माजुली का हीरो जिंदा है

सोलह वर्ष बाद आज भी हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाया है कि माजुली को बचाने के लिए दूसरा कोई उपाय क्या है? संजय लिखते हैं ‘‘हमें लोगों के इस हौसले और शक्ति का पूरा एहसास है जिसे ब्रह्मपुत्र ने सुरक्षित रखा है।’’ माजुली के अस्तित्व के लिए संघर्श कर रहे लोगों के लिए यह पंक्तियां आज भी उनका हौसला बढ़ाती हैं। क्योंकि अहसास जगाने वाला माजुली का वह हीरो उनके दिलों में अब भी जिंदा है।

इस वर्ष ब्रह्मपुत्र नदी में आई बाढ़ ने जैसी तबाही मचाई है वैसी कल्पना कभी असमवासियों ने नहीं की थी। पानी के विकराल रूप ने सबसे ज्यादा माजुली द्वीप पर बसे 1.6 लाख वासियों को प्रभावित किया है। जो जिंदगी और मौत के दरम्यान खुद को बचाने की कशमकश में घिरे हुए हैं। सबके मन मस्तिष्क में बस एक ही प्रश्न घूम रहा है ‘यदि ऐसा होता तो क्या होता? और इन प्रश्नों में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ‘यदि आज संजय जीवित होते तो क्या होता? परंतु संजय के जीवित रहने की आशा तो 15 वर्ष पहले ही (4 जुलाई) को उस समय समाप्त हो गई जब उल्फा विद्रोहियों ने उनका अपहरण करके उसी माजुली द्वीप में कत्ल कर दिया जिसे तबाही से बचाने के लिए वह दिन रात संघर्ष कर रहे थे।

विश्व मानचित्र पर आसाम की आत्मिक और सांस्कृतिक राजधानी के रूप में अपनी पहचान दर्ज करवाने वाली माजुली पिछले सप्ताह से सुर्खियों में है। जहां बाढ़ से संबंधित रिपोर्टें उसके अस्तित्व पर खतरे की घंटी बजा रही है। रिपोर्टों से जाहिर होता है कि बाढ़ के कारण इस द्वीप के 70 देहातों में पानी भर गया है जबकि गुस्साई लहरें 30 देहातों को अपने साथ बहा ले गई है। माजुली को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ने वाला एकमात्र परिवहन साधन नौकाएं जिसे फेरी कहकर पुकारा जाता है, कई दिनों के लिए बंद कर दिए गए हैं। जिसके कारण इस द्वीप के लोग दूसरे इलाकों से कट गए हैं। द्वीप के 75000 से अधिक लोग अस्थायी कैंपों में रहने के लिए विवश हैं। उन्हें अस्थायी कैंपों में रहने का दुख नहीं है और न ही उन्हें इसकी चिंता है। उन्हें तो केवल एक ही दुख अंदर ही अंदर खाए जा रहा है कि यदि बारिश तुरंत नहीं रूकी तो इनकी जमीन खेती बाड़ी के लायक नहीं रह जाएगी।

मुसिबतों के पहाड़ का यह तो एकमात्र हिस्सा है। रिपोर्टें इस बात की ओर इशारा करती हैं कि इस द्वीप की जमीनें प्रति वर्ष 7.4 वर्ग किमी की गति से कट कर नदी में समाहित हो रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1969 से अबतक 9,566 परिवार बेघर हो चुके हैं। बताया जाता है कि इनमें केवल 500 परिवारों का ही पुर्नवास किया गया है। लेकिन जो हजारों परिवार रह गए हैं उनका क्या किया? और इस उजाड़ द्वीप के बारे में क्या कदम उठाए गए हैं जिसने विश्व के मानचित्र पर असम को रेखांकित किया है।

