लखनऊ महानगर: मृदा प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Soil Pollution)


मृदा, भूमि या मिट्टी प्रकृति का सर्वाधिक मूल्यवान संसाधन है। उपजाऊ मृदा क्षेत्र सदैव से मानव के आकर्षण केंद्र रहे हैं। नदी घाटी के उपजाऊ मृदा क्षेत्रों में ही सभ्यताओं का उदय हुआ और आज भी सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में ही सर्वाधिक जनसंख्या निवास करती है। मृदा का उपयोग मुख्यतः कृषि कार्य के लिये होता है। यह मिट्टी हमारे जीवन के भरण पोषण से जुड़ी हुई है। मिट्टी का महत्त्व हमारे और समस्त जीव-जगत के लिये बहुत अधिक है। इसी महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए अथर्ववेद में ‘‘माता पृथ्वी पुत्रोऽहं पृथिव्या:’’ कहकर हमारे और पृथ्वी के सम्बन्धों की व्याख्या की गयी है। इसी पृथ्वी की ऊपरी सतह मृदा या मिट्टी के नाम से जानी जाती है। मृदा का वैज्ञानिक अध्ययन लगभग 200 वर्ष पहले प्रारम्भ हुआ था और आज मृदा विज्ञान का अध्ययन स्वतंत्र विज्ञान की सत्ता को प्राप्त कर चुका है।

मृदा की संरचना विविध शैलों के अपक्षय से हुई है। अपक्षय चक्र में समय चक्र के साथ मृदा पदार्थ का स्वरूप बदलता रहता है। इस प्रकार मृदा विकास प्रक्रिया में मृदा की एक विशिष्ट रूपा-कृति तैयार हो जाती है जिसे मृदा परिच्छेदिका (Soil Profile) के नाम से जाना जाता है, जो किसी भी मिट्टी की स्वतंत्र पहचान एवं विलक्षणता है। मिट्टी विकास कालक्रमों के अनुसार कई संस्तरों में विभाजित हो जाती है। इन संस्तरों में मृदा का ऊपरी संस्तर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि यह उपजाऊ एवं कृषि कार्य में प्रयुक्त होता है। इस उपजाऊ पर्त के निर्माण में 3000 से 12000 वर्ष का समय लगता है1

JOFFe J.S2 के अनुसार ‘‘मिट्टियाँ, जंतु, खनिज एवं जैविक पदार्थों से निर्मित प्राकृतिक वस्तु होती है जिसमें विभिन्न मोटाई के विभिन्न मंडल होते हैं। मृदा के ये मंडल आकारकी, भौतिक एवं रासायनिक संगठन एवं जैविक विशेषताओं के दृष्टिकोण से निचले पदार्थों से अलग होते हैं।’’

विश्व का 71 प्रतिशत खाद्यान्न मिट्टी से ही उत्पन्न होता है। खाद्यान्न उत्पादन योग्य भू-क्षेत्र सम्पूर्ण ग्लोब के मात्र 2 प्रतिशत भाग में ही उपलब्ध है।

अति सीमित कृषि भू-क्षेत्र होने पर खाद्य पदार्थों की समुचित उपलब्धि के कारण इस परिसीमित संसाधन को प्रदूषण से बचाना आज की महती आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये हम सभी को सम्मिलित प्रयास करना होगा।

प्राकृतिक पर्यावरण में प्रथम परिवर्तनकारी मानव क्रिया कृषि रही है। कृषि पारिस्थितिकी का पर्यावरण में अपना एक स्थान है।

“Agricultural ecosystem has its own identity in the environment. It is normally a balanced system. It is self sufficient and need not exchange any matter by either giving or taking from the outside3

मानव ने अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये अनेकानेक उर्वरकों कीटनाशकों का उपयोग कर मिट्टी को प्रदूषित कर दिया है। प्रकृति के इस महत्त्वपूर्ण तत्व मिट्टी को 1940 में जर्मनी के महान रसायन वेत्ता लीबिंग4ने मिट्टी को एक विशाल कठोेर की संज्ञा दी है। किंतु इसे हम इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि ‘‘शैल तथा खनिज पदार्थ के साथ जैव पदार्थों का मिश्रण ही मृदा है।’’ अमेरिकी मृदा विज्ञानी हिलगार्ड4 ने मिट्टी की परिभाषा इस प्रकार दी है- ‘‘मृदा वास्तव में एक स्वतंत्र प्राकृतिक पिंड है जिसके कई अवयव हैं यथा, खनिज, जैव पदार्थ, जल तथा वायु’’। मृदा विज्ञान के जन्मदाता रूसी वैज्ञानिक डाकुचायेव5 (Dokuyachev) ने मिट्टी को प्रकृति का ‘‘चौथा साम्राज्य’’ कहा है। आगे कहा - ‘‘मृदा मात्र शैलों, पर्यावरण, जीवों और समय की आपसी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का परिणाम है।’’

वास्तव में भूमि प्रकृति का साम्राज्य है यह कृषि उपयोग के साथ-साथ सम्पूर्ण जीवधारियों के अस्तित्व का कारण है। मिट्टी एक पिंड रूप है, इसमें अनेक सूक्ष्म जीव हैं, जो इसकी उत्पादकता का निर्धारण करते हैं, इनकी उपस्थिति मिट्टी में जल और वायु की उपलब्धता के साथ रहती है इसके किसी भी अवयव में या अवस्था में असंतुलन होने पर उसके गुणों में विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता गया वैसे-वैसे मिट्टी का दोहन और शोषण होता गया। इतना ही नहीं इसमें रद्दी की टोकरी समझ कर सभी प्रकार का कूड़ा करकट, मलवा, औद्योगिक अपशिष्ट आदि भरा जाने लगा और पर्यावरण प्रदूषण के साथ अतुल सहाय क्षमता वाली यह मिट्टी भी प्रदूषित हो गयी इसमें विषैले तत्व मिल गए और विषाक्तता उत्पन्न हो गयी।

इस प्रकार मिट्टी में भौतिक या मानवीय कारणों से मृदा की गुणवत्ता घटने लगती है तो उसे मृदा का ह्रास कहा जाता है। यह ह्रास मृदा के कटाव, अधिक उपयोग, पोषक तत्वों की कमी, जल की अधिकता या कमी, तापमान का घट-बढ़, जैवांश का असंतुलित अनुपात और प्रदूषकों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। स्पष्ट है कि मृदा की गुणवत्ता के ह्रास के लिये मानवीय क्रियाकलाप अधिक उत्तरदायी है। जब मृदा में प्रदूषित जल, रसायन युक्त कीचड़ अपशिष्ट, कीटनाशक दवा एवं उर्वरक अत्याधिक मात्रा में प्रवेश कर जाते हैं, तो उनसे मृदा की गुणवत्ता घट जाती है। इसे मृदा का प्रदूषण कहा जाता है। इस मृदा प्रदूषण को अतिशय अनियंत्रित करने वाले सभी जीवधारियों में मनुष्य सबसे आगे है।6

अ. मृदा प्रदूषण के स्रोत (Sources Of Soil Pollution)
मृदा प्रदूषण के कारकों या स्रोतों को 5 वर्गों में रखा जा सकता है।
(i) भौतिक स्रोत (ii) जैव स्रोत (iii) वायुजनित स्रोत (iv) जीवनाशी स्रोत (v) नगरीय एवं औद्योगिक स्रोत

भौतिक स्रोत का सम्बन्ध प्राकृतिक एवं मानव जनित स्रोतों के मृदा अपरदन से होता है। मृदा अपरदन के महत्त्वपूर्ण कारकों में वर्षा की मात्रा तथा तीव्रता, तापमान तथा हवा, शैलीय कारक, वनस्पति आवरण तथा मिट्टियों की सामान्य विशेषताएँ सम्मिलित हैं।

जैवीय कारकों में सूक्ष्मजीवों एवं आवांछित पौधों को सम्मिलित किया जाता है, यह मृदा की उर्वरता एवं गुणवत्ता को कम करते हैं। मृदा प्रदूषण के जैव प्रदूषकों में मानव द्वारा परित्यक्त रोग जनक सूक्ष्मजीव, पालतू पशुओं द्वारा परित्यक्त गोबर आदि के माध्यम से उत्पन्न रोग जनक जीव, मृदा में उपस्थित रोगजनक सूक्ष्म जीव, आंतों में रहने वाले बैक्टीरिया एवं प्रोटोजोवा प्रकार के जीव। यह सूक्ष्म जीव विभिन्न स्रोतों से मृदा में प्रवेश कर उसे प्रदूषित करते हैं और यह आहार श्रृंखला में प्रवेश कर मानव-शरीर में भी प्रवेश करते हैं।

वायु जनित स्रोतों वाले मृदा प्रदूषक वास्तव में वायु के प्रदूषक होते हैं जिसमें कारखानों की चिमनियाँ, स्वचालित वाहन, तापशक्ति सयंत्रों तथा घरेलू स्रोतों से वायुमंडल में उत्सर्जन होता है, इन प्रदूषकों का कुछ क्षण पश्चात धरातल में धीरे-धीरे पतन होता है, और मिट्टी में पहुँच कर उसे प्रदूषित कर देते हैं। वायुजनित प्रदूषकों की अधिकता से अम्ल वर्षा होती है, और मिट्टी में अम्ल की अधिकता होती है तथा p.H कम हो जाता है। यह कृषि फसलों तथा वनों के लिये हानिकारक है। कारखानों से उत्सर्जित क्लोरीन तथा नाइट्रोजन गैसें जल से संयुक्त होकर मिट्टी को प्रदूषित करती है। तथा उनके रासायनिक संगठन को परिवर्तित कर देती है। कारखानों, चूने के भट्ठों, कोयले की खानों, ट्रकों, मालगाड़ी में कोयले के भरने, उतारने, तापशक्ति सयंत्रों आदि से उत्सर्जित कणकीय ठोस पदार्थ मिट्टी में पहुँच कर प्रदूषित करते हैं, अभ्रक की खदानों के निकट मिट्टी में अभ्रक कणों के कारण मृदा की क्षारीयता में वृद्धि हो जाती है। धात्विक कणीय पदार्थ मिट्टी के भौतिक तथा रासायनिक गुणों में परिवर्तन कर देते हैं। (परिशिष्ट- 3)

रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशी रसायनों का प्रयोग आज कृषि के लिये आवश्यक सा हो गया है। यद्यपि उर्वरक फसलों के लिये पोषक तत्व प्रदान करते हैं किंतु इनके अत्यधिक प्रयोग के कारण मिट्टियों के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में भी भारी परिवर्तन हो जाते हैं। कीटनाशकों रोगनाशकों और खरपतवार नाशकों के प्रयोग से मिट्टियों के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में भारी परिवर्तन हो जाता है, इससे बैक्टीरिया सहित सूक्ष्म जीव विनिष्ट हो जाते हैं, और मिट्टी की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ जाती है। जैवनाशी रसायन विषैले रूप में आहार श्रृंखला में प्रवेश करते हैं और मनुष्यों एवं जीव-जंतुओं में प्रवेश करते हैं, यह पहले तो लाभकारी प्रभाव प्रदान करते हैं किंतु इसके पश्चात जीव-जंतुओं और मनुष्यों के संकट का कारण बनते हैं। इनके घातक प्रभाव के कारण ही इन्हें रेंगती मृत्यु7 (Creeping Death) कहा जाता है। (परिशिष्ट- 4)

नगरीय अपशिष्टों के अंतर्गत अखबार, कागज, कांच की बोतलें, शीशियां, प्लास्टिक के सामान, डिब्बे, कनस्तर, एल्यूमीनियम की पट्टियाँ, चद्दरें, प्लास्टिक बैग, पैकिंग के डिब्बे, विभिन्न प्रकार के स्वचालित वाहन, इनके पहिए व अन्य कलपुर्जे, सब्जियों के कचरे, आवासीय क्षेत्रों से निकलने वाले कूड़े-करकट एवं कचरे को इसमें सम्मिलित किया जाता है।

औद्योगिक अपशिष्टों में औद्योगिक केंद्रों की भारी परित्यक्त सामग्री, चीनी मिलों की खोई, तांबा एवं एलुमिनियम के कारखानों के अपशिष्ट, औद्योगिक केंद्रों का जल मल तथा उनके उत्सर्जित उत्क्षिष्ट पदार्थ, बधशालाओं के अपशिष्ट, इस्पात कारखानों के अपशिष्ट, उर्वरक कारखानों के अपशिष्ट, परमाणु एवं रसायन कारखानों के अपशिष्ट आदि अधिक घातक स्तर में आते हैं।

उक्त स्रोतों से प्राप्त अपशिष्टों को हमें ठोस अपशिष्ट, कचरा, शीवर अपशिष्ट, नगरीय अवमल, रासायनिक उर्वरक, और कीटनाशी आदि वर्गों में विभक्त करके इनका विश्लेषण करना अधिक उपयुक्त होगा।

ठोस अपशिष्ट प्रदूषण और मृदा (SOLID WASTE POLLUTION AND SOIL)


“Solid waste may be defined unwanted or discarded materials in solid form resulting from normal practices of the communities and they include garbage, rubbish, street sweepings, ashed and other industrial wastes8

‘‘समुदाय की सामान्य रीतियों से उत्पन्न होने वाले अवांछित अथवा परित्यक्त ठोस पदार्थ जिनके अंतर्गत कूड़ा, करकट, निस्सार पदार्थ, सड़कों का कूड़ा, राख तथा अन्य औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों को, ठोस पदार्थों के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।’’ उपयोग के बाद परित्यक्त इन ठोस तत्वों या पदार्थों को विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे कि कचरा या उच्छिष्ट (Garbage or rubbish) ठोस अपशिष्ट (Solid Waste) आदि।

कूड़े या ठोस पदार्थ को फैफ्लिन9 ने इस प्रकार परिभाषित किया है ‘‘किसी भी प्रकार का ठोस पदार्थ जो लंबे समय तक आर्थिक दृष्टि से उपयोगी न होने के कारण छोड़ दिया गया हो, साथ ही जैविक या अजैविक रूप में हो, कूड़ा करकट कहलाता है।’’

इस प्रकार व्यर्थ पदार्थ जो ठोस आकार में होता है कूड़ा करकट कहलाता है। इसके अंतर्गत कूड़ा, करकट, मानव एवं पशु मल, गली कूचों की सफाई से निकला कूड़ा, करकट, राख तथा अन्य प्रकार के औद्योगिक पदार्थ सम्मिलित किये जाते हैं।

