हिमालय की चोटियां इंसानी दखल की वजह से प्रदूषित होती जा रही हैं। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर लगातार तापमान बढ़ रहा है और इस क्षेत्र के ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। स्थिति को जल्द ही काबू नहीं किया गया तो खतरनाक नतीजे सामने आ सकते हैं। मामले का जायजा ले रहे हैं जयसिंह रावत।
रिपोर्ट के मुताबिक 22 मई 2012 के आसपास 200 पर्वतारोही और उनके पोर्टर एवरेस्ट पर चढ़ाई की तैयारियां कर रहे थे जबकि 208 दूसरे पर्वतारोही बेस कैंप के निकट अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। एवरेस्ट के मार्ग पर इतनी भीड़ हो चुकी है कि नेपाल सरकार को उसे नियंत्रित करना कठिन हो रहा है और इस जाम के कारण बड़ी संख्या में पर्वतारोहियों को अपनी बारी का लंबे समय तक इंतजार करना पड़ रहा है। यहीं नहीं, 1965 में चीन के परमाणु परीक्षणों पर निगरानी के मकसद से नंदा देवी चोटी पर स्थापित करने के लिए ले जाए जा रहे परमाणु उपकरणों के लापता हो जाने से स्थिति और भी गंभीर हो गई है।
आरके पचौरी की अध्यक्षता वाले संयुक्त राष्ट्र इंटरगवर्नमेंटल पैनल की ‘2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के गायब होने की भविष्यवाणी’ उन्होंने खुद ही वापस ले ली और सफाई भी दे दी है। सच्चाई यह है कि एशिया महाद्वीप के मौसम को नियंत्रित करने वाले हिमालय के 38,000 वर्ग किलोमीटर में फैले करीब 9757 ग्लेशियरों में से ज्यादातर पीछे हट रहे हैं। जम्मू-कश्मीर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रोफेसर आरके गंजू के ताजा अध्ययन के मुताबिक ग्लेशियरों के पिघलने का कारण ग्लोबल वार्मिंग नहीं है। वह कहते हैं कि अगर यह वजह होती तो उत्तर-पश्चिम में कम और उत्तर-पूरब में ग्लेशियर ज्यादा नहीं पिघलते। कराकोरम क्षेत्र में ग्लेशियरों के आगे बढ़ने के संकेत मिले हैं। वहां 114 ग्लेशियरों में से पैंतीस जस के तस हैं और तीस आगे बढ़ रहे हैं, जबकि बाकी सिकुड़ रहे हैं। अगर ग्लोबल वार्मिंग होती तो ये सारे के सारे ग्लेशियर सिकुड़ रहे होते।
आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर आनंद पटवर्धन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित अध्ययन दल ने पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को तो स्वीकार किया है मगर यह भी उल्लेख किया है कि उत्तर पश्चिमी भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में ठंड बढ़ रही है। इस अध्ययन दल में भारत सरकार ने वन और अंतरिक्ष जैसे आधा दर्जन संस्थानों के विशेषज्ञ शामिल थे। दल की रिपोर्ट में पश्चिमी तट, मध्य-भारत, अंदरूनी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्व में तापमान बढ़ने के संकेत की पुष्टि हुई है। दल ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ते मानव दबाव की वजह से हिमस्खलन, ऐवलांच और हिमझीलों के विस्फोट के खतरे बढ़ने की बात भी कही है। सिक्किम की तीस्ता नदी की घाटी चौदह और व्यास, रावी, चेनाब और सतलज नदियों के घाटी में विस्फोट की संभावना वाली ऐसी बाईस हिम झीलें बताई गई हैं। दल के सदस्य और विख्यात चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट का कहना है कि भागीरथी की तुलना में अलकनंदा के स्रोत ग्लेशियर अधिक तेजी से गल रहे हैं, क्योंकि वहां मानवीय हस्तक्षेप अधिक है।
