जल प्रबन्धन को लेकर नदियों को जोड़ना और मोक्षदायिनी गंगा की सफाई मोदी सरकार अपने साथ चुनाव प्रचार से ही लेती आई है। इसे लेकर चाहे केन्द्र सरकार और कुछ राजनैतिक दलों में उत्साह हो, लेकिन कई मानते हैं कि यह न तो व्यवहारिक और न ही सम्भव- दोनों नदियों को जोड़ना और गंगा की सफाई! इन दोनों ही मुद्दों पर राजेन्द्र सिंह से नीतिश द्वारा बातचीत पर आधारित लेख।
देश में लोकशाही की शुरुआत से अब तक परम्परागत जल-स्रोतों को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
भारत में जल प्रबन्धन सामुदायिक और विकेन्द्रीत था। यहाँ पर राजा, समाज और महाजन तीनों मिलकर जल प्रबन्धन करते थे। पानी के काम के लिए राजा जमीन देता, समाज पसीना देता और महाजन पैसा देता था। इस तरह भारत का जल प्रबन्धन चलता था। अंग्रेजी हुकूमत से पहले जल लोगों का था। लोग ही उसके बारे में साझा निर्णय करते थे। फिर अंग्रेजों ने कहना शुरू किया कि जो भारतीय लोग हैं, उन्हें पानी का प्रबन्धन करना नहीं आता। ये सपेरे हैं और ये गन्दा पानी पीते हैं। इससे अपने लोगों में परम्परागत जल प्रबन्धन को लेकर शंकाएँ पैदा शुरू होने लगीं।
जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ी, वैसे-वैसे परम्परागत जल प्रबन्धन से हमारा विस्वास हटता चला गया। और फिर हम पाईप लाईन की पानी सप्लाई जैसी चीजों में फँसने लगे। हम लोगों को तालाब, कुएँ, बावड़ी से पानी लाने में पसीना बहाना पड़ता था। जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ी, ‘बिना करे खाने का स्वभाव बढ़ा’, वैसे-वैसे बिना करे पानी मुल जाए उसकी भी आदत पड़ गई। और फिर हमने नए तालाबों को बनाने, पुरानों की मरम्मत कराना छोड़ दिया। बल्कि तालाबों पर पार्क बनने लगे, कब्जे हो गए। जिससे हम बेपानी हो गए। हमारे भूजल के भण्डार खाली हो गए और एक तरह से पानीदार लोग बेपानी हो गए।
हाल में जल संरक्षण पर प्रभावी ढंग से किन राज्यों ने उल्लेखनीय काम किए हैं?
देखिए, अभी बहुत उल्लेख करने लायक काम कहीं भी नहीं हुए हैं।
कुछ तो काम हुए होंगे।
हाँ, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात में एक जमाने में कुछ काम किया गया था। ओमप्रकाश धूमल जी के जमाने में हिमाचल में कुछ अच्छी शुरुआत हुई थी, लेकिन आगे बढ़ा नहीं। लेकिन शुरुआत बहुत अच्छी थी। देश के कई राज्यों में प्रसंग तो हुआ, लेकिन उसको सामुदायिक व स्थाई जल प्रबन्धन कैसे करे, इसकी पुख्ता व्यवस्था नहीं बन पाई।
भारत पानीदार कैसे बनेगा?
हम अगर भारत को पानीदार बनाना चाहते हैं, तो भारत के परम्परागत जल प्रबन्धन सीखना पड़ेगा। पानी का प्रबन्धन, एक तरफ संरक्षण का काम करता है, दूसरी तरफ समाज को अनुशासित कर उपयोग करना सीखाता है और तीसरी तरफ जहाँ भूजल के भण्डार को वर्षा जल से पुनर्भरण का काम करता है। इसमें वाष्पीकरण भी कम होता है और पानीदार बनने का स्थायी काम भी।
आधुनिक शिक्षा यह नहीं जानती कि वाष्पीकरण कहाँ पर कितना है और कैसे रोकना है। हमको यह भी बताया जाता कि भूजल भरना कितना जरूरी है। जबकि भूजल का सीधा सम्बन्ध नदियों के साथ है, जहाँ भूजल कम हो गया है या सूख रहा है या जलस्तर गहरा चला गया है, वहाँ की नदियाँ मरती और सूखती हैं। नदियों में प्रवाह नहीं होता। इससे वहाँ के जीवन में लाचारी, बेकारी और बीमारी आ जाती है।
इस वक्त देश में जीडीपी बढ़ने की बहुत बातें हो रही हैं। उसकी परिभाषा समझनी चाहिए कि क्या है- ‘जी’- गरीबी, ‘डी’- डर और ‘पी’ परेशानी। जिसको ये आधुनिक लोग जीडीपी कहते हैं। इसमें देश में गरीबी और गरीबों की संख्या बढ़ी है। देश में अमीरी भी बढ़ी है, पर गरीबों की संख्या कई गुना बढ़ी है।
आजकल कहीं जाने पर लोगों में पीने के पानी को लेकर डर बना रहता है कि पानी पीने से कहीं बीमार न हो जाएँ। यह भयानक तरीके से हमारे दिमाग में बैठ गया है। लेकिन हमारे मन में नदियों के प्रदूषण और मानव के रिश्ते की समझ नहीं बन पाई है। हमारी शिक्षा भी नहीं जानती कि भूजल स्तर जैसे-जैसे नीचे जाएगा, नदियाँ सूख जाएगी, मर जाएँगी और खत्म हो जाएँगी।
आधुनिक पढ़ाई में जल प्रबन्धन की शिक्षा अपने आप को कहाँ पाती है?
देखिए, सरफेस की इंजीनियरिंग अलग है और जीयो हाइड्रो मोर्फोलॉजी की इंजीनियरिंग अलग है। अगर इन दोनों को विखण्डित करके देखा जाए तो दोनों समग्र नहीं है। मतलब कि गहनता से दोनों की पढ़ाई अलग-अलग हो। जब तक समाज में समग्र जल-शिक्षण नहीं होगा, जल-दर्शन नहीं होगा, तब तक जल संस्कृति की समझ नहीं होगी और पानी के प्रबन्धन का, उसके संरक्षण का और अनुशासन का हमें कोई ख्याल नहीं होगा। पानी का ख्याल नहीं होगा, तो हम पानीदार नहीं बन सकते। होगा ऐसा कि यह आधी-अधूरी पढ़ाई हमें बेपानी ही बनाकर जाएगी।
जिन राज्यों में पानी के संरक्षण पर काम हुआ है, उनसे क्या सीखा जा सकता है?