यह प्रश्न आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 90 के दशक में था। ये वही प्रश्न थे जिसने एक युवा सामाजिक विकास कार्यकर्ता संजय घोष को बेचैन कर दिया था। इतना कि उन्होंने अपने सात अति विश्वस्नीय साथियों के साथ अप्रैल 1996 में AVARD-NE (Association of Voluntary Agencies for Rural Development-North East) की स्थापना की और इस वीरान होते द्वीप माजुली में अपना बेस स्थापित किया।

माजुली विश्व का सबसे बड़ा तटवर्ती द्वीप में से एक है जो अपने अभूतपूर्व भौगोलिक स्थिती के कारण विश्व के दूसरे हिस्सों से जमीनी रास्ते से कटा हुआ है। वर्तमान परिदृश्य में इसे असम में होने वाले विकास का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जोरहाट, डिब्रुगढ़ और गुवहाटी की तरफ से गुजरनी वाली नदियों पर बनाए गए सुरक्षा बांधों के कारण नदी अपना रास्ता तलाश करते हुए इस द्वीप की तरफ आ निकलती है। प्रत्येक वर्ष नदी या तो कमजोर तटबंधों को तोड़कर गुजरती है या फिर बिना तटबंधों वाले इलाकों को अपना शिकार बनाती है। कम आबादी और कम सियासी रसूख के कारण माजुली की गिनती उन इलाकों में होती है जहां बाढ़ से बचाव के लिए तटबंध नहीं बनाए गए हैं। चूंकि राजनीतिक दृष्टि से माजुली के साथ ऐसी विशेषता नहीं जुड़ी है जो इसे दूसरे क्षेत्रों की तरह सम्मान की दृष्टि से देखा जाए और यहां के लोग भी कोई बड़े पूंजीपति नहीं हैं जिनकी फिक्र की जाए। इसलिए इसे कई दहाईयों से नदी का दंश झेलना पड़ रहा है। संजय ने कितना सटीक आंकलन किया था। वो लिखते हैं ‘माजुली का ऐसे ही कटते रहना सिर्फ जमीन या रोजगार का नुकसान नहीं है बल्कि इसके कारण एक पूरी सभ्यता का नाश हो जाएगा‘।

ऑक्सफोर्ड से शिक्षित और इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट आनंद और जॉन हॉप्किंस विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्र संजय ने अपने कार्य क्षेत्र के लिए धरती से जुड़ी एक ऐसी समस्याग्रस्त क्षेत्र का चयन किया जिससे मिलती जुलती समस्या पर वह पहले ही राजस्थान में नौ वर्षों तक कार्य कर चुके थे। महीनों तक घर में कैद रहने और इस क्षेत्र तथा यहां के लोगों के बारे में गहन अध्ययन करने के कारण उन्हें लोगों का विश्वास प्राप्त हो सका। जो इस क्षेत्र में एक अर्थ पूर्ण योगदान देने के लिए आवश्यक था। यहां के किसानों की मेहनत के बावजूद उन्हें कोई सरकारी मदद प्राप्त नहीं था और वह तेजी से आर्थिक कमजोरियों के पेच में उलझते जा रहे हैं। संजय का मिशन था, जैसा कि वह लिखते हैं ‘समाज में स्वेच्छा से की जानी वाले कार्यों के लिए स्थान बनाना आवश्यक है। जो शायद जमीन से जुड़े लोगों को मजबूत तथा उनकी सहायता से संभव है। इसके लिए हमें सपोर्ट संस्थान बनाकर एक ऐसी प्रक्रिया तैयार करने की आवश्यकता है जिसमें उनकी आकांक्षाएं पूरी हो सकें। अर्थात वे राज्य और समाज के लिए उनके समक्ष प्रश्न भी उठा सकें और इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर भी दे सकें।‘

दुर्भाग्य से ऐसी त्रासदी को रोकने का एक ही उपाय है और वह है बांध बना कर पानी के तांडव को रोकना। अगर यह कार्य अच्छी तरह कर लिया जाए, तो इससे प्रति वर्ष होने वाले जान और माल की हानि से बचा जा सकेगा। दूसरी बात जमीन को और कटने से बचाने के लिए बेहतर होगा कि उसके चारों तरफ बांस की बाड़ लगा दी जाए।

