उत्तराखंड के चमोली जिले के कर्णप्रयाग ब्लाॅक के बैनोली गांव के लिए वर्ष 1953 अन्य वर्षों की तरह ही था। इन दिनों हमेशा की तरह पहाड़ और यहां की जनता पहाड़ से हौंसले के साथ पर्वतों के बीच जीवनयापन कर रही थी, लेकिन ये वर्ष विमला देवी और त्रिलोक सिंह रावत के लिए काफी खास था। त्रिलोक सिंह रावत तब वन विभाग में कार्यरत थे। यानी उनके कंधे पर पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी थी। 19 अक्टूबर 1953 को उनके घर एक विलक्षण प्रतिभा के धनी बालक का जन्म हुआ। इस बालक का नाम कल्याण सिंह रावत रखा गया, जिसने अपने पिता से मिली पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा को चरिचार्थ किया और चिपको आंदोलन की धरती पर मैती आंदोलन की शुरुआत की। उनका आंदोलन पहाड़ की पथरीली जमीन से निकलकर सात समुंदर पार तक अपनी खुशहाली के बीज रोप रहा है। जिसके लिए भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 2020 को उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
अपने नाम के अर्थ के अनुसार ही कार्य कर रहे कल्याण सिंह रावत ने प्राथमिक शिक्षा गांव के ही प्राथमिक स्कूल (नौटी) से की थी। कक्षा आठ तक वे कल्जीखाल में पढ़े और इसके बाद 12वीं तक की पढ़ाई कर्णप्रयाग से और स्नातक तथा स्नातकोत्तर महाविद्यालय गोपेश्वर से किया। जब वे काॅलेज में थे, तब चिपको आंदोलन भी अपने चरम पर था। वे काॅलेज के साथ ही अन्य स्थानों पर पर्यावरण से संबंधित कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। इसके अलावा उन्होंने चिपको आंदोलन में भी अपना योगदान दिया। कल्याण सिंह 26 मार्च 1974 को करीब 150 लड़कों को लेकर चिपको आंदोलन में शामिल होने जोशीमठ गए थे। युवावस्था में आंदोलन के इस दौर में वे पर्यावरण के प्रति कुछ करने के लिए संकल्पित हो गए थे, लेकिन उनके संकल्प को प्रेरणा देने का काम चिपको आंदोलन की सफलता ने किया। चिपको आंदोजल के कुछ वर्ष बाद, यानी 1982 में कल्याण सिंह रावत की शादी हुई। शादी के दूसरे दिन ही उन्होंने अपनी पत्नी मंजू रावत से केले के दो पौधे लगवाए। अपने घर में लगे इन दोनों पौधों की वे अपने बच्चों की तरह ही देखभाल करते थे। साथ ही गरीब बच्चों की पढ़ाई में भी इस पैसे को खर्च किया जाता है। कुछ साल बाद जब वृक्ष फल देने लगे तो उनके मन में मैती आंदोलन का विचार आया, लेकिन सूखा पड़ने के कारण वे अपनी इस योजना को धरातल पर नहीं उतार पाए। हालाकि वे अपनी प्रतिभा के बल पर ग्वालदम राजकीय इंटर काॅलेज में जीव विज्ञान के प्रवक्ता बन गए थे।
दरअसल, लंबे समय से बारिश न होने के कारण वर्ष 1987 में उत्तरकाशी में भयंकर सूखा पड़ा था। पूरे जिले में हाहाकार मच गया था। कभी हरियाली से लहलहाने वाले खेत और प्रकृति की सुंदरता बिखेरते जंगले मायूसी से टकटकी लगाए आसमान की तरफ देख रहे थे। सूखे ने मानो पहाड़ की जनता के जीवन से खुशहाली ही छीन ली थी और सभी व्याकुल थे। इस दौरान कल्याण सिंह रावत ने वृक्ष अभिषेक समारोह मेले का आयोजन किया था। ग्राम स्तर पर वृक्ष अभिषेक समिति का गठन कर ग्राम प्रधान को समिति का अध्यक्ष बनाया गया। मैती आंदोलन में विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को एक फलदार पौधा दिया जाता है। वैदिक मंत्रों के साथ पौधे को रोपा जाता है और दूल्हा दुल्हन की सहेलियांे को अपनी इच्छा के अनुसार कुछ पैसे देता है, जो पर्यावरण कल्याण के कार्यों में ही उपयोग किए जाते हैं तथा यही सहेलियां इन पेड़ों की देखभाल भी करती हैं। इस पूरे आंदोलन को वृहद स्तर पर फैलाने के लिए काॅलेज में प्रवक्ता पद पर रहते हुए उन्होंने स्कूल के बच्चों और गांव वालों को मैती आंदोलन के प्रति प्रेरित किया। धीरे धीरे लोगो को जब आंदोलन का उद्देश्य समझ आने लगा तो, उन्हें ये काफी पसंद आया और फिर कुछ लोग जुड़ने लगे। धीरे धीरे लोगो के जुड़ने से आज ये एक वृहद आंदोलन बन गया है। हालाकि कल्याण सिंह जब गांव में लोगों को बांज के पेड़ लगाने के लिए कहा तो मुश्किल आई। लोगों का मानना था कि बांज का मतलब बच्चा न होने से है। इसलिए उन्होंने बांज का पेड़ लगाने का कारण पूछा, तो हमने बताया कि बांज के पेड़ के रूप में बेटी अपनी गोद में बच्चा लेकर मायके आई हैै। इस तरह के कुछ बाधाओं को पार करते हुए मैती आंदोलन का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ और गुजरात, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश ने इसे एक नियम के रूप में अपने यहां लागू किया है, जबकि नेपाल में ये आंदोलन मैती नेपाल के नाम से चल रहा है। कनाड़ा के प्रधानमंत्री मैती आंदोलन की तारीफ कर चुके हैं। इंडोनेशियों में भी इसका पालन करते हुए शादी से पहले पेड़ लगाने का प्रमाण देना होगा। ये आंदोलन का विशालता ही है कि अब तक पांच लाख से अधिक पेड़ लगाए जा चुके हैं, जबकि चमोली के चंदासैंड में 10 हेक्टेयर में बांज का जंगल खड़ा किया गया है। यही नहीं मैती संगठन ने गौरा देवी के नाम पर भी एक जंगल खड़ा किया है।
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