नगरीय क्षेत्रों में निकलने वाले ठोस अपशिष्ट में प्लास्टिक के थैले, बोतलें, धातु व टिन और प्लास्टिक तथा कागज के डिब्बे, चीनी मिट्टी के टूटे बर्तन, राख, कपड़ा, रसोई के अपशिष्ट, सड़े गले अनाज, फलों के छिलके, हड्डियाँ आदि पदार्थ मुख्य हैं। ठोस अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा एक नगर से दूसरे नगर में तथा एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में भिन्न-भिन्न होती है। इसी प्रकार जाति धर्म का भी प्रभाव पड़ता है। हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों में शाकाहारी प्रवृत्ति के कारण कार्बनिक पदार्थ तथा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में हड्डियों की अधिकता पायी जाती है।

“As the refuse characteristics change with occupation and standard of living, different areas are classified as residential, commercial and industrial etc. the residential areas are sub divided into high income, middle income, low income and slum type groups.10

नगर की जनसंख्या के अनुसार अपशिष्ट मात्रा बढ़ती जाती है। नीरी कानपुर (1995) के सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों की मात्रा दिल्ली (4500 टन), मुंबई (4200 टन), चेन्नई (2800 टन), बंग्लुरु (2000 टन) तथा लखनऊ (1600 टन) है। (परिशिष्ट- 5)

किसी भी देश के लोगों के रहन-सहन के स्तर वहाँ से निकलने वाले कचरे की मात्रा निर्भर करती है। अमेरिका में यह ठोस निस्तारित पदार्थ 3.6 कि.ग्रा., ग्रेट ब्रिटेन 0.8 कि.ग्रा., आस्ट्रेलिया तथा भारत में 0.3 कि.ग्रा. प्रतिदिन प्रति व्यक्ति है11

कचरे की मात्रा एक देश से दूसरे देश में भिन्न है, जनसंख्या वृद्धि के साथ कचरे की मात्रा बढ़ती है भारत में 300000 टन कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होता है, इसमें 1.5 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष हो रही है, प्रतिवर्ष कचरे के निस्तारण में 320 मिलियन खर्च करना पड़ता है।12 (परिशिष्ट - 5)

लखनऊ महानगर में ठोस अपशिष्ट एवं मृदा प्रदूषण


नगरीय क्षेत्रों में मृदा प्रदूषण का प्रमुख स्रोत कूड़ा करकट है। नगरीय जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ मल-मूत्र तथा मानव द्वारा फेंके गए व्यर्थ पदार्थों की मात्रा में दिनों-दिन अत्यधिक वृद्धि हो रही है, यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आज हम प्रदूषण एवं कूड़े की जिंदगी में जी रहे हैं। लखनऊ महानगर की जनसंख्या लगातार तीव्र गति से बढ़ती जा रही है, साथ ही कचरे की निस्तारण समस्या भी बढ़ती जा रही है। लखनऊ महानगर कचरा निस्तारण के प्रमुख ‘दीपक यादव’ का कहना है कि “लखनऊ महानगर में प्रतिदिन 1600 टन कचरा उत्पन्न होता है जिसे हमारे वाहनों द्वारा कर्मचारी उठाते हैं। इसके अतिरिक्त 40 करोड़ लीटर सीवेज कचरा भी प्रतिदिन उत्पन्न होता है। कचरे को उठाने में 60 छोटे बड़े वाहन लगे हुए हैं जिनमें 10 कूड़ा उठाने वाले हैं। ढोने में 22 ट्रक तथा 17 ट्रैक्टर ट्रालियाँ कार्यरत हैं, 10 से अधिक वाहन कार्यशाला में है। इस कार्य को संपन्न कराने के लिये 296 कर्मचारी 8 से 10 घंटे तक कार्य करते हैं। इनमें 78 ड्राइवर तथा शेष लोडर हैं। यह संख्या 103 वर्ग कि.मी. परिक्षेत्र में लगे कर्मचारियों की संख्या है। बढ़े हुए 310 वर्ग किमी. परिक्षेत्र के लिये अतिरिक्त व्यवस्था अभी तक नहीं की जा सकी और न ही निगम में अतिरिक्त कर्मचारियों की व्यवस्था की जा सकी है।”

लखनऊ महानगर में उत्पादित कचरे की मात्रा का आकलन भिन्न-भिन्न संस्थाओं द्वारा किया गया, कुछ प्रमुख वार्डों का कचरा एकत्रीकरण स्थलों से प्रति दिन उठाए जाने वाले कचरे की मात्रा का अनुमान गोमती प्रदूषण नियंत्रण के संदर्भ में एक संस्था विशेष ‘तारू’ (TARU) के द्वारा किया गया जिसे ‘तालिका - 2.2’ में प्रस्तुत किया गया है।

लखनऊ महानगर के कुछ प्रमुख वार्डों में औसत रूप में प्रतिदिन 1485 कि.ग्रा. कचरे की मात्रा है या कि लखनऊ नगर के प्रत्येक कचरा गोदाम में 1500 कि.ग्रा. कचरे की मात्रा उत्पन्न होती है। और इस औसत के बड़े कचरा निस्तारक गोदामों की संख्या 109 से भी अधिक है। लघु स्तरीय कचरा गोदामों की गणना इसके अंतर्गत सम्मिलित नहीं है। प्रत्येक स्थल में 5000 कि.ग्रा. ठोस पदार्थ की मात्रा पायी जाती है। क्रमांक 8, 9, 10 में लखनऊ के सबसे बड़े विस्तृत क्षेत्र में लगाए गए उद्योगों का क्षेत्र है, अत: यहाँ पर उत्पादित कचरे की मात्रा सर्वाधिक है। यहाँ पर लकड़ी के कारखाने, आरा मशीनें तथा छोटी वस्तुओं के उत्पादन केंद्र हैं इसलिये कचरे की मात्रा अन्य स्थानों से अधिक रहती है। हुसैनगंज क्षेत्र एक व्यापारिक प्रतिष्ठानों का क्षेत्र है। इसी प्रकार चौक भी व्यापारिक प्रतिष्ठानों का केंद्र है। अशर्फाबाद में भी अनाज मंडी है अत: इन स्थानों में भी कचरे की मात्रा अधिक है। व्यापारिक क्षेत्रों की सबसे पृथक स्थिति यह भी रहती है कि यहाँ कचरा अपराह्न में उत्पन्न होता है। अपराह्न में गोदामों से कचरा उठाते समय बाजार में परिवहन वाहनों एवं लोडरों के आवागमन की समस्या के कारण पूरी तरह से कचरा उठाने में भी समस्या बनी रहती है। आवासीय क्षेत्रों जैसे- राजाजीपुरम, दौलतगंज, डालीगंज, मशकगंज, सीबी गुप्ता नगर आदि में अपेक्षाकृत कचरे की मात्रा कम रहती है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापारिक प्रतिष्ठानों में पैकिंग डिब्बों, थैलों आदि के कारण कचरा अधिक उत्पादित होता है।

तालिका 2.2 नगर के प्रमुख वार्डों के गोदामों में प्रतिदिन पहुँची कचरे की मात्राइसी प्रकार इन क्षेत्रों के कचरे का निस्तारण भी कठिन होता है और अधिकतर कचरा नालियों द्वारा बहा दिया जाता है। इसलिये यहाँ सीवरों के चोक होने तथा नालों का पानी रूकने जैसी समस्या उत्पन्न होती है।

निस्तारित किये जाने वाले कचरे में विभिन्न प्रकार की धातुएँ खनिज, कोयला, कपड़ा, हड्डियाँ, मिट्टी, प्लास्टिक तथा सीसा जैसे पुनर्प्रयोग में आने वाले पदार्थ पाये जाते हैं। इस कचरे की कुछ मात्रा कबाड़ बटोरने वालों के हाथ लग जाती है कुछ जल द्वारा बहा दी जाती है। इस प्रकार गोदामों में 20 से 22 प्रतिशत कूड़ा पहुँच पाता है। भारत के केंद्रीय विज्ञान संस्थान तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिये विज्ञान और तकनीकि प्रयोग संस्था ने बताया कि कचरे में बड़ी मात्रा में उपयोगी पदार्थ पाये जाते हैं। 3.8.96 को समाज शास्त्र विभाग लखनऊ विवि में ‘‘महिलाओं की पर्यावरण पर भूमिका’’ पर गोष्ठी में डॉ. माथुर ने कहा कि - लखनऊ नगर के कचरे में प्रति किलो उपयोगी पदार्थों की मात्रा किसी भी भारतीय नगर से अधिक है गोष्ठी में बताया गया कि 1.66 प्रतिशत पेपर, 0.20 प्रतिशत धातुएँ .60 प्रतिशत सीसा, 2.19 प्रतिशत चीथड़े, 4.09 प्रतिशत प्लास्टिक, .18 प्रतिशत हड्डी, 21.59 प्रतिशत कोयला तथा 7.8 मिट्टी की मात्रा पायी जाती है। अपशिष्ट की मात्रा में दैनिक, मासिक एवं ऋत्विक विशेषताएँ पायी जाती हैं। क्षेत्रीय भिन्नताओं, एवं उत्पादन इकाइयों का प्रभाव कचरे की मात्रा एवं प्रकार पर बहुत अधिक पड़ता है। लखनऊ महानगर के प्रमुख वार्डों में आवासीय, व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों के आधार पर उपस्थित पदार्थों की प्रतिशत मात्रा अलग-अलग रहती है।

लखनऊ महानगर के प्रमुख कचरा गोदामचार्टतालिका 2.3 निस्तारण स्थल पर एक बार में पहुँची कचरे की प्रतिशत ठोस मात्रातालिका- 2.3 में लखनऊ महानगर के प्रमुख 13 वार्डों के 47 कचरा गोदामों में एक बार में पहुँची कचरे की मात्रा का आकलन किया गया है। इसमें कचरे की ठोस मात्रा ही सम्मिलित है। कचरे की निस्तारित मात्रा का सर्वाधिक भार चौक वार्ड का था। चौक वार्ड व्यापारिक केंद्र है, राज्य स्तरीय सबसे बड़ा बाजार है। सबसे कम मात्रा घसियारी मंडी क्षेत्र का है। घसियारी मंडी बाजार लघु निर्माणी उद्योगों का केंद्र है, विशेष रूप से व्यापारिक रूप से कम आवासीय रूप में अधिक है। राजाजीपुरम और मशकगंज व्यापारिक एवं आवासीय रूप में विकसित है। आवासीय क्षेत्रों में सबसे अधिक ठोस कचरे की मात्रा 310 कि.ग्रा. तथा सबसे कम 45 कि.ग्रा. है। व्यावसायिक और व्यापारिक दोनों रूपों में विकसित वजीरगंज वार्ड में ठोस पदार्थों की निस्तारित मात्रा अधिक है। कार्बनिक पदार्थों की मात्रा पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि आवासीय क्षेत्रों में अधिक है। संयुक्त रूप में विकसित, व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्रों में कम है। ऐशबाग का क्षेत्र जिसमें की आरा मशीनों की अधिकता है कार्बन की मात्रा कम पायी जाती है। कार्बनिक पदार्थों की औसत मात्रा का 53 प्रतिशत है। सबसे कम मात्रा का 11 प्रतिशत है जो ऐशबाग वार्ड का है।

कचरे की मात्रा के अध्ययन में पाया गया कि आवासीय क्षेत्र के कचरे में अधिकतम कागज की मात्रा का प्रतिशत 9 है जो वशीरतगंज वार्ड का है। यह छोटी वस्तुओं की पैकिंग का केंद्र है। वजीरगंज वार्ड व्यापारिक और आवासीय दोनों रूपों में विकसित है। संयुक्त रूप से विकसित वार्ड के अनुभाग में कागज के प्रतिशत की मात्रा सर्वाधिक रहती है। यहाँ भी उत्पादन की छोटी इकाइयाँ कार्य करती हैं। आवासीय, संयुक्त और व्यापारिक तीनों प्रकार के परिक्षेत्र में व्यापारिक परिक्षेत्र में ही सर्वाधिक कचरे की मात्रा रहती है साथ ही कागज की मात्रा का प्रतिशत भी इसी क्षेत्र में सर्वाधिक रहता है। 14 प्रतिशत तक की सर्वाधिक मात्रा एवं 3 प्रतिशत तक की सबसे कम मात्रा है यह भी तीनों में सबसे अधिक है। व्यापारिक क्षेत्रों में हसनगंज में पैकिंग, डिब्बा बंदी से उत्पन्न कचरे के कारण कागज की मात्रा का प्रतिशत सर्वाधिक रहता है। कागज की मात्रा में रद्दी पेपर जो उपयोग के पश्चात सीधे फेंक दिये जाते हैं। समाचार पत्रों से तथा अन्य प्रकार के कागज से बने पैकिटों तथा पैकिंग से निस्तारित कागज के डिब्बों की मात्रा इसमें सम्मिलित है।

नगरीय क्षेत्रों में सर्वाधिक पर्यावरण संकट का कारण प्लास्टिक के थैले एवं उनसे बने डिब्बे तथा अन्य समान हैं यह देर से नष्ट होते हैं। किसान का मित्र कहा जाने वाला केचुआ भी इसे नष्ट नहीं कर पाता है। जला कर नष्ट करने में यह वायु मंडल में हाइड्रोक्लोरीन की मात्रा उत्पन्न करता है लखनऊ महानगर में प्लास्टिक की मात्रा का आंकलन प्रतिवेदन में किया गया है जिसमें कि 10 से 20 प्रतिशत तक प्लास्टिक की मात्रा की उपलब्धता है। नगर के ऐसे क्षेत्रों में जहाँ औद्योगिक, व्यापारिक तथा आवासीय क्षेत्र हैं प्लास्टिक की मात्रा 20 प्रतिशत तक है। मशकगंज क्षेत्र में प्लास्टिक की मात्रा सर्वाधिक है। यहाँ छोटी उत्पादन इकाइयाँ और उनकी पैकिंग का कार्य किया जाता है। नगर के किसी भी नाले, तालाबों एवं कचरा गोदामों में प्लास्टिक थैलों के ढेर देखे जा सकते हैं, नगर के आवारा जानवरों द्वारा निगलने के कारण जीवन का खतरा भी बना हुआ है। लखनऊ महानगरीय कचरे में 10 से 20 प्रतिशत प्लास्टिक की उपलब्धता पर्यावरण की अति खतरे को सूचित करता है। नगरीय सीवरों के जाम होने का प्रमुख कारण प्लास्टिक थैले हैं, नगर निगम के सफाई कर्मचारियों से सीवर लाइनों के जाम होने का कारण पूछा गया तो उसमें सबसे प्रमुख कारण प्लास्टिक के थैले बताए गए। तालिका- 2.3 के अवलोकन से पता चलता है कि नगर के सभी वार्डों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