यहां के लोगों के बारे में कुछ लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रिया थी जिसे एक वर्ष से कुछ अधिक समय के अंदर संजय और उनकी टीम ने गलत साबित कर दिया। इस यात्रा के दौरान एक महत्वपूर्ण पड़ाव फरवरी 1997 में उस समय आया जब तीन हजार मजदूरों ने, जिनमें अधिकांश महिलाएं थीं अपनी स्वेच्छा, विवेक और साधनों का उपयोग करके 1.7 किमी लंबे पट्टे को कटने से बचा लिया। अगले वर्ष द्वीप का यही पट्टा बाढ़ से बचा रहा। इस सकारात्मक सहयोग ने उनके अंदर उम्मीद की एक नई किरण पैदा कर दी। संजय लिखते हैं कि ‘वह कोशिश केवल जमीन के कटाव को रोकने की नहीं थी बल्कि हम लोगों को स्थानीय सहयोग की भावना, रूचि और अनुभव कराना चाहते थे। हम उनमें यह विश्वास पैदा करना चाहते थे कि छोटे स्तर पर भी बहुत कुछ किया जा सकता है।‘ उन्होंने लिखा ‘यदि यह सफल रहा तो यह माजुली में जमीन के एक टुकड़े को न केवल सदा के लिए तबाह होने से बचा लेगा बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लोगों में परस्पर सहयोग और विश्व भर में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही छोटी बिरादरियों के लिए प्रतिरोध का प्रतीक बन जाएगा।‘

टीम और शायद स्वंय स्थानीय लोग भी इस बात की पहचान करने में असफल रहे कि आत्म निर्भरता का यह रवैया और बिरादरी का मालिकाना अधिकार का आभास उन लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा कर रहा है जो पिछली कई दहाईयों से बनी इस स्थिती से लाभ उठा रहे हैं। उनमें ठेकेदार भी थे और राजनेता भी और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इसमें प्रतिबंधित संगठन जो लोगों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है यानि युनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ आसाम यानि उल्फा भी शामिल था।

इस टीम को पूरा विश्वास था कि मीडिया की शक्ति द्वारा इंकलाब लाया जा सकता है और यही कारण था कि वे आसामी भाषा में ‘‘द्वीप आलोक’’ नामी एक न्युज-बुलेटिन पत्रिका भी निकाला करते थे। इस पत्रिका द्वारा लोगों को सरकार के कार्यक्रमों के बारे में बताया जाता था, उन्हें बताया जाता था कि इस तक कैसे पहुंचा जा सकता है या इसका बजट या खर्च कितना है। इसमें कई विषयों पर विस्तृत केस-स्टडी भी प्रस्तुत की जाती थी। ऐसा करने के दौरान, न चाहते हुए भी, स्वयं घोटालों का भी पर्दाफाश होने लगा। संजय को लोगों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त था और इस पर उन्हें मीडिया से मिलने वाली ताकत ने और भी शक्तिशाली बना दिया। सत्ता के गलियारों में रहने वालों को ये बात कुछ जंची नहीं और इसी के बाद से उन्हें धमकियां मिलने लगीं।

जून 1997 के आखरी सप्ताहों की बात है, संजय ने लिखा, ‘‘आज भी, जबकि मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं, लोगों को धमकियां दी जा रही हैं, उन्हें सावधान रहने को कहा जा रहा है और हमारे लिए इस वातावरण में तनाव और भय के इस माहौल में कार्य करना कठिन हो रहा है। लोग विकास और परिवर्तन चाहते हैं, लेकिन डरे हुए हैं। अब वह बंद, हफ्ता-वसूली, हत्या और अपहरण से तंग आ चुके हैं। इसे बस एक जोर का धक्का देने की आवश्यकता है।’’

