मैंग्रोव संरक्षण

मैंग्रोव‘मैंग्रोव’ एक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियों का संग्रह है, जो खारे पानी को सहन कर सकती हैं और समुद्री पानी में आंशिक रूप में जलप्लावित होने पर भी फलने-फूलने की क्षमता रखती है।

पुर्तगाली शब्द ‘मैन्गयू’ और अंग्रेजी शब्द ‘ग्रोव’ से मिलकर ‘मैंग्रोव’ शब्द की उत्पत्ति हुई है। मैन्गयू का अर्थ होता है ‘सामूहिक’ और ग्रोव का अर्थ होता है ‘सामान्य से कम विकसित ठिगने पेड़-पौधों का जंगल।’ हिन्दी भाषा में इन्हें ‘कच्छीय वनस्पति’ के नाम से जाना जाता है।

मैंग्रोव जंगल, समुद्रतटों पर नदियों के मुहानों एवं उनके ज्वार से प्रभावित अन्तरस्थलीय (इनलैण्ड) क्षेत्रों में पाए जाते हैं। एक संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र के अन्तर्गत सही सन्तुलन बनाए रखने के लिए समुद्रतटीय क्षेत्रों को विघटनकारी महाशक्ति, समुद्री लहरों से लगातार संघर्ष करना पड़ता है। इससे बचाव एवं संरक्षण के लिए प्रकृति ने कई प्रकार के प्रतिरोधक स्वयं स्थापित किए हैं। सर्वप्रथम, उष्णकटिबंधीय समुद्र कई प्रकार की कोरल खाड़ियों से भरे पड़े हैं जो इन लहरों के प्रभाव को तटीय क्षेत्रों में कम करते हैं। इसके पश्चात बालू-घाट, कीचड़ एवं मैंग्रोव लहरों की गति कम कर उसे अपने नियन्त्रण में ले लेते हैं। इस प्रकार की प्राकृतिक व्यवस्था समुद्रतटीय क्षेत्रों के लिए एक प्रतिरक्षा कवच का कार्य करती है।

प्राप्ति क्षेत्र


अनुमानों के अनुसार, विश्व में 60 से 70 प्रतिशत उष्णकटिबंधीय (ट्रापिकल) समुद्रतटीय रेखा मैंग्रोव से आच्छादित है। पर उष्ण-कटिबंधीय समुद्र तटों पर पाई जाने वाली सभी वनस्पतियों को मैंग्रोव नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह शब्दावली विशेष प्रकार के पेड़-पौधों के समूहों के लिए उपयोग की जाती है, जिनका भौगोलिक परिवेश अगले पृष्ठ पर तालिका-1 में उल्लिखित विशिष्टता लिए होता है।

समुद्र का पानी खारा होता है और उसमें नाइट्रोजन की बहुत कमी होती है, जो जीवन विकास और जीवित-उत्तकों (लिविंग टिस्यूज) के लिए अत्यन्त आवश्यक है। नदियों द्वारा समुद्र तक बहा कर लाए पानी में मृत वनस्पति और जीव पदार्थ होते हैं, जो इस कमी को पूरा करते हैं। इसलिए ज्वार-नदमुख क्षेत्रों का पानी बहुत उपजाऊ होता है जबकि खुले समुद्र में मुख्य भूमि से दूर समुद्री पानी अनुपजाऊ होता है और केवल कोरल रीफ जैसे स्वपोषण-तन्त्रों (सेल्फ सस्टेनिंग) को ही आश्रय देने की क्षमता रखता है। ज्वार-नदमुख वाले इन उपजाऊ क्षेत्रों में प्रकृति ने स्थानीय पर्यावरण के साथ तालमेल बैठाकर अपने ही प्रकार की अनोखी वनस्पतियों-मैंग्रोव को जन्म दिया है।

उत्पत्ति


मैंग्रोव की उत्पत्ति समुद्र तट के आस-पास के क्षेत्र में नदी मुहानों पर, नदियों द्वारा बहा कर लाए गए मलबे के जमा होने से होती है। बरसात के समय नदियाँ अपने प्रवाह क्षेत्र से काफी मात्रा में मिट्टी बहाकर समुद्र तक पहुँचाती हैं, जो नदी मुख एवं समुद्र-तट के संगम स्थल में फैलकर जमा होने लगता है और स्थलाकृतिक परिवेश अनुकूल होने पर वहाँ छोटे-बड़े डेल्टाओं का जन्म होता है। यदि उल्लिखित (तालिका) पाँचों विशिष्टताएँ वहाँ विद्यमान हों, तो इस प्रकार के डेल्टाओं में मैंग्रोव स्थापित होते हैं।

