आमतौर पर जल स्रोतों की साफ-सफाई नहीं होने या उनके रख–रखाव में कोताही होने की दशा में हम प्रशासन या अधिकारियों को ही कोसते रह जाते हैं। हम अकसर यही शिकायत करते रहते हैं कि यहाँ का प्रशासन और अधिकारी काम ही नहीं करते या लापरवाही करते रहते हैं, लेकिन इन सबसे बिल्कुल उल्टा हुआ है मध्यप्रदेश के देवास शहर के एक मोहल्ले में। यहाँ लोगों ने अपने कुएँ की सफाई खुद के श्रमदान से दो ही दिन में कर डाली और अब यह कुआँ उनके लिए निस्तारी पानी का स्रोत भी बन गया है।
बात शुरू होती है करीब डेढ़ सौ साल पहले से। आज का देवास शहर उन दिनों दो रियासतों में बँटा हुआ था। दोनों ही रियासतों पर राज करने वाले मराठा एक ही परिवार के थे पर राजकाज और लोगों की भलाई के काम दोनों ही अपने–अपने इलाके में किया करते थे। बड़े भाई का इलाका बड़ी पाँति और छोटे भाई का छोटी पाँति। दोनों ने ही अपने-अपने इलाके में कई तालाब, कुएँ-बावड़ियाँ और अन्य जल स्रोत बनवाए। इससे यह शहर बरसों तक पानीदार बना रहा। छोटी पाँति रियासत की मोती बंगला क्षेत्र में एक बड़ी कोठी हुआ करती थी। रियासती दौर में यह शानो-शौकत की नायाब कोठी हुआ करती थी। इसे मराठा वास्तुकला और पाश्चात्य वास्तुकला के साथ बनाया गया था। इस कोठी की वजह से ही इस पूरे क्षेत्र को ही कोठी कहा जाने लगा। बाद के दिनों में राजा की मौत हो जाने पर रानी यहाँ अकेली रहा करती थी। उनके लिए राजसी ठाठ बाट था पर उनका मन राजकाज में नहीं रमता था बाद के दिनों में वे लगातार कमजोर होती गई और एक दिन चल बसी। इसी कोठी से लगा हुआ था यह रियासतकालीन कुआँ।
हालाँकि देखने में यह कुआँ कम और बावड़ी के आकार का ज्यादा नजर आता है। इसके परकोटे पर दरवाजा भी लगा हुआ है और नीचे उतरने के लिए सीढियाँ भी बनी हुई है। तब के दिनों में इसमें सुंदर कमल के फूल खिलते रहे पर बाद के दिनों में कोठी खड़ी रह गई पर यहाँ की चहल–पहल खत्म हो गई। जब कोठी की ही देखभाल करने वाला कोई न बचा तो इस बावड़ीनुमा कुएँ को भला कौन देखता। धीरे–धीरे आस-पास की जमीनें बिकने लगी और इन पर प्लाट कटना शुरू हो गए तो थोड़े दिनों बाद कालोनी भी बस गई। कुआँ अब किसी के काम का नहीं रह गया था तो लोग इसका इस्तेमाल कचरा फेंकने के लिए करने लगे। बरसों तक इसकी किसी ने सुध तक नहीं ली।
यहाँ के रियासतकालीन कुएँ की साफ–सफाई नहीं हो पा रही थी। इसलिए यह धीरे–धीरे कचरे के गड्ढे के रूप में काम आने लगा। इस मोहल्ले के ही नहीं, आस-पास के मोहल्ले से भी लोग यहाँ आते और पूजन सामग्री सहित अन्य सामग्री डाल जाते। बारिश का पानी भी इसमें मिल जाता तो पानी सड़ांध मारने लगता और इससे मच्छर भी पनपने लगते। लोग बीमार रहने लगे। जब बात हद से आगे बढ़ी तो लोगों ने नगर निगम को कहा। लिखित में शिकायत की पर कुछ नहीं हुआ तो लोग खुद नगर निगम पहुँचे तो उन्हें कहा गया कि निगम का सफाई अमला भेजकर साफ-सफाई करा देंगे। लोगों ने कुछ दिन फिर इन्तजार किया फिर नगर निगम गए और पुरानी बात याद दिलाई तो अधिकारियों ने कहा कि बरसात में ज्यादा काम इकट्ठा हो गया था पर अब जरूर भेज देंगे। इस बात को भी सात दिन बीत गए पर कोई नहीं आया तो खुद लोगों ने ही आपस में मिलकर एक फैसला किया कि अब वे किसी के पास नहीं जाएँगे बल्कि अपने कुएँ की सफाई खुद ही करेंगे।