सतोपंथ ग्लेशियर 1962 से लेकर 2005 तक 22.88 मीटर की गति से पीछे खिसका मगर इसकी पीछे खिसकने की गति 2005-06 में सिर्फ 65 मीटर सालाना दर्ज हो पाई। 2007 में भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार आर चिदंबरम् द्वारा गठित अध्ययन दल की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगोत्री ग्लेशियर 1962 से लेकर 1991 तक के 26 सालों में करीब बीस मीटर सलाना की दर से पीछे खिसका, जबकि 1956 से लेकर 1971 तक 27 मीटर सालाना और 2005 से लेकर 2007 के बीच मात्र 11.80 मीटर सालाना की दर से सिकुड़ा। इसी रिपोर्ट में ओवेन आदि (1997) और नैनवाल आदि (2007) के अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि भागीरथी जल संभरण क्षेत्र के ही शिवलिंग और भोजवासा ग्लेशियर आगे बढ़ रहे हैं। इसी तरह हिमाचल की लाहौल घाटी में तीन ग्लेशियर जमाव और दो ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गई है। रिपोर्ट में ओवेन आदि (2006) के हवाले से लद्दाख क्षेत्र के पांच ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गई है। जाहिर है कि हिमालय के सारे ग्लेशियर एक साथ नहीं सिकुड़ रहे हैं। सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों के पीछे खिसकने की गति भी एक जैसी नहीं है और न ही एक ग्लेशियर की गति एक जैसी रही है। अगर पिघलने का एकमात्र कारण ग्लोबल वार्मिंग होता तो यह गति घटती और बढ़ती नहीं। मशहूर ग्लेशियर विशेषज्ञ डीपी डोभाल के मुताबिक हिमालय में सत्तर फीसद से अधिक ग्लेशियर पांच वर्ग किलोमीटर से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। डोभाल भी अलग-अलग ग्लेशियर के पीछे हटने की अलग-अलग गति के लिए लोकल वार्मिंग को ही जिम्मेदार मानते हैं।
हिमालयी तीर्थ बद्रीनाथ, सतोपंथ और भागीरथ खर्क ग्लेशियर समूह के काफी करीब है। 1968 में जब पहली बार बद्रीनाथ बस पहुंची थी तो वहां तब तक लगभग साठ हजार यात्री तीर्थ यात्रा पर पहुंचते थे। लेकिन यह संख्या अब दस लाख तक पहुंच गई है। इतने अधिक तीर्थयात्री सिर्फ छह माह में करीब सवा लाख वाहनों में बद्रीनाथ पहुंचते हैं।
वाहनों को प्रदूषण के मामले में सबसे आगे माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर चार गुना प्रदूषण करते हैं। मैदानों मे अक्सर 60 किलोमीटर प्रतिघंटा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर से भी कम गति से चल पाते हैं, जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन न केवल कई गुना अधिक काला दूषित धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं। समुद्रतल से करीब 15210 फुट की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड लोकपाल में 1936 में एक छोटे से गुरुद्वारे की स्थापना की गई। 1977 में वहां केवल 26,700 और 1997 में केवल बहत्तर हजार सिख यात्री गए थे, लेकिन 2011 में हेमकुंड जाने वाले यात्रियों की संख्या करीब छह लाख तक पहुंच गई थी। इसी तरह, 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी तो वहां तब तक करीब सत्तर हजार यात्री पहुंचते थे। लेकन पिछले साल तक गंगोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या तीन लाख पचहत्तर हजार से ऊपर चली गई। हालांकि, यमुनोत्री के यात्रियों की संख्या भी तीन लाख पचास हजार तक पहुंच गई है। समुद्रतल से 6714 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कैलाश मानसरोवर भी अब प्रति वर्ष 500 यात्री पहुंचने लगे हैं। कुल मिला कर देखा जाए तो पर्यावरणीय दृष्टि से अतिसंवेदनशील उत्तराखंड हिमालय के इन तीर्थों पर प्रतिवर्ष लगभग 20 लाख लोग पहुंच रहे हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के लिए पैदल यात्रा की चट्टियां विशाल नगरों का रूप ले चुकी हैं।
