मैंग्रोव वनों से रुकेंगी सूनामी लहरें

प्रकृति के रक्षक मैंग्रोव वन
प्रकृति के रक्षक मैंग्रोव वन

जापान में सूनामी के बाद पैदा हुए फुकुशिमा संकट ने दुनिया भर में जहां परमाणु संयंत्रों के सुरक्षा इंतजामों पर बहस खड़ी की है, वहीं ऐसे हादसों के खिलाफ प्राकृतिक उपायों को मजबूत करने की मांग भी उठने लगी है। अब यह साफ तौर पर नजर आने लगा है कि ग्लोबल वॉर्मिंग, पर्यावरण के असंतुलन और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी हो रही है और ये आपदाएं अब पहले की तुलना में ज्यादा विनाशकारी साबित हो रही हैं।

देखा जाए तो विज्ञान की तमाम उपलब्धियों के बावजूद भूकंप और व सूनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। अलबत्ता, प्राकृतिक उपायों द्वारा इनके दुष्परिणामों को कम अवश्य किया जा सकता है। ऐसे उपायों में एक महत्वपूर्ण भूमिका तटीय इलाकों में सुरक्षा दीवार के रूप में काम करने वाले मैंग्रोव वनों की है। यही वजह है कि हाल में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने सरकार से कलपक्कम और कुंडनकुलम एटॉमिक रिएक्टरों के नजदीक तटीय क्षेत्र में घने मैंग्रोव वन लगाने की सलाह दी है।

 

 

जंगल सदाबहार


मैंग्रोव वनों को समुद्र के सदाबहार वन भी कहा जाता है। इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि समुद्र में पाए जाने वाले 90 फीसदी जीव-जंतु अपने जीवन का कुछ न कुछ हिस्सा मैंग्रोव तंत्र में अवश्य बिताते हैं। पूरी दुनिया में भूमध्यरेखा के एकदम नजदीक के बेहद गर्म इलाकों और फिर इसके अलग-बगल के थोड़े कम गर्म और नम तटीय क्षेत्रों में पाए जाने वाली मैंग्रोव वनस्पतियां कभी 3.2 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को ढके हुए थीं जो कि आज आधे से भी कम अर्थात 1.5 करोड़ हेक्टेयर में सिमट गई हैं। कभी मैंग्रोव वन भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के तटीय क्षेत्रों के काफी बड़े इलाके में छाए हुए थे, लेकिन उनका 80 फीसदी हिस्सा पिछले छह दशकों में नष्ट हो चुका है।

समुद्री तूफान जैसी आपदा के समय तटीय क्षेत्रों के लिए सुरक्षा पंक्ति का काम करने वाले ये मैंग्रोव वन आज गहरे संकट में हैं। वैसे तो इन वनों के अस्तित्व को लेकर काफी समय से चिंता जताई जा रही थी, लेकिन इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की हाल की एक रिपोर्ट ने दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक तटीय क्षेत्रों में चल रही विकास गतिविधियों के कारण दुनिया में हर छह में से एक मैंग्रोव प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार मैंग्रोव वन सालाना एक से दो फीसदी की दर से नष्ट हो रहे हैं और 120 में से 26 देशों में इनके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

 

 

 

 

सुरक्षा और रोजीरोटी


आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों नजरियों से मैंग्रोव वनों का नष्ट होना काफी नुकसानदेह है। ये वन न केवल जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सक्षम होते हैं, बल्कि ये तटीय क्षेत्रों के लोगों को रोजी रोटी भी मुहैया कराते हैं। समुद्री जीव-जंतुओं के अलावा अनेक जंगली जीवों को भी मैंग्रोव वनों में आश्रय मिलता है। इनकी मजबूत जड़ें समुद्री लहरों से तटों का कटाव होने से बचाती हैं। घने मैंग्रोव चक्रवाती तूफान की गति धीमी करके तटीय आबादी को तबाही से बचाते हैं। 1999 में उड़ीसा में आए भयंकर चक्रवात में उन इलाकों में कम हानि हुई थी जहां मैंग्रोव वन मौजूद थे।

उस साइक्लोन के बाद दिल्ली और ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की एक टीम ने केंदपाड़ा जिले में चक्रवात का असर कम करने में मैंग्रोव वनों की भूमिका पर अध्ययन किया या। टीम ने अपने आकलन में पाया कि जहां मैंग्रोव की काफी चौड़ी कतार मौजूद थी, उन क्षेत्रों में बहुत कम मौतें हुईं। इसके विपरीत जहां मैंग्रोव वनों की चौड़ाई कम थी, वहां बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान हुआ। अध्ययन में पता लग कि 1944 में उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले में गांवों और समुद्र तट के बीच मैंग्रोव वनों की औसत चौड़ाई 5.1 किमी थी। लेकिन उसके बाद से धान की खेती के लिए तटीय इलाकों से मैंग्रोव वनों को बड़े पैमाने पर साफ कर दिया गया था, जिसके कारण मैंग्रोव वनों की औसत चौड़ाई सिकुड़ कर 1.2 किमी रह गई थी।

1999 में उड़ीसा में आई चक्रवातीय लहरों के कारण 10 हजार से अधिक मौतें हुई थीं। 26 दिसंबर 2004 को जब पूर्वी तट पर सूनामी लहरों का प्रकोप हुआ था, तब तमिलनाडु के पिचावरम और मुथेपेट के घने मैंग्रोव वाले क्षेत्रों में सबसे कम विनाश हुआ।

 

 

 

 

अनुत्पादक मानने का खतरा


दरअसल तटीय इलाकों में खेती और विकास गतिविधियां मैंग्रोव वनों के लिए काल बन गई हैं। बढ़ती जनसंख्या के वास्ते खाद्यान्नों की मांग में जो इजाफा हो रहा है, उसके कारण मैंग्रोव वनों को अनुत्पादक मान लिया गया है। इसीलिए इन्हें साफ कर तटीय इलाकों का उपयोग धान की खेती, नमक उत्पादन, झींगा मछली पालन, आवासीय बंदरगाह, औद्योगिक व पर्यटन केंद्रों के रूप में किया जाने लगा है। इसके अलावा बांधों और सिंचाई परियोजनाओं के कारण तटीय क्षेत्रों में ताजे पानी की मात्रा में कमी आई जिससे समुद्री जल का खारापन बढ़ गया है। इन सब बदलावों का भी मैंग्रोव वनों पर प्रतिकूल असर पड़ा है।

जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले खतरों ने आज पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। वनों के विनाश और जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा वैश्विक तापमान में लगातार बढ़ोतरी कर रही है। भौतिकतावादी जीवन दर्शन ने दुनिया के अस्तित्व के सामने संकट खड़ा कर दिया है। इससे निपटने के लिए भले ही तरह-तरह के सम्मेलन और अंतर्राष्ट्रीय संधियां की जा रही हों, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला है। मनुष्य विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति की सुरक्षा पंक्तियों को तहस-नहस करता जा रहा है।

 

 

 

 

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