नगरीय ठोस कचरे में अन्य प्रकार का कचरा जिसमें कि मिट्टी आदि सम्मिलित है। सबसे अधिक और कम मात्रा संयुक्त रूप के कचरा स्थलों में है। सर्वाधिक 81 प्रतिशत ऐशबाग के गोदामों में है इस प्रकार के कचरे का औसत 40 प्रतिशत है। न्यूनतम सीमा 18 और अधिकतम 81 प्रतिशत की है। किसी भी वार्ड में इस प्रकार का कचरा 50 प्रतिशत तक पाया जाता है। कचरे में विभिन्न हानिकारक रूपों में अपशिष्ट मिला होता है। अस्पतालों का कचरा सर्वाधिक हानिकारक होता है। इसमें प्रयोग किये गए इंजेक्शन डिब्बे, रोगी अंगों के टुकड़े, मांस, अपशिष्ट पदार्थ आदि सम्मिलित हैं। ऐशबाग, रहीमनगर, रामनगर सहित अनेक वार्डों के नागरिकों द्वारा बताया गया कि यहाँ अस्पतालों के कचरे के ढेर लगे हैं। कभी-कभी तो जानवारों की सड़ी लाशों के कारण सांस लेना मुश्किल हो जाता है। प्राय: गंदगी के ढेर के कारण जनता में असंतोष व्याप्त रहता है। एक ओर तो कर्मचारियों की कमी है दूसरे नागरिकों की लापरवाही भी प्रमुख रूप से रहती है। नालियों का क्षतिग्रस्त होना और जल भराव इस गंदगी की समस्या को और अधिक बढ़ा देता है।

नगर के कुछ आवासीय क्षेत्रों में झीलों और नालों के किनारे का कचरा उठाया ही नहीं जाता इससे आस-पास के आवासीय क्षेत्रों में कूड़े की सड़ांध और सड़ने वाले कूड़े में पैदा होने वाले मक्खी-मच्छरों से लोग परेशान रहते हैं, इसी प्रकार की स्थिति मोती झील के आस पास अधिक रहती है। इसी अनुपात में बड़ी शैक्षिक संस्थाओं की स्थिति रहती है, बड़ी शैक्षिक संस्थाओं में आवासीय सुविधाएँ रहती हैं। वयस्क छात्रों के द्वारा उपभोग सामग्री का खुले रूप में प्रयोग होता है, इसमें नगरीय संस्कृति का भी प्रभाव रहता है।

तालिका 2.4 लखनऊ महानगर के घरेलू कचरे की प्रतिदिन की उत्पादन स्थितिरेलवे स्टेशन में प्रति व्यक्ति भार अधिकता का प्रमुख कारण बड़ी मात्रा में माल का उतरना तथा यात्रियों द्वारा भारी सूटकेश तथा दैनिक उपभोग की वस्तुओं का लाना ले जाना है। राजधानी नगर होने के कारण संसाधन सम्पन्न और सुविधा भोगी यात्रियों का आना जाना अधिक रहता है। न्यूनतम भार प्रतिव्यक्ति 10 कि.ग्रा. है। अर्थात प्रत्येक व्यक्ति आवश्यक सामग्री लेकर चलता है। कार्बनिक पदार्थों की मात्रा 40 प्रतिशत है। 800 कि.ग्रा. की अधिकतम मात्रा में 20 प्रतिशत कचरे तथा 20 प्रतिशत प्लास्टिक की मात्रा रहती है। प्लेटफार्म की सफाई में भी प्लास्टिक तथा फलों के छिलके, कागज, पैकेट, पेपर आदि अधिक मात्रा में सम्मिलित रहते हैं।

रेलवे स्टेशन के पश्चात बड़े अस्पतालों में प्रति व्यक्ति भार अधिक रहता है। औसत मात्रा 50 कि.ग्रा. है। अधिकतम मात्रा 100 कि.ग्रा. है। न्यूनतम मात्रा 15 कि.ग्रा. है। यहाँ मेडिकल कॉलेज, मुखर्जी अस्पताल (सिविल अस्पताल) बलरामपुर चिकित्सालय, विवेकानंद चिकित्सालय, रेलवे चिकित्सायल तथा राष्ट्रीय स्तर का संजय गांधी परास्नातक चिकित्सालय तो है ही, इसके अलावा 500 से अधिक एलोपैथिक चिकित्सालय एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। 600 से अधिक आयुर्वेदिक चिकित्सालय, 750 यूनानी औषधालय, 620 होम्योपैथी चिकित्सालय नगरीय क्षेत्र में है।13 इस प्रकार नगरीय क्षेत्रों में चिकित्सालयों की संख्या की अधिकता है तथा छोटे चिकित्सकों के क्लीनिक हैं जिनकी संख्या का आकलन कठिन है। चिकित्सालयों से निकलने वाले कचरे की विविधता पर विचार किया जाए तो 40 प्रतिशत तक कार्बन की मात्रा तथा 20 प्रतिशत तक कागज और अन्य पदार्थ 20 प्रतिशत तक रहते हैं। चिकित्सालयों की त्याज्य सामग्री भी घातक होती है और इनको नष्ट करना भी आसान नहीं है। नगरीय चिकित्सालयों के कचरे के नियंत्रण और निस्तारण का कोई उपयुक्त उपाय नहीं हो सका है। इस प्रकार इनका घातक प्रभाव भी नागरिकों में पड़ता रहता है।

धार्मिक स्थलों में भी कचरे की मात्रा अधिक रहती है। अधिकतम 10 कि.ग्रा. तथा औसत मात्रा 5.5 कि.ग्रा. है। नगर के प्रत्येक स्थान पर धार्मिक स्थल है और नगरीय सभ्यता होने पर भी धार्मिक आस्था कम नहीं है। यह समय-समय पर आयोजित होने वाले धार्मिक आयोजनों में देखी जा सकती है। धर्म और जाति के नाम पर प्रत्येक व्यक्ति सक्रिय दिखायी देता है। उपहार और भेंट की वस्तुओं में 60 प्रतिशत तक कार्बन की मात्रा वाले पदार्थ उपयोग में आ जाते हैं।

कपड़े की मात्रा से प्लास्टिक उपयोग की मात्रा अधिक रहती है। पैकिंग थैले वस्तुएँ लाने ले जाने में अधिक प्रयोग किये जाने का परिणाम दिखायी देता है। 25 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थ भी इन स्थलों में प्रयोग में आ जाते हैं। यह प्रदूषण की चिंताजनक स्थिति का द्योतक है। जहाँ कभी धार्मिक पर्व एवं मेलों के आयोजन सामाजिक प्रदूषण को कम करते थे तथा पर्यावरण को निर्मल करने की दिशा में जलाशयों, वृक्षों, नदियों में आस्था थी, उन्हें गंदा नहीं किया जाता था। आज ठीक इसका विपरीत हुआ है। सबसे अधिक जलस्रोतों नदियों और वनों में कहर टूटा है।

बस स्टॉप, होटल, लॉज, मंडी एवं बाजार मध्यम स्तरीय क्लीनिक आदि ऐसी इकाइयाँ हैं जहाँ प्रतिव्यक्ति औसत कचरे का भार 10 कि.ग्रा. है। अधिकतम 15-20 कि.ग्रा. तक है। ऐसी स्थिति की इकाइयों में मनोरंजन स्थल एवं भोजनालय है। जिनमें नियमित रूप से सुविधा भोगी संस्कृति का समाज संलग्न रहता है। बस स्टॉप तथा मंडी बाजार का उपभोग समाज के सभी वर्गों के लोग करते हैं, तथा आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते हैं। नगरीय क्षेत्र में तीन बस वर्कशॉप कैसरबाग, कानपुर रोड में नादरगंज तथा गोमती नगर में है। इसी प्रकार राज्य सरकार के बस स्टॉप चारबाग, कैसरबाग और गोमतीनगर में है। साथ ही स्थानीय पूर्ति करने वाले बस स्टॉप भी अलग-अलग भागों में स्थित हैं। उ.प्र. परिवहन विभाग के प्रमुख के अनुसार प्रतिदिन 1.5 लाख व्यक्ति लखनऊ महानगर में आते हैं। इनसे प्रति व्यक्ति 500-600 ग्राम कचरे के उत्सर्जन का अनुमान किया जाता है। होटल, बार और भोजनालय में 90 प्रतिशत तक कार्बनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है जो मांस तथा डेरी फार्मों के बाद द्वितीय स्थान पर है। बाजार में 60 प्रतिशत तक कार्बनिक पदार्थों का उत्सर्जन होता है। किंतु यहाँ कपड़े तथा प्लास्टिक की उत्सर्जन स्थिति 10 प्रतिशत तक रहती है। बाजार में वस्तुओं की पैकिंग में प्लास्टिक, कपड़े, टाट और कागज का उपयोग किया जाता है। इसलिये ऐसे पदार्थों का प्रतिशत यहाँ अधिक रहता है। भार की अधिकता कारण बड़े बाजार का होना है। होटल, बार तथा भोजनालय में इनका प्रतिशत केवल 5 रहता है। मिश्रित कचरे का प्रतिशत भी केवल 5 रहता है। इसी वर्ग में लॉज और टैक्सी स्टैण्ड आते हैं जो कि अति सुविधा भोगी और उच्चवर्ग के लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाते हैं। यहाँ मिश्रित पदार्थों का प्रतिशत 60 तक रहता है। कागज, कपड़ा और प्लास्टिक का उपयोग 10 से 30 प्रतिशत तक रहता है क्योंकि वाहनों के लिये सफाई में पेपर और कपड़े का उपयोग अधिक किया जाता है।

छोटी सुधार इकाइयाँ, पेट्रोलपम्प, फुटकर दुकानें, कार्यालय, छोटे ऑफिस, छोटे क्लीनिक, नाई एवं धोबी की दुकानों, चिकन, मिट्टी के बर्तन, आरा मिले, चमड़ा एवं जूता निर्माण इकाइयों का औसत भार 1 कि.ग्रा. से कम है। कपड़े और कागज के निस्तारण का प्रतिशत ब्यूटी पार्लर केंद्रों में 50 तक रहता है। इसके पश्चात छोटे क्लीनिक, टैक्सी, विक्रम स्टैण्डों में 30 प्रतिशत तक रहता है। लखनऊ महानगर में 6 हजार से अधिक विक्रम वाहन नगरवासियों को सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त नगर की सड़कों में 18 हजार से अधिक वाहन दौड़ रहे हैं। प्रतिदिन औसत 8 लाख लोगों को सेवाएँ प्रदान करते हैं। टैक्सी स्टैंडों में मिश्रित अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा 50 प्रतिशत तक रहती है। तथा 20 प्रतिशत कचरे की मात्रा रहती है। धोबियों तथा धुलाई की दुकानों में 90 प्रतिशत मिश्रित कचरे का निस्तारण किया जाता है। कपड़े और प्लास्टिक की मात्रा 5.5 प्रतिशत रहती है। धुलाई में प्रयुक्त होने वाले रसायनों से मृदा और जल प्रदूषण अधिक होता है। आईटीआरसी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. प्रमोद ने बताया कि प्रतिव्यक्ति डिटर्जेंट का उपभोग 500 ग्राम प्रतिव्यक्ति मासिक का है डिटर्जेंट सीवर तथा नालियों द्वारा गोमती में पहुँचता है, जो नदी तट तथा जल को क्षतिग्रसत करता है। इसका दुष्प्रभाव नगर के नालों के जल भराव के क्षेत्र में देखा जा सकता है। इन क्षेत्रों में वनस्पतियाँ पेड़-पौधे झुलसने लगते हैं। जल से तीव्र गंध आने लगती है। चमड़ा तथा जूता निर्माण इकाइयों में 75 प्रतिशत तक प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है जो अधिकतम प्लास्टिक उपयोग की सीमा के निकट है। 25 प्रतिशत अन्य मिश्रित पदार्थों का उपयोग किया जाता है। यद्यपि चमड़ा पकाने की इकाइयाँ नगर में छोटे स्तर की है फिर भी जूता निर्माण इकाइयाँ पैकिंग के लिये प्लास्टिक का उपभोग करती है। मिट्टी के बर्तन निर्माण करने वाली इकाइयों से 95 प्रतिशत अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन होता है। इन इकाइयों में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ अधिक घातक नहीं है। फिर भी पकी मिट्टी के बर्तन निस्तारण के पश्चात कृषि जनित भूमि के उत्पादन में बाधक बनते हैं। आरा मिलों में 100 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थों का निस्तारण किया जाता है। इस समय नगर में छोटी बड़ी आरा मिलों की संख्या जनपद उद्योग विभाग के अनुसार 300 से अधिक है। इन आरा मिलों में सर्वाधिक मिलें ऐशबाग क्षेत्र में स्थित हैं। बड़ी मिलों में लकड़ी की चिराई-कटाई का कार्य होता है। छोटे स्तर वाली मिलों में खराद तथा निर्माण और प्लाई बनाने का कार्य किया जाता है। चिकेन तथा जरी का निर्माण लखनऊ का एक प्रसिद्ध कुटीर उद्योग है जिसका प्रमुख केंद्र चौक तथा उसके आस-पास के क्षेत्र हैं। इसमें अधिकतर महिलाएँ एवं बच्चे कार्यरत हैं। इनमें 20 प्रतिशत कागज और कपड़ा निस्तारित किया जाता है तथा 80 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थों का निस्तारण किया जाता है।

