हमारे जानकार व जागरूक समाज ने यहाँ के जलवायु के अनुकूल ही इस पदार्थ को अधिक महत्त्व दिया है क्योंकि अपनी त्रिविनीयता के चलते चूना के परमाणुओं के बीच जो बल काम करता है, वह हर दिशा में बराबर होता है। फलस्वरूप यह बहुत ज्यादा कठोर, मजूबत होता है। दूसरे, क्योंकि हम सूखे क्षेत्र में जीवन बसर कर रहे हैं और चूने से निरन्तर पानी वाष्पित होता रहता है। बांडिंग के चलते यानी परमाणुओं की पकड़ मजबूत हो जाती है। तीसरे, चूने के परमाणु बड़े होते हैं। धरती पर पसरी संस्कृति-सभ्याएँ मनुष्य को प्रकृति का दिया अप्रतिम उपहार है। हर एक सभ्यता की अपनी एक संस्कृति होती है। जीने का ढब होता है उसी के बल से वह संस्कृति अपनी अविराम यात्रा को बनाए रखती है। जिस संस्कृति के सभी उपादान अपने-अपने क्षेत्र के लिये जितने वैज्ञानिक, परम्परा से जुड़े और स्थानीय भूगोल के अनुकूल होते हैं, वह संस्कृति उतनी वैभवशाली होती है। इतिहास के झरोखे से मानव का विकास यात्रा का सिंहावलोकन करें, तो पाएँगे कि मनुष्यता का क्रमिक विकास ही असल में संस्कृति का विकास है। प्रत्येक कालखण्ड की अपनी रीति-नीति, धर्म, विज्ञान, कला कौशल होती है। उसी के अनुरूप वह संस्कृति अपने व्याकरण को रचती है। सवा पाँच सौ बरस पुराना बीकानेर का इतिहास उपर्युक्त बताए तथ्यों से परे नहीं हैं प्रत्येक संस्कृति के गुणी लोग अपनी पारम्परिक थाती, विराट अनुभव, संवेदना, अस्तित्व के विलयन से अपने समय का ढाँचा खड़ा कर उसमें अपनी पहचना देते हैं।
किसी भी नगर की बसावट के लिये सबसे अहम बात जो हमारे सम्मुख आती है कि उस नगर के स्थापत्य की परिकल्पना करने वाले दिमाग को स्थानीय भूगोल का कितना ध्यान और ज्ञान है। क्योंकि जब तक स्थानीय भूगोल के साथ उसका रिश्ता सामंजस्यपूर्ण नहीं होगा, तब तक अपनी परिकल्पना को ठोस धरातल पर स्थापित नहीं कर पाएगा। आज समाज में एक समान मकान (एक पैटर्न) बनाने का जो चलन है, वह सांस्कृतिक विद्रूपता का ही नमूना है। क्योंकि हमारी परिकल्पना पश्चिम से प्रभावित होकर उन्हीं के भूगोल की सहमति पर आधारित है। पर, जहाँ आपको यह परिकल्पना साकार करनी है, वहाँ का भूगोल इस अवधारणा के अनुकूल नहीं है। आज शहरों में खासकर बीकानेर में आरसीसी छतें डाली जाती हैं। क्या कठोर जलवायु वाले इस जांगल प्रदेश में समुद्री किनारे बसे शहरों की आर्द्रता का संचार सम्भव है? हमारे पूर्वज भले ही हमारी तरह डिग्रीधारी नहीं थे, पर वे अपने स्थानीय भूगोल के साथ संवेदनात्मक रिश्ता रखना जानते थे। इसलिये वे यूनिवर्सल आर्किटेक्चर के बजाय इकॉलॉजिकल आर्किटेक्चर के पथगामी थे।
अस्ल में हमारी दृष्टि का मूल दोष यह भी है कि कला और जीवन को हम दो अलग-अलग चीजें मानते हैं जबकि चिन्तक आनन्दकुमार स्वामी जैसे प्रबुद्ध दार्शनिक के अनुसार कला और जीवन में भेद नहीं है। दोनों को अलग-अलग नहीं देखा जाना चाहिए। जीवनोपयोगी चीजों में कला है। सारा-का-सारा स्थापत्य स्पेस को भरने का ही जतन है। कला भी स्पेस को समय के साथ भरकर एक आकार देने का काम करती है।