संरचनात्मक विशेषताएँ


मैंग्रोव के बारे में कहा जा सकता है कि वे समुद्र से जमीन को प्राप्त (रिक्लेम) करते हैं। ये काफी शीघ्रता से मलबे में जड़ें पकड़ने एवं विकास करने में सक्षम होते हैं और उनकी यह गति उतनी ही तेज होती है, जितनी गति एवं तीव्रता से नदियाँ उनके विकास के लिए मलबा नदी-मुख क्षेत्रों में लाती है। यह कहना कठिन है कि मैंग्रोव के कारण मलबा जमा होना आरम्भ हुआ या मलबे के कारण ने जड़ पकड़ना एवं विकसित होना आरम्भ किया।

समुद्र से जमीन प्राप्त करने की इनकी इस अद्भुत क्षमता का प्रत्यक्ष उदाहरण है कलकत्ता महानगरी। कुछ वर्ष पूर्व कलकत्ता मैट्रो (भूमिगत रेल सेवा) निर्माण के लिए खुदाई करते समय कई स्थानों पर, 3 से 5 मीटर गहराई में पीट (कोयला निर्माण शृंखला का प्रथम चरण) की मोटी परतें पाई गईं जिनमें कई जातियों के मैंग्रोव अवशेष देखने में आए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कलकत्ता शहर कभी अतीत में सुन्दरवन जैसा मैंग्रोव क्षेत्र था। पर एक बात अवश्य है- मैंग्रोव की जड़ संरचना मलबे के जमने (सेटल) में सहायक होती है। जब एक बार किसी स्थान पर मैंग्रोव विकसित हो जाते हैं, तब नदियों द्वारा लगातार लाया गया मलबा वहाँ जमा होने लगता है जिसके फलस्वरूप उस स्थान पर जमीन ऊपर उठने की प्रक्रिया आरम्भ होने लगती है। इस प्रकार समुद्र-तट का वह भाग जो छिछला या पानी के भीतर ज्वारीय फलैट था, वह ठोस रूप लेने लगता है। नदी मुखों पर इस प्रकार की क्रिया अनवरत रूप में होते रहने के कारण इन स्थानों पर डेल्टाओं का जन्म होता है।

मैंग्रोव कम ऊँचाई (9 मीटर तक) के घने जंगलों के रूप में पाए जाते हैं। इन वनस्पतियों की जड़ और बीज-उत्पादन व्यवस्था अनोखी होती है। मुलायम एवं असंगठित क्षेत्रों से जुड़े रहने के लिए इन्होंने भौतिकीय अनुकूलन विधि को अपनाया है।

इनकी जड़ संरचना को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक में, तने (स्टेम) के ऊपरी भाग से बहुत सारी जड़ें निकल कर नीचे की ओर झुकती एवं मुख्य तने से दूर फैलती, मलबे तक पहुँच उसे जकड़ लेती हैं। दूसरे में, जड़ समस्तर (हॉरिजॉन्टली) रूप में फैलती हैं और इनमें से ‘मुड़े घुटने’ (बेन्ट नी) के समान कई जड़ें ऊपर-नीचे की ओर निकलती हैं। तीसरे में जड़ समस्तर रूप में ही फैलती है, पर इनसे कई जड़ें ऊपर की ओर निकलती हैं। इन तीनों स्थितियों में नई जड़ों का कुछ भाग मलबे/दलदल की सतह के ऊपर रहता है, जिनमें उपस्थित छिद्रों के माध्यम से ये पेड़ ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन-डाई-ऑक्साइड का बहिष्कार करते हैं। जैसे-जैसे जमीन ऊपर उठती है, इन नई जड़ों से नए पेड़ों के तने उभरते हैं एवं पुरानी क्रिया नये सिरे से आरम्भ होने लगती है और पुरानी जड़ें धीरे-धीरे मलबे के भीतर दबती रहती हैं।

तालिका
मैंग्रोव उद्भव के लिए मूल आवश्यकता
विश्ष्टिता

क्र.सं.