डेरी फार्म, तेल मिलें, औद्योगिक इकाइयाँ, सामुदायिक केंद्र, मनोरंजन केंद्र, छोटे भोजनालय थोक वस्तुओं और मांस मछली की दुकानों में प्रति व्यक्ति औसत भार 2 से तीन कि.ग्रा. तक रहता है। डेरी फार्मों में निस्तारित होने वाले पदार्थों में 100 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ ही है। लखनऊ नगर में ‘‘पराग’’ सबसे बड़ा डेरी प्रतिष्ठान है। इसी के तुल्य ‘‘ज्ञान’’ और ‘‘गोकुल’’ डेरी फार्म है। पराग की उत्पादन क्षमता सबसे अधिक है। इसके अतिरिक्त लघु और मध्यम स्तरीय डेरी फार्म नगर में लगभग सभी क्षेत्रों में हैं। जहाँ क्रीम और पैकेट बंद दूध की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। तेल मिलों में 50 प्रतिशत कार्बनिक और 50 प्रतिशत मिश्रित रूप से निस्तारित पदार्थ है। चाय की दुकानों और सामुदायिक मनोरंजन स्थलों में 90 से 45 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थों का और 20 से 40 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थों का निस्तारण किया जाता है। अगर इस आधार पर देखा जाए तो उत्पादन इकाइयों के आकार पर और व्यक्तियों की उपभोग क्षमता पर उनके निस्तारण की मात्रा निर्भर करती है। इस प्रकार तालिका- 2.4 से स्पष्ट है कि आवासीय जनसंख्या और संरचना पर कार्बनिक पदार्थों का प्रतिशत निर्भर करता है।

उपर्युक्त अध्ययन में नगरीय ठोस अपशिष्ट का क्षेत्रीय स्तर पर विश्लेषण किया गया है जो नगरीय मृदा प्रदूषण के लिये उत्तरदायी कारक है। मृदा प्रदूषण के लिये नगर का मल-जल भी प्रमुख समस्या है। परिशिष्ट-7 में रासायनिक तथा परिशिष्ट-8 में नगर के मल-जल का भौतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है इसमें गोमती की प्रमुख सहायक नदियों तथा उसमें नगर के गिरने वाले नालों एवं सीवर जल को लिया गया है। इसके अध्ययन से नगरीय मृदा पर पड़ने वाले घातक प्रभाव को रेखाकिंत किया जा सकेगा।

अपशिष्ट मलजल और मृदा प्रदूषण


नगरों के गंदे नालों में बहने वाले जल को मल जल या सीवेज के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें मुख्य रूप से मल-मूत्र घरेलू एवं औद्योगिक पदार्थ मिले होते हैं। वर्तमान में ऐसे जल का प्रयोग शहरों के आस-पास की भूमि पर की जाने वाली खेती के लिये किया जाता है।

वाहित मल जल में जल का भाग 99 प्रतिशत तक होता है जिसमें लगभग 0.1 प्रतिशत ठोस पदार्थ सम्मिलित होते हैं जिनका 2/3 भाग सूक्ष्मकणीय निलंबन के रूप में तथा शेष 1/3 भाग विलयन के रूप में होता है। इस जल में विभिन्न खनिजों के मिश्रण, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ एवं छोटे बड़े कण होते हैं। कार्बनिक पदार्थों में नाइट्रोजन युक्त प्रोटीन विभिन्न कार्बो-हाइड्रेट, वसा तथा साबुन आते हैं। इस जल का समस्त कार्बनिक पदार्थ जल में मिलता जाता है और जल का मटमैला और श्यामलरंग साफ होता जाता है।

नगरीय निस्तारित अपशिष्ट मल-जल में पौधे के लिये अनेक पोषक तत्व पाये जाते हैं घरेलू मल-जल में 15-30 पीपीएम नाइट्रोजन, 4-6 पीपीएम फास्फोरिक अम्ल (P2O5) 10-20 पीपीएम पोटैशियम तथा औसतन 400 पीपीएम कार्बनिक पदार्थ होता है। मल-जल के मुख्य रूप से दो रूप होते हैं। ठोस भाग जिसे कि अवमल कहा जाता है। दूसरा जिसमें द्रव भाग सम्मिलित है। अवमल या ठोस पदार्थ में नाइट्रोजन 3.5 प्रतिशत एवं फास्फोरस 2.5 प्रतिशत मात्रा में तथा 0.5 प्रतिशत अंश पोटाश का सम्मिलित है।

मृदा प्रदूषण का प्रमुख स्रोत नगरों से प्राप्त सीवेज जल-मल है। सीवेज में डिटर्जेंट, बोरेट फास्फेट तथा अन्य लवणों की भारी मात्रा घुली रहती है जो पौधों की वृद्धि के लिये अत्यंत हानिकारक है इस जल के प्रयोग से मिट्टी की भौतिक दशा में विकृति आती है। मिट्टी के रंध्र अवरुद्ध हो जाते हैं। मल-जल के सम्पर्क से मृदा के सूक्ष्म जीवों में विघटन होता है जिसके फलस्वरूप नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, गंधक जैसे तत्वों के यौगिकों का निर्माण होता है। इससे मृदा की उर्वरता में वृद्धि होती है। इसके साथ ही मल-जल के अनेक रोग जनक बैक्टीरिया एवं अन्य कीटाणुओं की उपस्थिति तथा विभिन्न भारी तत्वों के कारण मृदा विषाक्तता उत्पन्न होती है जो फसलों को प्रभावित कर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पशुओं एवं मनुष्यों के लिये हानिकारक सिद्ध होती है।

‘मिचेल’ ने यूरोप में वाहित मल जल से की जाने वाली कृषि का सर्वेक्षण करने के उपरांत पाया कि सब्जियों एवं घासों में आशातीत वृद्धि होती है किंतु इसका घातक प्रभाव मिट्टी तथा पौधों पर पड़ता है। इन तत्वों में मुख्यत: कैडमियन (Cd) लेड (Pb) क्रोमियम (Cr) निकेल (Ni) मरकरी (Hg) उपस्थित रहते हैं।

शीलाधर मृदा संस्थान में किए गए वाहित मल जल के उपयोग सम्बन्धी प्रारम्भिक प्रयोगों से स्पष्ट हो चुका है कि ऐसे जल में सिंचाई करने पर मृदा प्रदूषण बढ़ता है जिससे पौधे विषैले तत्वों का अधिक अवशोषण करते हैं और मृदा विषाक्तता बढ़ती रहती है। भूमि की जल शोषण क्षमता घटने से जल भीतरी संस्तरों की ओर बढ़ता है और भौम जल में मिल जाता है इस प्रकार यह पेयजल की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। ऐसे जल में नाइट्रेट, फ्लोराइड तथा बोरट की मात्रा बढ़ जाने से जल पीने योग्य नहीं रह जाता है। शीलाधर मृदा संस्थान ने अपने अध्ययन में स्पष्ट किया कि पत्तीदार सब्जियों में कैडमियम की काफी मात्रा अवशोषित होती है जो विषाक्तता के स्तर तक पहुँच सकती है। अहमदाबाद सीवेज फार्म पर किये गये प्रयोगों में यह पाया गया कि मल-जल से सिंचाई करने पर मृदा के पीएच में कमी आयी, मृदा नाइट्रोजन में कुछ कम किंतु कार्बनिक पदार्थों में अधिक उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

जल-मल की दृष्टि से लखनऊ महानगर में 31 नाले हैं जिनमें से 25 सीधे गोमती में गिरते हैं। नालों में प्रवाहित जल-मल की मात्रा का 1993 में मापन किया गया और 230 मिलियन लीटर प्रतिदिन का अनुमान किया गया। 1996 में यह मात्रा 310 मिलियन लीटर प्रतिदिन की हो गयी 1998 में यह 360 एमएलडी का अनुमान है। यह जल-मल बिना उपचारित किए गोमती में छोड़ दिया जाता है।

लखनऊ महानगर के नालों की उत्सर्जन क्षमता और उसमें प्रदूषकों के भार का मापन जीडीपी नई दिल्ली के निर्देशानुसार किया गया। नगर के विभिन्न नालों के नमूनों का विभिन्न समयों में उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र लखनऊ तथा रुड़की विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं में परीक्षण कराया गया। परीक्षण के दौरान 132 पीपीएम वीओडी की मात्रा पाई गयी। पीएच मान 7.15 से 8.45 तक पाया गया। कुल लटकते ठोस अपशिष्टों की मात्रा मानक के अनुसार 100 मिग्रा/ली. तक होनी चाहिए किंतु नालों में यह मात्रा 440 मिग्रा/ली. से 4840मिग्रा/ली. तक पायी जाती है। मई 1995 से जून 95 तक लखनऊ के नालों के जल की उतसर्जन क्षमता के साथ आईटीआरसी ने जल गुणता अनुश्रवण भी किया जिसमें पाया कि बैरल 25 मोहन मेकिंग नाले के कुल ठोस अपशिष्टों की मात्रा 4840 मिग्रा/ली. तक है। मई 1995 से जून 95 तक लखनऊ के नालों के जल की उत्सर्जन क्षमता के साथ आईटीआरसी ने जल गुणता अनुश्रवण की मात्रा 4840.8 ग्राम/ली. बैरल-14 बजीरगंज नाला, बैरल-2 डालीगंज, गऊघाट, सरकटा नाला, आर्ट्स कॉलेज, निशातगंज, जपलिंग रोड, पिपराघाट नालों में 1000 से 1600 मिग्रा/ली. ठोस अपशिष्ट की मात्रा पायी गयी। (परिशिष्ट- 7)

वोलाटाइल ठोस (Volatile Solids) जो कि हवा में मिलकर दुर्गंध पैदा करने वाले पदार्थ हैं 40.00 से 2741.2 मिग्रा./ली. तक पाये गए जिनमें सर्वाधिक मात्रा मोहन मीकिन और आर्ट्स कॉलेज के नालों में पायी गयी अधिकांश नालों में 400 से 700 मिग्रा./ली. तक यह मात्रा पायी गयी। इसी प्रकार सीओडी की मात्रा जहाँ नगर के अन्य नालों से मोहन मीकिन नाले में 10 गुना अधिक है, वीओडी की मात्रा भी इसी अनुपात में अधिक है। सामान्य रूप से सीओडी की मात्रा 200 से 400 मिग्रा./ली. के मध्य पायी गयी। बीओडी की मात्रा भी 100 से 200 मिग्रा./ली. तक उपस्थित पायी गयी। नगरीय जल-मल में उपस्थित अन्य अवयव कैल्शियम सल्फर (SO4) नाइट्रोजन मिग्रा./ली. में सिंचाई जल से उच्च सीमा में पायी गयी जो जल-मल की विषाक्तता तथा सीवर जल को उपचारित कर सिंचाई के उपयोग में लाने की आवश्यकता को प्रदर्शित करता है।

परिशिष्ट- 8 में ही जल-मल में उपस्थित धात्विक पदार्थों की स्थिति को भी प्रदर्शित किया गया है। कैडमियम की मात्रा अनुश्रवण तालिका में प्रस्तुत नालों में से बहुत कम ज्ञात की जा सकी। सिंचाई के जल में कैडमियम की मात्रा एफएओ के अनुसार 0.01 मिग्रा./ली. है। कैडमियम एक विषैली भारी धातु है। यह रसायन उद्योग, सुपर फास्फेट उर्वरक तथा जीवनाशी रसायनों और स्वचालित वाहनों के ईंधन दहन से पर्यावरण तथा मिट्टी में पहुँचता है। सीसे की मात्रा भी इसमें पायी गयी यह पेयजल के माध्यम से शरीर में पहुँचकर घातक प्रभाव डालता है। यह जल जीवों के लिये घातक है।

नगरीय अवमल एवं मृदा प्रदूषण


नगरीय मल-जल के ठोस अंश को अवमल कहा जाता है। इसमें नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की मात्रा पर्याप्त रहती है। किंतु इसमें पोटाश की न्यूनता रहती है। सामान्य रूप से अवमल में 3.5 प्रतिशत नाइट्रोजन, 2.5 प्रतिशत फास्फोरस तथा 0.5 प्रतिशत पोटाश सम्मिलित रहता है। किंतु मृदा प्रदूषण की स्थिति में गति अधिक हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 800 कि.ग्रा. अवमल या 25-40 कि.ग्रा. शुष्क पदार्थ उत्पन्न होता है।

अवमल की ठोस सामग्री मृदा रंध्रो को बंद कर देती है। जिससे मृदा की जल और वायु की पारगम्यता कम हो जाती है। मृदा में बैक्टीरिया बढ़ते हैं। रोग जनित कीटाणुओं से मानव एवं पशु रोगों में वृद्धि होती है। विगत 10-20 वर्षों से सभी नगरों की तरह लखनऊ महानगर में जनसंख्या वृद्धि के साथ अवमल निस्तारण की समस्या उत्पन्न हुई है। एक अनुमान के अनुसार लखनऊ महानगर की 10-15 प्रतिशत जनसंख्या खुले स्थानों में शौच के लिये जाती है। स्वच्छ नगर परिदृश्य प्रस्तुत करने के पक्ष में नगर निगम के द्वारा एक सर्वे कराया गया जिसमें पाया गया कि नगर की 39 प्रतिशत जनसंख्या सीवर का प्रयोग करती है। 9 प्रतिशत नगरवासी सेप्टिक टैंकों का प्रयोग करते हैं। 21 प्रतिशत लोग सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करते हैं। 5 प्रतिशत लोग बड़े नालों के किनारे शौच के लिये जाते हैं। 13 प्रतिशत लोग नालियों में या पानी द्वारा बहाए जाने वाले शौचालयों में तथा 13 प्रतिशत खुले में शौच जाते हैं। इसी प्रकार आय वर्ग के अनुसार भी महानगर में शौच स्थलों का प्रयोग किये जाने का अध्ययन किया गया।

तालिका 2.5 आय वर्ग के अनुसार लखनऊ महानगर में शौच स्थानों का प्रयोग1 - अत्याधिक सम्पन्न आय वर्ग।
2 - अधिक सम्पन्न आय वर्ग।
3 - मध्यम उच्चस्तरीय आय वर्ग।
4 - मध्यम स्तरीय आय वर्ग।
5 - निम्न मध्यम आय वर्ग।
6 - निम्न आय वर्ग।
7 - अति निम्न आय वर्ग।

नगर के 12 प्रतिशत अतिनिम्न आयवर्ग के लोग खुले स्थानों का प्रयोग करते हैं। सबसे अधिक निम्न मध्यम आयवर्गीय लोग सीवरों का प्रयोग करते हैं। यद्यपि नगर में अति उच्च आयवर्ग के लोगों की संख्या 2 प्रतिशत ही है जिनमें की आधे सीवर और आधे टैकों का प्रयोग करते हैं।14

नगर में अवमल निस्तारण की समस्या बढ़ती जा रही है। नगर के परित: मिट्टी में भारी धातुएँ पायी जाती है। भारी धातुएँ मृदा में धात्विक प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। कुछ यूरोपीय राष्ट्रों में अवमल का प्रयोग कृषि में करना वर्जित कर दिया गया है। इन भारी धातुओं के प्रभाव से नगर के भूजल में धातुओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा है तथा मृदा प्रदूषित होती जा रही है।

