पर निगाह लगाए हुए हैं। इनमें प्रमुख हैं- फ्रांस की विवेंडी एनवायरमेंट, स्वेज लियोनेज और सौर, जर्मनी-इंग्लैण्ड की आईडब्ल्यू.ई-टेम्स वाटर, इंग्लैण्ड की स्वेर्न ट्रेन्ट, अमेरिका की एंग्लेकन वाटर, बैश्टेल, मोनसांटो और एनरॉन।

बोतलबंद पानी के लिए हमारे द्वारा खर्च किए गए 15 रुपए में क्या आप सोच सकते हैं कि इसमें चार हजार गुना से ज्यादा का मुनाफा है। दिल्ली में पानी और कोल्डड्रिंक कंपनियां एक हजार लीटर भू-जल निकालने के एवज में सिर्फ 30 पैसा टैक्स के रूप में चुका रही हैं। 3 पैसे में 100 लीटर पानी कंपनियों को प्राप्त हो रहे हैं। और हमसे कंपनियां एक लीटर का 15 रुपए वसूल कर रही हैं। मुनाफा के इस नमूने के बारे में आप क्या सोचते हैं?

पानी की उपलब्धता के साथ ही एक और जो बड़ा सवाल है कि जो उपलब्ध पानी है क्या वह पीने लायक है? फूहड़ ओद्यौगीकरण, बढ़ती जनसंख्या और उचित समझ के अभाव ने पानी की गुणवत्ता को प्रभावित किया है। पांच नदियों के दो-आब पंजाब जहां पानी की भरपूर उपलब्धता है। फिर भी पंजाब का पानी मौत बांट रहा है। पंजाब के पानी में आर्सेनिक, नाइट्रेट और यूरेनियम का प्रदूषण लोगों को प्रभावित कर रहा है।

नदियां धीरे-धीरे ‘रीवर से सीवर’ में बदलती जा रही है। देश में रोजाना 80 लाख घनमीटर जल-मल पैदा होता है। सरकारें इसको साफ करना चाहती हैं। मल-जल का एक तिहाई हिस्सा भी सरकारें उपचारित (ट्रीटमेंट) नहीं कर पा रहीं हैं। मल-जल के नाम पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाना पानी में मुनाफे का एक और बड़ा उपकरण है। मल-जल ट्रीटमेंट को सरकारें ऐसा प्रचारित कर रहीं हैं, जैसे यदि मल-जल का ट्रीटमेंट कर दिया जाए तो नदियां सदानीरा हो जाएंगी।

राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) की रिपोर्ट के अनुसार देश की नदियों का 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है। इस प्रदूषण में सबसे बड़ी भूमिका मल-जल की होती है पर क्या कभी हमने सोचा है कि सचमुच मानव मल और मूत्र एक समस्या है?

रासायनिक उर्वरकों पर 50 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा सरकार सब्सिडी देती है। और रासायनिक उर्वरक हर हालत में पानी-प्रदूषण के स्थायी कारक बनते हैं। सरकारों की समझ में कभी आता ही नहीं कि मानव-मल रासायनिक उर्वरकों के अच्छे विकल्प हैं। मानव-मल और मूत्र प्राकृतिक चक्र का हिस्सा हैं। शौचालयों का वर्तमान डिजाइन मानव-मल और मूत्र जैसे कीमती प्राकृतिक खाद को सीवेज में मिला देता है। जिससे सीवेज की समस्या दिन-प्रतिदिन बद-से-बदतर होती जा रही है। शौचालयों के डिजाइन में पर्यावरण अनुकूल परिवर्तन को ‘इकोसैनिटेशन’ कहा जाता है। शार्टफार्म में ईकोसैन भी कहते हैं।

सरकारें ईकोसैन को बढ़ावा नहीं दे रही हैं क्योंकि इससे हमारी जीडीपी नहीं बढ़ती, हालांकि हमारा पानी-पर्यावरण जरूर ठीक होता है। क्योंकि ईकोसैन से उर्वरकों का एक बड़ा हिस्सा हम मानव-मल और मूत्र से ही पैदा कर लेगें। पर इससे रासायनिक खाद बनाने वाली कंपनियां और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चलाने वाली कंपनियों का घाटा होगा। जिससे हमारी जीडीपी कम हो जाएगी। इसलिए सरकार ईकोसैन को अपने एजेंडे में शामिल नहीं करना चाहती।

कुओं की खुदाई करते समय बुंदेलखंड में खोदते-खोदते उनके कुंओं में जब पानी आना शुरू होता है तब वे गंगा मैया की जय हो, का जयकारा लगाते हैं। लोकमानस में यह पूरी तरह अंकित है कि हमारे जमीन का पानी भी गंगा-जल जितना ही पवित्र है और हमारे कुओं में आया पानी भी गंगा मैया के प्रताप का ही परिणाम है।

देश की दो तिहाई से ज्यादा खेती भू-जल से ही होती है। देश की दो तिहाई आबादी की प्यास भू-जल से ही पूरी होती है। अनगिनत हैंडपम्प, कुएं, जेटपंप, ट्यूबवेल, और बोरवेल लाखों-करोड़ों लीटर पानी धरती के सीने से उलीच रहे हैं। धरती की प्यास बढ़ती जा रही है।

देश के एक तिहाई से भी अधिक हिस्से में जल संकट पैदा हो गया है। देश के कुल 5723 ब्लॉकों में से 839 अधिकाधिक जल दोहन के कारण डार्क जोन घोषित हो चुके हैं। 80-90 के दशक और अब भी जारी ट्यूबवेल और बोरवेल पर सब्सिडी इसका एक बड़ा कारण है।

सरकारें हमेशा मानती हैं कि जब किसी इलाके में जल संकट आता है तो एक और बड़ा गहरा बोरवेल खोद दिया जाए। जल-दोहन के कारण जब धरती के ≈परी सतह से पानी जब खत्म हो जाता है, तब सरकारें 200-400 फीट तक के गहराई तक बोरवेल खोदती हैं। इसके बाद धरती के सीने के मध्य परत से जब पानी खत्म होता है तो सरकारें 600-800 फीट गहराई की बोरवेल खोद देती हैं और अब तो कहीं-कहीं 600-800 फीट तक की गहराई में भी पानी खत्म होता जा रहा है। इसकी वजह से कहीं-कहीं तो 2000 फीट तक के गहराई के बोरवेल खोदे जाने लगे हैं।

‘तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा’ इस नारे के साथ लोगों को डराने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। पानी संकट के रोज नए-नए उदाहरण पेश किए जा रहे हैं। लोगों को डरा-डरा कर कोशिश यह की जा रही है कि लोग पानी बचाएं। ‘जल ही जीवन है’ जैसे स्लोगन देने वाले लोगों तक को पता नहीं कि पानी अक्षय स्रोत है। हमारे बहे पानी को मानसून हमें लौटा कर देती है। धरती के हर जल-स्रोत को पानी की आपूर्ति करने का काम हमारा मानसून करता है। मानसून और उनके मेघदूतों से हमारा रिश्ता टूट रहा है, जिससे नीर की पीर, और घनी होती जा रही है।

(लेखक इंडिया वाटर पोर्टल के मॉडरेटर हैं)
 

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