वाहनों को प्रदूषण के मामले में सबसे आगे माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर चार गुना प्रदूषण करते हैं। मैदानों मे अक्सर 60 किलोमीटर प्रतिघंटा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर से भी कम गति से चल पाते हैं, जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन न केवल कई गुना अधिक काला दूषित धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं। समुद्रतल के 10 हजार की ऊंचाई के बाद वृक्ष पंक्ति या ट्री-लाइन लुप्त हो जाती है। मतलब यह कि ये हजारों वाहन प्रतिदिन उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन तो कर रहे हैं मगर उसे चूसने वाले और हवा में ऑक्सीजन छोड़ने वाले वृक्ष वहां नहीं होते हैं। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड में डेढ़ दशक पहले तक मात्र लगभग एक लाख चौपहिया वाहन पंजीकृत थे, जिनकी संख्या अब नौ लाख पार कर गई है। आज यात्रा सीजन में ऋषिकेश से लेकर चार धाम तक के लगभग 1325 किलोमीटर लंबे रास्ते में जहां-तहां जाम मिलता है और वाहन खड़े करने की जगह ही बड़ी मुश्किल से मिलती है।उत्तराखंड में चार धाम यात्रा ऋषिकेश से शुरू होती है, जो कि समुद्रतल से लगभग तीन सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वाहन यहां से शुरू होकर समुद्रतल से 3042 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री और 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बद्रीनाथ पहुंचते हैं। मोटे तौर पर एक यात्रा सीजन में करीब 30 हजार वाहन सीधे गंगोत्री पहुंचते हैं। इतने वाहन अगर गोमुख के इतने करीब पहुंचेंगे तो वाहनों की आवाजाही का सीधा असर गंगोत्री ग्लेशियर पर पड़ना स्वाभाविक ही है। पिछले एक दशक से हजारों कांवड़िए जल भरने सीधे गोमुख जा रहे हैं। यहीं नहीं गंगोत्री और गोमुख के बीच कई जनेरेटर भी लग गए हैं।
एक अनुमान के मुताबिक बद्रीनाथ में प्रति सीजन लगभग सवा लाख छोटे बड़े वाहन पहुंचने लगे हैं। बद्रीनाथ से दस किलोमीटर पीछे हनुमानि चट्टी से चढ़ाई और मोड़ दोनों ही शुरू हो जाते हैं और वहीं से सर्वाधिक प्रदूषण शुरू हो जाता है। बद्रीनाथ से कुछ दूरी से स्थाई हिमरेखा शुरू हो जाती है और फिर कुछ आगे सतोपंथ आदि ग्लेशियर शुरू हो जाते हैं। करीब यहीं स्थिति केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की भी है। गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक के अतिसंवदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित कालिंदी पास और घस्तोली होते हुए ट्रैकिंग रूट पर भी भीड़ बढ़ने लगी है। कांग्रेस के एक सांसद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उन्हें याद दिलाया है कि 1965 में भारत सरकार की अनुमति से चीन पर खुफिया नजर रखने के लिए प्लूटोनियम 238 ईंधन वाला अत्याधुनिक और अत्यंत शक्तिशाली जासूसी उपकरण नंदा देवी चोटी पर स्थापित करने के लिए सीआईए ने भेजा था। शिखर पर चढ़ाई के समय अचानक तूफान आ जाने के कारण उस दल को अपना सारा सामान वहीं छोड़कर वापस बेसकैंप लौटना पड़ा।
मौसम साफ होने पर जब पर्वतारोही दल उस स्थान पर गया तो वहां बाकी सामान तो मिल गया मगर वह आणविक जासूसी उपकरण नहीं मिला। शायद वह उपकरण बर्फ को पिघलाकर चट्टानों की किसी दरार में समा गया। यह उपकरण 300 सालों तक सक्रिय रहने की क्षमता रखता है। इसलिए उतनी अवधि तक इससे प्रदूषण या रेडियोधर्मी विकिरण का खतरा बना रहेगा।
मौसम परिवर्तन और ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के साथ ही हिमालयी वनस्पतियां भी ऊंचाई वाले स्थानों पर चढ़ने लगी है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कई प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा भी पैदा हो गया है। अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, अमदाबाद और उत्तराखंड अंतरिक्ष केन्द्र (यूसैक) की वैज्ञानिक आशा थपलियाल, सीपी सिंह, मदन मोहन किमोठी, सुष्मा पाणिग्रही और जेएस परिहार के ताजा शोधपत्र में कहा गया है कि हिमाच्छादित क्षेत्र, जिसे हिमरेखा भी कहते हैं के पीछे खिसकने के साथ वृक्षरेखा और वनस्पतियां भी ऊपर की ओर चढ़ रही हैं। इन वैज्ञानिकों के मुताबिक जो वनस्पतियां 1976 के आसपास समुद्रतल से 3840 मीटर की ऊंचाई पर पाई गई थी, वे 1990 तक 3870 मीटर की ऊंचाई तक चली गईं। 