देश के बहुरंगी सांस्कृतिक परिवेश को एकता का सूत्र जल ही प्रदान करता है। जल की इस शक्ति का अनुभव लोक ने कर लिया था, इसलिए उसका प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान जल के पूजन से प्रारंभ होता है।
जल, जीवन का दूसरा नाम है। जल से ही जीवन है और जल से ही जीवन पनपता होता है। जल की स्तुति में मनुष्य ने अनेक गीत रचे हैं। लोक-विश्वासों में जल की महत्ता के अनेक प्रयोग, परम्परा से प्रचलित हैं। इन प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि मनुष्य ने अपनी स्वास्थ्य-रक्षा, अपनी समृद्धि संवर्द्धना एवं अपने कुशल-क्षेम के लिए जल की अनेक शक्तियों का बहुविधि आह्वान किया है। लोक, अपने सभी शुभ अवसरों पर जल का पूजन करता है। ऎसे अवसरों पर जल-केन्द्रों की अभ्यर्थना-अभ्यर्चना का भी विधान है। नदी-सरोवर, कुंआ-बावड़ी का पूजन करके ही उनका जल, पवित्र कार्यों के लिए उपयोग किया जाता है।
जल जोड़ने का काम करता है। जल समाहित्य का पोषक है। हमारे अधिकांश मेले और धार्मिक आयोजन जल-केन्द्रों के आसपास ही आयोजित किये जाते हैं। जल हमारे देश के सांस्कृतिक समन्वय का आधार रहा है। विभिन्न नदियों और सरोवरों से कावरों में जल लेकर विभिन्न क्षेत्रों में स्थित शिव-लिंगों पर यह जल अर्पित किया जाता है। महाकवि तुलसीदास ने तो अपने रामचरितमानस में उत्तर-दक्षिण को जोड़ने का आधार ही जल माध्यम में तलाशा। इस देश के बहुरंगी सांस्कृतिक प्रदेश को एकता का सूत्र जल ही प्रदान करता है। श्री राम ने दक्षिण के समुद्र तट पर शिव की स्थापना करते हुए उद्धोषणा की कि जो हिमालय स्थित गंगोत्री से गंगा-जल लेकर, रामेश्वरम् के शिवलिंग पर अर्पण करेगा, वह मुक्ति का अधिकारी होगा। इसी सूत्र के आधार पर असंख्य नर-नारी, गंगा-जल को लेकर निरन्तर इस देश की सुषुम्ना नाड़ी का स्पर्श करते हुए उत्तर-दक्षिण की यात्रा करते रहते हैं। जल की इस शक्ति का अनुभव लोक ने कर लिया था, इसलिए उसका प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान जल के पूजन से प्रारंभ होता है।
जल-विहार से ही इस तरह के पूर्व कलश-यात्रा का आयोजन किया जाता है। जल-विहार से ही इस तरह के आयोजनों का समापन होता है। यज्ञ या विवाह आदि की अवशिष्ट सामग्री जल में ही विसर्जित करने की सांस्कृतिक विधि है। इस तरह जल की सांस्कृतिक उपस्थिति जहां पूजा-स्थल को प्रभावी सौन्दर्य प्रदान करती है, वहीं पूजन-पाठ एवं विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों में जल का होना वातावरण को विघ्न रहित बनाता है। जल न केवल भौतिक मैल को साफ करता है बल्कि वह परिवेश में निहित दुष्ट शक्तियों का भी समापन करता है-लोक की ऎसी मान्यता है।
जब प्रसूति कक्ष से पहली बार बाहर निकलकर घरेलू कार्यों में प्रवृत्त होती है, तब सम्पूर्ण उत्तर भारत में इस प्रसंग को एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर प्रसूता कुएं पर जल भरने जाती है। उसके साथ गाती-बजाती स्त्रीयों का समूह भी रहता है। कुंओं के घाट पर पहुंचकर पहले ये स्त्रीयां कुएं का पूजन करती हैं। फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। वह सिर पर जल से परिपूर्ण कलश लेकर घर लौटती है। द्वार के समक्ष खड़ी होकर वह अपने देवर का सिर से कलश उतारने हेतु आमंत्रित करती है देवर कलश उतारने आता है, किन्तु वह इस कार्य के लिए नेग लेने के लिए अड़ जाता है। भाभी जब उसे उसकी मनचाही वस्तु नेग के रूप में प्रदान करती है तब वह भाभी के सर से कलश उतारता है। एक लोकगीत में इस लोक-प्रसंग की चर्चा है- न्नदेवरा मोरे सिर से गगरी आकर आज उतारो। गगरी तोरी तबई उतर है, जब देही नेग हमारो। देवर-भाभी का यह संवाद जल के साथ जुड़े हास-परिहास का प्रदर्शक भी है। शिशु-जन्म के सभी संस्कार इसी जल से सम्पन्न होते हैं।
मृत्यु जैसे अंतिम संस्कार में जल अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। शव-यात्रा में जल से भरा हुआ एक मृत्तिका घट भी ले जाया जाता है। शव को मुखाग्नि देने वाला सदस्य जल से भरा यह घट अपने दाहिने कंधे पर रखता है। इस घट में तत्काल इस तरह से छिद्र कर दिया जाता है कि उससे एक पतली जलधारा प्रवाहित होने लगे। इस घट को लेकर घट-धारी व्यक्ति चिता की सात परिक्रमायें लगाता है। इन परिक्रमाओं के परिपथ में घट से अजस्त्र जल-धारा नीचे गिरती रहती है। सातवीं परिक्रमा के बाद घट को नीचे पटक कर फोड़ दिया जाता है। न्नफूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तथ कथौ गियानी। कबीर की काव्य पंक्ति के अनुसार देह का घट फूट गया। इसमें निहित आत्म-तत्व रूपी जल परमात्म-तत्व रूपी विराट सागर में समाहित हो गया है। शायद इसी तरह की प्रतीक भावना मरघट में फोड़े गए घट से भी प्रतिघ्वनित होती है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक जल से जुड़े इन लोक-विश्वासों में निहित प्रतीक भावनायें जल की अनेक शक्तियों को प्रगट करती हैं।
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