लोहे के सरदार और सरदार सरोवर

बांध की 90 मीटर ऊंचाई से प्रभावित अलिराजपुर एवं बड़वानी जिले के पहाड़ी गाँवों के सैकड़ों आदिवासी परिवारों की कृषि ज़मीन तथा मकान 15 बरसों से जलाशय के नीचे चले गए। मगर किसी भी परिवार को मध्य प्रदेश में सर्वोच्च अदालत के आदेशानुसार सिंचित, कृषि-योग्य, उपयुक्त एवं बिना अतिक्रमण वाली ज़मीन का आवंटन नहीं हुआ। तब आंदोलन ने जोबट शासकीय कृषि फार्म की 87 एकड़ ज़मीन पर 24, नवंबर, 2011 से अपना अधिकार जमाया और खेती शुरू की। नर्मदा बचाओ आंदोलन की 28 बरस की लंबी लड़ाई ने सरादार सरोवर बांध को अभी 122 मीटर पर रोका हुआ है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने 28 साल से इस बांध के हर पहलू की सच्चाई सामने ला रहा है। 70,000 हजार करोड की लागत के बाद अभी 30 सालों में मात्र 30 प्रतिशत नहरें ही बन पाई हैं वो भी पहले से ही सिंचित क्षेत्र की खेती को उजाड़ कर बनाई जा रही है। इसलिए गुजरात के किसानों ने अपनी ज़मीन नहरों के लिए देने से इंकार कर दिया है। 122 मी. ऊँचाई पर 8 लाख हेक्टर सिंचाई का वादा था जबकि वास्तविक सिंचाई मात्र 2.5 लाख हेक्टेयर से भी कम हुई है। बांध के लाभ क्षेत्र से 4 लाख हेक्टेयर ज़मीन बाहर करके कंपनियों के लिए आरक्षित की गई है। पीने का पानी भी कच्छ-सौराष्ट्र को कम, गांधीनगर, अहमदाबाद, बड़ौदा शहरों को अधिक दिया जा रहा है जो कि बांध के मूल उद्देश्य मे था ही नहीं।

पर्यावरणीय हानिपूर्ति के कार्य अधूरे हैं और गाद, भूकंप, दलदल की समस्याएँ बनी हुई है। सरदार पटेल की लोहे की बड़ी मूर्ति बनाने के बहाने बांध विस्थापित किसानों के पुनर्वास समेत सभी अन्य शर्तों को धता बताने का दौर चल गया। यह बात कोई नहीं देख पा रहा है कि जितना बांध बना है उसका भी पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। शायद यह भारत का पहला बांध है जिसमें महाराष्ट्र और गुजरात में 11,000 परिवारों को भूमि आधारित पुनर्वास मिला है। किंतु हर कदम पर लड़ाई करने के बाद। लेकिन तीनों राज्यों में, आज भी हजारों परिवारों का पुनर्वास बाकी है। 3 राज्यों में 245 गाँवों की हजारों हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन और जंगल डूब में जा रहे है। 48,000 किसान, मज़दूर, मछुआरा, कुम्हार, केवट परिवारों का पुनर्वास अभी बाकी है।

जिस म.प्र. और महाराष्ट्र को “मुफ्त बिजली’’ के झूठे राजनीतिक वादे किए जा रहे हैं जो कि असलियत से कही दूर है वहां आज भी पुनर्वास के लिए 30,000 एकड़ ज़मीन जरूरत है। ज़मीन ना देने के लिए और पुनर्वास पूरा दिखाने के लिए डूब में आ रहे 55 गाँवों और धरमपुरी शहर को डूब से बाहर कर दिया गया है। यह डुबाने का पुराना खेल है। जो बरगी बांध में खेला जा चुका है। बांधों में देश की अन्य परियोजनाओं की तरह पुनर्वास में भ्रष्टाचार आम बात है। किंतु नबआ ने विस्थापितों के पुनर्वास में 1,000 करोड़ भ्रष्टाचार और 3,000 से अधिक फर्जी भू-रजिस्ट्रियों का घोटाला पकड़ा है जिसकी 5 सालों से न्यायालयीय जाँच चालू है। नर्मदा विकास प्राधिकरण के 36 से ज्यादा अधिकारी पकड़े गए हैं और इस न्यायालय को चलाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई की है।