पानी को लेकर थोड़ा-बहुत काम जिन राज्यों में हुआ है, उनसे यही सीख मिलती है कि पैसे की बर्बादी कैसे की जाती है। क्योंकि समाज को सक्षम बनाने के लिए वे काम नहीं हुए हैं। उस पैसे से समाज पानी के काम के लिए सक्षम नहीं बनेगा, समाज तैयार नहीं होगा तो उस काम का कोई अर्थ नहीं। फिर तो पैसा ही खर्च होगा पानी नहीं बचेगा।
कुओं, तालाबों, बावड़ियों पर अब लोग नहीं जाते। इससे सामाजिक जीवन पर क्या असर पड़ा है?
समाज टूटा है। जब तक लोग पानी के स्रोतो तक जाते थे, वे पानी से जुड़े थे और समाज भी आपस में जुड़ता था। जब समाज आपस में जुड़ता था तो पानी और लोगों में सांस्कृतिक तौर पर समृद्धि आती थी। एक सांस्कृतिक रास्ता बनता था और उस रास्ते पर समाज आगे बढ़ता था। अभी हम उस दिशा में भी नहीं हैं, जिससे समाज बटता जा रहा है।
कुँओं को लेकर सरकार सर्वे नहीं कराती, ऐसा क्यों?
कहने के लिए तो सर्वे सरकार कराती है, लेकिन उससे सरकार की बदनामी होती है। जिन बातों में सरकार की बदनामी होती है, उसके सच्चे आँकड़े हमारे सामने कभी नहीं आते। अभी मैं उत्तर प्रदेश को लेकर एक लेख लिख रहा था। वहाँ वर्ष 2000 से पहले तक 54.31 प्रतिशत पानी भूभाग से मिलता था। वर्ष 2009 में यह आँकड़ा 72.61 प्रतिशत हो गया। वहीं का आँकड़ा है कि वर्ष 2009 में सिंचाई के लिए 70 प्रतिशत, पेयजल के लिए 80 प्रतिशत, उद्योगों के लिए 85 प्रतिशत पानी भूजल से ही ले रहे थे। अब 2014 चल रहा है।
यहाँ गाजियाबाद में लोनी एक जगह है, वहाँ तुम जाकर देख सकते हो कि जितना पानी धरती से निकालते हैं, उतना जहरीला पानी धरती में डालते हैं। अभी दिल्ली के चारों तरफ जितने भी उद्योग हैं, वे जमीन में बोर करके गन्दा पानी डाल देते हैं, जबकि इंडस्ट्री के लिए जीरो डिस्चार्ज का कानून बना है और इसके लिए उनके पास मशीनें तक नहीं हैं।
जब तक कोई सरकार अमृत में जहर मिलाने को नहीं रोकेगी, पानी की सेहत ठीक नहीं रह सकती। एक और आँकड़ा है हमारे पास। 2009 में सिंचाई के लिए यूपी में ही 42 हजार ट्यूबवेल थे और उथले पानी को निकालने के लिए 25730 ट्यूबवेल थे। और पाताल तोड़ कुएँ 25198 थे। जब आप धरती के पेट को छलनी कर देंगे, तो आपके पास धरती में पानी कहाँ बचेगा। हम सब जानते हैं कि नदी का रिश्ता धरती के पेट के पानी के साथ होता है।
जल-बँटवारे के विवाद कई राज्यों के बीच चल रहे हैं। ऐसे कई राज्य हैं। इनसे कैसे निपटा जा सकता है?
पानी के विवाद बहुत पुराने हैं। जब संविधान बना था ओडिशा जल विवाद देश में उतनी नहीं थी। पिछले 65-70 सालों मे पानी का संकट और विवाद दोनों साथ-साथ गहराए। संविधान तो वही पुराना है, इस वक्त भारत का जो संविधान है उसमें पानी विवाद के निपटारे को लेकर कोई रास्ता नहीं है। पानी किसका है यह विवाद में पड़ा है।
पानी राज्य सरकार, भारत सरकार, नगर पंचायत और जिला परिषद में किसका है, भारतीय संसद आज तक इसको तय नहीं कर पाई। वहीं सरफेस का सब पानी कितना उपयोग कर सकते हैं, सरफेस का सब पानी कितना और अण्डर ग्राउण्ड पानी किसका है, डीप अण्डर ग्राउण्ड पानी किसका है। इसे लेकर किसी स्तर पर कोई स्पष्टता नहीं है। इसलिए जो पानी के विवाद हैं, वे आज तक नहीं सुलझे। भारत की सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट हमारे बुनियादी हकों के विवादों को सुलझा देती हैं, पर पानी का एक भी विवाद आजादी के बाद से नहीं सुलझा।
कावेरी, सतलुज, यमुना और व्यास के जल विवाद पचास साल पुराने हैं। अभी पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अरमिन्दर सिंह ने दो साल पहले कह दिया कि वे राजस्थान को पानी नहीं देंगे, जिसमें हमारा 20 प्रतिशत पानी था। कोई भी राज्य सरकार अपनी विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर दे कि हम किसी को पानी नहीं देंगे, तो भारत सरकार उसको मान लेती है। इसमें भारत सरकार की मजबूरियाँ दिखती हैं कि पानी किसका है और इस पर कौन सा कानून लागू होगा। ऐसे ही रहा तो जल विवाद बढ़ते ही जाएँगे। मैं सोचता हूँ कि पानी सम्बन्धी विवादों को निपटाने के लिए भारत सरकार को नए सिरे से सोचना पड़ेगा।
देश की नदियों को आपस में जोड़ने की योजना को किस रूप में देखते हैं?
