मालवा के ग्रामीण तालाब और उनका स्वरूप

तालाब बनाने के लिए यों तो दसों दिशाएँ खुली है, फिर भी जगह का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे गोचर की निकटता, ढाल युक्त निचला क्षेत्र, जहाँ से पानी आयेगा और जहाँ जमीन मुरम वाली है।

मालवा क्षेत्र में तालाब-निर्माण की प्रक्रिया काफी लम्बे समय से चली आ रही है क्योंकि हमें आज भी सारे क्षेत्र के गांवों और कस्बों में तालाबों की एक श्रृंखला देखने को मिल रही है।

इन तालाबों का निर्माण प्रायः राजस्थान के मेवाड़ और मारवाड़ से आये हुए लोगों के द्वारा किया जाता था क्योंकि उस क्षेत्र में अक्सर अकाल और कम वर्षा होने से वहां के लोग यहां पर काम की तलाश में तथा अपने पशुओं की चराई के लिए अक्सर आते रहे हैं, जैसे कि डाडूले लुहार जो अब धीरे-धीरे यहीं पर बस गये हैं। इसी कारण पश्चिमी मालवा क्षेत्र की आधी से अधिक जनसंख्या यहाँ पर राजस्थान के लोगों की पाई जाती है।

इन लोगों में सभी प्रकार के लोग होते थे, जो विभिन्न प्रकार के शिल्पों में दक्ष होते थे। इन लोगों को मालवा के जमींदार और श्रेष्ठीजन अपने यहाँ काम के लिए रख लेते थे। ये लोग मकान बनाने, कुआं खोदने तथा तालाब-निर्माण आदि का काम बड़ी कुशलता से करते थे। खारोल जाति के लोग इस मामले में बड़े दक्ष होते थे। इसीलिए इस आलेख में जो शब्दावली आई है वह उन्हीं के द्वारा दी गई है।

उज्जैन के चार विशाल तालाबों (सागरों) का वर्णन स्कन्द पुराण में भी आया है। उनमें से रुद्रसागर व क्षीरसागर अपने अतंयत छोटे रूप में आज भी विद्यमान हैं। इसी प्रकार यहाँ के अन्य सागर भी मध्यकालीन निर्माण हैं।

इसी तरह उज्जैन के समीप उण्डासा (रत्नाकर सागर) नामक तालाब का निर्माण रामपुरा के एक जैन श्रेष्ठी परिवार द्वारा निर्मित कराये जाने का उल्लेख एक अभिलेख में प्राप्त होता है।

इस आलेख में आगर शब्द का भी उल्लेख आया है। सम्भवतः इसी नाम के आधार पर आगर (जिला शाजापुर) का नामकरण किया गया हो क्योंकि आगर में भी एक बहुत बड़ा तालाब विद्यमान है।

इसी प्रकार हम देखते हैं कि ग्रामीण तालाब-निर्माण अधिकतर स्थानीय लोगों के द्वारा ही किया जाता है और ग्रामीणजन उसमें अपनी पूरी-पूरी भागीदारी निभाते हैं, जैसा कि अभी-अभी विक्रम विश्वविद्यालय के द्वारा भी तालाब-निर्माण किया गया है और उसमें खुदाई ग्रामीणों द्वारा ही की गई थी जिसके बदले में उन्हें तालाब से निकलने वाली उपजाऊ मिट्टी को ले जाने की छूट दी गई थी। अनुपम मिश्र ने तालाब-निर्माण प्रक्रिया इस प्रकार बताई है-

“तालाब बनाने के लिए यों तो दसों दिशाएँ खुली है, फिर भी जगह का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे गोचर की निकटता, ढाल युक्त निचला क्षेत्र, जहाँ से पानी आयेगा और जहाँ जमीन मुरम वाली है।”