2006 में जब फिर से अध्ययन किया गया तो वही वनस्पतियां समुद्र तल से 4230 मी तक पहुंच गयीं। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय की चोटियों की ओर चढ़ने की मजबूरी से कई दुर्लभ प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। ये प्रजातियां चढ़ाई इसलिए चढ़ रही हैं क्योंकि हिमालय में हिमरेखा भी पीछे खिसक रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि विख्यात फूलों की घाटी की पादप विविधता पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है। के नागेश्वर राव, एएस अजावत और अजय के एक अन्य शोधपत्र में कहा कि तापमान बढ़ने से वनों की वनस्पतियां प्रतिदशक 29 मीटर के हिसाब से ऊपर की ओर खिसक जाएंगी।
रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट का कहना है कि धरती का तापमान बढ़ने से समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है। मौसम चक्र भी इससे प्रभावित है। वर्षा की अनियमितता बढ़ी है। वातावरण में भारी अंतर आ रहा है। पुराने ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। इस परिवर्तन का असर एशियाई देशों में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य, खेती, अन्न उत्पादन, जल-संसाधन, वन संपदा और नदियों के जलग्रहण क्षेत्र, समुद्रतट और समुद के पारिस्थितिक तंत्र, जैव-विविधता और इन संसाधनों पर अवलंबित विभिन्न समुदायों पर देखा जा सकता है।
वाडिया भूगर्भ संस्थान के ग्लेशियालॉजी विभाग के डीपी डोभाल और आइएम बहुगुणा के एक शोधपत्र के मुताबिक ग्लेशियर मौसम परिवर्तन के सबसे सटीक संकेतक होते हैं। अगर ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं या पीछे हट रहे हैं तो इसका मतलब है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है। 1962 और 1981 में वैज्ञानिक जंगपांगी और वोरा के अध्ययन का हवाला देते हुए डोभाल का कहना है कि हिमालयी ग्लेशियर हर साल 10 से लेकर 20 मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। 1970 के बाद हिमालयी मौसम केंद्रों पर तापमान बढ़ने के आंकड़े मिले हैं। एवरेस्ट की चढ़ाई के मार्ग पर स्थित खुंबू ग्लेशियर 1953 से लेकर अब तक पांच किलोमीटर पीछे खिसक गया। कुल मिलाकर हिमालयी क्षेत्र में तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। गढ़वाल हिमालय का डोकरानी ग्लेशियर 1991 से 1995 के बीच 3957 वर्गमीटर तक खाली हो गया। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों की चिंता का कारण ग्लेशियरों का पीछे खिसकना नहीं बल्कि तेजी से खिसकना है। वैज्ञानिक इसलिए भी चिंतित हैं कि बर्फीले क्षेत्रों में जो अल्बीडो होता है वह तापमान को भी नियंत्रित करता है। बर्फ घटेगी तो अल्बीडों भी घटेगा जिससे तापमान फिर असंतुलित हो जाएगा।
हिमालय के सारे ग्लेशियर एक साथ नहीं सिकुड़ रहे हैं। सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों के पीछे खिसकने की गति भी एक जैसी नहीं है और न ही एक ग्लेशियर की गति एक जैसी रही है। अगर ग्लेशियर के पिघलने का एकमात्र कारण ग्लोबल वार्मिंग होता तो यह गति घटती और बढ़ती नहीं। हिमालय में सत्तर फीसद से अधिक ग्लेशियर पांच वर्ग किलोमीटर से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। मशहूर ग्लेशियर विशेषज्ञ डीपी डोभाल भी अलग-अलग ग्लेशियर के पीछे हटने की अलग-अलग गति के लिए लोकल वार्मिंग को ही जिम्मेदार मानते हैं।