नदियों को जोड़ने की योजना तो भारत को तोड़ने और डूबाने की योजना है। आप इस योजना से सबको पानी कैसे पिला सकते हो, नदी जोड़ केवल बड़े लोगों को पानी पिलाएगा। इससे गरीबों का पानी छिन जाएगा। यह योजना बड़े शहरों, बड़े उद्योगों और बड़े लोगों के लिए उपयोगी होगी। गरीबों के लिए तो छोटे परम्परागत तालाब हैं, जिनके बनने का काम अब खत्म हो गया है। इसकी जगह तालाबों की जमीनों पर बस अड्डे और पार्क बन रहे हैं।
दिल्ली का आईएसबीटी भी तालाब पर ही बना है। हमें देश को पानीदार बनाने के लिए समाज को पानी से जोड़ना होगा। इस देश में नदी जोड़ योजना की जरूरत नहीं है। हमने राजस्थान जैसी जगह, जहाँ बहुत कम बारिश होती है, वहाँ सात नदियों को जिन्दा किया। यह कैसे हुआ, कोई मैं थोड़े कर सकता हूँ। मेरी इतनी औकात कहाँ थोड़े है? मैंने लोगों को नदियों से जोड़ा। पिछले तीस वर्षों में दस हजार तालाब भी बनाए, वे भी बिना किसी सरकारी पैसे के। समाज को नदियों से जोड़ना होगा।
गंगा को साफ करने की योजना बहुत दिनों से चल रही है। इस बार भी गंगा के लिए बजट में व्यवस्था हुई है, क्या गंगा की सफाई सम्भव है?
गंगा सबसे अधिक वोट दिलाने वाली नदी है। जिसको भी प्रधानमन्त्री बनना होता है, वे प्रधानमन्त्री बनने से पहले कहता है कि ‘मुझे गंगा मैया ने बुलाया है।’ पहले राजीव गाँधी ने कहा कि मेरी माँ की इच्छा है कि गंगा माँ को जिन्दा करना है। गंगा के नाम पर राजनीति कर राजीव हिन्दुस्तान में लोकसभा की सबसे ज्यादा 427 सीटें मिलीं। कांग्रेस को पहले सेक्युलर वोट मिलते थे, पहली बार रिलिजियस वोट राजीव गाँधी को मिले थे।
अभी मोदी जी आए हैं, वो और कोई नारा दिए हों या ना पर उन्होंने कहा कि ‘मेरी माँ गंगा ने वाराणसी में मुझे बुलाया है और मैं गंगा को पवित्र कर दूँगा।’ बजट में भी दो हजार करोड़ से अधिक की व्यवस्था की गई है और नाम भी रखा है- ‘नमामि गंगे।’ नमामि गंगे के लिए बजट तो आ जाएगा, पर जो असली काम करना है, वह काम नहीं होगा- गंगा की सफाई।
मेरा कहना है कि पहले गंगा की जमीन का चिन्हिकरण होना चाहिए, नामकरण होना चाहिए और पंजीकरण का काम होना चाहिए। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि यह गंगा की जमीन है और इस पर नए शहर नहीं बसेंगे। इसी तरह कांग्रेस ने यमुना की जमीन पर कॉमनवेल्थ बना दिया न! मैं तीन साल तक सत्याग्रह करता रहा। किसी ने नहीं सुना।
गंगा को बचाना है तो गंगा की जमीन बचाओ, क्योंकि अभी पूरा रियल स्टेट गंगा की जमीन के लिये मुँह फाड़े बैठा है। अगर गंगा को साफ रखना है तो इसकी जमीन सुनिश्चित हो, उसमें गन्दे नाले डालने बन्द हों और गंगा पर बन रहे बाँध को रद्द कर दिया जाए। यदि पुराने बाँध गरीब देश होने के कारण नहीं तोड़े जा सकते तो कम-से-कम नए बाँध बनने तो बन्द हों।
हमने 2008 में तीन निर्माणाधीन बाँध रुकवाए थे। द्वारीनाग पाला, पाला मनेरी और भैरो घाटी के बाँध जो हिन्दुस्तान के इतिहास में पहला काम था, उस समय तक जिनमें चार हजार करोड़ रुपए खर्च हो गए थे। फिर भी मनमोहन सिंह सरकार को रोकना पड़ा, क्योंकि चुनाव लड़ना था और गंगा उनको वोट देती दिख रही थी।
इस बार गंगा वोट देती नहीं दिख रही थी, इसलिए इस बार उन्होंने हमारी कोई बात नहीं मानी। यूपीए-2 में कांग्रेस ने गंगा के लिए कोई भी काम नहीं किया। अलबत्ता यूपीए-1 में गंगा के लिए सबसे अच्छे काम हुए जो गंगा के इतिहास में नहीं हुए थे।
क्या नई सरकार भी ऐसा कुछ करेगी?
उम्मीदें बहुत हैं। मेरे जैसा साधारण आदमी सबसे उम्मीद करता है। मोदी कहता है कि वह गंगा का बेटा है और गंगा मैया ने उसे बुलाया है। गंगा को माँ कह रहा है। वह माँ का इलाज करवाता है। जब माँ बीमार पड़ती है और मरने को जाती है, तो पड़ोसी भी कहते हैं कि माँ मर रही है, बेटे ने इलाज नहीं करवाया मोदी को भी अगला चुनाव जीतने के लिए गंगा का इलाज करना होगा। वैसे भी उसको कम-से-कम सौ दिन तो दें।
नदियों को लेकर वैज्ञानिक और धार्मिक मिथकों के बीच द्वन्द्व की स्थिति है। इसको आप कैसे देखेंगे?
वैज्ञानिक, धार्मिक और इंजीनियरिंग के बीच कोई मिथ का द्वन्द्व नहीं है। टकराव तो सरकार ने पैदा किया है। इंजीनियरिंग को सरकार और ठेकेदारों को धन देना होता है। धार्मिक लोगों को किसी को पैसा नहीं देना होता। ये लोग गंगा को अविरल-निर्मल बनाने की माँग करते हैं।
सरकार भी यही बोलती है कि हमें गंगा अविरल-निर्मल चाहिए। द्वन्द्व तो अविरल-निर्मल की परिभाषा को लेकर है। अभी गंगा मन्थन हुआ था, उसमें देश भर के कितने लोग इकट्ठा हुए। उस गंगा मन्थन में अविरलता की परिभाषा क्या है, निर्मलता की व्याख्या क्या है, यह किसी ने नहीं बताया। सभी बड़े नेताओं ने आकर कहा- गंगा को अविरल-निर्मल बनाएँगे। पर उसकी परिभाषा भी तो समझाओ। ये बड़ा द्वन्द्व है।
बनारस जैसे पुराने शहरों के नालों और गटर का पानी गंगा में नहीं बहेगा तो कहाँ जाएगा?