“सिरभाव (पानी वाले) किसी भी औजार के बिना पानी की ठीक जगह बता देते हैं। कहते हैं उन्हें भाव आता है और भू-जल का पता चल जाता है। सिरभाव कोई जाति विशेष से नहीं होते हैं, बस किसी-किसी को यह सिद्धि मिल जाती है। भू-जल को सूँघकर बताने वाले लोग भी सिरभाव जैसे हो होते हैं। वे भू-जल की तरंगों के संकेत को आम या जामुन की लकड़ी की सहायता से पकड़ कर पानी का पता इस प्रकार बता देते है कि दो पतली लकड़ियों पर ह्वेल की कंठ की हड्डी रख कर घुमाते हैं। जहां पर हड्डी उछल कर गिर जाय वहीं पर पानी की संभावना प्रबल होती है। यह काम आज भी जारी है।”

“अभ्यस्त आँखें बातचीत में चुनी गई जिस जगह को एक बार देख लेती हैं। यहां पहुंचकर आगौर अर्थात जहां से पानी आयेगा, उसकी साफ-सफाई व सुरक्षा को पक्का कर लिय़ा जाता है। जहां से पानी आयेगा उसका बहाव परख लिया जाता है। तालाब की पाल कितनी ऊंची होगी, कितनी चौड़ी होगी, कहां से कहां तक लगेगी तथा तालाब में पानी पूरा भरने पर उसे बचाने के लिए अपरा कहां पर बनेगी, इसका भी अंदाज ले लिया जाता है। प्रमुख लोग पांच परात मिट्टी खोदते हैं। दस हाथ परातों को उठा कर पाल पर डालते हैं, यहीं पर पाल बांधी जायेगी। आँखों में बसा तालाब का पूरा चित्र फावड़े से निशान लगाकर जमीन पर उतार लिया जाता है। मिट्टी कहां से निकलेगी और कहां-कहां डाली जाएगी, इसकी भी समुचित व्यवस्था कर ली जाती है। पाल से कुछ दूरी पर खुदाई करेंगे ताकि पाल को ठीक नीचे इतनी गहराई न हो जाय कि पानी के दबाव से कमजोर होने लगे। फिर सैंकड़ों हाथ मिट्टी को पाल पर डालते हैं। इस प्रकार पहला आधार पूरा होता है। जो स्तर उभर कर दिखता है, उसकी दबाई शुरू होती है। दबाने का काम जल्दी करते हैं। पहला आधार पूरा हुआ तो उस पर मिट्टी का दूसरी तह डालनी शुरू होती हैं। इसे पानी से सीचते हैं।”

अब वह मिट्टी की पट्टी बन गई है। कहीं यह बिल्कुल सीधी है, तो कहीं यह बल खा रही है। आगौर से आने वाला पानी, जहां पाल पर जोरदार बल आजमा सकता है वहाँ पर पाल में भी बल दिया जाता है। इसे कोहनी भी कहा जाता है। पाल यहाँ ठीक हमारी कोहनी की तरह मुड़ जाती है।

मालवा के विभिन्न ग्रामों एवं कस्बों में तालाबों का निर्माण होता रहा। छोटे तालों को तलैया कहा जाता रहा। मालवा में इस प्रकार के सैकड़ों ताल-तलैया हैं जो मनुष्यों और पशुओं को पेयजल देते और ग्रामीण जन के नहाने-धोने के लिए उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं।

पाल नींव की चौड़ाई से आधी होगी और पूरी बन जाने पर ऊपर की चौड़ाई कुल ऊँचाई से आधी होगी। रक्षा करने वाली पाल की भी रक्षा करने के लिये नेष्टा बनाया जाता है। जहाँ तालाब का अतिरिक्त नुकसान पहुँचाये बिना बह जायेगा। मिट्टी का कच्चा काम पूरा होने पर अब पक्के काम के लिए चुनकरों द्वारा चूना बुझाया जाता है। उपरांत गारा तैयार कर लिया जाता है। सिलावट पत्थर की टकाई कर लेते हैं। नेष्टा पाल की ऊँचाई से थोड़ा नीचा होगा। जमीन से इसकी ऊँचाई पाल की ऊँचाई के अनुपात में तय होगी। अनुपात होगा करीब 107 हाथ का । इस तरह पाल ओर नेष्टा का काम पूरा हुआ और बन गया तालाब का आगर, आगौर का सारा पानी आगर में सिमटकर आयेगा। आगौर का पानी जहां आकर भरेगा, उसे आगर कहते हैं। तालाब तो सब अंग प्रत्यंगों का कुल जोड़ है। आगर, घर या खजाना, तालाब का खजाना है आगर जहां आकर सारा पानी जमा होगा।