जब दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर जबरदस्त यातायात जाम की स्थिति आ गई हो और एवरेस्ट और फूलों की घाटी जैसे अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में हजारों टन कूड़ा-कचरा जमा हो रहा हो तो हिमालय और उसके आवरण-ग्लेशियरों की सेहत की कल्पना की जा सकती है। अब तो कांवड़ियों का रेला भी गंगाजल के लिए सीधे गोमुख पहुंच रहा है, जबकि लाखों की संख्या में छोटे-बड़े वाहन गंगोत्री और सतोपंथ जैसे ग्लेशियरों के करीब पहुंच गए हैं। हिमालय के इस संकट को दरकिनार कर अगर अब भी हमारे पर्यावरण प्रेमी ग्लोबल वार्मिंग पर सारा दोष मढ़ रहे हैं तो फिर वह सचाई से मुंह मोड़ रहे हैं। एसोसिएटेड प्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक पहली बार 1953 में एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे के चरण समुद्रतल से करीब 8,850 मीटर की ऊंची एवरेस्ट की चोटी पर पड़ने के बाद से अब तक तीन हजार से अधिक पर्वतारोही वहां अपना झंडा गाड़ जुके हैं। हजारों दूसरे पर्वतारोही चोटी के करीब पहुंच कर लौट चुके हैं। इनके अलावा एवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान 225 लोग अपनी जान गवां चुके हैं।रिपोर्ट के मुताबिक 22 मई 2012 के आसपास 200 पर्वतारोही और उनके पोर्टर एवरेस्ट पर चढ़ाई की तैयारियां कर रहे थे जबकि 208 दूसरे पर्वतारोही बेस कैंप के निकट अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। एवरेस्ट के मार्ग पर इतनी भीड़ हो चुकी है कि नेपाल सरकार को उसे नियंत्रित करना कठिन हो रहा है और इस जाम के कारण बड़ी संख्या में पर्वतारोहियों को अपनी बारी का लंबे समय तक इंतजार करना पड़ रहा है। यहीं नहीं, 1965 में चीन के परमाणु परीक्षणों पर निगरानी के मकसद से नंदा देवी चोटी पर स्थापित करने के लिए ले जाए जा रहे परमाणु उपकरणों के लापता हो जाने से स्थिति और भी गंभीर हो गई है।
आरके पचौरी की अध्यक्षता वाले संयुक्त राष्ट्र इंटरगवर्नमेंटल पैनल की ‘2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के गायब होने की भविष्यवाणी’ उन्होंने खुद ही वापस ले ली और सफाई भी दे दी है। सच्चाई यह है कि एशिया महाद्वीप के मौसम को नियंत्रित करने वाले हिमालय के 38,000 वर्ग किलोमीटर में फैले करीब 9757 ग्लेशियरों में से ज्यादातर पीछे हट रहे हैं। जम्मू-कश्मीर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रोफेसर आरके गंजू के ताजा अध्ययन के मुताबिक ग्लेशियरों के पिघलने का कारण ग्लोबल वार्मिंग नहीं है। वह कहते हैं कि अगर यह वजह होती तो उत्तर-पश्चिम में कम और उत्तर-पूरब में ग्लेशियर ज्यादा नहीं पिघलते। कराकोरम क्षेत्र में ग्लेशियरों के आगे बढ़ने के संकेत मिले हैं। वहां 114 ग्लेशियरों में से पैंतीस जस के तस हैं और तीस आगे बढ़ रहे हैं, जबकि बाकी सिकुड़ रहे हैं। अगर ग्लोबल वार्मिंग होती तो ये सारे के सारे ग्लेशियर सिकुड़ रहे होते।
आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर आनंद पटवर्धन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित अध्ययन दल ने पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को तो स्वीकार किया है मगर यह भी उल्लेख किया है कि उत्तर पश्चिमी भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में ठंड बढ़ रही है। इस अध्ययन दल में भारत सरकार ने वन और अंतरिक्ष जैसे आधा दर्जन संस्थानों के विशेषज्ञ शामिल थे। दल की रिपोर्ट में पश्चिमी तट, मध्य-भारत, अंदरूनी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्व में तापमान बढ़ने के संकेत की पुष्टि हुई है। दल ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ते मानव दबाव की वजह से हिमस्खलन, ऐवलांच और हिमझीलों के विस्फोट के खतरे बढ़ने की बात भी कही है। सिक्किम की तीस्ता नदी की घाटी चौदह और व्यास, रावी, चेनाब और सतलज नदियों के घाटी में विस्फोट की संभावना वाली ऐसी बाईस हिम झीलें बताई गई हैं। दल के सदस्य और विख्यात चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट का कहना है कि भागीरथी की तुलना में अलकनंदा के स्रोत ग्लेशियर अधिक तेजी से गल रहे हैं, क्योंकि वहां मानवीय हस्तक्षेप अधिक है।