सरदार सरोवर बांध का विरोध करते लोगबांध की 10 गुना लागत बड़ी है। बांध से लागत के बदले मात्र 10 प्रतिशत लाभ होगा। जबकि 1,000 करोड़ भ्रष्टाचार की भेंट जा चुके हैं। अभी तक 70,000 करोड़ खर्च हुए हैं। लाखों लोगों का विस्थापन तो हो ही रहा है। साथ में नर्मदा ट्रिब्यूनल फैसला याने कानून और सर्वोच्च अदालत के हर फैसले का तीव्र उल्लंघन लगातार हो रहा है। आंदोलन इस पर लगातार आवाज़ उठा रहा है। यह सब पर्यावरण मंत्रालय ने नहीं देखा ना ही सर्वोच्च न्यायालय ने देखा। गुजरात और मध्य प्रदेश शासन मिलकर, सरदार सरोवर बांध की आज की ऊँचाई, 122 मी. के डूब क्षेत्र में बसे करीबन 50,000 परिवारों की न केवल अनदेखी कर रहे हैं, बल्कि पानी भरके खेत-खलिहान, घर भी डूबो कर, उन्हें बेघरबार, बेरोजगार भी कर रहे हैं। दूसरी तरफ सरकारों के विभागों का नर्मदा घाटी के 30 बड़े बांधों के पानी, डूब, विस्थापन पर नियंत्रण न के बराबर है। इसलिए इस साल भी 1,500 हेक्टेयर ज़मीन और मध्य प्रदेश में 1,000 से ज्यादा घर और कुछ हजार एकड़ ज़मीन डूबाई गई है।

28 साल के सतत संघर्ष में दस साल जल से टकराने वाला सत्याग्रह, कई सारे लम्बे उपवास और गैरकानूनी बांध के अत्याचार या भ्रष्टाचार की पोलखोल नर्मदा बचाओ आंदोलन ने की है। हर बार नए तरह का आंदोलन, नई रणनीतियां, सरकार को हर मुद्दे पर चुनौती देना जिसे तार्किक परिणाम तक पहुंचाना यह नर्मदा बचाओ आंदोलन की पहचान है। लगभग 20 साल पहले मेधा पाटकर के अरुंधती धुरु व कई साथियों के जलसमर्पण की घोषणा ने देश को हिला कर रख दिया था। सरकार को पुर्नविचार करना ही पड़ा।

बांध की 90 मीटर ऊंचाई से प्रभावित अलिराजपुर एवं बड़वानी जिले के पहाड़ी गाँवों के सैकड़ों आदिवासी परिवारों की कृषि ज़मीन तथा मकान 15 बरसों से जलाशय के नीचे चले गए। मगर किसी भी परिवार को मध्य प्रदेश में सर्वोच्च अदालत के आदेशानुसार सिंचित, कृषि-योग्य, उपयुक्त एवं बिना अतिक्रमण वाली ज़मीन का आवंटन नहीं हुआ। तब आंदोलन ने जोबट शासकीय कृषि फार्म की 87 एकड़ ज़मीन पर 24, नवंबर, 2011 से अपना अधिकार (कब्ज़ा) जमाया और खेती शुरू की। यह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों का लैंड ग्रेब (भू-कब्जा) नहीं, वरन् राईट ग्रेब (अधिकार कब्ज़ा) है।

सरदार सरोवर बांध का विरोध करते लोगपहाड़ के पीढ़ियों से बसे जल, जंगल, जमीन पर जीते आदिवासी तथा पश्चिम निमाड़ के भरे-पूरे, उपजाऊ ज़मीन, फलोद्यान, गेहूँ, कपास, सब्जी, सोयाबीन, की खेती पर जी रहे बड़े मैदानी गाँवों को डूबोना नर्मदा ट्रिब्यूनल फैसला याने कानून और सर्वोच्च अदालत के हर फैसला का तीव्र उल्लंघन है। विस्थापित किसानों को वैकल्पिक खेती देने, मजदूरों को दूसरा व्यवासाय, मुछआरों को मछली पर अधिकार, कुम्हारों को भूखण्ड आदि पुनर्वास के प्रावधानों का पालन और अमल ना करके सिर्फ गुजरात गौरव के लिए डुबाना कहां का न्याय है?

आखिर किस दवाब में बांध की वर्तमान ऊँचाई 122 मी. से 138.68 मी. तक बढ़ाने का गैरकानूनी, अत्याचारी प्रयास जारी है। सामाजिक न्याय मंत्रालय के नेतृत्व में पुनर्वास उपदल ने मंजूरी दी हैं तथा जल संसाधन मंत्रालय - नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण मंजूरी देने की तैयारी कर रही है।

जहां लाखों लोग एक संस्कृति के साथ बिना पुनर्वास के उजड़े हैं और संसार का पहली किसानी, हड़प्पा से पुरानी सभ्यता को डुबाने के बाद सरदार पटेल की सैकड़ों टन की लोहे की मूर्ति सरदार सरोवर के निकट लगाकर पयर्टक स्थल बनाना कैसे न्यायपूर्ण होगा? क्या आज सरदार पटेल जीवित होते तो क्या वो इस अन्याय को स्वीकार करते?

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