हमें यह तो नहीं मालूम कि हमारे पूर्वज कुमार स्वामी जैसे दार्शनिकों के सम्पर्क में थे या नहीं, लेकिन नगर के घरों की बनावट में उन्होंने जीवन और कला की एकात्मकता को परिपुष्ट किया है नगर की बसावट व बनावट में यह तथ्य असानी से लक्षित किया जा सकता है।
हम मरू प्रदेश के वासी हैं आँधी हमारी सहयात्री है। अगर हम आज की आधुनिक तकनीक के साथ बनावट के फेरे में पड़कर बड़े-बड़े दरवाजे, खिड़कियाँ व रोशनदान रखेंगे, तो घर का शायद ही कोई कोना ऐसा होगा जिसमें रेत अपना राग नहीं सुना रही होगी। तेज आँधी के साथ धूप का पराक्रम भी हमें झेलना होता है। आज की तरह अविचारित का स्वीकार हमारे पूर्वजों के संस्कार में नहीं था वरन वे अक्षर ज्ञान से विहीन होते हुए भी उसकी संवेदना में इकॉलोजिकल आर्किटेक्ट की अवधारणा गहरे पैठ बनाए थी। उसकी तौल पर वे कोई समझौता नहीं करते थे। इसलिये चाहे हवेलियाँ, किले या सामान्य गाँधी गृह उनके दरवाजे छोटे व खिड़कियाँ जिन्हें यहाँ की स्थानीय भाषा में गोखे कहा जाता है, वे छोटे-छोटे बनाए जाते थे। इसके दो कारण प्रमुख थे।
पहला आँधी, हवा, रेत, बारिश आदि के प्राकृतिक प्रकोप से सुरक्षा हो जाती, दूसरे यह बाहरी आक्रमण या गृहयुद्ध अथवा किसी झगड़े आदि यानी सामरिक दृष्टि से भी छोटे-छोटे दरवाजे-गोखे जीवनरक्षा में अपनी उतनी प्रभावकारी भूमिका निभाते थे, जितनी की प्रकृति से लड़ते हुए यानी प्रकृति से इंसान की सुरक्षा करते इंसान की प्रकृति का रूपायन भी अपनी बनावट में वे कर देते थे। इन पंक्तियों के लेखक ने जब गोखे संरचना के बारे में और गहरे पड़ताल की, तो सामने आया सच चौंकाने वाला था।
प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री जूल थामसन के नाम से जूल थामसन प्रभाव सिद्धान्त का प्रचलन भौतिक शास्त्र में है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब भी हवा उच्च दाब क्षेत्र से निम्न दाब क्षेत्र में प्रवेश करती है, तो उसका ताप कम हो जाता है। गोखे आकार व संरचना में छोटे होते हैं। बाहर के उच्च दाब क्षेत्र में आती हवा जब गोखे की खिड़की की बनावट के कारण आयु दाब को कम करती है तदुपरान्त हवा कमरे में प्रवेश करती है। तो कमरे का आयतन बड़ा होने के कारण वह शीतलता का अहसास देती है। इसलिये घोर गर्मी के दिनों में मोल (छत पर बना बड़ा कमरा) मालियों के झरोखे व गोखे प्राकृतिक शीलता का आनन्द देते थे। अब की बनावट में यह गायब है। इसलिये कमरे गर्म रहते हैं। अधिकांश ही नहीं बल्कि कहा जाये कि प्रायः सभी घरों में दरवाजें लकड़ी व काँच के बने मिलते हैं।
लोक स्थापत्य के हमारे पारस्परिक अनुभवी शिल्पकारों ने लकड़ी व काँच को तरजीह दी। कारण अत्यन्त वैज्ञानिक एवं स्पष्ट है कि काँच और लकड़ी ताप के कुचालक हैं। इसलिये हम देखते हैं कि परकोटे के भीतरी शहर के अन्दरूनी हिस्से में सभी घरों, हवेलियों या फिर गढ़ों तक में प्रायः छतें लकड़ी की मिलती हैं। जहाँ लकड़ी की छतें हैं, वे स्थान घर में गर्मी के समय ठंडे व सर्दी में गर्म रहते हैं। आज की संस्कृति स्थानीय भूगोल के आधारभूत सूत्रों को ताककर रख आगे बढ़ रही है। हम फिर कहना चाहते हैं कि एक समान मकान (एक ही पैटर्न) की अवधारणा किसी भी शहर में भूगोल अनुकूल नहीं है।