सतोपंथ ग्लेशियर 1962 से लेकर 2005 तक 22.88 मीटर की गति से पीछे खिसका मगर इसकी पीछे खिसकने की गति 2005-06 में सिर्फ 65 मीटर सालाना दर्ज हो पाई। 2007 में भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार आर चिदंबरम् द्वारा गठित अध्ययन दल की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगोत्री ग्लेशियर 1962 से लेकर 1991 तक के 26 सालों में करीब बीस मीटर सलाना की दर से पीछे खिसका, जबकि 1956 से लेकर 1971 तक 27 मीटर सालाना और 2005 से लेकर 2007 के बीच मात्र 11.80 मीटर सालाना की दर से सिकुड़ा। इसी रिपोर्ट में ओवेन आदि (1997) और नैनवाल आदि (2007) के अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि भागीरथी जल संभरण क्षेत्र के ही शिवलिंग और भोजवासा ग्लेशियर आगे बढ़ रहे हैं। इसी तरह हिमाचल की लाहौल घाटी में तीन ग्लेशियर जमाव और दो ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गई है। रिपोर्ट में ओवेन आदि (2006) के हवाले से लद्दाख क्षेत्र के पांच ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गई है। जाहिर है कि हिमालय के सारे ग्लेशियर एक साथ नहीं सिकुड़ रहे हैं। सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों के पीछे खिसकने की गति भी एक जैसी नहीं है और न ही एक ग्लेशियर की गति एक जैसी रही है। अगर पिघलने का एकमात्र कारण ग्लोबल वार्मिंग होता तो यह गति घटती और बढ़ती नहीं। मशहूर ग्लेशियर विशेषज्ञ डीपी डोभाल के मुताबिक हिमालय में सत्तर फीसद से अधिक ग्लेशियर पांच वर्ग किलोमीटर से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। डोभाल भी अलग-अलग ग्लेशियर के पीछे हटने की अलग-अलग गति के लिए लोकल वार्मिंग को ही जिम्मेदार मानते हैं।
हिमालयी तीर्थ बद्रीनाथ, सतोपंथ और भागीरथ खर्क ग्लेशियर समूह के काफी करीब है। 1968 में जब पहली बार बद्रीनाथ बस पहुंची थी तो वहां तब तक लगभग साठ हजार यात्री तीर्थ यात्रा पर पहुंचते थे। लेकिन यह संख्या अब दस लाख तक पहुंच गई है। इतने अधिक तीर्थयात्री सिर्फ छह माह में करीब सवा लाख वाहनों में बद्रीनाथ पहुंचते हैं।
वाहनों को प्रदूषण के मामले में सबसे आगे माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर चार गुना प्रदूषण करते हैं। मैदानों मे अक्सर 60 किलोमीटर प्रतिघंटा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर से भी कम गति से चल पाते हैं, जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन न केवल कई गुना अधिक काला दूषित धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं। समुद्रतल से करीब 15210 फुट की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड लोकपाल में 1936 में एक छोटे से गुरुद्वारे की स्थापना की गई। 1977 में वहां केवल 26,700 और 1997 में केवल बहत्तर हजार सिख यात्री गए थे, लेकिन 2011 में हेमकुंड जाने वाले यात्रियों की संख्या करीब छह लाख तक पहुंच गई थी। इसी तरह, 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी तो वहां तब तक करीब सत्तर हजार यात्री पहुंचते थे। लेकन पिछले साल तक गंगोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या तीन लाख पचहत्तर हजार से ऊपर चली गई। हालांकि, यमुनोत्री के यात्रियों की संख्या भी तीन लाख पचास हजार तक पहुंच गई है। समुद्रतल से 6714 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कैलाश मानसरोवर भी अब प्रति वर्ष 500 यात्री पहुंचने लगे हैं। कुल मिला कर देखा जाए तो पर्यावरणीय दृष्टि से अतिसंवेदनशील उत्तराखंड हिमालय के इन तीर्थों पर प्रतिवर्ष लगभग 20 लाख लोग पहुंच रहे हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के लिए पैदल यात्रा की चट्टियां विशाल नगरों का रूप ले चुकी हैं।