धक्का तो आया, लेकिन आशा के विपरीत। 4, जुलाई, 1997 की देर शाम को संजय जब अपने एक स्थानीय आसामी साथी के साथ घर लौट रहे थे, उल्फा के सदस्यों ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया। ताकि स्थानीय स्तर पर उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों पर वह अपनी बात सविस्तार रख सकें, इसके लिए वह तुरंत ही उनके साथ जाने के लिए राजी हो गए। दो दिन बाद संजय के साथ जाने वाला युवा लौट आया, लेकिन वह अकेला था। उसके बाद आज तक संजय की कोई सूचना नहीं आई। वे 37 वर्ष के थे। उल्फा ने उनकी हत्या की बात को स्वीकार करने में 12 वर्ष का समय लगा दिया। पिछले वर्ष मई में, जबकि उन्हें गायब हुए पूरे 14 वर्ष हो चुके थे, उल्फा के सदस्यों ने स्वीकार किया कि ‘‘वह एक गलती थी’।

बहरहाल इन वर्षों में राज्य सरकार ने कई संगठन बनाए, लोगों की समस्याओं के निवारण के लिए कई योजनाएं और प्रोजेक्ट्स लाँच किए, इनके लिए करोड़ों रुपये मंजूर किए। 2005 में, ब्रह्मपुत्र बोर्ड, 2007 में माजुली डेवलपमेंट अथार्टी, 2012 की शुरुआत में प्लानिंग कमीशन का एक प्रोजेक्ट और एक महीने पहले माजुली कल्चरल लैंडस्कैप मैनेजमेंट अथार्टी। संजय ने माजुली को विश्व की धरोहर (विरासत) बनाने की पहल की थी, परंतु उनका सपना अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। 2004 में युनेस्को ने तीसरी बार भारत का माजुली को विश्व धरोहर बनाने के प्रस्ताव यह कह कर ठुकरा दिया कि उसके आवेदन में तकनीकी खामियां हैं और वह अपूर्ण है।

बताया जाता है कि इस साल की बाढ़ पिछले 14 वर्षों में आने वाली बाढ़ों में सबसे अधिक खतरनाक है। द्वीप के लोगों ने 1997 में जो कुछ गंवाया उसका उन्हें अच्छी तरह आभास है, परंतु पछतावे के कड़वे घोंट उन्हें सांत्वना नहीं देते। ऐसा बार-बार न हो, इसके लिए क्या किया जाए? संजय को भी यही प्रश्न परेशान किए रहता था, जैसा कि उनकी अंतिम पंक्तियों से जाहिर है ‘‘दुर्भाग्य से ऐसी त्रासदी को रोकने का एक ही उपाय है और वह है बांध बना कर पानी के तांडव को रोकना। अगर यह कार्य अच्छी तरह कर लिया जाए, तो इससे प्रति वर्ष होने वाले जान और माल की हानि से बचा जा सकेगा। दूसरी बात जमीन को और कटने से बचाने के लिए बेहतर होगा कि उसके चारों तरफ बांस की बाड़ लगा दी जाए। आखिर हमारे अंदर यह एहसास पैदा होने के लिए और कितनी बार बाढ़ को झेलना होगा कि इस बाढ़ ने पहले ही कितने लोगों को डुबाया है?’’

सोलह वर्ष बाद आज भी हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाया है कि माजुली को बचाने के लिए दूसरा कोई उपाय क्या है? संजय लिखते हैं ‘‘हमें लोगों के इस हौसले और शक्ति का पूरा एहसास है जिसे ब्रह्मपुत्र ने सुरक्षित रखा है।’’ माजुली के अस्तित्व के लिए संघर्श कर रहे लोगों के लिए यह पंक्तियां आज भी उनका हौसला बढ़ाती हैं। क्योंकि अहसास जगाने वाला माजुली का वह हीरो उनके दिलों में अब भी जिंदा है।

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