आयाम

विवरण

1.

उष्णकटिबंधीय तापमान

मैंग्रोव का सबसे उत्तम विकास ऐसे समुद्र तटों पर पाया जाता है जहाँ वर्ष के सबसे ठंडे महीने में औसतन तापमान 20 डिग्री सेन्टीग्रेड से ऊपर रहता है और मौसमी तापमान परिसर 5 डिग्री सेन्टीग्रेड से ज्यादा नहीं होता।

2.

महीन बलुआ मिट्टी

उच्चकोटि के मैंग्रोव का विकास दलदली तटों, महीन गाद (सिल्ट), चिकनी मिट्टी (आर्गेनिक मैटर) से भरपूर मुलायम कीचड़ (मड) वाले स्थानों पर होता है, जहाँ पौधे पनप सकते हैं।

3.

सुरक्षित समुद्र तट

नदी-मुहानों के सुरक्षित तट, जहाँ लहरों और ज्वार का वेग कम होता है। ऐसा न होने पर शक्तिशाली लहरें एवं ज्वार पौधों को उखाड़ कर मिट्टी के साथ बहा ले जाते हैं।

4.

वृहद ज्वारीय परिसर

बहुत चौड़े एवं सपाट ज्वारीय तटों में मैंग्रोव का विकास सबसे अच्छा होता है।

5.

खारा पानी

मैंग्रोव खारे पानी को सहन कर सकते हैं, यानी वे ‘हैलोफाइट्स’ होते हैं और ज्वारीय अधिकृत क्षेत्र तक सीमित होते हैं, जबकि साफ पानी वाले पौधे खारे पानी में पनप नहीं पाते हैं।

 


दलदली पर्यावरण को दूखते हुए, बीज प्रजनन के लिए भी इन पेड़ों ने विशेष अनुकूलन विधि अपनाई है। इनके बीज, मुख्य पेड़ से अलग होकर दलदल में गिरने के पूर्व ही अंकुरित हो जाते हैं ताकि गिरने के साथ-साथ अपनी जड़ जमा सकें। कई बार बीज अभी मुख्य पेड़ से अलग नहीं हुआ होता है, लेकिन बीज से अंकुरित प्रारम्भिक जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हुई, दलदल तक पहुँचकर जड़ पकड़ लेती हैं और बीज बाद में पेड़ से अलग होता है। इसके अलावा इनका बीज काफी भारी एवं गूदा लिए हुए, एक साहुल (प्लम बाब) के समान होता है, ताकि दलदल में गिरने पर उसके भीतर गहराई तक समा सके। इनके बीज पानी द्वारा बहाए ले जाने पर भी काफी दिनों तक जीवित रह सकते हैं। इन्हें उदभिद-बीज-धारी (विविपरस) कहा जाता है।

समुद्री ज्वार, इन पेड़ों को ‘नमक सहनशीलता गुणों’ के आधार पर छाँटने में सक्षम हैं जिसके फलस्वरूप एक समान नमक सहनशील जातियों के मैंग्रोव समूह अलग-अलग क्षेत्रों में पाए जाते हैं। समुद्र-तटीय रेखा से अन्तरस्थलीय भागों की ओर बढ़ने के साथ-साथ पानी/दलदल में नमक की मात्रा धीरे-धीरे कम होती जाती है। इसीलिए सबसे ज्यादा नमक सहनशील पेड़ समुद्रतटीय रेखा के साथ-साथ पाए जाते हैं। इसके पश्चात अन्तरस्थलीय क्षेत्र की ओर बढ़ने पर उससे कुछ कम, फिर और भी कम नमक सहनशीलता वाले पेड़ अलग-अलग समूहों में पाए जाते हैं। अन्त में जमीन ऊपर उठने पर जब मीठे पानी के क्षेत्र आ पहुँचते हैं, तब मैंग्रोव क्षेत्र समाप्त हो जाता है।

