मानसून और लोकवाणी

यह तथ्य है कि कृषि प्रधान देश भारत गाँवों में बसता है, जहां लोगों का मुख्य धंधा खेतीबाड़ी करना है। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, कहावतों का अधिक प्रचलन गाँवों में है। इसलिए स्वाभाविक है कि कृषि संबंधी ऐसी अधिक कहावतें कही जाती हैं जिनका संदर्भ वर्षा अथवा सूखा से होता है। ऐसी अधिकांश कहावतें घाघ और भड्डरी के नाम से कही गई है। कई इलाकों में सिंचाई सुविधाओं के अभाव से वर्षा का महत्व अधिक बढ़ जाता है। सामान्यतः अब भी अपने देश में कृषि वर्षा पर विशेषकर मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। अतएव कृषि संबंधी अनेक कहावतें वर्षा होने या न होने का संकेत देती है। वर्षा के संबंध में ऐसी कहावतों का कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है, किंतु युगों-युगों से चली आ रही ऐसी परंपरागत कहावतों में अनुभव और बुद्धि का पुट है जिसकी वजह से आज के ग्रामवासी किसानों का इन पर अटूट विश्वास है।

इस प्रकार की कहावतों के पीछे कोई घटना या कथा नहीं है, पर ये काफी लोकप्रिय हो गई है। खेती के लिए खेती अनुकूल अथवा प्रतिकूल मौसम के अनुमान तथा भविष्यवाणी संबंधी प्रचलित कहावतों को यहां संजोया गया है।

सावन शुक्ला सप्तमी, छुप के उगे भान,
घाघ कहे घाघिन से, छप्पर उपजे धान।


ऐसी मान्यता है कि सावन मास की शुक्ल सप्तमी को सूरज बादलों में छिपकर उदय हो तो सावन महीने में ही भारी वर्षा की संभावना है जिससे छप्पर पर भी धान के गिरे दानों से पौधे उग जाएंगे।

अगहर खेती अगहर मार।
घाघ कहैं वो कबहुं न हार।।


इस कहावत में दो बातों को एक साथ रखा गया है। खेती और मारपीट के मामलों में पहल करने वाले लोग कभी नहीं हारते। साधारणतः यह ठीक है कि लड़ाई झगड़े में पहल करने की नीति को सर्वत्र श्रेय दिया गया है। खेती के मामले में हमेशा अगहर होना लाभदायक नहीं होता। फिर भी खेती में आगे या पहले बौनी करने से लाभ की संभावना अधिक रहती है।

आम्बाझौर बहै पुरवाई।
तौ जानो बरखा रितु आई।।


यदि कुछ दिनों तक जोरों के साथ पुरवा हवा चले तो समझना चाहिए वर्षाऋतु आने वाली है। यह बात उत्तरी और पूर्वी भारत के लिए सही है परंतु पश्चिमी भारत में पश्चिमी हवा से भी पानी बरसता है। पुरब हवा में नमी होती है, जो बंगाल की खाड़ी के उठे हुए मानसून पवन के साथ चलती है। इस कहावत में आम्बाझौर शब्द सारगर्भित है। आमों की झौर गिराने वाली तेज हवा जो पूर्व से आती है, होली के आस-पास बैसाख तक सूखी पछुवा हवा बहती है जिससे पेड़ों के पत्ते झर जाते हैं। चैत्र बैसाख में आम फलते-फूलते हैं। जेठ-आषाढ़ में पुरवा हवा चलने लगती है। जब लगातार यह हवा काफी दिनों तक चले तो समझना चाहिए कि वर्षा होगी। मौसम संबंधी यह एक महत्वपूर्ण संकेत है।

अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।

काम बिगड़ जाने पर पछताने से क्या होता है। पश्चाताप से काम बनता नहीं। जब मनुष्य कुछ कर सकता था, जिससे दुःखपूर्ण स्थिति उत्पन्न न हो, परंतु तब ध्यान नहीं दिया। बाद में बिगड़ जाने पर पछताने से बिगड़ा काम नहीं बनता। अगर खेत की रखवाली करता तो चिड़िया खेत न चुग पाती, नुकसान न होता। परंतु तब तो कुछ न किया जब आवश्यक था अब खेत चुग जाने पर पश्चाताप से कोई लाभ नहीं। इस कहावत में समय पर काम करने की बड़ी अच्छी सीख है। किसानों को इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है कि उनका खेत चुग जाए। यदि ऐसे महत्वपूर्ण कार्य के प्रति सजग नहीं रह सकते तो पछताना ही पड़ेगा और ऐसे में पछताने से भी कोई लाभ नहीं होगा।