ऐसा आधुनिक अभियांत्रिकी व वास्तु शास्त्री भी कहते हैं यह सार्वभौमिक तथ्य है कि क्योंकि किसी भी शहर (नगर) का स्थापत्य वहाँ उपलब्ध स्थानीय संसाधनों, जलवायु व भूमि की उपलब्ध के आधार पर होना चाहिए न कि हमारी निजी सुविधा या माँग के अनुसार। जब तक स्थानीय भूगोल के साथ रगात्मक रिश्ता नहीं होगा तब तक वह शहर, संस्कृति प्राकृतिक एवं कृत्रिम (मानवीय) प्रभावों का शिकार होती रहेगी। इसके अलावा एक और खास बनावट का उल्लेख यहाँ अनिवार्य हो जाता है। चाहे गढ़ हो या हवेली या गाँधी गृह। सबमें गुम्हारिएँ अवश्य ही होते थे। हालांकि अब तो वर्तमान फैशन की चलन में वे गायब होते जा रहे हैं।
गुम्हारिए वातानुकूलित कक्ष होते थे। ऐसे प्राकृतिक वातानुकूलित कक्षों का विधान लोक स्थापत्य में ही सम्भव है। तत्कालीन समय में आज की आधुनिक सुविधाओं का अभाव था। गुम्हारियों की बनावट के पीछे एक और भी कारण था यहाँ के जमीन का समतल नहीं होना। अतः कई बार नींव खोदते-खोदते चैठ (सख्त जमीन) नहीं आती तब तक खोदना पड़ता है। अगर खुदाई की गई जमीन को पुनः भरती की जाये, तो महंगाई की मार झेलनी पड़ती थी। अतः गुम्हारियों का विधान किया गया, ताकि इसमें रहने के अलावा पशुओं का चारा आदि के साथ स्त्रियों व बच्चों के पाखाने के काम भी आते थे। कई जगह पाया गया कि ये आज की भाषा में कहें तो स्टोर के रूप में उपयोग में आते थे। साथ ही दो से ढाई फीट के गोलाई में आर्च घुमाव (वक्राकार) देकर उस पर पूरा मकान भी खड़ा कर दिया जाता था।
इस तरह जगह का उपयोग भी हो जाता व सुविधा का विस्तार भी। यानी एक पंथ दो काज। क्योंकि यहाँ के शिल्पियों ने यह जान लिया था कि कठोर जलवायु के अनुसार हमें गृह निर्माण में चूने, बजरी व पानी के संयोग से ही सारी कला का वैभव विखेरना है। चूने की उम्र भी लम्बी होती है। बल्कि जानकार कहते हैं कि सौ वर्ष में तो चूना जवान होता है। चूना के साथ मुढ़ का इस्तेमाल भी यहाँ के स्थानीय भूगाोल में बहुताधिक पाया जाता है इन पंक्तियों के लेखक ने जब इन दोनों की रासायनिक संरचना का अध्ययन किया, तो पाया कि चूना (CaO) त्रिविनीय (त्रिआयामी) है।
हमारे जानकार व जागरूक समाज ने यहाँ के जलवायु के अनुकूल ही इस पदार्थ को अधिक महत्त्व दिया है क्योंकि अपनी त्रिविनीयता के चलते चूना के परमाणुओं के बीच जो बल काम करता है, वह हर दिशा में बराबर होता है। फलस्वरूप यह बहुत ज्यादा कठोर, मजूबत होता है। दूसरे, क्योंकि हम सूखे क्षेत्र में जीवन बसर कर रहे हैं और चूने से निरन्तर पानी वाष्पित होता रहता है। बांडिंग के चलते यानी परमाणुओं की पकड़ मजबूत हो जाती है। तीसरे, चूने के परमाणु बड़े होते हैं। उनके बीच छोटे-छोटे परमाणु भी विद्यमान होते जाते हैं। उससे उसकी क्षमता निरन्तर बढ़ती रहती हैं चूने की इन्हीं रासायनिक विशिष्टताओं चलते हमारे पूर्वजों ने इसे प्रमुख निर्माण सामग्री के रूप में जगह में दी है।
