महात्मा गाँधी का प्रसिद्ध कथन है, “प्रकृति के पास इतना है कि वह सभी की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन इतना नहीं है कि किसी एक का भी लालच पूरा कर सके।” मध्य भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी नर्मदा इसी लालच हलकान है। नर्मदा में सौ से ज्यादा छोटे बड़े बाँध बनाए गए हैं इनसे नहरें निकाल कर हजारों हेक्टेयर इलाकों में सिंचाई की जा रही है।
मध्य प्रदेश और गुजरात के कई क्षेत्रों, जो नर्मदा से पचासों किलोमीटर दूर है, को पीने का पानी भी इसी नदी से सप्लाई किया जाता है, साबरमती को जिन्दा बनाए रखने में भी नर्मदा की भूमिका है, यहाँ तक की सिंहस्थ कुम्भ शाही स्नान की जिम्मेदारी भी नर्मदा माई पर ही है।
अब सौराष्ट्र नर्मदा अवतरण सिंचाई परियोजना के पहले चरण की शुरुआत होने के साथ ही ये बहस भी तेज हो गई है कि नर्मदा की अपनी क्षमता कितनी है और अतिरिक्त पानी की परिभाषा क्या है? दावा है कि इस परियोजना से सौराष्ट्र के 11 सूखा प्रभावित जिलों को पानी की आपूर्ति सम्भव हो सकेगी और इसके लिये सरदार सरोवर के अतिरिक्त पानी का इस्तेमाल किया जाएगा।
परन्तु यह जानना बेहद जरूरी है कि चार राज्यों, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान के बीच नर्मदा को लेकर दो दशक पहले हुए मूल समझौते में यह कहा गया था कि गुजरात के हिस्से के पानी का इस्तेमाल प्राथमिकता के तौर पर कच्छ में आपूर्ति के लिये किया जाएगा। लेकिन सब जानते हैं कि पानी की सप्लाई मध्य गुजरात के कारखानों को की जाती है ना कि कच्छ को।
कच्छ की हालात आज भी वैसी ही है जो दो दशक पहले थी। सबसे बड़ा झूठ तो अतिरिक्त पानी को लेकर बोला जाता है मानो अतिरिक्त पानी वह है जो कहीं ओर से लाकर नर्मदा में डाला जाता है, जिस तरह से नर्मदा में झीलों का निर्माण हो गया है, वे बारिश में ही लबालब होती हैं और इस दौरान सौराष्ट्र समेत किसी भी इलाके को पानी की नहीं पानी से बचने की या उसके संरक्षण का इन्तजाम करने की जरूरत होती है।
दूसरा नर्मदा में गाद इस कदर बढ़ी है कि जरा सी बारिश भी बाढ़ का अहसास कराती है। बानगी देखिए, सरदार सरोवर का जलाशय खत्म होता है तो महेश्वर का शुरू हो जाता है और महेश्वर बाँध का जलाशय खत्म होते ही ओंकारेश्वर और इन्दिरा सागर का जलाशय प्रारम्भ हो जाता है। यही स्थिति जबलपुर के बरगी डैम तक चलती रहती है।
इस तरह नदी के पनढाल (जलागम) क्षेत्र में पचास हजार हेक्टेयर जंगल डूब चुका है। कई छोटे-मोटे पनढाल अब बाँध की गाद अपने में समाने का काम कर रहे हैं। नर्मदा पर बने बाँधों ने 1312 किमी लम्बी इस नदी के 446 किमी के हिस्से को ठहरे हुए पानी में बदल दिया है। जिसके चलते पश्चिमी मध्य प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा जल्दी ही एक दलदली भूमि के रूप में जाना जाएगा।
देश की सर्वाधिक उपजाऊ भूमि इन बेतरतीब नहरों के चलते दलदल में तब्दील हो रही है इससे सबक लिये बिना सरकारें राजकोट, जामनगर और मोरबी के बाँधों को भर नई नहरें निकालने की तैयारी में हैं। यह सही है कि इन इलाकों के लोग पानी की भारी कमी का सामना कर रहे हैं लेकिन नर्मदा पर कितना दबाव डाला जा सकता है इस पर विचार तक नहीं हो रहा। दस लाख एकड़ से ज्यादा भूमि पर सिंचाई उपलब्ध हो सके, यह एक अच्छा विचार है लेकिन किस कीमत पर?
सरकार का दावा है कि लगभग 30 लाख एकड़ फुट पानी जल बाँध से बहकर समुद्र में चला जाता है। बेकार चले जाने वाले इसी पानी में से ही 10 लाख एकड़ फीट पानी को मोड़कर बाँधों और जलाशय में पहुँचाने की योजना है। वास्तव में ये समझने की जरूरत है कि नदी हमारे पास समुद्र की अमानत है, अमानत पर पूरा कब्जा करने की कोशिशों का ही नतीजा है कि खम्बात और कच्छ के रण में दलदली भूमि बढ़ती जा रही है और भुज में समुद्र का पानी 30 किलोमीटर अन्दर तक आ गया है यानी समुद्र को उसकी खुराक नहीं मिलेगी तो वह उसे कहीं से तो पूरी करेगा ही।
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