आगौर व आगर तालाब के दो प्रमुख अंग माने गये हैं। इन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ और नामों से भी जाना जाता है। कहीं ये शब्द मूल संस्कृत से घिसते-घिसते सरल दिखते हैं तो कहीं ठेठ ग्रामीण इलाकों में बोली को साधे संस्कृत तक ले जाते हैं। आगौर कहीं आव है तो कहीं पायतान, जहाँ तालाब के पैर पसरे हों। पायतान है जहाँ यह पसरा हिस्सा सिकुड़ जाय यानी आगर की कहीं भराव भी कहते हैं। आगर में आगौर से पानी आता है। पर कहीं-कहीं आगर के बीचों-बीच कुआं भी खोदते हैं। इस स्रोत से भी तालाब में पानी आता है। इसे बोगली कहते हैं।

तालाब की पाल बहुत मजबूत होती है। पर इस रखवाले की भी रखवाली नहीं हो तो आगौर से आगर में लगातार भरने वाला पानी इसे न जाने कब पार कर लें, तालाब से टूटने से बचाने वाले इस अंग का नाम है अफरा, आगर तो हुआ तालाब का पेट, यह एक सीमा तक भरना ही चाहिए तभी तालाब का साल भर तक कोई अर्थ है। पर इस सीमा को पार कर ले तो पाल पर खतरा है। पेट को फूटने से तालाब को पाल को नेष्टा बचाती है। नेष्टा को पहले वर्ष छोटा बनाते हैं, पाल से भी बहुत नीचा। जब एक बरसात से नेष्टा पक्का हो जाता है तो फिर अगले वर्ष नेष्टा थोड़ा और ऊपर उठाते हैं। तब तालाब ज्यादा पानी रोक सकता है।

तालाब से पानी की चोरी बचाने के लिए आगर को ढालदार बनाया जाता है। जब पानी कम होने लगता है तो कम मात्रा का पानी ज्यादा क्षेत्र में फैले रहने से रोका जाता है। आगर में ढाल होने से पानी कम होते हुए भी कम हिस्से में अधिक मात्रा में बना रहता है और जल्दी वाष्प बनकर नहीं उड़ पाता। ढ़ालदार सतह में प्रायः थोड़ी गहराई भी रखी जाती है। ऐसे गहरे गड्ढे को अखड़ा या पिपाल कहते हैं।

नेष्टा मिट्टी के कच्चे पाल का कम ऊँचा भाग है लेकिन पानी का मुख्य जोर झेलता है, इसलिए इसे पक्का यानि पत्थर और चूने का बनाया जाता है। नेष्टा का अगल-बगल का भाग अर्द्धवृत्त की गोलाई लिये रहता है ताकि पानी का वेग उससे टकरा कर टूट सके। इस गोलाई वाले अंग का नाम है नाका। आगौर से पानी आगर में आता है जो मिट्टी तथा रेत को रोकता है। इसके लिए आगौर में पानी की छोटी-छोटी धाराओं को कहां- कहां से मोड़कर कुछ प्रमुख रास्तों से आगर की तरफ लाया जाता है और तालाब में पहुँचने से काफी पहले इन धाराओं पर खुरा लगाया जाता है। शायद यह शब्द पशु के खुर से बना है। इसका आकार खुर जैसा होता है। बड़े-बड़े पत्थर कुछ इस तरह से जमा दिये जाते हैं कि उनके बीच में से सिर्फ पानी निकले, मिट्टी और रेत आदि पीधे ही जम जाएँ, छूट जाएँ।