दूसरा प्रमुख संसाधन है मुड। मुड अपनी रासायनिक संरचना में एक मिश्रण है। इसमें सिलिका (SiO2) कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) व आयन (Fe3O) के साथ कई अन्य तत्व भी मिले होते हैं। इसे गीला कर पुनः सुखाया जाता हैं तो इसकी बांडिंग यानी परमाणुओं की पकड़ मजबूत होती जाती है। जो इसे स्थायीत्व व मजबूती देती है इसके साथ मुड में एक प्रमुख गुण प्रत्यावस्था (Relaxation time rerial) का भी है। जिसके कारण इसकी खिंचाव की क्षमता परिवर्धित होती जाती है। पेपर यूनिफार्म भी होती जाती है। इसके अतिरिक्त रोड़ा (बजरी और पत्थर) दोनों को चुनाई में नींव भरने के काम लिया जाता था।
इसके अलावा एक बड़ी बात यह भी है कि ये दोनों स्थानीय संसाधन हैं अतः आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। हमारी अनुभव सम्पन्न परम्परा के प्रतिनिधियों के दिमाग में यह तय रहता था कि हम अपने इर्द-गिर्द जो भी रचें, वह अपनी धरती की कोख का हो। आवागमन के साधन भी आज के-से नहीं थे। आज जब इकोफ्रेंडली आर्किटेक्चर की वकालत की जा रही है, तब यह रोचक तथ्य हमारे लिए अत्यन्त सुखदायी प्रतीत होता है।
हमारे लोक विद्याओं के मार्मी इस तथ्य से भी भली-भाँति परिचित थे कि हमारा वातावरण समुद्री किनारे बसे शहरों की तुलना में कम परिवर्तनशील है। आज जो आरसीसी का प्रचलन के पैरोकार यह भूल जाते हैं कि आरसीसी हमारी आबो-हवा के अनुकूल नहीं है। हमारे स्थानीय स्थापत्य के जानकार तो इसे सुचालक मानते हैं। उनके अनुसार यहाँ की जलवायु के अनुसार सीमेंट भी सुचालक हैं, जबकि मीठा चूना कुचालक। हमारे पुराने घरों में पट्टियाँ हैं। पर, पट्टियों ने इस नगर में तब प्रवेश कि जब रेल आई।
उसके पूर्व में बने मकानों में डाट का ही काम मिलता है। आज की तरह लकड़ी प्रचुर मात्रा में और कई प्रकारों में उपलब्ध नहीं थी। अतः स्थानीय स्तर पर जो लकड़ी उपलब्ध थी उसी को काम में लाये जाने की परम्परा है। डाट में एक खास तरह की स्थानीय स्तर पर प्राप्त घास की परत भी देकर शीतोष्ण प्रभाव को कम करने की कवायद की जाती थी। छोटी ईंटें जो कम आँच में ज्यादा पकी हुई हो के साथ चूना व पट्टी आदि को लेकर डाट बनाई जाती थी।
हमारे सामने एक प्रश्न खड़ा हो सकता है कि प्रारम्भ में हमने कहा कि एक से मकान नहीं हो। जैसे आज की कॉलोनियों में बनाए जाते हैं, लेकिन ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि फसील (अपभ्रष्ट रूप सफील है) के अन्दर के अधिकांश घरों की बनावट हवेलियों को छोड़कर एक जैसी है। ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है कि यह तत्कालीन स्थापत्य शैली का प्रभाव था जो तत्कालीन चलवों के दिमाग में बैठा हुआ था। दूसरे गुरू-शिष्य परम्परा का प्रभाव भी इसमें देखा जा सकता है। अमुक चलवे ने ऐसे मकान तैयार किये, तो उनके अनुयायी ने भी उसी शैली का अनुकरण किया। तीसरे, घर का दखणाद (बायां) पक्ष भारी रखना है। अतः सभी मकानों में एक-सा ही नक्शा देखने को मिलता है।