संत कबीर के द्वारा कहा गया पूरा दोहा इस प्रकार है-
आछे दिन पाछे गए, गुरू से किया न हेत,
अब पछताये होत क्या, चिड़ियां चुग गई खेत।


भक्त कवि कबीर के अनुसार गुरु की महिमा अपरंपार है, बिना गुरु के जीवन सार्थक नहीं है। उन्होंने स्वीकार किया कि अच्छे दिन व्यतीत हो जाएं और गुरु से नेह नहीं लगा पाओ तो वही बात हुई कि चिड़ियों द्वारा पूरा खेत चुग लिए जाने पर बैठकर पछताए जाए।

उदे अगस्त फूले वन कास।
अब छाड़ौ बरखा के आस।।


अगस्त नक्षत्र के उदय हो जाने पर और कांस फूलने के बाद वर्षा की आशा नहीं करनी चाहिए क्योंकि तब तक वर्षा के महीने सावन-भादों बीत चुके होते हैं या बीत रहे होते हैं। यह मौसम संबंधी संकेत किसानों के लिए है। हमारी खेती वर्षा पर निर्भर है। अब नहरों के खुद जाने से और ट्यूबवेल लग जाने से कुछ सुविधा हो गई है फिर भी हमारी अधिकांश खेती वर्षा पर निर्भर होती है, क्योंकि गर्मी में सूखी धरती साधारण सिंचाई से गीली नहीं होती है।

उतरे जेठ जो बोले दादुर।
कहैं भड्डरी बरसें बादर।


ज्येष्ठ मास के समाप्त होते-होते यदि मेढ़क बोले तो समझना चाहिए कि बादल पानी बरसाएंगे। भड्डरी की कहावतें भी काफी प्रचलित है। घाघ की तरह भड्डरी ब्राह्मणों में एक जाति भी होती है, जो भिक्षावृत्ति और ज्योतिष के सहारे अपना जीवन पालन करती है। अतः भड्डरी के नाम से प्रख्यात कहावतें, किसी एक व्यक्ति की बनाई नहीं हो भी सकती है। भड्डरी ज्योतिषी को भी कहते हैं। अतः भविष्य विचार और भाषण का कार्य कोई भी भड्डरी कर सकता है। ‘कहै भड्डरी’ या ‘ऐसा बोले भड्डरी’ का मतलब यह भी हो सकता है कि ज्योतिषी ऐसा कहता है न कि कोई खास व्यक्ति जिसका नाम भड्डरी है। भड्डरी के नाम से प्रचलित अधिकांश कहावतें इसी प्रकार की हैं जिनका ज्योतिष से कुछ संबंध है। अभी तक भड्डरी नाम का जीवन वृत्त प्राप्त भी नहीं हुआ है पर मौसम संबंधी कहावत प्रचलित हो गई है।

उदित अगस्त पंथ जल सोखा।

अगस्त नक्षत्र के उदय होने पर वर्षाऋतु का अंत समझना चाहिए। रास्तों में बहने वाला पानी सूख जाता है। गाँवों की कच्ची गलियों तथा बैलगाड़ियों की लीकों में पानी भर जाता है। वस्तुतः पानी का भी वही मार्ग बन जाता है, जो मनुष्यों के जाने का है। परंतु बरसात समाप्त होने पर रास्तों का पानी सूख जाता है और आवागमन प्रारंभ हो जाता है। ज्येष्ठ मास में तेज धूप के कारण यात्रा का निषेध है, परंतु चौमासे में भी बरसात यात्रा वर्जित है। बौद्ध जो हमेशा विचरण करते रहते थे वर्षाऋतु में संघ-विहारों में विश्राम करते थे। अस्तु, अगस्त नक्षत्र के उदय होने पर वर्षाऋतु का अंत हो जाता है और रास्ते खुल जाते हैं।

जो फागुन मास बहै पुरवाई।
तो जान्यों गेहूं गेरुई थाई।।


फागुन के महीने में जब गेहूं पक जाता है और कटनी शुरू हो जाती है, उस समय यदि पछुवा हवा न चली पुरवा नम हवा चली तो गेहूं ठीक से सूख नहीं पाएगा। उसी हालत में वह बखारी में लगा दिया जाएगा तो उससे गेरुई रोग जरूर लगेगा और गेहूं खराब हो जाएगा। पुरवा हवा की कमी के कारण ऐसा होता है।

