लोक में अवर्षा निवारण के उपाय

जल-वर्षा की कामना से संबंधित प्रायः सभी टोने-टोटके और लोक-विश्वास आधिदैविक शक्तियों पर किये जाने वाले विश्वासों से उपजे हैं। वैदिक देवता इंद्र से लेकर पौराणिक देवताओं की अभ्यर्थना के साथ-साथ लोक देवताओं की अभ्यर्थना तक इन विश्वासों में निहित हैं।

गौतम ऋषि त्र्यंबक पर्वत पर निवास करते थे। एक बार इस क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। अकाल पीड़ित जन गौतम ऋषि के पास निवेदन के साथ पहुंचे कि वे कृपा करें। अकाल पीड़ित इस क्षेत्र में जल-प्राप्ति के संसाधन जुटायें। आर्त्तजनों की प्रार्थना से गौतम ऋषि का हृदय पिघल गया। वे शंकरजी की आराधना हेतु तपस्यालीन हो गये। तपस्या से शंकर प्रसन्न हुए, और गौतम ऋषि की इच्छानुसार एक नदी को पृथ्वी लोक पर भेज दिया। यह नदी गोदावरी थी। गोदावरी के आते ही अकाल की छाया छिन्न-भिन्न हो गयी। यह एक पौराणिक कथा है। इसके अनुसार स्पष्ट होता है कि अकालों का सिलसिला बहुत पुराना है। अकाल दूर करने के लिए वर्षा-यज्ञ, मेघ-यज्ञ, इंद्र-यज्ञ आदि विधानों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। ऐसे राजाओं के आख्यान भी प्राप्त होते हैं, जिन्होंने अपने राज्य में पड़े अकालों को दूर करने के लिए स्वयं सोने के हल से खेत जोता। सामूहिक उपासना का आयोजन भी अकाल को समाप्त करने के लिये किये जाते रहे हैं। लोक-विश्वासों के अंतर्गत पुराण-प्रचलित अनेक कर्मकांडों के आयोजन के साथ ही लोक के अपने टोटके-टोने भी अकाल-हनन के लिए अस्तित्व में आये हैं। लोक विश्वासों में देवताओं की प्रसन्नता के लिए किये गये पुण्य कृत्यों के अलावा देव-पीड़क और प्राणि-पीड़क कर्मकांडों का आयोजन भी महत्वपूर्ण है। लोक में देवता भी मनुष्यों की कद-काठी में ही सक्रिय रहते हैं- यदि वे प्रसन्नतावर्द्धक कार्यों से प्रसन्न नहीं होते हैं, तो वर्षा के लिए उन्हें दंडित करना, उन्हें पीड़ित करना भी लोक के अकाल निवारक प्रयत्नों में शामिल है।

वर्षा को आमंत्रित करने के लिए इंद्र की पूजा-आराधना का एक रूप लोक में प्राप्त होता है। इसके अंतर्गत इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए अनेक तरह के आयोजन किये जाते हैं। एक आयोजन के अंतर्गत स्त्रियां निर्वस्त्र होकर खेत में हल चलाती हैं। इस तरह का विधान उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में प्रचलित है। इस विश्वास के अंतर्गत जब अकाल को दूर करने के लिए सारे प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं- किसी भी आयोजन से मेघ नहीं पसीजते हैं तब इस तरह का विधान किया जाता है। यह विधान आदिवासी क्षेत्रों और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है। अवर्षा की भयंकर स्थिति में गांव की स्त्रियां इस तरह के आयोजन का स्थल एवं तिथि तय करती हैं। इसमें गांव के पुरुषों की भी सहमति रहती है। जिस तिथि को यह आयोजन तय किया जाता है उस तिथि की रात्रि में गांव की कुछ स्त्रियां स्नान करती हैं। स्नान के बाद वे देव-पूजन भी करती हैं, यह क्रम करीब आधी रात तक चलता है। फिर वे नियत किये गये खेत में पहुंचती हैं। उनके कंधों पर हल रहता है। गांव की अधिकांश स्त्रियां उस समय खेत पर रहती हैं।