बनारस दुनिया का सबसे पुराना शहर है, लेकिन यहाँ पानी की शुद्धता का सबसे पुराना तरीका था। शहर से जो गन्दा पानी आता था, उसको त्रिकुण्ड में निथारने और भूमिगत करने की प्रक्रिया थी। पहले कुण्ड में गन्दा पानी भरता था, जिसमें भारी गन्दगी कुण्ड में बैठ जाती थी और पानी निथरने के बाद दूसरे कुण्ड में भरता था। इसके तीसरे कुण्ड को शहर में खास जगह बनाया जाता था, जहाँ भूजल में पुनर्भरण का काम होता था।
जहाँ नदी के पुनर्जीवन की प्रक्रिया होती थी, जो पानी धरती का पेट भरने के बाद गंगा में मिलता था। तो इस प्रकार रिवर ओसमासिस प्रोसेस नदी जीवन पुनर्प्रक्रिया से पानी शुद्ध होकर गंगा में जाता था। एक मजेदार बात बताता हूँ- काशी में सन् 1932 में हॉकिन्स कमिश्नर बन कर आया। उसने क्या किया कि यहाँ की सुन्दरता के नाम पर शहर के नालों को सीधे गंगा से जोड़ दिया। शहर के सुन्दरीकरण को लेकर हाकिन्स ने एक डेड लाईन दिया और बताया कि ब्रिटिश काउंसिल से शहर के सुन्दरीकरण के लिए 20 लाख रुपए आए हैं।
इस पर मदन मोहन मालवीय छः अध्यापकों के साथ हाकिंस से मिले। हाकिंस ने बताया कि नालों को गंगा में मिला दिया जाएगा, तो शहर में मच्छर और गंन्दगी नहीं रहेगी और शहर को सुन्दर भी बनाया जा सकेगा। मालवीय नाले के पानी को गंगा में मिलाने पर तैयार नहीं हुए, पर दूसरे अध्यापक इस योजना के पक्ष में थे और न चाहते हुए भी उनको मानना पड़ा। इसके बाद शहर के नालों को गंगा से सीधे लिंक कर दिया गया। इसी तरह की योजना इस समय अपने देश में चल रही है ‘जेएनआरयूएम’ जिसके जरिए विकास का लालच दिखाया जाता है पर कुछ विकास नहीं हो रहा।
शहरीकरण और औद्योगिकरण से गंगा और यमुना त्रस्त हैं। इससे उनका उद्धार कैसे किया जा सकता है?
तुम्हें मालूम है कि शुरू में हम लोग नदियों के किनारे रहते थे। जैसे-जैसे हमारे जनसंख्या बढ़ी, हम नदियों से दूर रहने लगे। नदियों के किनारे बड़े शहर रह गए। ये बड़े शहर बढ़ते गए और इन्होंने अपने गन्दे पानी का ठीक से इन्तजाम नहीं किया, जैसे यमुना दिल्ली में 20 किलोमीटर के आस-पास बहती है। इसमें 18 नालों का गन्दा पानी मिलता है। नजफगढ़ नाला आजादी से पहले एक बड़ी नदी थी। उस नदी का नाम था ‘साबी’। राजस्थान से आती थी और हरियाणा होते हुए वजीराबाद पुल के पास यमुना में मिलती है।
जब बरसात होती थी और यमुना में बाढ़ आती तो पानी ऊपर चढ़ता और यह बैक वाटर नजफगढ़ झील में भर जाता था, फिर जब यमुना का बाढ़ उतरता था तो नजफगढ़ झील का पानी धीरे-धीरे आकर यमुना में मिलता रहता था। साल भर साबी नदी नजफगढ़ झील से यमुना को पानी देती थी। अभी नजफगढ़ झील नाला बन गया है। ऐसा काला नाला कि उसके किनारे आप खड़े भी नहीं रह सकते और इसको कंक्रीट और सीमेंट से पक्का भी बना दिया गया है।
यही स्थिति भारत की लगभग सभी नदियों की हो गई है। गंगा को हम माँ कहते हैं। माँ मैला ढोने की गाड़ी बन गई है। यदि गंगा को सचमुच माँ बनाना चाहते हैं, तो हमें कुछ सख्त निर्णय करने होंगे। सबसे पहले गंगा को राष्ट्रीय सम्मान और सुरक्षा देने वाले कानून चाहिए और गंगा में गन्दे नाले न बहाएँ!
बालू खनन से नदियों को क्या नुकसान होते हैं?
नदियों में सैण्ड-माइनिंग बिल्कुल ठीक नहीं है। ड्रेजलिंग और डिसिल्टिंग तो ठीक है, लेकिन सैण्ड-माइनिंग करने से नदी के जल-शोधन की क्षमता खत्म हो जाती है।
तब सरकार समय-समय पर बालू का ठेका क्यों देती है?
सरकार जो ठेके देती है, उसको रोकना आवश्यक है। वह यदि नहीं रोका गया तो नदियाँ मर जाएँगी।
बजट के पैसे गंगा पर कैसे खर्च होंगे जबकि गंगा जहाँ से निकलती है और जहाँ तक बहती है वहाँ गैर बीजेपी या एनडीए सरकारें हैं, तो तालमेल कैसे होगा और गंगा कैसे साफ होगी?
मुझे लगता है कि तालमेल करना कोई कठिन काम नहीं है। भारत एक गणराज्य है और गंगा एक राष्ट्रीय नदी है, तो राज्य सरकारें, नगर पालिकाएँ और भारत सरकार सबको मिलकर समान रूप से गंगा को बचाने का काम करना चाहिए।
नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह बनाए रखने के लिए तालाबों को नदी से लिंक कर दिया जाता था। मुगलकाल या सल्तनतकाल में ऐसे कई प्रमाण मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मिले हैं, वर्तमान में ऐसा क्यों नहीं होता?