दिन का बादर राति तरैया।
न जानौ प्रभु काह करैया।।


दिन में बादल छाए रहते हों, रात में आकाश साफ हो जाता हो, तो सर्दी के मौसम में पाला गिरता है, जिससे फसल नष्ट हो जाती है। इसलिए इस कहावत में कहा गया है कि यदि ऐसा मौसम रहे तो पता नहीं भगवान क्या मुसीबत पैदा करने वाला है। बादलों से पाला रुक जाता है। सर्दी भी कम रहती है। परंतु बादलों के बाद रात में आसमान खुल जाने का मतलब यह होता है कि सर्दी की रोकथाम नहीं हो सकती और रात में पाला गिरता है। बरसात में भी ऐसी हालत में वर्षा नहीं होती।

दिन मां गर्मी रात मां ओस।
कहै घाघ बरखा सौ कोस।।


यदि दिन में गर्मी रहती हो और रात में ओस गिरती हो तो समझना चाहिए कि अभी वर्षा आने में बहुत दिन है। ये वर्षा के विरुद्ध लक्षण है, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि अभी वर्षा नहीं होगी।

माघै पूस बहै पुरवाई।
तो सरसों का माहू खाई।।


पूस और माघ महीने में यदि पूरवा हवा चली तो सरसों में माहू नामक कीड़ा लग जाएगा और सरसों नष्ट हो जाएगी। पूरवा हवा बहुत ही निकम्मी होती है। इसमें नमी होती है और वह न केवल फसल को चौपट करती है, बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर करती है।

चढ़त जो बरखे चित्रा उतरत बरखे हस्त।
कितनी राजा डांड़ ले हारै नाहिं गृहस्त।।


यह भी सामयिक वर्षा संबंधी कहावत है। चित्रा नक्षत्र के लगने पर और हस्त नक्षत्र के उतरने पर वर्षा हो तो खेती इतनी अच्छी होती है कि राजा कितना भी दंड (जुर्माना) मांगे गृहस्थ दे सकता है, और उसका अधिक नुकसान नहीं होता। इस कहावत से इसी बात की ओर संकेत है कि हमारी खेती सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर है। अब कदाचित नहरों के हो जाने से खेती में अधिक निश्चितता आ गई है।

चीत के बरखा तीनों जाए मेथी, मास और उखाए।

चित्रा नक्षत्र की बरसात से तीन प्रकार की खेती का नुकसान होता है- मेथी, मास (लोबिया) और ईख। यह कथन बहुत सही नहीं है। प्रायः ऐसा नहीं भी होता है। खेती के बनने बिगड़ने में बरसात के अतिरिक्त और भी बहुत से कारण होते हैं। हर खेत की स्थिति भी अलग-अलग होती है। यह भी हो सकता है कि चित्रा में बरसात से इन खेतों को लाभ हो, फिर भी यह एक मान्य कहावत है जिस पर किसान काफी ध्यान देते हैं।

जेठू मास जो तपै निरासा।
तौ जान्यौ बरखा कै आसा।।


वर्षां संबंधी कहावत है। जेठ महीने में यदि अधिक गर्मी का तपन हो तो समझना चाहिए कि वर्षा अच्छी होगी। इस संबंध में अनेक कहावतें हैं जिनमें ज्येष्ठ मास के तपने या मृगशिरा नक्षत्र में तपने पर वर्षा की आशा प्रकट की गई है और जब पूरवा हवा चले तो वर्षा कम होगी। पुरवा हवा चलने पर तपन नहीं होती है।

जै दिन जेठ चले पुरवाई।
तै दिन सावन सूखा जाई।।


सामयिक वर्षा संबंधी संकेत है। जितने दिन ज्येष्ठ मास में पुरवा हवा चलेगी उतने ही दिन सावन में सूखे या वर्षाहीन रहेंगे। साधारण धारणा यह है कि ज्येष्ठ मास में खूब तपना चाहिए। न तपने से वर्षा में व्यतिक्रम उपस्थित हो जाता है। सावन वर्षा का महीना है और सावन में वर्षा के न होने पर खेती सूख जाएगी।

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