घर में घुसते ही खुला आँगन, अगर परिवार समृद्ध हैं तो फिर कुछ सीढ़ियाँ फिर बरसाली, बरसाली के अन्दर से आँगन, आँगन में बाईं ओर सीढ़ियाँ थीं। श्रेष्ठि वर्ग के मकानों की सीढ़ियाँ दाईं व बाईं दोनों ओर होती थीं। वास्तुशास्त्री मानते हैं कि इससे नकारात्मक ऊर्जा का सन्तुलन हो जाता था। सीढ़ियों के पास रसोई, सीढ़ियों के नीचे रसोई के चूल्हे के पास भखारी रसाई के आगे पलीन्डा उसके आगे मन्दिर, फिर पंखा साल, पंखा साल के ओरे गृहस्वामी की समृद्धि व सामर्थ्यनुसार आखिर में पिछोकड़ा या श्रेष्ठिवर्ग के घरों में बाड़ा होता था। जहाँ अधिकांश लोग-पशु पालन करते थे। वहीं कुछ वे जिनके पशु नहीं थे, पाखाना के रूप में उसका प्रयोग करते थे। घर की बनावट में जहाँ-जहाँ खाली स्थान निकलता था वहाँ पछेन्ती व भखारियों का प्रावधान रखा जाता था। भखारियाँ, पछेन्तियाँ घर के अतिरिक्त व सुरक्षित रखे जाने योग्य सामन की पूरी हिफाजत व नफासत से रखते थे।
वास्तुशास्त्रियों ने इसका कारण जो बताया वह भी काफी हद तक ठीक बैठता है क्योंकि उस जमाने में शिक्षा का प्रचार-प्रसार आज का-सा नहीं था। अतः कम पढ़े-लिखे या पारम्परिक रूप से पंडिताई करते आ रहे मध्यकालीन जैन आगमों के सूत्र साहित्य से लोगों ने एक वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्त की रचना कर डाली। (जो सही कितनी है इसका निर्णय वास्तुशास्त्री ही कर सकते हैं) कि मकान के मुख्य द्वार को पूर्व मानकर मकान की वास्तु का निर्धारण किया जाये। फसील (परकोटा) के अन्दर बनी हवेलियाँ, घर आदि इसी के अनुरूप व अधिक निकट जान पड़ते हैं। इसके अलावा यह शहर कहीं भी समतल नहीं है। जानकार लोगों का कहना है कि और जो लगभग सच ही है कि हर्षों का चैक व लक्ष्मीनाथ जी के मन्दिर का गुम्बद एक ही ऊँचाई पर है। कई-कई घर तो अत्यन्त ही नीचे हैं कई बहुत ऊँचाई पर। इसका कारण है कि यह मरुस्थल का हिस्सा था। यहाँ रेत के बडे-बड़े टीबे थे। नाले-खाले थे जिनकी दरवेशी (समतल कर) कर उन पर गृह निर्माण किया जाता था। दूसरे, जब यह नगर बसाया गया तो जयपुर या चंडीगढ़ का तर्ज पर वास्तु व अत्यन्त सोच समझ के साथ नहीं बसाया गया। शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम था। वास्तुशास्त्र के जानकार पंडित लोग थे। श्रेष्ठि वर्ग की उनकी सलाह का उपयोग कर सकता था क्योंकि आम के पास पर्याप्त धन नहीं था। गुजर-बसर के लिये निरन्तर संघर्ष चलता था। ऐसे में व्यवस्थित रूप से इसे बसाने की परिकल्पना किसी के दिमाग में नहीं रही। अगर गौर करें तो जयपुर के नौ दरवाजे नवग्रह की परिकल्पना पर आधारित थे। लेकिन यहाँ के पाँच दरवाजे, सात बारियाँ, एक सौ बारह गुवाड़ (मोहल्ले) वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से नहीं बने वरन बीकानेर की बसावट तो सुविधाशास्त्र का अप्रतिम नमूना है। इसलिये नन्दकिशोर आचार्य ने अपनी कविता में भी लिखा है समतल नहीं है शहर।
यहाँ के मकानों का नाप भी इसलिये अलग-अलग है। कोई पचास गज का है, तो कोई नब्बे गज का तो कोई 504 गज का। श्रेष्ठि वर्ग के मकान बड़े और सुन्दर, कलात्मक एवं कोरनी तथा लकड़ी के काम का नायाब नमुना हैं। वे आलागिला कला, मथैरण, उस्ता आदि चित्रकला के कामों का जीवन्त प्रमाण भी है। बड़े-बड़े अर्द्ध चन्द्राकार दोनों कपाटों को जब एक साथ मिलाते हैं तो पिरौल (प्रोल) का आकार हमारे सम्मुख आ जाता है। प्रोल में बाई तरफ एक छोटा-सा दरवाजा रखा जाता है। सुरक्षा, प्राकृतिक प्रकोप एवं कलात्मकता के साथ पिरोल रसूख व समृद्धि का प्रतीक भी थी।