पिछली सरकार में नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बनाए रखने के लिए इण्टर मिनिस्टीरियल ग्रुप बना था। गंगा को पर्यावरणीय या प्राकृतिक प्रवाह देने के लिए साल भर तक हम लोगों ने बहुत प्रयास किए, लेकिन अन्त तक पहुँचने पर कई चीजें फाइनल नहीं हो सकीं। मैंने उस ग्रुप की कई चीजें नहीं मानी, इसलिए उस ग्रुप से त्यागपत्र दे दिया था।
त्यागपत्र देने का खास कारण
नदी के पर्यावरणीय प्रवाह बनाने की बात सुनिश्चित नहीं हो पा रही थी और बाँध बनने बन्द नहीं हो रहे थे, तो मुझे त्यागपत्र देना पड़ा।
देश में लोकशाही की शुरुआत से अब तक परम्परागत जल-स्रोतों को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
भारत में जल प्रबन्धन सामुदायिक और विकेन्द्रीत था। यहाँ पर राजा, समाज और महाजन तीनों मिलकर जल प्रबन्धन करते थे। पानी के काम के लिए राजा जमीन देता, समाज पसीना देता और महाजन पैसा देता था। इस तरह भारत का जल प्रबन्धन चलता था। अंग्रेजी हुकूमत से पहले जल लोगों का था। लोग ही उसके बारे में साझा निर्णय करते थे। फिर अंग्रेजों ने कहना शुरू किया कि जो भारतीय लोग हैं, उन्हें पानी का प्रबन्धन करना नहीं आता। ये सपेरे हैं और ये गन्दा पानी पीते हैं। इससे अपने लोगों में परम्परागत जल प्रबन्धन को लेकर शंकाएँ पैदा शुरू होने लगीं।
जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ी, वैसे-वैसे परम्परागत जल प्रबन्धन से हमारा विस्वास हटता चला गया। और फिर हम पाईप लाईन की पानी सप्लाई जैसी चीजों में फँसने लगे। हम लोगों को तालाब, कुएँ, बावड़ी से पानी लाने में पसीना बहाना पड़ता था। जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ी, ‘बिना करे खाने का स्वभाव बढ़ा’, वैसे-वैसे बिना करे पानी मुल जाए उसकी भी आदत पड़ गई। और फिर हमने नए तालाबों को बनाने, पुरानों की मरम्मत कराना छोड़ दिया। बल्कि तालाबों पर पार्क बनने लगे, कब्जे हो गए। जिससे हम बेपानी हो गए। हमारे भूजल के भण्डार खाली हो गए और एक तरह से पानीदार लोग बेपानी हो गए।
हाल में जल संरक्षण पर प्रभावी ढंग से किन राज्यों ने उल्लेखनीय काम किए हैं?
देखिए, अभी बहुत उल्लेख करने लायक काम कहीं भी नहीं हुए हैं।
कुछ तो काम हुए होंगे।
हाँ, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात में एक जमाने में कुछ काम किया गया था। ओमप्रकाश धूमल जी के जमाने में हिमाचल में कुछ अच्छी शुरुआत हुई थी, लेकिन आगे बढ़ा नहीं। लेकिन शुरुआत बहुत अच्छी थी। देश के कई राज्यों में प्रसंग तो हुआ, लेकिन उसको सामुदायिक व स्थाई जल प्रबन्धन कैसे करे, इसकी पुख्ता व्यवस्था नहीं बन पाई।
भारत पानीदार कैसे बनेगा?
हम अगर भारत को पानीदार बनाना चाहते हैं, तो भारत के परम्परागत जल प्रबन्धन सीखना पड़ेगा। पानी का प्रबन्धन, एक तरफ संरक्षण का काम करता है, दूसरी तरफ समाज को अनुशासित कर उपयोग करना सीखाता है और तीसरी तरफ जहाँ भूजल के भण्डार को वर्षा जल से पुनर्भरण का काम करता है। इसमें वाष्पीकरण भी कम होता है और पानीदार बनने का स्थायी काम भी।
आधुनिक शिक्षा यह नहीं जानती कि वाष्पीकरण कहाँ पर कितना है और कैसे रोकना है। हमको यह भी बताया जाता कि भूजल भरना कितना जरूरी है। जबकि भूजल का सीधा सम्बन्ध नदियों के साथ है, जहाँ भूजल कम हो गया है या सूख रहा है या जलस्तर गहरा चला गया है, वहाँ की नदियाँ मरती और सूखती हैं। नदियों में प्रवाह नहीं होता। इससे वहाँ के जीवन में लाचारी, बेकारी और बीमारी आ जाती है।
इस वक्त देश में जीडीपी बढ़ने की बहुत बातें हो रही हैं। उसकी परिभाषा समझनी चाहिए कि क्या है- ‘जी’- गरीबी, ‘डी’- डर और ‘पी’ परेशानी। जिसको ये आधुनिक लोग जीडीपी कहते हैं। इसमें देश में गरीबी और गरीबों की संख्या बढ़ी है। देश में अमीरी भी बढ़ी है, पर गरीबों की संख्या कई गुना बढ़ी है।
आजकल कहीं जाने पर लोगों में पीने के पानी को लेकर डर बना रहता है कि पानी पीने से कहीं बीमार न हो जाएँ। यह भयानक तरीके से हमारे दिमाग में बैठ गया है। लेकिन हमारे मन में नदियों के प्रदूषण और मानव के रिश्ते की समझ नहीं बन पाई है। हमारी शिक्षा भी नहीं जानती कि भूजल स्तर जैसे-जैसे नीचे जाएगा, नदियाँ सूख जाएगी, मर जाएँगी और खत्म हो जाएँगी।
आधुनिक पढ़ाई में जल प्रबन्धन की शिक्षा अपने आप को कहाँ पाती है?
देखिए, सरफेस की इंजीनियरिंग अलग है और जीयो हाइड्रो मोर्फोलॉजी की इंजीनियरिंग अलग है। अगर इन दोनों को विखण्डित करके देखा जाए तो दोनों समग्र नहीं है। मतलब कि गहनता से दोनों की पढ़ाई अलग-अलग हो। जब तक समाज में समग्र जल-शिक्षण नहीं होगा, जल-दर्शन नहीं होगा, तब तक जल संस्कृति की समझ नहीं होगी और पानी के प्रबन्धन का, उसके संरक्षण का और अनुशासन का हमें कोई ख्याल नहीं होगा। पानी का ख्याल नहीं होगा, तो हम पानीदार नहीं बन सकते। होगा ऐसा कि यह आधी-अधूरी पढ़ाई हमें बेपानी ही बनाकर जाएगी।
जिन राज्यों में पानी के संरक्षण पर काम हुआ है, उनसे क्या सीखा जा सकता है?