भारतीय मैंग्रोव


भारत तीन दिशाओं में समुद्र से घिरा हुआ है। भारतीय समुद्रतटीय रेखा, पश्चिम में पाकिस्तान की सीमा से गुजरात, कोंकण, मलाबार घाट होते हुए, कन्याकुमारी में ऊपर की ओर घूमती हुई कोरमण्डल और फिर बंगाल के सुन्दरवन पार करती हुई बंग्लादेश की सीमा में मिलने तक लगभग 5500 किलोमीटर लम्बी है। अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों को मिलाकर भारतीय समुद्र तटीय रेखा की लम्बाई 6083 किलोमीटर है।

इस लम्बी समुद्र-तटीय रेखा के अन्तर्गत लगभग 400 किलोमीटर लम्बे क्षेत्र में मैंग्रोव-बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात एवं अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों में अलग-अलग स्थानों में देखने को मिलते हैं। भारत में इनके क्षेत्रफल का कुल जोड़ चार लाख हेक्टेयर के लगभग है। पश्चिम बंगाल (2 लाख हेक्टेयर) और अंडमान-निकोबार (1 लाख हेक्टेयर) में भारत के 85 प्रतिशत मैंग्रोव अवस्थित हैं। पश्चिमी तट की अपेक्षा पूर्वी तट पर ज्यादा (70 प्रतिशत) मैंग्रोव पाए जाते हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहानों में विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव प्रदेश ‘सुंदरवन’ 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है जिसका अधिकतर भाग बंग्लादेश एवं एक छोटा-सा भाग प. बंगाल में अवस्थित है।

‘मैंग्रोव’ एक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियों का संग्रह है जो खारे पानी को सहन कर सकती हैं और समुद्री पानी में आंशिक रूप से जलप्लावित होने पर भी फलने-फूलने की क्षमता रखती हैं। समुद्र तटों में भू-कटाव और अन्तरदेशीय सूखा रोकने में इनका प्रभावशाली योगदान होता है। जलवायु सन्तुलन एवं जीवन क्रियाशीलता बनाए रखने में ये अहम भूमिका निभाते हैं। लेखक का कहना है कि मैंग्रोव की इन्हीं सब खूबियों को देखते हुए इनको संरक्षण देना मानव के अपने हित में है।

भारतीय मैंग्रोव प्रदेशों के जन्मस्थान और उनके फैलाव एवं आकार को समझने के लिए भारत के नदी-तन्त्र भूविज्ञान एवं उनके प्रवाह क्षेत्र के स्थलाकृतिक परिवेश को समझना होगा। भारत में नदियों के दो उद्गम स्थल हैं- हिमालय पर्व शृंखलाएँ और डेकन-पेनिन्सुला। गंगा, ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों (कुछ एक को छोड़कर) का उद्गम हिमालय क्षेत्र में होता है; और महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा तापी व अन्य नदियाँ अरब सागर के बहुत पास डेकन-पेनिन्सुला से निकलती हैं। पर इन दोनों क्षेत्रों से निकलने वाली सभी नदियाँ पूर्व की ओर बहती हैं और अपने जल का अवतरण (डिसचार्ज) पूर्वी तट पर बंगाल की खाड़ी में करती हैं। केवल अपवाद स्वरूप नर्मदा, तापी और कुछ अन्य छोटी नदियाँ पश्चिमी तट की ओर बहती हैं और उनका अन्त अरब सागर में होता है।

महत्व


एक जीवन्त सम्पत्ति होने के कारण मैंग्रोव आत्मनिर्भर और पुनरुज्जीवित होने की क्षमता रखते हैं। एक प्राकृतिक अवरोधक के रूप में समुद्रतटीय एवं अन्तरस्थलीय क्षेत्रों में पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं।

मैंग्रोव क्षेत्रों में हम देख सकते हैं कि किस प्रकार ‘जीवन’ का परिवर्तन ‘भौतिक तत्व’ में होता है और कैसे ‘भौतिक तत्व’ द्वारा ‘जीवन’ को सहारा देने के कारण, वह फिर ‘भौतिक तत्व’ का रूप ले लेता है। इस दृष्टि से प्रकृति ने हमें मैंग्रोव के रूप में एक प्राकृतिक प्रयोगशाला स्वतः प्रदान की है- चाहे वे वर्जीनिया के मनहूस दलदल हों, फ्लोरिडा के घासीय कच्छ हों, इन्डोनेशिया के दलदल हों या अपने ही देश में गंगा-ब्रह्मपुत्र नदीमुखों में स्थित ‘सुंदरवन’ हों। भविष्य के पर्यावरण सुरक्षा कार्यक्रम तैयार करने में इन क्षेत्रों के लगातार अध्ययन से बहुत सहायता मिलेगी क्योंकि ये स्वयं में प्रकृति द्वारा स्थापित पर्यावरण सुरक्षा के अंग हैं।