तालाब और पाल का आकार काफी बड़ा हो तो फिर घाट पर पत्थर की सीढ़ियां भी बनती हैं। ऐसे में पाल की तरह इन सीढ़ियों को भी मजबूती देने का प्रबंध किया जाता है। इन्हें सहारा देने के लिए बीच-बीच में बुर्जनुमा चबूतरे जैसी बड़ी सीढ़ियां बनाई जाती हैं। हर आठ-दस सीढ़ियों के बाद आने वाला यह ढ़ाचा हथनी कहलाता है।

ऐसी ही किसी हथनी की दीवार में एक बड़ा आला बनाया जाता है और उसमें घटोइया बाबा की प्रतिष्ठा की जाती है। घटोइया देवता घाट की रक्षा करते हैं। प्रायः अपरा की ऊँचाई के हिसाब से इसकी स्थापना होती है। इस तरह यदि आगौर में पानी ज्यादा बरसे, आगर में पानी का स्तर लगातार ऊँचा उठने लगे और तालाब पर खतरा मंडराने लगे तो घटोइया बाबा के चरणों तक पानी आने के बाद अपरा बह निकलेगी और पानी का बढ़ना थम जाएगा।

पूरे साल भर आगर की जलराशि को आंकने-नापने का काम किया है। उनमें अलग-अलग स्थानों में लगने वाले स्तम्भ तालाब के बीचों-बीच अपरा, मोरवी पर जहाँ से सिंचाई होती है, वहाँ पर तथा आगौर में लगाये जाते हैं।

सिंचाई के लिए बने तालाबों में स्तम्भ एक विशेष चिह्न तक जल-स्तर उतर आने के बाद पानी का उपयोग तुरंत बंद कर उसे फिर संकट के लिए सुरक्षित रखने का प्रबंध किया जाता है।

स्तम्भ तालाब के जल-स्तर को बताते हैं पर तालाब की गहराई प्रायः पुरुष नाप से नापी जाती है। दोनों भुजाएँ अगल-बगल पूरा फैलाकर खड़े हुए पुरुष के हाथ से दूसरे हाथ तक की कुल लम्बाई पुरुष या पुरुख कहलाती है। इंच फुट में यह कोई छह फुट बैठती है। ऐसे 20 पुरुष गहराई का तालाब आदर्श माना जाता है। बनाने वालों के सामर्थ्य और आगौर-आगर की क्षमता के अनुसार यह गहराई कम ज्यादा होती रहती है। प्रायःज्यादा गहरे तालाबों में पाल पर तरंगों का वेग तोड़ने के लिए आगौर और आगर के बीच टापू छोड़े जाते हैं। इसे लाखेटा कहते हैं।

पश्चिमी मालवा में तालाब के इस विशेष भाग को लाखेटा कहते हैं। उस पर उस क्षेत्र के किसी सिया संत की सुंदर छतरी बनी मिलती है जैसे उण्डासा (उज्जैन) के तालाब में बनी हुई है, जो पाथू शाह के द्वारा बनवाया गया था।

मध्य रेलवे से भोपाल होकर इटरासी जाते समय मंडी द्वीप नामक स्थान एक जमाने में भोपाल तालाब का लाखेटा था। कभी लगभग 250 वर्ग मील में फैला यह विशाल तालाब होशंगशाह के समय तोड़ दिया गया था। आज यह सिकुड़ कर बहुत छोटा हो गया है। फिर भी इसकी गिनती देश के बड़े तालाबों में ही होती है। इसके सूखने से ही मंडीद्वीप, द्वीप न रहकर एक औद्योगिक नगर बन गया है।