वाहनों को प्रदूषण के मामले में सबसे आगे माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर चार गुना प्रदूषण करते हैं। मैदानों मे अक्सर 60 किलोमीटर प्रतिघंटा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर से भी कम गति से चल पाते हैं, जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन न केवल कई गुना अधिक काला दूषित धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं। समुद्रतल के 10 हजार की ऊंचाई के बाद वृक्ष पंक्ति या ट्री-लाइन लुप्त हो जाती है। मतलब यह कि ये हजारों वाहन प्रतिदिन उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन तो कर रहे हैं मगर उसे चूसने वाले और हवा में ऑक्सीजन छोड़ने वाले वृक्ष वहां नहीं होते हैं। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड में डेढ़ दशक पहले तक मात्र लगभग एक लाख चौपहिया वाहन पंजीकृत थे, जिनकी संख्या अब नौ लाख पार कर गई है। आज यात्रा सीजन में ऋषिकेश से लेकर चार धाम तक के लगभग 1325 किलोमीटर लंबे रास्ते में जहां-तहां जाम मिलता है और वाहन खड़े करने की जगह ही बड़ी मुश्किल से मिलती है।उत्तराखंड में चार धाम यात्रा ऋषिकेश से शुरू होती है, जो कि समुद्रतल से लगभग तीन सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वाहन यहां से शुरू होकर समुद्रतल से 3042 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री और 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बद्रीनाथ पहुंचते हैं। मोटे तौर पर एक यात्रा सीजन में करीब 30 हजार वाहन सीधे गंगोत्री पहुंचते हैं। इतने वाहन अगर गोमुख के इतने करीब पहुंचेंगे तो वाहनों की आवाजाही का सीधा असर गंगोत्री ग्लेशियर पर पड़ना स्वाभाविक ही है। पिछले एक दशक से हजारों कांवड़िए जल भरने सीधे गोमुख जा रहे हैं। यहीं नहीं गंगोत्री और गोमुख के बीच कई जनेरेटर भी लग गए हैं।
एक अनुमान के मुताबिक बद्रीनाथ में प्रति सीजन लगभग सवा लाख छोटे बड़े वाहन पहुंचने लगे हैं। बद्रीनाथ से दस किलोमीटर पीछे हनुमानि चट्टी से चढ़ाई और मोड़ दोनों ही शुरू हो जाते हैं और वहीं से सर्वाधिक प्रदूषण शुरू हो जाता है। बद्रीनाथ से कुछ दूरी से स्थाई हिमरेखा शुरू हो जाती है और फिर कुछ आगे सतोपंथ आदि ग्लेशियर शुरू हो जाते हैं। करीब यहीं स्थिति केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की भी है। गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक के अतिसंवदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित कालिंदी पास और घस्तोली होते हुए ट्रैकिंग रूट पर भी भीड़ बढ़ने लगी है। कांग्रेस के एक सांसद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उन्हें याद दिलाया है कि 1965 में भारत सरकार की अनुमति से चीन पर खुफिया नजर रखने के लिए प्लूटोनियम 238 ईंधन वाला अत्याधुनिक और अत्यंत शक्तिशाली जासूसी उपकरण नंदा देवी चोटी पर स्थापित करने के लिए सीआईए ने भेजा था। शिखर पर चढ़ाई के समय अचानक तूफान आ जाने के कारण उस दल को अपना सारा सामान वहीं छोड़कर वापस बेसकैंप लौटना पड़ा।
मौसम साफ होने पर जब पर्वतारोही दल उस स्थान पर गया तो वहां बाकी सामान तो मिल गया मगर वह आणविक जासूसी उपकरण नहीं मिला। शायद वह उपकरण बर्फ को पिघलाकर चट्टानों की किसी दरार में समा गया। यह उपकरण 300 सालों तक सक्रिय रहने की क्षमता रखता है। इसलिए उतनी अवधि तक इससे प्रदूषण या रेडियोधर्मी विकिरण का खतरा बना रहेगा।