पानी को लेकर थोड़ा-बहुत काम जिन राज्यों में हुआ है, उनसे यही सीख मिलती है कि पैसे की बर्बादी कैसे की जाती है। क्योंकि समाज को सक्षम बनाने के लिए वे काम नहीं हुए हैं। उस पैसे से समाज पानी के काम के लिए सक्षम नहीं बनेगा, समाज तैयार नहीं होगा तो उस काम का कोई अर्थ नहीं। फिर तो पैसा ही खर्च होगा पानी नहीं बचेगा।
कुओं, तालाबों, बावड़ियों पर अब लोग नहीं जाते। इससे सामाजिक जीवन पर क्या असर पड़ा है?
समाज टूटा है। जब तक लोग पानी के स्रोतो तक जाते थे, वे पानी से जुड़े थे और समाज भी आपस में जुड़ता था। जब समाज आपस में जुड़ता था तो पानी और लोगों में सांस्कृतिक तौर पर समृद्धि आती थी। एक सांस्कृतिक रास्ता बनता था और उस रास्ते पर समाज आगे बढ़ता था। अभी हम उस दिशा में भी नहीं हैं, जिससे समाज बटता जा रहा है।
कुँओं को लेकर सरकार सर्वे नहीं कराती, ऐसा क्यों?
कहने के लिए तो सर्वे सरकार कराती है, लेकिन उससे सरकार की बदनामी होती है। जिन बातों में सरकार की बदनामी होती है, उसके सच्चे आँकड़े हमारे सामने कभी नहीं आते। अभी मैं उत्तर प्रदेश को लेकर एक लेख लिख रहा था। वहाँ वर्ष 2000 से पहले तक 54.31 प्रतिशत पानी भूभाग से मिलता था। वर्ष 2009 में यह आँकड़ा 72.61 प्रतिशत हो गया। वहीं का आँकड़ा है कि वर्ष 2009 में सिंचाई के लिए 70 प्रतिशत, पेयजल के लिए 80 प्रतिशत, उद्योगों के लिए 85 प्रतिशत पानी भूजल से ही ले रहे थे। अब 2014 चल रहा है।
यहाँ गाजियाबाद में लोनी एक जगह है, वहाँ तुम जाकर देख सकते हो कि जितना पानी धरती से निकालते हैं, उतना जहरीला पानी धरती में डालते हैं। अभी दिल्ली के चारों तरफ जितने भी उद्योग हैं, वे जमीन में बोर करके गन्दा पानी डाल देते हैं, जबकि इंडस्ट्री के लिए जीरो डिस्चार्ज का कानून बना है और इसके लिए उनके पास मशीनें तक नहीं हैं।
जब तक कोई सरकार अमृत में जहर मिलाने को नहीं रोकेगी, पानी की सेहत ठीक नहीं रह सकती। एक और आँकड़ा है हमारे पास। 2009 में सिंचाई के लिए यूपी में ही 42 हजार ट्यूबवेल थे और उथले पानी को निकालने के लिए 25730 ट्यूबवेल थे। और पाताल तोड़ कुएँ 25198 थे। जब आप धरती के पेट को छलनी कर देंगे, तो आपके पास धरती में पानी कहाँ बचेगा। हम सब जानते हैं कि नदी का रिश्ता धरती के पेट के पानी के साथ होता है।
जल-बँटवारे के विवाद कई राज्यों के बीच चल रहे हैं। ऐसे कई राज्य हैं। इनसे कैसे निपटा जा सकता है?
पानी के विवाद बहुत पुराने हैं। जब संविधान बना था ओडिशा जल विवाद देश में उतनी नहीं थी। पिछले 65-70 सालों मे पानी का संकट और विवाद दोनों साथ-साथ गहराए। संविधान तो वही पुराना है, इस वक्त भारत का जो संविधान है उसमें पानी विवाद के निपटारे को लेकर कोई रास्ता नहीं है। पानी किसका है यह विवाद में पड़ा है।
पानी राज्य सरकार, भारत सरकार, नगर पंचायत और जिला परिषद में किसका है, भारतीय संसद आज तक इसको तय नहीं कर पाई। वहीं सरफेस का सब पानी कितना उपयोग कर सकते हैं, सरफेस का सब पानी कितना और अण्डर ग्राउण्ड पानी किसका है, डीप अण्डर ग्राउण्ड पानी किसका है। इसे लेकर किसी स्तर पर कोई स्पष्टता नहीं है। इसलिए जो पानी के विवाद हैं, वे आज तक नहीं सुलझे। भारत की सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट हमारे बुनियादी हकों के विवादों को सुलझा देती हैं, पर पानी का एक भी विवाद आजादी के बाद से नहीं सुलझा।
कावेरी, सतलुज, यमुना और व्यास के जल विवाद पचास साल पुराने हैं। अभी पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अरमिन्दर सिंह ने दो साल पहले कह दिया कि वे राजस्थान को पानी नहीं देंगे, जिसमें हमारा 20 प्रतिशत पानी था। कोई भी राज्य सरकार अपनी विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर दे कि हम किसी को पानी नहीं देंगे, तो भारत सरकार उसको मान लेती है। इसमें भारत सरकार की मजबूरियाँ दिखती हैं कि पानी किसका है और इस पर कौन सा कानून लागू होगा। ऐसे ही रहा तो जल विवाद बढ़ते ही जाएँगे। मैं सोचता हूँ कि पानी सम्बन्धी विवादों को निपटाने के लिए भारत सरकार को नए सिरे से सोचना पड़ेगा।
देश की नदियों को आपस में जोड़ने की योजना को किस रूप में देखते हैं?
नदियों को जोड़ने की योजना तो भारत को तोड़ने और डूबाने की योजना है। आप इस योजना से सबको पानी कैसे पिला सकते हो, नदी जोड़ केवल बड़े लोगों को पानी पिलाएगा। इससे गरीबों का पानी छिन जाएगा। यह योजना बड़े शहरों, बड़े उद्योगों और बड़े लोगों के लिए उपयोगी होगी। गरीबों के लिए तो छोटे परम्परागत तालाब हैं, जिनके बनने का काम अब खत्म हो गया है। इसकी जगह तालाबों की जमीनों पर बस अड्डे और पार्क बन रहे हैं।
दिल्ली का आईएसबीटी भी तालाब पर ही बना है। हमें देश को पानीदार बनाने के लिए समाज को पानी से जोड़ना होगा। इस देश में नदी जोड़ योजना की जरूरत नहीं है। हमने राजस्थान जैसी जगह, जहाँ बहुत कम बारिश होती है, वहाँ सात नदियों को जिन्दा किया। यह कैसे हुआ, कोई मैं थोड़े कर सकता हूँ। मेरी इतनी औकात कहाँ थोड़े है? मैंने लोगों को नदियों से जोड़ा। पिछले तीस वर्षों में दस हजार तालाब भी बनाए, वे भी बिना किसी सरकारी पैसे के। समाज को नदियों से जोड़ना होगा।
गंगा को साफ करने की योजना बहुत दिनों से चल रही है। इस बार भी गंगा के लिए बजट में व्यवस्था हुई है, क्या गंगा की सफाई सम्भव है?