प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में मैंग्रोव का आर्थिक महत्व भी कम नहीं है। ऊर्जा के लिए लकड़ी उपलब्ध करने के अलावा मैंग्रोव कई विशिष्ट पेड़-पौधों के माध्यम से शाकाहारी जीवों के लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं जैसे शहद, फल-फूल, साग, चारा आदि। इन जंगलों में औषधि निर्माण के लिए वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। यहाँ से प्राप्त टैनिन का उपयोग चर्म, स्याही, प्लास्टिक आदि उद्योगों में किया जाता है।

भारतीय मैंग्रोव क्षेत्र में विशेष प्रकार के पशु-पक्षी निवास करते हैं। पक्षियों में मुख्यतः प्रवासी (माइग्रेटरी) होते हैं। इनकी कई जातियाँ, जाड़े के दिनों उत्तरी-गोलार्ध की ठंड से बचने एवं प्रजनन के लिए यहाँ आती हैं। टाइगर, हिरण, जंगली सूअर, लंगूर, बंदर, उड़न लोमड़ी, उदबिलाव, गोह, साँप आदि यहाँ के स्थानीय निवासी हैं। कई अन्य माँसाहारी जीव जैसे जंगली बिल्ली एवं नेवले, मैंग्रोव क्षेत्र में शिकार के लिए आया-जाया तो करते हैं पर स्थायी रूप में निवास नहीं करते। इनके अलावा कई प्रकार के केकड़े एवं असंख्य कीड़े-मकोड़े यहाँ निवास करते हैं। पानी की मुख्यधारा में यहाँ घड़ियाल भी बहुत मिलते हैं।

मैंग्रोव कई प्रकार की मछलियों के अण्डजनन क्षेत्र हैं। इनमें उपस्थित वनस्पतियों और जीवों के अंश एवं पौष्टिक पदार्थ नाना प्रकार के समुद्री जीवों के लिए भोजन उपलब्ध कराते हैं और ये जीव अप्रत्यक्ष रूप में मत्स्यिकी (फिशरीज) को सहारा देते हैं। इन प्राकृतिक आवासों में संसार की सबसे अधिक चित्ताकर्षक एवं प्राणाधार समुद्री नर्सरियाँ विद्यमान हैं। आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, नब्बे प्रतिशत (90 प्रतिशत) उष्ण-कटिबंधीय समुद्री मछलियाँ अपने जीवन चक्र की कोई एक अवस्था (स्टेज) मैंग्रोव ज्वारनदमुख क्षेत्र में अवश्य व्यतीत करती हैं।

घड़ियाल एवं प्रवासी पक्षी, अपने कार्य-कलापों द्वारा मत्स्यिकी को सहारा देने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। नदियाँ अपने मलबे के साथ कई मृत जीव भी लाती हैं, जिनका भोजन कर घड़ियाल इन क्षेत्रों में सफाई के रखवाले का कार्य करने के अलावा बड़ी-परभक्षी (प्रेड्अटरी) मछलियों (जो आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण छोटी मछलियों को खाती हैं) को खाकर मत्स्यिकी को मदद देते हैं। इनके द्वारा शिकार का पीछा करने पर अन्य मछलियाँ पानी के भीतर भागने लगती हैं और इनकी प्रभावशाली लम्बी एवं चपटी पूँछ, तैरते समय पानी को जोरदार ढँग से ठेलती हैं, जिसके फलस्वरूप पानी में वायु-मिश्रण (एओरशन) द्वारा मछलियों को उचित मात्रा (3 से 6 पी.पी.एम.) में ऑक्सीजन मिलती रहती है। इस प्रकार की कार्यवाही मछलियों के विकास के लिए बहुत आवश्यक है, क्योंकि भिन्न-भिन्न मछलियाँ पानी के भीतर अलग-अलग गहराइयों में जीवन-यापन करती हैं। घड़ियालों की गतिविधियों के अध्ययन के फलस्वरूप आधुनिक मछली-फार्मों में वातक (एअरेटर) यन्त्रों का उपयोग कर एक ही तालाब में कई जाति की मछलियों को पालना संभव हुआ है।