रासायनिक उर्वरक एवं मृदा-प्रदूषण


बढ़ती जनसंख्या के भरण-पोषण के लिये कृषि क्रियाओं में नवीन तकनीकों का प्रयोग विगत दो दशकों से बड़ी तीव्रता के साथ बढ़ा है। उन्नत प्रकार की बीजों, उर्वरकों, कीटनाशकों रोगनाशकों तथा खर-पतवार नाशकों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है कृषि को उद्योग का दर्जा मिल जाने से वर्ष भर फसलें उगायी जाती है इस सघन कृषि से मिट्टी के तत्वों का बड़ी तेजी से ह्रास होता है। जिसे बचाने के लिये रासायनिक उर्वरकों-नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश का प्रयोग किया जाता है। लगातार इनके प्रयोग से मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता घटती जाती है। जिससे प्रतिहेक्टेयर उर्वरकों की मात्रा का प्रयोग बढ़ाना पड़ता है। उर्वरकों का प्रयोग विकसित और विकासशील सभी देशों में बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विस्कासिन विश्वविद्यालय के जॉन तथा कैराने स्टीन हार्ट ने यह अध्ययन किया है कि विकसित देशों में कृषि में विनिवेश की गयी एक कैलारी ऊर्जा 5 से 50 कैलोरी भोजन का उत्पादन करती है किंतु औद्योगिक देशों में स्थिति अच्छी नहीं है। विकासशील देशों में एक कैलोरी भोजन प्राप्त करने के लिये 5 से 10 कैलोरी ऊर्जा का विनिवेश करना पड़ता है। अतः वार्षिक ऊर्जा उपभोग का 80 प्रतिशत खाद्य पदार्थों के उत्पादन में लगाना पड़ता है। उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादन में लगातार वृद्धि होती जा रही है किंतु उत्पादन में प्रोटीन में कमी पायी गयी। एक गुणवत्तापूर्ण खाद्यान्न में कार्बन तथा नाइट्रोजन का अनुपात 3.2:1 का होना चाहिए। उर्वरकों के प्रयोग से फसलों में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अधिक तथा प्रोटीन की मात्रा कम हो गयी है।

नगरीय अपशिष्ट में विभिन्न प्रकार के रसायन उपस्थित रहते हैं यह अपशिष्ट ग्रामीणों के अनुरोध तथा उसका कुछ मुल्य देने पर उनके खेतों में गिरा दिया जाता है। जिसके द्वारा मृदा प्रदूषित होती हैं तथा खाद्यान्नों में भी घातक रसायन उपस्थित हो जाते हैं। तालिका- 2.6 और 2.7 में अपशिष्ट का भौतिक और रासायनिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।

तालिका 2.6 लखनऊ महानगर के ठोस अपशिष्ट का भौतिक संघटनतालिका- 2.6 में लखनऊ महानगर के अपशिष्ट का भौतिक संघटन प्रस्तुत किया गया है। क्रमांक-1 पर इंदिरा नगर के निस्तारित अपशिष्ट का स्वरूप स्पष्ट करता है कि कचरे में सर्वाधिक मात्रा मृदा तत्व की है। इसके पश्चात घास और पत्थरों की है। इंदिरा नगर में प्रतिष्ठित परिवारों के आवास हैं, सड़के नवनिर्मित हैं, खुले स्थान भी है, भवन निर्माण की गति भी तीव्र है। यहाँ के कचरे में उपस्थित पत्थर की 17 प्रतिशत मात्रा भवन और सड़क निर्माण की गति को दर्शाता है। फिरंगी महल के अपशिष्ट का स्वरूप भी इसी दशा और दिशा को दर्शाता है। यहाँ पत्थर और घास की मात्रा कचरे में सर्वाधिक रहती है। पार्क रोड के अपशिष्ट की संरचना भिन्नता को प्रदर्शित करती है। यह सरकारी आवासों का केंद्र है। यहाँ अपशिष्ट में 24 प्रतिशत लकड़ी, 23 प्रतिशत घास और 19 प्रतिशत चीथड़ों की मात्रा उपस्थित है। जो अन्य केंद्रों की अपेक्षा 2 से 10 गुना अधिक है। चीथड़ों, लकड़ी और प्लास्टिक की अधिक मात्रा राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र होने की बात को दर्शाता है। लखनऊ महानगर राज्य की राजधानी होने के कारण राजनीतिक प्रभाव से बहुत अधिक प्रभावित है। यहाँ के सामाजिक परिवेश में अपशिष्ट स्वरूप में प्रदर्शनों, रैलियों का प्रभाव बना रहता है। पुरनिया मोहाल में मिट्टी, लकड़ी और पत्थरों का औसत प्रतिशत क्रमश: 41, 19, 11 है इस क्षेत्र में प्राय: खुले स्थान एवं नव निर्मित सड़कें हैं जिनके रख-रखाव की दशा अच्छी नहीं है। यहाँ लकड़ी आदि का कार्य भी होता है।

इसी क्रम में मारसी मार्केट के अपशिष्ट स्वरूप पर ध्यान दें तो इसमें एक विशिष्टता दिखायी देती है। यहाँ मिट्टी की मात्रा 37 प्रतिशत से अधिक है पंखों का प्रतिशत 23.10 है। जो अन्य क्षेत्रों में सर्वाधिक है। जो इस क्षेत्र में पक्षी बाजार होने का संकेत करता है। तथा मांस और कबाब की दुकानों को दर्शाता है। पंखों के साथ हड्डियों की 7 प्रतिशत की उपस्थिति, प्लास्टिक की 10 प्रतिशत की उपस्थिति भी इसी दशा को प्रमाणित करती है। कि पैकिंग कार्य भी अधिक है। ऐसी ही विशिष्टता मोती झील क्षेत्र के अपशिष्ट में है। जहाँ चमड़े की मात्रा 40 प्रतिशत के निकट है। जो नगर के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं है। हड्डियों की 2 प्रतिशत से अधिक की उपस्थिति इसी बात का द्योतक है कि इस क्षेत्र में बड़ी मांस की दुकानें है।

उपर्युक्त विवरण में नगर के कचरे में भिन्नता दिखायी देती है। जो नगरीय क्षेत्र की संस्कृति और क्षेत्रीय भिन्नता को दर्शाते हैं। लखनऊ नगर बहुरंगी संस्कृति और लोक रीत तथा व्यवहारों का नगर है। कचरे की इसी भिन्नता को रासायनिक रूप में भी देखने का प्रयास किया गया है। जिसे तालिका 2.7 में प्रस्तुत किया गया है।

तालिका 2.7 लखनऊ महानगर में ठोस अपशिष्ट का रासायनिक संघटनतालिका- 2.7 में नगर के कचरे में उपस्थित रसायनों की प्रतिशत मात्रा को प्रदर्शित किया गया है। पीएचमान की उपलब्धता 9.15 से 7.50 तक रही जो संतुलन से अधिक रही। आर्द्रता 14 से 87 प्रतिशत पायी गयी सर्वाधिक आर्द्रता मारसी मार्केट की मात्रा में रही। गैसीय पदार्थों की उपस्थिति 60 से 80 तक रही। गैसीय पदार्थों की उपस्थिति से वातावरण में प्रदूषण उत्पन्न होता है। खाद्य फसलों में विषैलापन आ जाता है। नगरीय ठोस कचरे का 90 प्रतिशत ही उठाया जाता है। शेष नालों में बहा दिया जाता है। नगर का ठोस कचरा कुछ तो झीलों और सड़कों के किनारे डाल दिया जाता है। कुछ किसानों के विशेष अनुरोध पर उनके खेतों तक पहुँचा दिया जाता है। इस प्रकार कचरे में उपस्थित रसायन तथा घातक विषाणु खेतों तक पहुँच कर कृषि फसलों में उत्पादन तो बढ़ाते हैं किंतु अपने घातक प्रभाव से मानव तथा पशुओं को हानि पहुँचाते हैं। सारणी- 2.7 को देखने से पता चलता है कि कृषि उत्पादन के लिये आवश्यक, पोटैशियम, फास्फोरस, कार्बन तथा नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा कचरे में उपस्थित है और कृषि में इसके प्रयोग से आशातीत वृद्धि होगी किंतु गुणता में उतना ही विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मिट्टी में उपस्थित तत्वों का संतुलन बिगड़ेगा और उत्पादन से प्राप्त फल अनाज, सब्जियाँ विषाक्त प्रभाव युक्त होंगी।

गोमती तट से लिये गए 8 नमूनों में मैगनीज की औसत मात्रा 850 पीपीएम पाई गयी। कैडमियम 0.3, जिंक 95, कोबाल्ट 19, सीसा 20, निकिल 68, क्रोमियम 90, तांबा 45, पीपीएम और लोहा 4.5 प्रतिशत तथा पोलोनियम 0.95 प्रतिशत पाया गया इस प्रकार नदी तट के भाग सब्जी व फल उगाने के योग्य नहीं रहे।15

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1951-52 में 0.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का प्रयोग किया जाता था जो 1995-96 में लगभग 75.3 कि.ग्रा. हो गया है। 1950-51 में नाइट्रोजनी और फास्फेटी उवर्रकों की उत्पादन मात्रा 9-9 हजार टन थी। 1995-96 में क्रमश: 8762 और 2552 हजार टन है। लगातार कृषि फसलों के उत्पादन से मिट्टी में जिंक, लोहा और मैगनीज की मात्रा कम हो गयी है। मिट्टी के परीक्षणों से ज्ञात हुआ कि मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी हो गयी है। 365 जिलों के नमूनों के परीक्षण से ज्ञात हुआ कि 228 जिलों की मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम हो गयी। 119 जिलों में नाइट्रोजन की मात्रा सामान्य रही तथा 46 प्रतिशत जिलों में न्यूनतम पायी गयी।16

तालिका 2.8 लखनऊ के मृदा नमूनों में पी.एच. जीवांश फॉस्फेट तथा पोटाश की मात्रालखनऊ महानगर के परित: जहाँ सब्जियाँ उगायी जाती है मिट्टी के 12 नमूने लिये गए जिनके परिणाम तालिका 2.8 में अंकित है। नमूनों में पीएच मान का स्तर 8.3 से 8.5 तक पाया गया। कृषि के लिये स्वस्थ मिट्टी में 25 किग्रा./हेक्टेयर नत्रजन की मात्रा 10 कि.ग्रा./हेक्टेयर फास्फोरस की मात्रा तथा पोटाश 40 कि.ग्रा./हेक्टेयर उपस्थित रहना चाहिए। मिट्टी में पीएच मान 8 से कम होना चाहिए किंतु यहाँ पर यह मात्रा 8 से अधिक है। किसी भी नमूने में उपज के लिये उपयुक्त दशा में रसायनों की मात्रा नहीं पायी गयी सभी नमूनों में यूरिया की मात्रा 100 से 225 कि.ग्रा. के प्रयोग कि आवश्यकता रही। यूरिया से नत्रजन की पूर्ति होती है। इसी प्रकार फास्फेट की मात्रा भी कम पायी गयी फास्फेट की पूर्ति के लिये डीएपी 132 कि.ग्रा./हेक्टेयर की आवश्यकता रही, पोटाश की मात्रा सभी में पर्याप्त रही इस प्रकार मिट्टी की उत्पादक दशा ठीक आवश्यकता रही, पोटाश की मात्रा सभी में पर्याप्त रही इस प्रकार मिट्टी की उत्पादक दशा ठीक नहीं थी, जो अतिशय उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी की स्वाभाविक दशा में परिवर्तन का प्रतीक है।

कीटनाशक और मृदा प्रदूषण


कीटनाशक अनेक प्रकार के विषाक्त रसायनों से निर्मित होते हैं। इनका अविवेक पूर्ण प्रयोग मिट्टी को प्रदूषित करता है। कीटनाशक मिट्टी में मिलकर दीर्घकाल तक मिट्टी में उपस्थित रहते हैं। पौधों में ये पत्तियों, दानों तथा फलों तक पहुँचते हैं। भोजन के माध्यम से पशुओं तथा मानव के लिये घातक बनते हैं। डीडीटी जैसे रासायनिक कीटनाशक 25 वर्षों तक भी मिट्टी में उपस्थित रहते हैं।

मिट्टी में कीटनाशकों का ह्रास मिट्टी के विविध जीवाणुओं द्वारा किया जाता है। कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी में क्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है। कीटनाशकों की उपस्थिति मिट्टी के प्रकार उसकी नमी, तापमान पौधों द्वारा ग्रहण की गयी मात्रा तथा मृदा क्षरण पर निर्भर करती है। इस प्रकार कीटनाशकों की उपस्थिति को किसी सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन कार्य है। कार्बनिक पदार्थ अधिक धारण करने वाली मिट्टी में कीटनाशक अधिक तथा बलुई मिट्टी में कम रहते हैं। कीटनाशक मृदा के कीटों को नष्ट कर देता है। मिट्टी में विद्यमान जीवाणु जहरीले पदार्थों के एकत्र होने से नष्ट हो जाते हैं। वर्षा के जल के साथ यह कीटनाशक नदियों, झीलों तथा सागरों तक पहुँचते हैं जो जलजीवों के लिये घातक बनते हैं। नदियों द्वारा पेयजल की पूर्ति किये जाने से यह पुन: मानव शरीर में प्रवेश करते हैं।

आईटीआरसी लखनऊ (तालिका-2.9) के द्वारा गोमती जल का परीक्षण किया गया जिसमें कीटनाशकों के लिये प्रयोग किये जाने घातक रसायन पाये गए। गऊघाट जहाँ से गोमती जल को नगर पेय जलापूर्ति के लिये उठाया जाता है। इन घातक तत्वों की उपस्थिति सह सीमा से अधिक रही। यह नमूने गऊघाट, मोहनमीकिन और पिपराघाट से लिये गये थे।

गऊघाट के नमूने में गामा बीएचसी की मात्रा 342 से 0.74 ng/g पाई गयी, मोहनमीकिन के निकट 3.55 से 7.57 तक रही जो सह सीमा से बहुत अधिक थी। इसी प्रकार पिपराघाट में 6.22 ng/g तक पाई गयी। कुल वीएचसी की मात्रा गऊघाट में 18.14 रही। मोहनमीकिन में 3.13 से 35.88 ng/g रही। डीडीटी, 1.74-52.88 इण्डोसल्फान की 1.87-13.48 ng/g मात्रा पायी गयी। पिपराघाट में वीएचसी 6.613-19.18, डीडीटी .14-5.2 ng/g तक उपस्थित पाई गयी। जब की स्वास्थ्य की दृष्टि से कीटनाशक जल में उपस्थित नहीं होना चाहिए।17