आधी रात के सूने-परेते में कुछ स्त्रियां निर्वस्त्र होती हैं, ये निर्वस्त्र स्त्रियां दो दलों में बट जाती हैं, कुछ स्त्रियां हल में जुट जाती हैं। एकदम बैल जोड़ी के समान और कुछ स्त्रियां हल हांकने का कार्य करने लगती हैं। हल खेत में चलने लगता है और आसपास खड़ी स्त्रियां अश्लील गालियां देने लगती हैं। गालियां देते-देते वे अश्लील गीत भी गाती रहती हैं। निर्वस्त्र स्त्रियों द्वारा बारी-बारी से हल चलाया जाता है। सुबह होने के पहले ही यह विधान पूर्ण कर लिया जाता है। इस कार्यक्रम में खास बात यह होती है कि गांव का कोई भी पुरुष इस आयोजन को न तो देख सकता है न सुन सकता है। किसी भी तरह से पुरुष का प्रवेश इस आयोजन में वर्जित है। यदि कोई पुरुष इस नियम की अवहेलना करता है, तो उसे ग्राम-समाज दंडित करता है, उसे समाज बहिष्कृत और गांव बहिष्कृत किया जा सकता है। उस पर अर्थदंड भी आरोपित कर उसे दंडित किया जा सकता है।

इस आयोजन में स्त्रियों का नग्न होकर हल चलाना परंपरित मर्यादाओं के विपरीत जाना है। जब प्रकृति विपरीत आचरण कर रही हो तब यह विपरीत आयोजन ‘कंटकेनैव कंटकम्’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। इंद्र को कामी देवता माना जाता है। वह भोग वृत्ति प्रधान देवता है। स्त्रियां उसे अपनी ऐसी ही चेष्टाओं से प्रसन्न करने का उपक्रम करती हैं। लोगों का मानना है कि निर्वस्त्र स्त्रियों द्वारा की जाने वाली इन चेष्टाओं से इन्द्र प्रसन्न हो जाता है, और पानी बरसाने लगता है। मैंने अपने बचपन में अपने गांव में भी ऐसे आयोजन का कानों सुना आख्यान अनुभव किया है। अक्सर बच्चे लुक-छिपकर इस तरह के कार्यक्रम में पहुंच जाते थे। इन्हें दूर से पहरेदारी करती स्त्रियां खदेड़ देती थीं।

श्वानों का सामूहिक भोज-आयोजन भी पानी को बरसाने वाला है। उत्तर प्रदेश मे इस तरह के विधान का प्रचलन है। इसके अंतर्गत संपूर्ण गांव के पालतू तथा आवारा कुत्तों को इकट्ठा किया जाता है। उन पर जल छिटका जाता है। उन्हें तिलक लगाया जाता है। फिर उन्हें हलवा-पूड़ी खिलाई जाती है। एक समाचार के अनुसार इसी वर्ष जब इलाहाबाद के आसपास अभी तक अर्थात जुलाई की अंतिम तिथियों तक पानी नहीं बरसा तब एक गांव में यह आयोजन किया गया। कुत्तों का सामूहिक भोज चल ही रहा था कि बारिश होने लगी श्वान ग्राम रक्षक माने जाते हैं- उन्हें प्रसन्न करके ग्राम देवताओं को ही प्रसन्न किया जाता है।

उत्तर प्रदेश में ही गांव के घरों की दीवारों पर गोबर से बनायी गई मछलियों की आकृति को चिपकाया जाता है। इन आकृतियों को चिपकाते हुए वर्षा-आह्वान के गीत गाये जाते हैं। ये गीत महिलाएं इंद्र देवता को मनाने के लिए गाती हैं। मछली और जल का संबंध सनातन है। मछली बिन पानी के जीवित नहीं रह सकती है। इसलिये प्रतीक रूप में घर की दीवारों पर गोबर की मछली चिपकाकर जल को मछली के माध्यम से आमंत्रित किया जाता है।