दूसरे दिन तो पूरा मोहल्ला जुट गया। इसमें बड़ी तादाद में महिलाएँ और बच्चे भी शामिल थे। कोई पानी से पॉलीथिन निकाल रहा था तो कोई सूखे हार–फूल। कोई बाल्टी से कचरा निकाल रहा था तो कोई बाँस से। कुछ ही घंटों में आधा से ज्यादा कुआँ साफ हो गया था। इससे काम कर रहे लोगों का उत्साह और भी बढ़ गया। लोगों को लगा कि यह तो बहुत आसान काम था और इतने से काम के लिए महीने भर से यहाँ–वहाँ चक्कर काट रहे थे।
दरअसल हुआ यूँ था कि स्वतंत्रता मिलने के बाद राजे–रजवाड़े धीरे–धीरे खत्म होने लगे। देवास में भी पानी का इन्तजाम तत्कालीन नगर पालिका के हाथ में आ गया। कुछ दिनों तक सब अच्छा चलता रहा। नगर पालिका ने लोगों की भलाई के लिए उन दिनों जगह–जगह हो रहे नल जल योजना की शुरुआत यहाँ भी की। तभी सन 1970 के दशक में देवास का औद्योगीकरण शुरू हुआ और देखते ही देखते यहाँ की जनसंख्या बेतहाशा बढ़ने लगी। एक दशक में ही यहाँ की जनसंख्या बढ़कर करीब तीन गुना हो गई।
पानी की कमी होने लगी तो ट्यूबवेल खोदे जाने लगे। पास की क्षिप्रा नदी से पानी लाने की योजना बनी और करोड़ों की लागत से इससे पानी भी आने लगा लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि लोगों ने अपने परम्परागत प्राकृतिक जल स्रोतों को ही भुला दिया। अब वे पानी के लिए कभी अपने मोहल्ले के कुएँ तक नहीं जाते थे। पानी तो उनके दरवाजे पर ही टोंटी दबाते ही मिल जाया करता था। इस कारण धीरे–धीरे पुराने जल स्रोत लुप्त होने लगे। उपेक्षित होकर या तो वे उजाड़ होकर खत्म होते गए या रहवासियों ने इन्हें कूड़ा–कचरा डालने के काम में लेना शुरू कर दिया और कुछ वक्त के बाद वे एक के बाद एक दम तोड़ते चले गए। लेकिन कुछ फिर भी बचे रह गए।
यह रियासतकालीन कुआँ भी उन्हीं में से एक है और फिलहाल इसे यहाँ के लोगों ने श्रमदान के बाद साफ-सुथरा बनाया है। अब यहाँ के लोग कुआँ साफ हो जाने से खासे उत्साहित हैं। वे इसे अब गर्मी में तली से साफ करने का भी मन बना रहे हैं ताकि इसके पानी का उपयोग पीने के लिए भी किया जा सके। यहाँ की रहवासी आशा सोलंकी बताती हैं कि कई सालों से हम लोग पानी की समस्या से परेशान हैं। हमें गर्मियों के दिनों में दूर–दूर से पानी लाना पड़ता है पर कभी इस कुएँ का इस तरह ध्यान ही नहीं रहा कि यह हमारी प्यास भी बुझा सकता है। हम तो प्रशासन का ही इन्तजार कर रहे थे पर मोहल्ले के ही कुछ लोगों के कहने पर जब काम शुरू हुआ तो दो दिन में ही हालात बदलते देर नहीं लगी।
रवि बैरागी ने बताया कि यह कुआँ लोगों के कचरा और पूजन सामग्री फेंकते रहने से दूषित हो गया था। इसकी गन्दगी से क्षेत्र में बीमारियाँ फैलने लगी थी। डॉक्टरों ने भी बताया था कि ठहरे हुए दूषित पानी में कई बीमारियों को फैलाने वाले रोगाणु पनपते हैं। हालत यह थे कि कालोनी में घर–घर लोग बीमार हो रहे थे। बार–बार नगर निगम को आवेदन देने के बाद भी जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो हमारे पास और कोई चारा नहीं बचा था। पर अब हमें बहुत खुशी है और हम इसपर सतत निगाह रखते हैं कि कोई भी अब इसमें कचरा या पूजन सामग्री नहीं डालें। आयुष ठाकुर ने बताया कि कुएँ का पानी सतह तक पूरी तरह साफ हो गया है। इसमें अब पानी की दवा भी डलवा रहे हैं और इसका पानी निस्तारी उपयोग में लिया जा सकेगा।
इस तरह आस-पास के लोगों की जागरूकता से इस कुएँ के दिन तो फिर गए पर आज भी सैकड़ों कुएँ अपने दिन फिरने के इन्तजार में हैं। जरूरत है ऐसे कई कुओं को फिर से जिन्दा बनाने की ताकि इनमें फिर से पानी की लहरें उठ सकें।
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