गंगा सबसे अधिक वोट दिलाने वाली नदी है। जिसको भी प्रधानमन्त्री बनना होता है, वे प्रधानमन्त्री बनने से पहले कहता है कि ‘मुझे गंगा मैया ने बुलाया है।’ पहले राजीव गाँधी ने कहा कि मेरी माँ की इच्छा है कि गंगा माँ को जिन्दा करना है। गंगा के नाम पर राजनीति कर राजीव हिन्दुस्तान में लोकसभा की सबसे ज्यादा 427 सीटें मिलीं। कांग्रेस को पहले सेक्युलर वोट मिलते थे, पहली बार रिलिजियस वोट राजीव गाँधी को मिले थे।
अभी मोदी जी आए हैं, वो और कोई नारा दिए हों या ना पर उन्होंने कहा कि ‘मेरी माँ गंगा ने वाराणसी में मुझे बुलाया है और मैं गंगा को पवित्र कर दूँगा।’ बजट में भी दो हजार करोड़ से अधिक की व्यवस्था की गई है और नाम भी रखा है- ‘नमामि गंगे।’ नमामि गंगे के लिए बजट तो आ जाएगा, पर जो असली काम करना है, वह काम नहीं होगा- गंगा की सफाई।
मेरा कहना है कि पहले गंगा की जमीन का चिन्हिकरण होना चाहिए, नामकरण होना चाहिए और पंजीकरण का काम होना चाहिए। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि यह गंगा की जमीन है और इस पर नए शहर नहीं बसेंगे। इसी तरह कांग्रेस ने यमुना की जमीन पर कॉमनवेल्थ बना दिया न! मैं तीन साल तक सत्याग्रह करता रहा। किसी ने नहीं सुना।
गंगा को बचाना है तो गंगा की जमीन बचाओ, क्योंकि अभी पूरा रियल स्टेट गंगा की जमीन के लिये मुँह फाड़े बैठा है। अगर गंगा को साफ रखना है तो इसकी जमीन सुनिश्चित हो, उसमें गन्दे नाले डालने बन्द हों और गंगा पर बन रहे बाँध को रद्द कर दिया जाए। यदि पुराने बाँध गरीब देश होने के कारण नहीं तोड़े जा सकते तो कम-से-कम नए बाँध बनने तो बन्द हों।
हमने 2008 में तीन निर्माणाधीन बाँध रुकवाए थे। द्वारीनाग पाला, पाला मनेरी और भैरो घाटी के बाँध जो हिन्दुस्तान के इतिहास में पहला काम था, उस समय तक जिनमें चार हजार करोड़ रुपए खर्च हो गए थे। फिर भी मनमोहन सिंह सरकार को रोकना पड़ा, क्योंकि चुनाव लड़ना था और गंगा उनको वोट देती दिख रही थी।
इस बार गंगा वोट देती नहीं दिख रही थी, इसलिए इस बार उन्होंने हमारी कोई बात नहीं मानी। यूपीए-2 में कांग्रेस ने गंगा के लिए कोई भी काम नहीं किया। अलबत्ता यूपीए-1 में गंगा के लिए सबसे अच्छे काम हुए जो गंगा के इतिहास में नहीं हुए थे।
क्या नई सरकार भी ऐसा कुछ करेगी?
उम्मीदें बहुत हैं। मेरे जैसा साधारण आदमी सबसे उम्मीद करता है। मोदी कहता है कि वह गंगा का बेटा है और गंगा मैया ने उसे बुलाया है। गंगा को माँ कह रहा है। वह माँ का इलाज करवाता है। जब माँ बीमार पड़ती है और मरने को जाती है, तो पड़ोसी भी कहते हैं कि माँ मर रही है, बेटे ने इलाज नहीं करवाया मोदी को भी अगला चुनाव जीतने के लिए गंगा का इलाज करना होगा। वैसे भी उसको कम-से-कम सौ दिन तो दें।
नदियों को लेकर वैज्ञानिक और धार्मिक मिथकों के बीच द्वन्द्व की स्थिति है। इसको आप कैसे देखेंगे?
वैज्ञानिक, धार्मिक और इंजीनियरिंग के बीच कोई मिथ का द्वन्द्व नहीं है। टकराव तो सरकार ने पैदा किया है। इंजीनियरिंग को सरकार और ठेकेदारों को धन देना होता है। धार्मिक लोगों को किसी को पैसा नहीं देना होता। ये लोग गंगा को अविरल-निर्मल बनाने की माँग करते हैं।
सरकार भी यही बोलती है कि हमें गंगा अविरल-निर्मल चाहिए। द्वन्द्व तो अविरल-निर्मल की परिभाषा को लेकर है। अभी गंगा मन्थन हुआ था, उसमें देश भर के कितने लोग इकट्ठा हुए। उस गंगा मन्थन में अविरलता की परिभाषा क्या है, निर्मलता की व्याख्या क्या है, यह किसी ने नहीं बताया। सभी बड़े नेताओं ने आकर कहा- गंगा को अविरल-निर्मल बनाएँगे। पर उसकी परिभाषा भी तो समझाओ। ये बड़ा द्वन्द्व है।
बनारस जैसे पुराने शहरों के नालों और गटर का पानी गंगा में नहीं बहेगा तो कहाँ जाएगा?
