पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि समुद्र मंथन से निकला विष पीने वाले भगवान शिव तरह-तरह के प्राणियों के साथ शान्त वातावरण में रहना पसन्द करते हैं। भोलेनाथ का अगर कैलाश या काशी या काठमांडु में आने वाले भक्तों और पर्यटकों से जी उकता जाये, तो मुदियाली उनके रहने योग्य जगह है।
यह पशुपतिनाथ का सजीव मन्दिर है, भले उनकी मूर्ति यहाँ हो या न हो। - ये हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘जल-थल-मल’ में लेखक सोपान जोशी के शब्द हैं। विशाल कलेवर की पुस्तक में मुदियाली सहकारी समिति से सम्बन्धित उद्धरण को मामूली जोड़-घटाव के साथ यहाँ दिया जा रहा है। मकसद इसे रेखांकित करना है कि देश भर के लिये समस्या बनी शहरी मलजल और औद्योगिक कचरे को निपटाने में यह कुछ मछुआरों द्वारा प्रस्तुत उदाहरण अनुकरणीय हो सकता है।
पूर्वी कोलकाता की भेरियों में पैदा की गई मछलियों का कुछ संस्थाओं ने प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया, यह जानने के लिये कि जहरीले रसायनों की मात्रा इन मछलियों में कितनी है?
अलग-अलग परीक्षणों के अलग-अलग नतीजे हैं। कुछ में विष की मात्रा खतरे के नीचे थी, कुछ में ऊपर। लेकिन अब तक इस नायाब प्रकार के मछली पालन को रोकने का कारण सरकार को नहीं मिले हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि शहर भर का मैला और जहर इन मछलियों के शरीर में टिकता नहीं है?
यह जानने के लिये कोलकाता के ही एक दूसरे इलाके तक जाना जरूरी है क्योंकि इस इलाके में मछली पालन शहर के मैले पानी से नहीं, सीधे कारखानों से निकले झागदार स्राव से होता है। इसे मुदियाली नेचर पार्क कहते हैं जिसे मछुआरों की एक सहकारी समिति चलाती है।
यह कोलकाता बंदरगाह की परित्यक्त भूमि पर स्थित है और 82 एकड़ में फैली है। इसके पास ही कारखानों का पुराना इलाका स्थित है जिसमें भारतीय उद्योग के सबसे बड़े नाम शुरू से मौजूद है। हर रोज ढाई करोड़ लीटर मैला पानी आता है जिसमें ज्यादातर उद्योग के निस्तार का प्रदूषित पानी होता है और बाकी पड़ोस के घरों की नालियों का मैला पानी।
इस जहर बुझे पानी से मुदियाली के मछुआरे ऐसा क्या करते हैं कि हुगली नदी में जाने से पहले यह मैला पानी काफी साफ तो हो ही जाता है, ढेर सारी साफ-सुथरी मछली भी पैदा होती है? अनपढ़ मछुआरे ऐसा क्या करते हैं जो पढ़े-लिखे आला अफसरों के बनाए मैले पानी के कारखाने भी कई जगहों पर नहीं कर पाते?