तालिका 2.9 गोमती नदी में कीटनाशकों की उपस्थितिगोमती जल से लिये गये नमूनों में नीमसार में 92 प्रतिशत में बीएचसी 73 प्रतिशत में डीडीटी और 71 प्रतिशत नमूने में इण्डोसल्फान की मात्रा पाई गयी। भाटपुर में बीएचसी ग्रस्त 95 प्रतिशत नमूने पाये गये लखनऊ के गऊघाट में बीएचसी 95 प्रतिशत नमूनों में, डीडीटी 62 प्रतिशत नमूनों में, इण्डोसल्फान 55 प्रतिशत नमूनों में उपस्थित पायी गयी। घातक कीटनाशकों की उपस्थित मोहनमीकिन में अधिक होती है। इण्डोसल्फान तथा डीडीटी की मात्रा बढ़ती है। पिपराघाट में बीएचसी ग्रसित नमूने कम है किंतु डीडीटी तथा इण्डोसल्फान से ग्रसित नमूने 80 प्रतिशत हैं। जो नगर के प्रदूषित सीवर जल में घातक कीटनाशकों की उपस्थित की ओर संकेत करते हैं। बाराबंकी, सुल्तानपुर और जौनपुर में बीएचसी से ग्रसित नमूने 95 प्रतिशत है सुल्तानपुर में डीडीटी तथा इण्डोसल्फान की मात्रा बढ़ती है। जौनपुर में डीडीटी तथा इण्डोसल्फान की मात्रा सामान्य रहती है।17

ब. मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव


मिट्टी में प्रदूषण के विभिन्न स्रोतों द्वारा विभिन्न प्रकार के दुष्प्रभाव उत्पन्न होते हैं। मिट्टी की गुणवत्ता प्रभावित होती है उर्वरता घट जाती है और उत्पादन में भारी कमी आती है। उत्पादन से अधिक प्रभाव उत्पादित फसलों की गुणवत्ता पर पड़ता है। प्रदूषण की अधिकता पर यह मिट्टियाँ कृषि के लिये अनुपयुक्त हो जाती है। कृषि रहित भूमि में कटाव अधिक होता है और धीरे-धीरे भूमि बंजर में बदल जाती है। रासायनिक उर्वरकों तथा जैवनाशी रसायनों जैसे रासायनिक प्रदूषक मिट्टियों में पहुँचने पर आहार श्रृंखला के माध्यम से मनुष्य एवं जीव-जंतुओं के शरीर में पहुँच जाते हैं और विभिन्न प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने का कारण बनते हैं। रोगों के घातक रूप धारण कर लेने पर मनुष्यों तथा जीव-जंतुओं की मृत्यु हो जाती है। WHO के अनुमान के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष 50,000 व्यक्तियों की मृत्यु जैव नाशी रसायनों के प्रयोग से हो जाती है।

मृदा प्रदूषण की गति पर सर्वाधिक प्रभाव औद्योगिक क्रांति और हरित क्रांति से हो गया है। कृषि में हरित क्रांति के प्रसार के परिणाम स्वरूप यूरिया, सुपर फास्फेट तथा पोटाश जैसे उर्वरक तथा डीडीटी, वीएचसी, एल्ड्रीन, डायल्ड्रीन, मैलाथियान जैसे कीटनाशी रसायनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार औद्योगिक कल-कारखानों का विषैला कचरा, ऊँची-ऊँची चिमनियों के जहरीले धुएँ तथा निस्तारित जल से लगातार मिट्टी की स्वाभाविक गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। मिट्टी के जैविक गुणों की कमी और उपजाऊ क्षमता का ह्रास प्रतिवर्ष की दर से अधिक और अधिक होता जाता है। यद्यपि मिट्टी एक जैविक तंत्र है। इसके प्राकृतिक रासायनिक पदार्थों के साथ विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े लाखों करोड़ों की संख्या में बैक्टीरिया, फफूंद और नीले-हरे शैवाल रहते हैं। यह सब लगातार अपना कार्य चुपचाप करते हुए मिट्टी की उर्वरा क्षमता को बनाए रखते हैं।

मृदा विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे शोधों से यह तथ्य सामने आये हैं कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का ह्रास हुआ है और कृषकों को प्रत्येक बार उर्वरकों की अधिक मात्रा प्रयोग करनी पड़ती है, फिर भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता। मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुण परिवर्तित हुए हैं। उसमें अम्लीयता, कड़ापन और जलधारण क्षमता कम होती जा रही है। इसलिये मृदाकणों का बिखराव और उपजाऊ सतह का क्षरण बढ़ता जा रहा है उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में उपस्थित लाभदायी जीवाणु, फफूँद, नीले हरे शैवाल तथा केचुओं की संख्या में कमी आती है। ये सभी मिट्टी को जीवित बनाए रखते हैं। इनकी अनुपस्थिति में मिट्टी धीरे-धीरे निर्जीव होकर बिखरने लगती है तथा हवा-पानी के साथ उड़ने तथा बहने लगती है जबकि कार्बनिक पदार्थों के प्रयोग से मिट्टी की स्वाभाविक शक्ति बनी रहती है।

मृदा प्रदूषण के विभिन्न स्रोतों के अनुसार हम इनके दुष्प्रभाव को भी देख सकते हैं नगरीय ठोस अपशिष्टों में विभिन्न प्रकार के घातक अपशिष्ट मिले रहते हैं। घरेलू अपशिष्टों, औद्योगिक अपशिष्टों सीवर जल-मल, ठोस अवमल, चिकित्सालयों के अपशिष्ट तथा लघु औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट अलग-अलग प्रकार से मानव स्वास्थ्य के लिये संकट बनते हैं। नगरों के उत्पादन, आकार, प्रकार और संस्कृति के अनुसार भी नगरीय कचरे के स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है। लखनऊ महानगर 23 लाख की जनसंख्या वाला नगर है और 16000 टन ठोस कचरा प्रतिदिन निस्तारित किया जाता है।

नगरीय ठोस अपशिष्ट के दुष्प्रभाव


लखनऊ महानगर के ठोस अपशिष्ट में उपस्थित विभिन्न पदार्थों, धातुओं एवं रसायनों की उपस्थित को तालिका 2.6 और 2.7 में दर्शाया गया है। नगर में ठोस अपशिष्ट के निस्तारण में सदैव स्थिति विपरीत बनी रहती है। ठोस अपशिष्ट कचरे का 10 प्रतिशत ही उठाया जाता है। 10 प्रतिशत नालों और सीवरों द्वारा बहा दिया जाता है। बहाए जाने वाले पदार्थ से भिन्न प्रकार की समस्या बनती है। एकत्रित हुए ठोस अपशिष्ट से विभिन्न प्रकार की गैसें उत्पन्न हो जाती है। तालिका- 2.7 में लखनऊ महानगर के कुछ क्षेत्रों का रासायनिक अध्ययन किया गया है। जिसमें पाया गया कि लगभग सभी क्षेत्रों के कचरे में 60 से 70 प्रतिशत गैसीय पदार्थ पाये जाते हैं। नगर के घने बसे क्षेत्रों में जहाँ पर प्रतिदिन कचरे का उठाया जाना सम्भव नहीं हो पाता है। कचरे से उत्सर्जित होने वाली गैसों के कारण सांस लेने में कठिनाई होती है। ऐशबाग झील के निकट, गड़बड़ झाला, अमीनाबाद, चौक, सदर, नक्खास, लालकुआँ जैसे घने बसे क्षेत्रों में यह समस्या अधिक रहती है। कचरा गोदाम भी नगर में जगह-जगह बनाए गए हैं। जिनमें की प्रात: सफाई के दौरान सफाई कर्मचारी गली कूँचों का निस्तारित कचरा उठाकर जमा करते हैं। यह कचरा दोपहर बाद बड़े वाहनों से ड्रेजरों और लोड़रों की सहायता से उठाया जाता है। इस प्रकार यह एकत्रित कचरा दिन के 5 से 6 घंटों तक आस-पास बसे लोगों के लिये सांस लेना मुश्किल कर देता है। नगर के अधिकांश भागों का कचरा प्रतिदिन नहीं उठाया जाता है। उसका प्रत्येक दूसरे तीसरे दिन उठाया जाना सम्भव हो पाता है। क्योंकि नगर निगम के पास कर्मचारियों और वाहनों की कमी हैं और उससे भी अधिक सक्रियता की कमी है।

कचरे की सड़ांध से नगर निवासियों में विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ एवं श्वसन तंत्र की समस्याएँ बनी रहती हैं। गर्मी में कचरे के ढेर से निकलने वाली गैसों से उल्टी, दस्त, हैजा का प्रभाव बढ़ जाता है। नगरीय चिकित्सालयों में इन दिनों बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाने से मरीजों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती रहती है नगरीय कचरे में मरे पशु गाय, कुत्ते, सुअर आदि से और अधिक स्थिति खराब हो जाती है। दूसरे इनके कारण संक्रामक रोगों का प्रसार भी बड़ी शीघ्रता से होता है। मोतीझील क्षेत्र में नगर का अधिकतर कचरा निस्तारित किया जाता है इसी प्रकार अलीगंज के उत्तर पुरनिया में कचरा निस्तारण किया जाता है। इन क्षेत्रों के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि जो अति निम्न आयस्तर के परिवार हैं जिनका 6 से 8 घंटे तक कचरे से सम्पर्क रहता है। कचरे में उपस्थित पॉलिथीन बैग, प्लास्टिक, लोहा आदि उपयोगी पदार्थों को चुनते हैं तथा आवास भी कचरे के ढेर पर है। ऐसे परिवारों के 10 में से केवल 3 बच्चे ही स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर थे। 25 से 50 आयु वर्ग वाले लोगों में एक ने भी अपने को स्वस्थ नहीं पाया, महिलाओं में भी यही स्थिति रही यद्यपि व्यक्ति के स्वास्थ्य को भोजन और रहन-सहन का स्तर भी प्रभावित करता है फिर भी कचरे के सम्पर्क में रहने वाले बालकों, महिलाओं तथा पुरुषों का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। स्वास्थ्य की समस्याओं के बारे में पूछे जाने पर पाया गया कि 80 प्रतिशत पेट की शिकायत करते हैं। 66 प्रतिशत श्वास और पेट दोनों की समस्या बताते हैं। 40 वर्ष से अधिक आयु के 90 प्रतिशत महिलाओं और पुरुषों ने खांसी जुकाम बने रहने की बात की। इसी प्रकार त्वचा के रोगों से बच्चे अधिक पीड़ित पाये गए अधिकांश बालकों की त्वचा काली और मोटी थी जिसमें की स्वाभाविक स्पर्श गुण की संवेदना नहीं थी घुटनों, हाथ पैर और चेहरे में यह रूप अधिक देखा गया।

इसी प्रकार मध्यम आय वर्ग के दो से अधिक कमरों में रहने वाले परिवारों का भी साक्षात्कार लिया गया। यहाँ रहने में आप कैसा अनुभव करते हैं? इस पर बहुत कष्टदायी प्रतिक्रिया व्यक्त की और बताया यदि भवन लागत के निकट धनराशि मिल जाए तो कहीं और रहने की व्यवस्था कर लें क्योंकि पूरे समय खिड़की-दरवाजे बंद रखने पड़ते हैं। हम लोग तो ऐसे वातावरण के अभ्यस्त हैं, किंतु जब कोई बाहर का व्यक्ति आता है तो बड़ी मानसिक व्यथा का अनुभव करते हैं। स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछे जाने पर बच्चों के स्वास्थ्य की समस्या अधिक बतायी गयी जो वर्षाकाल में अधिक रहती है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ जो घरेलू कार्यों में व्यस्त रहती है की समस्याएँ कचरे के ढेर से उत्पन्न होने वाली दुर्गंध से अधिक है।

लखनऊ नगर निगम की केंद्रीय कार्यशाला जहाँ से नगर के 505 घोषित कूड़ा घरों से तथा 1000 से अधिक अघोषित कूड़ा घरों से कूड़ा निस्तारण का प्रबंध किया जाता है में 300 से अधिक कर्मचारी कार्यरत है जिनमें 100 से अधिक चालक है और इनसे दोगुने लोड़रों की संख्या है। इस कार्य में लगे 20 लोगों से साक्षात्कार लिया गया जिनमें से प्रत्येक ने बताया कि प्रत्येक सप्ताह 50-60 रुपये की दवा लेनी पड़ जाती है। उनमें से 8 ने अपने शरीर में विभिन्न प्रकार के त्वचा सम्बन्धी रोगों को दिखाया और बताया यह सब इसी के सम्पर्क में रहने से हुआ है। कार्य करने में दुर्गंध की समस्या के सम्बन्ध में पूछने पर बताया कि गाड़ियों में लोड करना मुश्किल है। किसी प्रकार से मुँह नाक बांध कर काम करते हैं। 10 से अधिक का उत्तर था कि इस दुर्गंध में काम करना कठिन होता है। इसलिये पाउच का सहारा लेना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि यह वर्ग कचरा उठाने का कार्य वाहनों द्वारा करता है जिसमें कि व्यक्ति का सम्पर्क सीधे कचरे से न होकर विशेष कर उसकी दुर्गंध और गैसीय प्रदूषण से होता है।

इसी प्रकार नगर के कुछ सफाई कर्मचारियों और कचरा उठाने वालों से प्रश्न किये गए। उन्होंने भी अपनी दशा को सीधे प्रस्तुत किया। ‘‘आप हमें देख रहे हैं? आप नाक मुँह खुला रखे हैं और हमें बंद रखना पड़ रहा है। पूरे 4-5 घंटे काम करते-करते सिरदर्द करने लगता है। आये दिन पेट की बीमारियाँ उत्पन्न होती है। बिना दवा लिये तो काम करते ही नहीं बनता है।’’ यद्यपि इस समस्या के अतिरिक्त भी इन कर्मचारियों की समस्याएँ थी किंतु स्वास्थ्य की समस्या पर अधिक ध्यान दिलाया जो कि लगातार दुर्गंध युक्त क्षेत्र में कार्य करने का परिणाम है।