इसके अलावा मकानों का ऊँचे-नीचे होना, टेढ़ा-तिरछा होना के पीछे शायद यह भी कारण रहा हो कि इस शहर में रह रही अधिकांश जाती बाहर से आकर बसीं। यह सिलसिला सरदारसिंह जी के समय से अधिक स्पष्ट रूप में देखा-परखा जा सकता है। अतः जो जाति या समुदाय आया, उसे जहाँ जैसी जितनी जगह मिली उसने अपने सामर्थ्य से अपना घर बनाया। अन्दरूनी शहर में चारों तरफ से खुले मकान की परिकल्पना बड़ी मुश्किल-सी नजर आती है। इन पंक्तियों के लेखक का पुश्तैनी आवास जोशी पिरौल, हर्षों का चैक इसका एक शानदार नमुना है। शहर में परकोटे की परिधि में इस तरह के चौरफा खुले मकान अत्यल्प हैं।
शहर के मोहल्लों की बसावट में गुर-जज्मानी (गुरू-शिष्य) का सम्बन्ध भी समाजशास्त्रीय अध्ययन की भरी-पुरी गुंजाईश रखता है। उदाहरण के लिये रांगड़ी के पास सेवग, पुष्टिकर-महेश्वरी मोहल्लों के पास ओझा, छंगाणी और श्रीमाली जाति के मकान आज भी देखने को मिल सकते हैं। इसके अतिरिक्त पानी के साधनों के पास माली, मन्दिर में स्वामी व सेवग, कथा वाचन में व्यास (रत्ताणी) यानी पैसे के अनुकूल भी जाति व रहने की व्यवस्था थी।
इसके अतिरिक्त लोक स्थापत्य के स्थपतियों के दिमाग में घर की पवित्रता का दबाव इस कदर हावी था कि आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि पुराने नगर के छोटे-बड़े सभी घरों में आज की तरह टाॅयलेट नहीं थे। जानकार लोगों का कहना है कि घर में शौचालय होने से शौचालय का गन्दा पानी घर की नींव में जाता है, यह घर के लिये शुभ नहीं है। इसके साथ उन दिनों की जीवनशैली भी इसका महत्त्वपूर्ण कारण थी, क्योंकि उस समय के लोग सुबह घर से उठ कर बगेचियों की ओर जाते थे, वहाँ से जंगल (खुले आकाश के तले शौच) जाते। जंगल से आकर नीम से दातून करते और बगेची में स्नान और नित्यादि कर्म से निवृत्त होकर घर आ जाते, फिर अपनी जीविकोपार्जन के कर्म में रत होते। स्त्रियाँ व बच्चे घर के बाहर बनी नालियों का टायलेट के रूप में प्रयोग करते थे, ये सारा काम वे प्रातः भोर होने से पूर्व ही सम्पन्न कर लिया करते थे। इसलिये किसी भी घर को घर में शौचालय बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
शहर में हर दिशा से प्रवेश करने के लिये पाँच दरवाजे और सात बारियों का विधान भी था। अन्दरूनी बनावट में श्रेष्ठिवर और सामान्य वर्ग के मकानों में ही संरचनात्मक भेद को परिलक्षित किया जा सकता है। बाकी को नहीं। अधिकांश एक ही शैली व विजन का विस्तार है।
इस प्रकार कहा जा सकता है भले हमारा नगर वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से नहीं बसा है, पर जिन बड़े (बुर्जुगों) के दिमाग में इसकी परिकल्पना थी वह किसी अच्छे कौशल सम्पन्न शिल्पकार की गम्भीर समझ, विवेश और स्थानीय भूगोल के अनुयय ही थी।
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Post By: Editorial Team