तालाब से पानी की चोरी बचाने के लिए आगर को ढालदार बनाया जाता है। जब पानी कम होने लगता है तो कम मात्रा का पानी ज्यादा क्षेत्र में फैले रहने से रोका जाता है। आगर में ढाल होने से पानी कम होते हुए भी कम हिस्से में अधिक मात्रा में बना रहता है और जल्दी वाष्प बनकर नहीं उड़ पाता। ढ़ालदार सतह में प्रायः थोड़ी गहराई भी रखी जाती है। ऐसे गहरे गड्ढे को अखड़ा या पिपाल कहते हैं।

चौकोर पक्के घाट से घिरे तालाब चौपड़ा भी कहलाते हैं, जैसे उज्जैन में मोदी का चौपड़ा है। भोपाल ताल की विशालता ने आसपास रहने वाले कृषकों को कभी-कभी अभिमान में बदल दिया था। इस कहावत में बस इसी को ताल माना है कि “ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैया।” ग्यारहवीं सदी में राजा भोज द्वारा बनवाया गया यह ताल 365 नालों, नदियों से मिलकर 250 वर्ग मील में फैला था।

मालवा के विभिन्न ग्रामों एवं कस्बों में तालाबों का निर्माण होता रहा। छोटे तालों को तलैया कहा जाता रहा। मालवा में इस प्रकार के सैकड़ों ताल-तलैया हैं जो मनुष्यों और पशुओं को पेयजल देते और ग्रामीण जन के नहाने-धोने के लिए उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं। अधिकांश तालाबों पर देवालयघाट भी निर्मित होते रहे हैं।

डॉ. पूरण सहगल के द्वारा दी गई पश्चिमी मालवा (रामपुरा) के तालाबों की जानकारी इस प्रकार है-

(1) बड़ा तालाब – रामपुरा में महल के पश्चिम की ओर स्थित तालाब पर पक्की सुन्दर पाल बनी है, जिसके मध्य में एक छत्री है जिसमें बैठ कर समय-समय पर राग-रंग के आयोजन होते रहते हैं। इसी तालाब से नगर को जल की आपूर्ति होती है। इसमें बनी हुई नालियों से पूरे नगर को पानी पहुँचाया जाता है।

(2) राठोड़िया तालाब – इसे राठोरन रानी ने बनवाया था किन्तु यह तालाब गांधी सागर बांध बनने से डूब गया है। इसके चारों तरफ घाट और सीढ़ियां भी बनी थी।

(3) छोटा तालाब – यह तालाब नगर के मध्य लाल बाग के निकट है। इससे भी जल-संसाधन की व्यवस्था की जाती थी।

(4) नीलिया तालाब – यह तालाब गांधी सागर बांध की रिंग वाल के नीचे आज भी सुरक्षित है। इसके जल की औषधीय सच्चाई भी लोक-जीवन में व्याप्त है। इसके जल से पाण लगाई जाती थी जिससे शस्त्रों की मारक क्षमता और बढ़ जाती थी।

(5) आंतरी तालाब – यह तालाब भी मध्यकालीन है। यह तालाब पुरानी आंतरी और नई आंतरी गाँवों के बीच स्थित है। आज भी इसका उपयोग पशुओं की जल-तृप्ति के लिए होता है।

रामपुरा के तालाबों की नालियों के रख-रखाव के लिए दो गांवों की जागीर दी गई थी जिनके नाम क्रमशः नालिया और तलाऊ ग्राम थे, जो आज भी विद्यमान हैं। इससे यह बात साबित होती है कि मध्य काल में शासक-वर्ग भी तालाबों के रख-रखाव के प्रति सतर्क थे।

संदर्भ -
1. एपिग्राफिया इण्डिका, 36, पृ. 121-30; सहायक स्रोतः जैन शिलालेख संग्रह, भाग-5, पृ. 93-98
2. व्यक्तिगत सामुख्य के आधार पर
3. मिश्र, अनुपम, आज भी खरे हैं तालाब
4. उक्त
5. व्यक्तिगत सामुख्य के आधार पर
6. उक्त
7. डॉ. पूरन सहगल से प्राप्त जानकारी

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