मध्य प्रदेश के खरगौन जिले में बागरोटी एवं कांकड़ पूजन का विधान है। खरगौन के गांवों में निवास करने वाले पाटीदार समाज में जल बरसाने के लिए यह आयोजन किया जाता है। इस परंपरा के अंतर्गत पूरा गांव खेतों में जाकर दाल-वाफले बनाता-खाता है। जिस दिन यह कार्यक्रम तय किया जाता है, उस दिन सुबह गांव में इस आशय की डौंडी पिटवा दी जाती है। कि गांव का प्रत्येक व्यक्ति खेतों में ही भोजन करेगा। गांव के किसी भी घर में इस दिन चूल्हा नहीं जलता है। यदि किसी घर से धुंआ उठता हुआ देख लिया जाता है तो उस घर के मालिक पर सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने के परिणामस्वरूप अर्थ दंड लगाया जाता है। इसी लोक-विश्वास के साथ कांकड़ पूजन का भी विधान है। इस पूजन के अंतर्गत गांव के बाहर महिलाओं व पुरुषों की टोलियां एक विशेष स्थान पर पूजा-अर्चना करते हैं। इसके बाद वहां लगे आंवले के पेड़ पर एक धागा बांधा जाता है। इस दिन गांव का कोई भी आदमी यात्रा नहीं करता है। पूरे दिन गांव में कोई काम-काज नहीं होता। मंदिरों में भजन-कीर्तन चलता रहता है। रात्रि में स्त्रियां लोकगीत गाकर इन्द्र देवता को मनाती हैं। गांव बाहर सामूहिक भोज का आयोजन उत्तर प्रदेश के गांवों में भी प्रचलित है। इस क्षेत्र में एक दिन पहले बनाया भोजन गांव की बसाहट से दूर ले जाकर सामूहिक रूप से खाया जाता है।

गुजरात में किसी अविवाहित युवक को पत्तों से बने वस्त्र पहनाकर उसे गांव भर में घुमाया जाता है। वह प्रत्येक घर के दरवाजे पर आता है। घर में रहने वाले लोग उस युवक पर पानी डालते हैं। लोगों का विश्वास है कि इस टोटके से रूठे बादल बरस पड़ते हैं। हरे-भरे पत्ते प्रकृति के हरेपन के प्रतीक है- इन पर जल डालने से तात्पर्य प्रकृति को मानने से है। राजस्थान में गांव के लोग अपने सभी काम बंद करके बाबा रामदेवजी और तेजाजी महाराज की पूजा करते हैं। बाबा रामदेवजी और तेजाजी महाराज लोक देवता हैं। इन लोक देवताओं को प्रसन्न करने से मेघ भी प्रसन्न हो जाते हैं, और वे वर्षा की झड़ियां लगा देते हैं। राजस्थान में पूजा का यह क्रम सात दिनों तक चलता रहता है।जिस तरह गुजरात में नवयुवक को पत्तों से बनाये वस्त्र पहनाये जाते हैं, उसी तरह निमाड़ तथा मालवा में कुवारी लड़की को मेंढक की तरह बनाकर उसे पलाश के पत्तों से बना वस्त्र पहनाया जाता है। इस लड़की के ऊपर घर-घर खूब पानी डाला जाता है। यह लड़की गांव के प्रत्येक घर के दरवाजे पर पहुंचती है। पानी में भीगते-भीगते यदि लड़की विचलित हो जाये तो समझ लिया जाता है कि अब वर्षा नहीं होगी। तमिलनाडु में एक नग्न बालक के सिर पर नीम की पत्तियां और शिवलिंग रखकर उसे गांव में घुमाया जाता है। लोग इस शिवलिंग पर जल चढ़ाकर वर्षा की कामना करते हैं। ये सभी टोटके प्रकृति और परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए किये जाते हैं।