इसी प्रकार प्रवासी पक्षी भी तैरने, खेलने एवं आखेट की अपनी कार्यवाही द्वारा वायु-मिश्रण में सहायता तो देते ही हैं, लेकिन उनका बीट सीधे पानी में घुलने से कार्बन, नाइट्रोजन और पोटेशियम की मात्रा बढ़ती रहती है, जिससे मछलियों के लिए प्राकृतिक आहार जीवपुँज समृद्ध होते हैं और मछलियों की संख्या बढ़ती है। कीड़े-मकोड़ों की खोज में ये पक्षी जमीन को चोंचों से खोदते रहते हैं, जिसके कारण मलबे में उपस्थित पौष्टिक तत्व पानी में घुलते रहते हैं और प्लवक (प्लैन्कटन) उत्पादन बढ़ता है जो मछलियों का एक महत्त्वपूर्ण आहार है। इसके अलावा ये पक्षी, टैडपोल, अपतृण (वीड) मछलियों आदि परिभक्षियों को खाकर मछलियों के ‘फिन्गरलिंगस’ (मछलियों के जीवन चक्र की चौथी स्थिति) के विकास में सहायक होते हैं। पानी में मछलियों की उपस्थिति एक संकेत होता है कि उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी व्यवस्था स्वस्थ है और वहाँ पक्षियों को परजीवी (पैरासाइट) छूत और अन्य किसी बीमारी का भय नहीं रहता है एवं पक्षियों को मृत्युदर भी स्वच्छ पर्यावरण के कारण कम होती है। विशेषज्ञों की राय में एक ही तालाब में मछली और बत्तख पालन करने से, जहाँ एक ओर पानी की सतह का पूरा उपयोग किया जा सकता है, तो दूसरी ओर-वातक’ यन्त्र की आवश्यकता नहीं रहती और इन दोनों प्राणियों को बाहर से अतिरिक्त भोजन भी कम देना पड़ता है फलस्वरूप आर्थिक लाभ में वृद्धि होती है।

इसी प्रकार यहाँ पाए जाने वाले अन्य जीवन स्वरूप भी प्रकृति ने पारिस्थितिकी तन्त्र में सन्तुलन बनाए रखकर निरन्तर विकासशील एवं गतिमान रहने के लिए गढ़े हैं। प्रत्येक जीवन इसमें योगदान देता है और सब आपस में एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। कोई भी प्राकृतिक देन निरूद्देश्य नहीं है।

निष्कर्ष


समुद्री क्षेत्रों में पाए जाने वाले पेड़-पौधों में मुख्यतः नमक सहन करने की क्षमता होती है और इस बारे में कोई शंका नहीं है कि इस प्रकार का सबसे अच्छा अनुकूल उदाहरण मैंग्रोव प्रस्तुत करते हैं। समुद्र तटों में भू-कटाव और अन्तरदेशीय सूखा (इनलैण्ड ड्राउट) रोकने में इनका प्रभावशाली योगदान होता है। ये स्थानीय एवं विश्व में जलवायु सन्तुलन एवं जीवन क्रियाशीलता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। इनके कार्यों के लिए मानव को किसी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं उठाना पड़ता है।

जैविक विविधता पाए जाने के कारण मैंग्रोव जीन-निकायों (जीन पूल्स) की क्षमता रखते हैं, जिसके सहारे ये भविष्य में अपनी जाति की रक्षा और अनेकरूपता बनाए रखने में समर्थ हैं। पर यह तभी सम्भव है, जब मनुष्य आधुनिकता प्राप्त करने की अपनी दौड़ में इनके जीवन के लिए आवश्यक बुनियादी निर्माण खण्डों के साथ छेड़छाड़ न करें। इसीलिए इनको संरक्षण देना मानव के अपने हित में है।

(लेखक कोल इंडिया लिमिटेड से मुख्य महाप्रबन्धक (अन्वेषण) के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं।)

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