पिछले 40-50 साल से मुदियाली के मछुआरे यह बता रहे हैं कि अगर प्रकृति को अवसर दिया जाये और उसके साथ मिलकर साहचर्य में काम किया जाये तो वह थोड़े ही समय में हमारे कई तरह के पाप धो देती है। और इसके लिये गंगा में डूबकी लगानी पड़े ऐसा नहीं है। मुदियाली की भेरियाँ भी कोलकाता के पाप धोती हैं। इसका शास्त्र चाहे जितना चमत्कारी क्यों न लगे, समझने में बहुत मुश्किल नहीं है।
मैले पानी को एक-एक करके छह भेरियों से निकाला जाता है। हर चरण में उसका एक तरह का संस्कार होता है। इसमें सबसे गूढ़ कला है पानी का स्वभाव समझना, ताकि उसे ठीक समय पर ठीक भेरी में भेजा जा सके। पहले मैले पानी को एक संकरे नाले में डालकर खड़ा रखा जाता है और उसमें चूना मिलाया जाता है।
पानी अगर बहुत दूषित हो तो उसमें मछली साँस नहीं ले सकती। इसलिये पहले हिस्से में ऐसी ही मछलियाँ छोड़ी जाती हैं जो भगवान शिव की तरह गरल सहने की ताकत रखती हैं। जब पानी में जानलेवा जहर की मात्रा बढ़ती है या प्राणवायु कम हो जाती है तो ये मछलियाँ गलफड़े से साँस लेने की बजाय मुँह सतह के ऊपर निकालकर सीधे हवा में साँस ले सकती हैं। जब तक मछली ऊपर साँस लेती है तब तक पानी आगे नहीं छोड़ा जाता।
पानी की गुणवत्ता परखने का यह तरीका अचूक है। जब तक मछलियों के व्यवहार से यह सिद्ध न हो जाये कि पानी में सुधार हुआ है तब तक उस पानी को अगली भेरी में नहीं भेजा जाता है। जब मछली पानी के भीतर साँस लेने लगती है तब पता चल जाता है कि पानी में पर्याप्त प्राणवायु घुल चुकी है। इस मैले पानी को ऐसी भेरी में डाला जाता है जिसमें जलकुभी जैसे पौधे लगे होते हैं, जो कई तरह के विष सोख लेते हैं। एक भेरी से दूसरी भेरी के रास्ते में फिर वही मछलियाँ रखी जाती है जो उसके गुणवत्ता के संकेत देती हैं।
इतनी सावधानी बरतने की वजह से यहाँ मछलियाँ खूब तेजी से पलती हैं। उनका स्वास्थ्य भी दूसरी भेरियों की मछलियों से बेहतर पाया गया है क्योंकि यहाँ मछुआरे ढेर सारी चिड़ियों को रहने देते हैं। इनमें कई पक्षी मछली खाते हैं और इनके रहने से मछलियों की पकड़ में थोड़ी कमी भी आती है।
लेकिन फिर भी इस नुकसान को मुदियाली के मछुआरे सहते हैं क्योंकि इन पक्षियों की चोंच से बचने के लिये मछलियों को दम लगाकर तैरते रहना पड़ता है। वर्जिश उन्हें तन्दुरुस्त रखती है। फिर पक्षियों की बीट से मछलियों को खाद भी मिलती है। पूर्वी कोलकाता की भेरियों में घोंघे खाने वाली बतख की बीट को आप एक बार याद कर सकते हैं।
चिड़ियों को घोसला बनाने के लिये ढेर सारे पेड़ चाहिए होते हैं। सो मुदियाली के मछुआरों ने एक लाख से अधिक पेड़ लगाए हैं अपनी भेरियों के पाट पर। इस पर पक्षी घोसला बनाते हैं। यहाँ पेड़ भी सूझ-बूझ से चुने गए हैं।
सुलबूल जैसे पेड़ हवा से नाइट्रोजन खींचकर मछलियों को भोजन भी देते हैं। नीम जैसे पेड़ पानी की सफाई में मदद देते हैं। कई फलदार पेड़ भी लगाए गए हैं जो तरह-तरह के प्राणियों को भोजन देकर पालते हैं और उनकी उपस्थिति से लाभ भी पाते हैं। नतीजा?