बनारस दुनिया का सबसे पुराना शहर है, लेकिन यहाँ पानी की शुद्धता का सबसे पुराना तरीका था। शहर से जो गन्दा पानी आता था, उसको त्रिकुण्ड में निथारने और भूमिगत करने की प्रक्रिया थी। पहले कुण्ड में गन्दा पानी भरता था, जिसमें भारी गन्दगी कुण्ड में बैठ जाती थी और पानी निथरने के बाद दूसरे कुण्ड में भरता था। इसके तीसरे कुण्ड को शहर में खास जगह बनाया जाता था, जहाँ भूजल में पुनर्भरण का काम होता था।
जहाँ नदी के पुनर्जीवन की प्रक्रिया होती थी, जो पानी धरती का पेट भरने के बाद गंगा में मिलता था। तो इस प्रकार रिवर ओसमासिस प्रोसेस नदी जीवन पुनर्प्रक्रिया से पानी शुद्ध होकर गंगा में जाता था। एक मजेदार बात बताता हूँ- काशी में सन् 1932 में हॉकिन्स कमिश्नर बन कर आया। उसने क्या किया कि यहाँ की सुन्दरता के नाम पर शहर के नालों को सीधे गंगा से जोड़ दिया। शहर के सुन्दरीकरण को लेकर हाकिन्स ने एक डेड लाईन दिया और बताया कि ब्रिटिश काउंसिल से शहर के सुन्दरीकरण के लिए 20 लाख रुपए आए हैं।
इस पर मदन मोहन मालवीय छः अध्यापकों के साथ हाकिंस से मिले। हाकिंस ने बताया कि नालों को गंगा में मिला दिया जाएगा, तो शहर में मच्छर और गंन्दगी नहीं रहेगी और शहर को सुन्दर भी बनाया जा सकेगा। मालवीय नाले के पानी को गंगा में मिलाने पर तैयार नहीं हुए, पर दूसरे अध्यापक इस योजना के पक्ष में थे और न चाहते हुए भी उनको मानना पड़ा। इसके बाद शहर के नालों को गंगा से सीधे लिंक कर दिया गया। इसी तरह की योजना इस समय अपने देश में चल रही है ‘जेएनआरयूएम’ जिसके जरिए विकास का लालच दिखाया जाता है पर कुछ विकास नहीं हो रहा।
शहरीकरण और औद्योगिकरण से गंगा और यमुना त्रस्त हैं। इससे उनका उद्धार कैसे किया जा सकता है?
तुम्हें मालूम है कि शुरू में हम लोग नदियों के किनारे रहते थे। जैसे-जैसे हमारे जनसंख्या बढ़ी, हम नदियों से दूर रहने लगे। नदियों के किनारे बड़े शहर रह गए। ये बड़े शहर बढ़ते गए और इन्होंने अपने गन्दे पानी का ठीक से इन्तजाम नहीं किया, जैसे यमुना दिल्ली में 20 किलोमीटर के आस-पास बहती है। इसमें 18 नालों का गन्दा पानी मिलता है। नजफगढ़ नाला आजादी से पहले एक बड़ी नदी थी। उस नदी का नाम था ‘साबी’। राजस्थान से आती थी और हरियाणा होते हुए वजीराबाद पुल के पास यमुना में मिलती है।
जब बरसात होती थी और यमुना में बाढ़ आती तो पानी ऊपर चढ़ता और यह बैक वाटर नजफगढ़ झील में भर जाता था, फिर जब यमुना का बाढ़ उतरता था तो नजफगढ़ झील का पानी धीरे-धीरे आकर यमुना में मिलता रहता था। साल भर साबी नदी नजफगढ़ झील से यमुना को पानी देती थी। अभी नजफगढ़ झील नाला बन गया है। ऐसा काला नाला कि उसके किनारे आप खड़े भी नहीं रह सकते और इसको कंक्रीट और सीमेंट से पक्का भी बना दिया गया है।
यही स्थिति भारत की लगभग सभी नदियों की हो गई है। गंगा को हम माँ कहते हैं। माँ मैला ढोने की गाड़ी बन गई है। यदि गंगा को सचमुच माँ बनाना चाहते हैं, तो हमें कुछ सख्त निर्णय करने होंगे। सबसे पहले गंगा को राष्ट्रीय सम्मान और सुरक्षा देने वाले कानून चाहिए और गंगा में गन्दे नाले न बहाएँ!
बालू खनन से नदियों को क्या नुकसान होते हैं?
नदियों में सैण्ड-माइनिंग बिल्कुल ठीक नहीं है। ड्रेजलिंग और डिसिल्टिंग तो ठीक है, लेकिन सैण्ड-माइनिंग करने से नदी के जल-शोधन की क्षमता खत्म हो जाती है।
तब सरकार समय-समय पर बालू का ठेका क्यों देती है?
सरकार जो ठेके देती है, उसको रोकना आवश्यक है। वह यदि नहीं रोका गया तो नदियाँ मर जाएँगी।
बजट के पैसे गंगा पर कैसे खर्च होंगे जबकि गंगा जहाँ से निकलती है और जहाँ तक बहती है वहाँ गैर बीजेपी या एनडीए सरकारें हैं, तो तालमेल कैसे होगा और गंगा कैसे साफ होगी?
मुझे लगता है कि तालमेल करना कोई कठिन काम नहीं है। भारत एक गणराज्य है और गंगा एक राष्ट्रीय नदी है, तो राज्य सरकारें, नगर पालिकाएँ और भारत सरकार सबको मिलकर समान रूप से गंगा को बचाने का काम करना चाहिए।
नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह बनाए रखने के लिए तालाबों को नदी से लिंक कर दिया जाता था। मुगलकाल या सल्तनतकाल में ऐसे कई प्रमाण मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मिले हैं, वर्तमान में ऐसा क्यों नहीं होता?
पिछली सरकार में नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बनाए रखने के लिए इण्टर मिनिस्टीरियल ग्रुप बना था। गंगा को पर्यावरणीय या प्राकृतिक प्रवाह देने के लिए साल भर तक हम लोगों ने बहुत प्रयास किए, लेकिन अन्त तक पहुँचने पर कई चीजें फाइनल नहीं हो सकीं। मैंने उस ग्रुप की कई चीजें नहीं मानी, इसलिए उस ग्रुप से त्यागपत्र दे दिया था।
त्यागपत्र देने का खास कारण
नदी के पर्यावरणीय प्रवाह बनाने की बात सुनिश्चित नहीं हो पा रही थी और बाँध बनने बन्द नहीं हो रहे थे, तो मुझे त्यागपत्र देना पड़ा।
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Post By: RuralWater