कुछ ऐसे विधान हैं, जिनमें पीड़ा का भाव निहित है। मेंढक वर्षा से प्रसन्न होने वाला प्राणी है। उसकी आवाज सुनकर मेघ जल बरसाते हैं- ऐसी लोक मान्यता है। प्रायः पूरे उत्तर भारत में गांव की किशोरियां एक मेंढक को डंडे से लटकाकर अपने कंधों पर टांग लेती हैं। इस मेंढक को लेकर ये किशोरियां जुलूस बनाकर गांव के घर-घर जाती हैं। वे गुड़ और धानी मांगते हुए गाती रहती हैं, ‘मेंढक मेंढक पानी दे। पानी दे गुड़धानी दे।’ यह गुड़-धान लेकर ग्राम भ्रमण के उपरांत वे गांव की खेरमाई के पास पहुंचती हैं। वहां आयोजन की समाप्ति के बतौर वे वहां भंडारा करती हैं। बिहार में एक घड़े में पानी भरकर महिलायें उसमें एक मेंढक छोड़ देती हैं। बाद में इस मेंढक को पानी सहित ओखरी में डालकर मूसल से पीटा-कूटा जाता है। इस बीच महिलायें गीत भी गाती रहती हैं। बाद में इस कुचले मेंढक को किसी के घर में फेंका जाता है। जब उस घर का स्वामी नाराज होता है, तब उसे वर्षा का शुभ लक्षण मान लिया जाता है। मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के गौली समाज द्वारा वर्षा के लिए मेंढक-मेंढकी का विवाह रचाया जाता है। इस शादी की विशेषता यह है कि इसमें शादी की सभी रस्मों का पालन किया जाता है। यहां तक की भोज भी दिया जाता है। तुलसीदास ने लिखा है- ‘दादुर धुनि चहुंओर सुहाई । वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई। मेंढ़क चाहे दुःखी होकर टर्रायें चाहें प्रसन्नता से टर्रायें।’ मेघ उनकी ध्वनि सुनकर पानी बरसयें और उन्हें प्रसन्न करें। यही मंतव्य इस आयोजन में सन्निहित है।

मालवा अंचल में अच्छी वर्षा की कामना से प्रेरित होकर गांव के लोग अवर्षा की स्थिति में शव-यात्रा का आयोजन करते हैं। यह लोक विश्वास निमाड़ में भी प्रचलित है। गांव के लोग मिलकर किसी एक जीवित व्यक्ति को मृत्यु शैया पर लिटा देते हैं। मृत व्यक्ति के समान ही चार आदमी अपने कंधों पर इस तथाकथित अर्थी को ढोते हैं। गांव का पटेल इस अर्थी के आगे-आगे हांडी और काठी लेकर चलता है। संपूर्ण गांव में घूमती हुई यह शवयात्रा जब निश्चित स्थान पर पहुंचती है तब पूजन-पाठ के साथ यह आयोजन समाप्त होता है, इंद्र देवता और मेघों के भीतर मानव जाति के प्रति करुणा जागृत करने वाला यह लोक विश्वास इस यथार्थ को भी व्यक्त करता है कि अनावृष्टि के कारण जब खेतों में फसल उत्पन्न नहीं हो पाती है तब किसान आत्महत्या तक करने लगते हैं। मैंने ऐसे समाचार पढ़े हैं, जिनमें सूखती फसल को देखकर किसान खेत के मेड़ पर लगे वृक्ष में फांसी का फंदा फंसाकर मौत को गले लगा लेते हैं।

मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड अंचल में अनावृष्टि का सामना करने के लिए गांव की समस्त देव मूर्तियों पर गोबर का लेपन कर दिया जाता है। हो सकता है जन-भावना में यह रहता हो कि देवता इस लेप से व्याकुल हो उठेंगे, और इंद्र देवता को आदेशित करेंगे कि वे जल बरसायें, ताकि उनको इस लेप से मुक्ति मिले। समस्त उत्तर भारत के ग्रामीण एवं नगरीय इलाके में यह लोक-विश्वास प्रचलित है कि शंकरजी की पिंडी को जल में रात-दिन डुबाये रखने से जल वर्षा होती है। देवालय में स्थित जल पिंडी को पूर्णतः जल में डुबा देने के लिये लोग अपने-अपने घरों से एक-एक बालटी पानी लाते हैं, और इसे शिवलिंग पर ढारते रहते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि शिवलिंग जल में न डूब जाये। इस पद्धति में शिव से संबंधित स्रोतों का पाठ चलता रहता है। शंकर जल-प्रिय देवता हैं। यह क्रिया उनके प्रीत्यर्थ ही की जाती है। जन-विश्वास यह भी हो सकता है शंकर अपनी जटाओं में गंगा को छिपाये रहते हैं। जल में संपूर्ण डूब जाने से संभवतः वे अपनी समाधि भंग करें और गंगा को अपनी जटाओं से मुक्त करें।

ग्रामीण क्षेत्रों में अखंड रामधुन और अखंड रामायण पाठ का भी प्रचलन है। गांव के सभी लोग एक एक धार्मिक स्थल पर एकत्रित होकर कम से कम चौबीस घंटे के रामायण पाठ का या अखंड रामधुन का आयोजन करते हैं। भक्तों की टोलियां रात-रात भर जागरण कर मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना करती हैं। कहीं-कहीं मुस्लिम भी विशेष नमाज अदा करके वर्षा की कामना करते हैं। इन सब आयोजनों के अलावा क्षेत्रीय और स्थानीय मान्यताएं भी जगह-जगह अपने ढंग से प्रचलित हैं। असम में यह मान्यता है कि ब्रह्मपुत्र नदी को ताम्बूल का चढ़ावा चढ़ाने पर वर्षा होती है। एक लोक गीत में स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्मपुत्र बाबा हमें मत बहाना, क्योंकि तुम्हें पान तांबूल देकर बुलाने वाला कोई नहीं ‘उतुवाई निनिवा ब्रह्मपुत्र देवता तामुल दि मोतोता नाई’ ‘अथर्ववेद’ का ऋषि जल की महत्ता का निरूपण करते हुए, मेघों से प्रार्थना करता है कि हे जलधारको मेरे निकट आओ-जल बरसाओ तुम अमृत हो! “आदित्पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषो गच्छति वाड़्मासाम्। मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः।”

जल-वर्षा की कामना से संबंधित प्रायः सभी टोने-टोटके और लोक-विश्वास आधिदैविक शक्तियों पर किये जाने वाले विश्वासों से उपजे हैं। वैदिक देवता इंद्र से लेकर पौराणिक देवताओं की अभ्यर्थना के साथ-साथ लोक देवताओं की अभ्यर्थना तक इन विश्वासों में निहित हैं। लोक ने अपनी सीमाओं और अपने संसाधनों के भीतर ये आयोजन रचे हैं। इनमें प्राक् मिथकीय धारणाओं से लेकर चिंतनशील मन की भी अभिव्यक्ति होती है। ये आयोजन सफल काम होते रहे हैं। इसलिये लंबे काल से ये अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। ये समूह और प्रकृति के विच्छिन्न रूप से प्रसरित युग्म चेतना प्रवाह का परिणाम हैं, समाज मनोविज्ञान की सक्रियता इन आयोजनों में प्रमुख है। आधुनिक सोच के अंतर्गत आने वाले वर्षा-कारक प्रयत्नों की तरफ भी अब लोक का ध्यान गया है। सघन वनीकरण प्राप्त जल का समुचित प्रबंधन, कृत्रिम वर्षा प्रकृति की सुरक्षा, आदि के माध्यम से वर्षा की समुचित परिस्थितियों का निर्माण विभिन्न प्रविधियों द्वारा संभव हो रहा है, फिर भी लोक-विश्वासों के महत्व का अभी समाज में केंद्रीय महत्व है।

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