ऐशबाग में मोती झील के आस-पास रहने वालों की हालत बुरी है। कूड़े की सड़ांध और उस सड़ने वाले कूड़े में पैदा होने वाले मक्खी, मच्छरों से लोग परेशान रहते हैं। ऐशबाग में लकड़ी का सर्वाधिक कार्य होता है। इसलिये आरा मशीनों का बुरादा जमा होता रहता है बुरादे में आग लगने की घटनाएँ भी कई बार हो चुकी है जिस पर नियंत्रण पाने के लिये फायर ब्रिगेड को अपनी शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। सड़ते कचरे से यहाँ की घनी आबादी में बीमारी फैलने का भय बना रहता है। झील के परित: बने भवनों में खिड़कियाँ और रोशनदान लगे हैं फिर भी दुर्गंध और विषैली गैसों के कारण यहाँ के निवासी खिड़कियाँ बंद रखने को विवश हैं। ऐसी स्थिति नगर के प्रत्येक कचरा निस्तारण स्थलों में देखने को मिलती है।

अप्रैल 1995 से अप्रैल 1998 के मध्य भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा पोषित तीन वर्षीय परियोजना ‘‘इन्वेस्टीगेशन ऑफ मीथेन इन्फ्लक्स फ्रॉम वाटर बॉडीज’’ के अंतर्गत लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान ने लखनऊ के 10 मॉनीटरिंग स्थलों पर जाड़ा, गर्मी और बरसात के तीनों मौसमों में मीथेन उत्सर्जन के दर की माप जोख की जिसके अध्ययन किए गए तथ्यों के सम्बन्ध में संस्थान के पर्यावरणीय प्रयोगशाला के प्रभारी डॉ. एसएन सिंह बताते हैं कि जिन जलस्रोतों में सीवेज व औद्योगिक कचरे अथवा घरेलू कचरे से जनित कार्बनिक पदार्थ अधिक होते हैं। वहाँ मीथेन गैसें अधिक निकलती है। अध्ययन से पता चलता है कि मोती झील जहाँ पर 600 से 700 टन कचरा प्रतिदिन डाला जाता है, गोमती नदी जिसमें प्रतिदिन 18 करोड़ लीटर सीवेज उत्प्रवाह नदी में गिरता है, में बायो-केमिकल आॅक्सीजन डिमांड अधिक होने से मीथेन गैसों का उत्सर्जन भी अधिक होता है स्थिर जलस्रोतों से विशेषकर ग्रीष्मकाल में कार्बनिक पदार्थों का घनत्व बढ़ जाता है। तो मीथेन भी अधिक निकलती है। अध्ययन के अनुसार विश्व के वायुमंडल में मीथेन गैस 1.1 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। उल्लेखनीय है कि गोमती से तीनों मौसम में सर्वाधिक मीथेन उत्सर्जित होने का मुख्य कारण जल में प्रदूषण और जल प्रवाह कम होना है। अध्ययन में पाया गया कि 1997 से ग्रीष्मकाल में गोमती नदी से 80.9 मिलीग्राम प्रतिवर्ग मी. प्रतिघंटा की दर से मीथेन गैस वायुमंडल में पहुँच रही है। इसी प्रकार मोतीझील से 49.3 मिग्रा./प्रतिवर्ग मी./प्रतिघंटा रही। यही स्थिति गोमती सहित कई तालाबों और झीलों की है।

परिशिष्ट- 7 व 8 में नगर के प्रमुख नालों को दर्शाया गया है। नगर के प्रमुख 25 नालों के उत्सर्जित मल-जल की मात्रा 230 mld है। जिसमें सीवर मल-जल भी सम्मिलित है। मल-जल भूमि प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानव पर नहीं दिखाई देता है। किंतु इसके सम्पर्क से मच्छर, मक्खियाँ विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं जो स्वास्थ्य के लिये घातक स्थिति उत्पन्न करते हैं। अपशिष्ट पदार्थों से मक्खियाँ एवं मच्छर उत्पन्न होकर टाइफाइड, डिप्थीरिया, डायरिया, हैजा आदि की बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। ये मक्खियाँ और मच्छर अपशिष्ट में उत्पन्न होने वाले जीवाणुओं के वाहक होते हैं। संक्रामक रोगों की स्थिति पर नगर के महत्त्वपूर्ण चिकित्सालयों से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार स्थिति इस प्रकार रही है -

नगरीय अपशिष्ट वाहक नाले एवं सीवरतालिका 2.10 लखनऊ महानगर में अपशिष्टों से उत्पन्न होने वाली बीमारियाँ एवं रोगियों की संख्यारोगों की लगातार वृद्धि और बढ़ते प्रभाव के लिये अन्य कारण भी उत्तरदायी है। नगरीय कचरे और सीवर जल के भूमि में एकत्र रहने और प्रवाहित होने से भू-जल भी प्रदूषित होता है। मिट्टी के दो महत्त्वपूर्ण गुण हैं- जल का सोखना और उसका छानना। मिट्टी के इन गुणों के कारण ऊपरी सतह पर उपस्थित किसी भी गुण धर्म के जल को भूमि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जल में उपस्थित हानिकारक रसायन और खनिज भू-जल तक पहुँच जाते हैं जो मानव द्वारा पेय जल के रूप में और सिंचाई के लिये प्रयोग किया जाता है। नगर के विभिन्न क्षेत्रों से लिये गए जल नमूनों का परीक्षण किया गया। इस परीक्षण में जल की संवाहकता, पीएच, क्लोराइड, कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा जल की कठोरता की जाँच की गयी पीएच मान 6.90 से लेकर 8.2 तक पाया गया, संवाहकता .41 से लेकर .58 तक पाया गया। क्लोराइड की मात्रा भी 12 मिग्रा./ली. से 48 मिग्रा./ली. तक रहीं कैल्शियम की मात्रा 44 से 70 मिग्रा./ली. रही जो निर्धारित सीमा से अधिक है। मैग्नीशियम की मात्रा 17.76 मिग्रा./ली. से 38 मिग्रा./ली. तक रही जो निर्धारित मानक से अधिक रही। जल की कठोरता 204 मिग्रा./ली. से 272 मिग्रा./ली. पायी गयी जो राष्ट्रीय मानक संस्थान के 150 मिग्रा./ली. की तुलना में दोगुने के निकट रही।18

नगरीय मल निस्तारण के कारण निकटस्थ नदियाँ झीलें व अन्य जलाशय इतना अधिक प्रदूषित हो चुके हैं कि जल पीने योग्य तो हैं ही नहीं, स्नान करना भी खतरे से खाली नहीं है। दूषित जल को पीने, उसमें तैरने तथा स्नान करने से व्यक्ति को अतिसार, आंत्रशोथ, पेचिश मियादी बुखार, मस्तिष्क ज्वर, पीलिया, पोलियो, कृमि व परजीवी रोग तथा कभी त्वचा, नाक, कान, आँख, गले व परजीवी रोगों से संक्रामित हो सकते हैं। लखनऊ महानगर की निरंतर बढ़ती हुई संक्रामक व्याधियों एवं लोगों में प्रतिरक्षण क्षमता में ह्रास के कारण आहार नाल और पाचन क्षमता प्रभावित होती जा रही है इस पर विगत वर्षों में आईटीआरसी लखनऊ ने अनुसंधान किया और पाया कि लखनऊ नगर क्षेत्र में गोमती नदी जल में मल प्रदूषण के फलस्वरूप रोगजनक जीवाणुओं की विभिन्न प्रजातियाँ नामत: इस्चरेशिया कोलाई, क्लब सिएला, सिट्रोबैक्टर, इंटरोबैक्टर, विब्रीयो कॉलरी तथा एरोमोनस आदि मिली जो मुख्यतया एम्पीसिलीन, क्लोरम फेनीकाल, स्ट्रेप्टोमायसिन, टेट्रोस्ट्रेप्टो-सायक्लीन तथा नैलीडिक्सिक अम्ल जैसे बहुप्रचलित प्रति जैविकियों के प्रति विभिन्न प्रतिशत व अनुपात में प्रतिरोध प्रदर्शित करती है। देश विदेश के विभिन्न वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि की तथा गंगा-यमुना नदियों के जल में भी प्रति जैविकी एवं विषाक्त भारी धातु प्रतिरोधी रोगजनक जीवाणु महत्त्वपूर्ण अनुपात में पाये गए। इस केंद्र के अनुसंधानों द्वारा यह भी ज्ञात हुआ कि भोज्य मछलियाँ एवं लखनऊ नगर का पेय जल भी प्रतिजैविकी प्रतिरोधी एवं आत्र विष उत्पादक जीवाणुओं से प्रदूषित है। यह नगरीय जलमल गम्भीर समस्या बनता जा रहा है और चिकित्सीय प्रयोग हमारी बाध्यता बनती जा रही है जिसका निदान और नियंत्रण आवश्यक हो गया है।19

तालिका 2.11 लखनऊ भू-गर्भ जल गुणता परीक्षणकेंद्रीय भू-गर्भ जल प्रदूषण बोर्ड की लखनऊ इकाई द्वारा लखनऊ के सिटी स्टेशन के निकट 12 जल नमूने लिये जिनके परीक्षण पर स्थिति स्पष्ट होती है कि इस क्षेत्र के जल में क्षार की मात्रा अधिक है। इसके अतिरिक्त कठोर खनिज भी अधिक मात्रा में पाये गए। कैल्शियम, मैगनीज और कलोरीन जैसे पदार्थ भी अधिक मात्रा में पाए गए। अधिक और कम गहरे जल के नमूनों में नाइट्रेट की मात्रा आवश्यकता से अधिक थी। विश्लेषण के अनुसार नलकूपों के जल में इसकी मात्रा 25 से 590 मिग्रा./ली. थी। खोदे गए कुओं और हैंडपंपों में 650 मिली./ली. पाई गयी जबकि आईएसआई ने 1983 में पेयजल में नाइट्रेट की मात्रा 45 मिग्रा./ली. निर्धारित किया था। गहराई बढ़ने के साथ नाइट्रेट की मात्रा घटती जाती है। नमूनों में कार्बोनेट, क्लोरीन, सल्फेड, मैगनीज और पोटाश की भी यही स्थिति है।

रिपोर्ट में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण चौंकाने वाली स्थिति सामने आयी कि सिटी स्टेशन से जैसे-जैसे हम गोमती नदी की ओर बढ़ते हैं। भू-जल अधिक और अधिक प्रदूषित होता जाता है। नाइट्रेट सामान्यतया भूमि द्वारा अवशोषित मानव एवं पशुमल से पहुँचता है। इस प्रकार नालों और सीवरों के अतिरिक्त शौचालयों का मल एकत्र करने वाले सुरक्षित टैंक भी भू-गर्भ जल प्रदूषण का महत्त्वपूर्ण कारण बने हुए हैं। अध्ययन में यह बात स्पष्ट की गयी कि नगरीय भू-गर्भ जल प्रदूषण का कारण शौचालयों के गड्ढे, सीवर और नाले हैं।20

नगरीय भूमि के प्रदूषण के सम्बन्ध में एक अध्ययन में पाया गया कि वाहनों औद्योगिक संस्थानों, निस्तारित मल जल तथा उच्छिष्ट पदार्थों से और कृषि जन्य पदार्थों से नगरीय भूमि ग्रामीण भूमि के अपेक्षा 17 गुना सीसे से दुष्प्रभावित है। कीटनाशकों के प्रभाव से सेब, अमरूद के बगीचों की भूमि में 0.15 सेमी ऊपर तक की भूमि सीसे से बुरी तरह प्रभावित पायी गयी है। सब्जियों, गाजर, सेम, आलू, दूसरी दानेदार फसलों एवं फलों में ‘फल एवं कृषि संगठन के मानक से अधिक भूमि सीसे से प्रभावित है। यह पेंट, खिलौनों, घरेलू कचरों आदि के माध्यम से भूमि में पहुँचता है। सीसे की उपस्थिति भूमि के ऊपरी भाग में पाई जाती है जो वर्षा के जल के साथ रिस कर भूमि की निचली सतह में पहुँचता है और भूजल को प्रदूषित करता है। तथा कार्बनिक तत्वों के साथ सीसा पौधों की जड़ों तक पहुँचता है। जड़े उसे अवशोषित करती हैं परीक्षणों में पाया गया कि मिट्टी की गहराई में उपस्थित सीसा उसकी पत्तियों तक पहुँच जाता है। मैटो ने (Matto 1970) सूचित किया की फलों, फूलों तथा सब्जियों में सीसा पाया जाता है। लखनऊ नगर की सब्जियों के परीक्षण में पाया गया कि फूलगोभी, पत्तागोभी, टमाटर तथा बैगन में सीसा काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाता है। चौड़ी पत्ती वाली पालक में यह मात्रा अधिक पायी गयी। Schuck and lock 1970 अपने परीक्षण में पाया कि रोगग्रस्त पौधों में सीसे की मात्रा अधिक है। Sward ने घासों के संदर्भ में बताया कि सर्दियों में सीसे की सांद्रता अधिक रहती है। Hkin 1976 में लिखा की वृक्षों की ऊपरी छाल में सीसे की सबसे अधिक सांद्रता पायी गयी। Ostroleck 1985 के अनुसार सीसे की उपस्थिति 4.5 गुना पत्तियों में .22 गुना बीजों में 1.2 गुना परागकणों में और 1.1 गुना मादा प्रजाति के पुष्पों में प्रभाव डालती है। सीसा दलहनी फसलों को अधिक प्रभावित करता है। इसी प्रकार नगरीय भूमि के राजमार्गों के किनारे सीसे की अधिक मात्रा पायी गयी।21