यहाँ 30 से ज्यादा प्रजातियों की मछलियाँ हैं और 140 से ज्यादा पक्षियों की। इन पक्षियों के पास शहर और आसपास रहने की जगह कम ही बची है। यहाँ 27 प्रजातियाँ प्रवासी पक्षियों की हैं जो दूर देश से आते हैं और जिनके दर्शन को दुनिया तरसती है। यहाँ ये सहज ही विचरते हैं।
प्रकृति के रास का अभिन्न अंग तितलियाँ भी यहाँ अनेक हैं। इनकी 84 प्रजातियाँ यहाँ गिनी गई हैं। कोलकाता की दम घोंटने वाली भीड़ के बीच यहाँ का अरण्यक वातावरण किसी मलहम से कम नहीं लगता।
इतने तरह के प्राणियों के महारास से वातावरण में कल्लोल और रंग सदा ही रहता है। हर रोज कोई 600 से अधिक लोग 10 रुपए का टिकट लेकर वह शान्ति ढूँढने आते हैं जो उन्हें कोलकाता की भीड़ में कहीं और नहीं मिलती।
हजारों पक्षियों की ही तरह कई प्रेमी युगल भी देखे जा सकते हैं। उद्योग के जहरीले कचरे को ग्रहण कर मुदियाली के मछुआरे हर रोज अपने पौरुष से अपना रोजगार तो कमाते ही हैं, उससे कई तरह का रस और सौन्दर्य निकालने का ऋषि कर्म भी करते हैं।
लेकिन कोलकाता शहर यहाँ के मछुआरों को इस दृष्टि से नहीं देखता। उनका किसी तरह से मान नहीं किया जाता, कोई श्रेय नहीं मिलता उन्हें, उनकी सेवाओं का ठीक मुआवजा देना तो बहुत दूर की बात है। कोलकाता बन्दरगाह के अफसर तो उनकी भेरियों को पाटकर उन्हें बेदखल करना चाहते हैं।
यह जमीन बंदरगाह ट्रस्ट की है, पर बेकार पड़ी रहती थी। कोई 50 साल पहले मुदियाली के मछुआरों ने यहाँ भेरिया बनाई। उस समय बन्दरगाह वालों को उजाड़ जमीन का यह अच्छा उपयोग दिखा। अब जमीन की कीमत आसमान छू रही है। बन्दरगाह अपनी भूमि अब वापस चाहता है। इसके लिये कचहरी में एक अभियोग चल रहा है क्योंकि बाजार में कीमत केवल जमीन की होती है, उन सेवाओं की नहीं जो इन भेरियों से शहर को सहज ही मिल रही है।
कोलकाता के दक्षिण पश्चिम में बजबज जाने वाली सड़क पर मिलता है मुदियाली नेचर पार्क। शहर से दूर निर्जन इलाके में स्थित इस पार्क में फुरसत के क्षण गुजारने कम ही लोग जाते हैं। इससे पार्क का महत्त्व कम नहीं हो जाता। कोलकाता बन्दरगाह की परित्यक्त भूमि पर स्थित यह पार्क अपनी जमीन से विस्थापित कुछ मछुआरों के जीवट और मेधा की कथा कहता है। यहाँ हमारे वनस्पति जगत और प्राणीजगत की विलक्षणता भी दिखती है।
यहाँ सीधे कारखानों के निकले झागदार स्राव और पड़ोस की बस्तियों के मैले जल में मछली पालन किया जाता है।
कोलकाता बन्दरगाह की इस परित्यक्त भूमि पर हुगली पार से उजड़े कुछ मछुआरे परिवार ने आश्रय लिया था। इस जमीन पर पड़ोस के कारखानों से निकला मैला पानी जमा होता था। बरसती पानी भी आता था। उस पानी को घेरकर मछली पकड़ने की शुरुआत कब हुई, कहा नहीं जा सकता, पर जब भी शुरू हुई, आगे ही बढ़ती गई।
आज कोलकाता बन्दरगाह अपनी कीमती जमीन वापस पाना चाहता है, पर सहकारी समिति अपने परिश्रम से तैयार इस अनोखा उदाहरण को गँवाने के लिये तैयार नहीं। राज्य सरकार का रुख अभी तक तो मछुआरों के पक्ष में रहा है।
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