वनस्पतियां और पहाड़
मौसम परिवर्तन और ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के साथ ही हिमालयी वनस्पतियां भी ऊंचाई वाले स्थानों पर चढ़ने लगी है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कई प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा भी पैदा हो गया है। अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, अमदाबाद और उत्तराखंड अंतरिक्ष केन्द्र (यूसैक) की वैज्ञानिक आशा थपलियाल, सीपी सिंह, मदन मोहन किमोठी, सुष्मा पाणिग्रही और जेएस परिहार के ताजा शोधपत्र में कहा गया है कि हिमाच्छादित क्षेत्र, जिसे हिमरेखा भी कहते हैं के पीछे खिसकने के साथ वृक्षरेखा और वनस्पतियां भी ऊपर की ओर चढ़ रही हैं। इन वैज्ञानिकों के मुताबिक जो वनस्पतियां 1976 के आसपास समुद्रतल से 3840 मीटर की ऊंचाई पर पाई गई थी, वे 1990 तक 3870 मीटर की ऊंचाई तक चली गईं। 2006 में जब फिर से अध्ययन किया गया तो वही वनस्पतियां समुद्र तल से 4230 मी तक पहुंच गयीं। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय की चोटियों की ओर चढ़ने की मजबूरी से कई दुर्लभ प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। ये प्रजातियां चढ़ाई इसलिए चढ़ रही हैं क्योंकि हिमालय में हिमरेखा भी पीछे खिसक रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि विख्यात फूलों की घाटी की पादप विविधता पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है। के नागेश्वर राव, एएस अजावत और अजय के एक अन्य शोधपत्र में कहा कि तापमान बढ़ने से वनों की वनस्पतियां प्रतिदशक 29 मीटर के हिसाब से ऊपर की ओर खिसक जाएंगी।
रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट का कहना है कि धरती का तापमान बढ़ने से समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है। मौसम चक्र भी इससे प्रभावित है। वर्षा की अनियमितता बढ़ी है। वातावरण में भारी अंतर आ रहा है। पुराने ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। इस परिवर्तन का असर एशियाई देशों में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य, खेती, अन्न उत्पादन, जल-संसाधन, वन संपदा और नदियों के जलग्रहण क्षेत्र, समुद्रतट और समुद के पारिस्थितिक तंत्र, जैव-विविधता और इन संसाधनों पर अवलंबित विभिन्न समुदायों पर देखा जा सकता है।
वाडिया भूगर्भ संस्थान के ग्लेशियालॉजी विभाग के डीपी डोभाल और आइएम बहुगुणा के एक शोधपत्र के मुताबिक ग्लेशियर मौसम परिवर्तन के सबसे सटीक संकेतक होते हैं। अगर ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं या पीछे हट रहे हैं तो इसका मतलब है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है। 1962 और 1981 में वैज्ञानिक जंगपांगी और वोरा के अध्ययन का हवाला देते हुए डोभाल का कहना है कि हिमालयी ग्लेशियर हर साल 10 से लेकर 20 मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। 1970 के बाद हिमालयी मौसम केंद्रों पर तापमान बढ़ने के आंकड़े मिले हैं। एवरेस्ट की चढ़ाई के मार्ग पर स्थित खुंबू ग्लेशियर 1953 से लेकर अब तक पांच किलोमीटर पीछे खिसक गया। कुल मिलाकर हिमालयी क्षेत्र में तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। गढ़वाल हिमालय का डोकरानी ग्लेशियर 1991 से 1995 के बीच 3957 वर्गमीटर तक खाली हो गया। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों की चिंता का कारण ग्लेशियरों का पीछे खिसकना नहीं बल्कि तेजी से खिसकना है। वैज्ञानिक इसलिए भी चिंतित हैं कि बर्फीले क्षेत्रों में जो अल्बीडो होता है वह तापमान को भी नियंत्रित करता है। बर्फ घटेगी तो अल्बीडों भी घटेगा जिससे तापमान फिर असंतुलित हो जाएगा।
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