सीवर जल और मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव


नगरीय मल-जल सीवरों और नालों से लगातार बहता हुआ भू-जल को प्रदूषित करता है साथ ही भू-सतही जल को भी प्रदूषित करता है। नगर के मध्य से प्रवाहित होने वाली गोमती का जल लगातार नगरीय सीवरों और नालों के मल-जल से प्रदूषित होता जा रहा है। नगर के 31 नाले 310 एमएलडी प्रदूषित जल गोमती में डालते हैं। यहाँ की औद्योगिक इकाइयाँ इसके प्रदूषण को और अधिक प्रभावित करती हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय के ‘भू-गर्भ विज्ञान’ विभाग के प्रो. सुरेंद्र कुमार ने बताया कि गोमती नदी की तली में नालों की तली से भी अधिक प्रदूषित कचरा है, यही कारण है कि नगर के गोमती तट के भू-गर्भ जल का धात्विक प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इसके 9 किमी. प्रवाह क्षेत्र की तली से 8 नमूने लिये जिसके परीक्षण में पाया गया कि तांबा, मैगनीज, जस्ता, क्रोमियम और फास्फेट में वृद्धि हो रही है। फास्फेट की मात्रा आरोही क्रम में लगातार बढ़ती जाती है। प्रथम नमूने में 0.5 प्रतिशत है और आगे बढ़ने पर यह 1.5 तक हो जाती है। मैगनीज, जस्ता और सीसा की उच्चतम सांद्रता भैंसाकुंड के पास पायी गयी। इस प्रकार गोमती के मृदा खंड में तांबा, सीसा, जिंक, कोबाल्ट विश्व के प्रमाणिक मानक की अपेक्षा तीन गुनी कम पायी गयी। फास्फेट तीन गुने पर है जो कार्बनिक प्रदूषण का ही कारण है। अत: नगरीय भू-गर्भ जल संरक्षण के लिये नगरीय मल-जल को उपचारित करने की अत्यंत आवश्यकता है।22 (परिशिष्ट- 9)

नगर में सब्जियों का उत्पादन नालों एवं गोमती नदी के तट पर किया जाता है। यहाँ की मिट्टी में उपलब्ध विभिन्न घातक रसायन एवं खनिज सब्जियों में उनकी जड़ों द्वारा पहुँच जाते हैं यह सब्जियाँ मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है। न्यूक्लीय औषधि तथा सम्बन्धित संस्थापक वैज्ञानिकों ने दिल्ली के 2600 स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य की जाँच करके पता लगाया कि प्रदूषित भूमि में उत्पादित हरी सब्जियों के खाने से छात्रों में गले के विभिन्न रोग पाये गये।23

वाराणसी में सीवेज जल से सिंचाई की जाने वाली फसलों तथा कृषकों पर एक सर्वे नवंबर 1996 में किया गया जिसमें पाया गया कि फसलों का उत्पादन बढ़ा है किंतु पैदा होने वाले चावल में स्वाभाविक सुगंध और स्वाद नहीं है। पकाने के कुछ ही घंटों बाद उसमें दुर्गंध आने लगती है। कृषकों ने बताया कि उन्हें विभिन्न प्रकार के चर्म रोग एवं स्नायुमंडल के रोग हो गए हैं। पशुओं का स्वास्थ्य और उनकी कार्य क्षमता भी प्रभावित हुई है। बलुई मिट्टियों की सिंचाई मल-जल से करने पर मिट्टी की संरचना सुधर जाती है। किंतु कुछ समय पश्चात नाइट्रोजन के खनिजीकरण पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त मिट्टी के पीएच मान, रंध्राकाश, धनायन, अधिशोषण क्षमता, मृदा जीवों की कार्यक्षमता, मृदा नाइट्रोजन एवं कार्बनिक पदार्थ की मात्रा पर भी असर पड़ता है।

तालिका- 2.3 में नगरीय ठोस अपशिष्ट में उपस्थित पदार्थों की प्रतिशत मात्रा को दर्शाया गया है जो नगरीय क्षेत्रों की भिन्नता के साथ पृथक-पृथक मात्रा में है। यदि नगरीय कचरे में उपस्थित प्लास्टिक की मात्रा पर विचार करें तो प्रत्येक क्षेत्र में यह मात्रा भी अधिक है। औसत रूप में 5 प्रतिशत प्लास्टिक मात्रा कचरे में उपस्थित रहती है। प्लास्टिक का उपयोग बच्चों के खिलौने से लेकर बड़े से बड़े उपकरण यहाँ तक की सीट, खिड़की, दरवाजे, फर्श, पानी की टंकियां, ब्रीफकेश, विद्युत पंखे, कार, बस, स्कूटर, टेलीफोन, साइकिल, पेन तथा अन्य बहुत से क्षेत्रों में किया जाता है इन्हीं महत्त्वपूर्ण उपयोगिताओं और विशेषताओं के कारण वर्तमान युग ‘प्लास्टिक युग’ के नाम से भी जाना जाता है।

नगरीय क्षेत्र में प्लास्टिक प्रदूषण की सर्वाधिक समस्या सामानों की पैकिंग से निकले थैलों के अनियोजित परित्यक्त रूप से उत्पन्न होती है। जो भी वस्तु बाजार से क्रय करते हैं प्लास्टिक के थैलों में ही प्राप्त होती है। बाजार से घर तक आने में उसका उपयोग है इसके पश्चात कहीं भी इधर-उधर फेंक दिया जाता है। यह जल और मिट्टी से अप्रभावित रहने के कारण जहाँ-तहाँ उड़ता रहता है। यही प्रवृत्ति प्लास्टिक प्रदूषण हैं यह प्लास्टिक आज कहीं भी समस्या का कारण बना हुआ है। उड़ती हुई प्लास्टिक थैलियाँ नगरीय पशुओं के द्वारा निगलने से प्राय: मौत होती रहती है। लखनऊ नगर के चिड़िया घर के कई जानवरों की मृत्यु हो जाने के पश्चात विभाग की चेतना लौटी और परिसर में किसी प्रकार का सामान प्लास्टिक थैले में ले जाना शख्त वर्जित कर दिया गया।

विगत कुछ वर्षों से प्लास्टिक उपयोग की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार भारत में प्लास्टिक की खपत 14 लाख टन वार्षिक है। प्लास्टिक की विश्व स्तर पर प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत औसतन 17 किग्रा है। भारत में यह खपत औसम 1.5 किग्रा. है भारत में प्लास्टिक उद्योगों से जुड़ी इकाइयों की संख्या 14500 है। पश्चिमी बंगाल और महाराष्ट्र राज्यों में 2500 से अधिक इकाइयाँ उत्पादन कार्य करती है।24

भारत के अन्य बड़े नगरों की संस्कृति के अनुरूप लखनऊ महानगर के परिवेश में प्लास्टिक थैलों का उपयोग हो रहा है। नगर में प्लास्टिक थैलों की दूसरी समस्या से नगर की सफाई व्यवस्था प्रभावित होती है। यद्यपि नगर के सभी भागों में प्लास्टिक थैलों का प्रयोग होता है किंतु जिन क्षेत्रों में सीवर अथवा बंद नालियाँ अधिक हैं वहाँ पर सीवर और नालियों के चोक होने के कारण प्लास्टिक थैले हैं। सफाई कर्मचारियों के अनुसार जो सीवर लाइनें 5 वर्ष पूर्व 20 वर्ष बिना चोक हुये चलती रहीं उनमें अब चोक होने की समस्या लगातार बनी रहती है। कर्मचारियों ने बताया कि पेपर तथा अन्य प्रकार का कचरा पानी में नरम पड़ता है, सड़ता है किंतु यह इन दोनों से अप्रभावित है। इसलिये इनके थैले चोक होने का कारण बनते हैं। दिल्ली सरकार ने इस समस्या के कारण विज्ञप्ति जारी की जिसमें कहा गया कि कोई भी व्यक्ति पॉलीथीन की थैलियों में बचे हुए भोजन, बचे हुए फलों या सब्जियों के छिलके, लोहे व काँच के टुकड़े भरकर न फेंके। पॉलीथीन को नालियों के बहाव को बाधित करने, सीवर के चोक होने की समस्या और कारण के रूप में लखनऊ महानगर में भी देखा जाता है। एक शोध प्रबंध में कहा गया कि सीवर चोक की 70 समस्या पॉलीथीन के कारण होती है।25

नगर के सभी सार्वजनिक स्थलों, पार्कों, बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, बाजार की नालियों, नगर के नालों, खाली जगहों, नदी तट पर जहाँ भी इधर-उधर देखा जाए प्लास्टिक के थैले नजर आते हैं। प्लास्टिक थैले आकार में कुछ बड़े होने के कारण उठा भी लिये जाते हैं। किंतु पान मसाला, टॉफी, चाय, बिस्कुट जैसी बहु उपयोगी वस्तुओं की पैकिंग प्लास्टिक में होने पर साथ ही छोटे होने के कारण उठाए भी नहीं जाते और भू-तल में पड़े रह कर मिट्टी के नीचे दब जाते हैं, नालों नालियों से नदी में पहुँचते हैं, कचरे के साथ खेतों में पहुँचते है और भू-जल अवशोषण क्षमता को प्रभावित करते हैं नगरीय जलस्तर के नीचे जाने के अन्य कई महत्त्वपूर्ण कारण हैं, किंतु प्लास्टिक एक नवीन समस्या के रूप में गिना जाने लगा है।

तालिका- 2.6 में कुछ लखनऊ महानगर के व्यापारिक संस्थानों को दर्शाया गया है। जिसमें क्रमांक-8 पर प्रतिष्ठानों की प्लास्टिक निस्तारण की स्थिति को दर्शाया गया है। जिसमें शैक्षिक संस्थाओं, जूता निर्माण इकाइयों, मरम्मत कार्य में लगी इकाइयों से प्लास्टिक कचरे का निस्तारण अधिक होता है। व्यापारिक क्षेत्र में उपयोग किया गया प्लास्टिक कई प्रकार का होता है। कुछ अत्यंत मजबूत और टिकाऊ होता है। जो स्थायित्व के कारण अधिक घातक बनता है। होटलों और दुकानों में प्लास्टिक के थैलों में भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं जिन्हें अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित समझा जाता है। प्लास्टिक के बने हुए पात्र और पॉलीथीन के बैग भी प्लास्टिक के रासायनिक यौगिकों की श्रेणी में आते हैं। इनमें सामान रखना तथा इनका कचरा स्वास्थ्य के लिये घातक है। प्लास्टिक पात्रों को खाद्य सामग्री रखने में प्रयोग किया जाता है। कुछ तो गर्म खाद्य पदार्थ भी रखने के काम आते हैं। इससे पदार्थों में अम्लीयता उत्पन्न हो जाती है। इस समस्या पर शोध के पश्चात ‘‘सेंट्रल कमेटी फॉर फूडस्टैंडर्स’’ जो कि भारत की सरकारी संस्था है। ने विभिन्न प्रकार के भोजन, जल और औषधि कार्यों के लिये प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक के लिये विभिन्न प्रकार के मानक निर्धारित किए हैं।26

उ.प्र. में प्रतिदिन 80 गायों की मृत्यु प्लास्टिक थैलों के निगलने से हो रही है। रेडियो समाचार 5.5.2000 दिल्ली नगर में प्लास्टिक रिसाइकिल की 70 इकाइयाँ हैं। तथा लखनऊ में 30 इकाइयाँ कार्य कर रही हैं। इन इकाइयों से घातक गैसों का उत्सर्जन होता है। भारतीय पशु कल्याण बोर्ड द्वारा आयोजित संगोष्ठी में प्लास्टिक थैलियों के पशुओं के खाने की बात को स्पष्ट करते हुए महानगरों के प्रबंधकों ने बताया कि सड़कों से पकड़ कर लाए गए 60 प्रतिशत पशु बहुत जल्दी मर जाते हैं जिसका कारण प्लास्टिक थैलियों का निगलना है। पीपुल्स फॉर एनीमल्स सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि राजस्थान में 500 मरने वाले पशुओं में 300 की मृत्यु प्लास्टिक थैलियों के निगलने से होती है।27

लखनऊ महानगर में प्रतिदिन पाँच टन ‘पॉलिकचरा’ निस्तारित होता है। इस ‘पॉलिकचरे’ के अंतर्गत प्रयोग किये गये पॉलिथीन या प्लास्टिक उत्पाद सम्मिलित है। कभी नष्ट न होने वाले इस कचरे को खाकर दर्जनों दुधारू जानवर अपनी जान गवाँ चुके हैं। इसके प्रयोग से मनुष्य रक्तचाप, कैंसर, नपुंसकता, चर्मरोग और अस्थमा जैसे रोगों का शिकार बन रहा है। आईटीआरसी के निदेशक पीके सेठ का कहना है पुनर्चक्रित प्लास्टिक में विषाक्त रंगों का प्रयोग किया जाता है। जब इनमें खाद्य पदार्थ रखे जाते हैं तो रंग खाद्य पदार्थों में रिसकर उसे विषाक्त कर देता है। उन्होंने बताया प्लास्टिक में मिलाए गए बेन्जोफिनोल, बेन्जोट्राजोल, आरगेनोनिकल, एक्रीलेटेस, सैलीसिलेट्स और एमीनो एसिड स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक होते हैं। यहाँ तक शोध अध्ययनों से पता चला है कि इनसे कैंसर जैसे रोग हो सकते हैं प्लास्टिक में पाये जाने वाले अन्य रसायन जैसे क्लोराइड और प्लास्टीसाइजर्स भी परोक्ष और अपरोक्ष रूप से मानव स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। आईटीआरसी के ‘‘डेवलपमेंट टॉक्सीकोलॉजी’’ डिवीजन के डॉ. वीपी शर्मा ने बताया बायोडिग्रेबिल प्लास्टिक का उत्पादन किया जाना चाहिए।28

‘पॉलिकचरे’ में कैडमियम नामक तत्व है जो पर्यावरण दृष्टि से काली सूची में है। इसके कचरे के जलाने से विषाक्त गैसें उत्सर्जित होती हैं। जिनसे सांस तथा हृदय की धड़कन तक बंद हो जाती है। इसके धुएँ से जलने के बजाए इसकी विषाक्त गैसों से लोग मरते हैं।

लखनऊ महानगर के नगर निगम के ‘कैटेल कैचिंग’ दस्ते के द्वारा पकड़ी गयी गायों के मरने के बाद पोस्टमार्टम करने से पता चला कि इनकी मौतों का कारण पेट में भरी 74 किलो पॉलीथीन था एक गाय के पेट में 27 किलो दूसरे के 25 किलो, तीसरी के 22 किलो पॉलीथीन बैग निकले इसी प्रकार दो बछड़ों के पेट से 62 किलो पॉलीथीन कचरा निकाला गया जो नगर के पशुओं के लिये पॉलीथीन से बड़े खतरे का शंखनाद है।

रासायनिक उर्वरकों एवं कीट नाशकों का मृदा पर प्रभाव


रासायनिक खादों के लगातार प्रयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति में ह्रास होता है। इस उर्वरा शक्ति के बढ़ाने में कृषकों को प्रत्येक अगले वर्ष अधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना पड़ता है। इससे मिट्टी की अम्लीयता, कड़ापन, जल अवशोषण क्षमता में कमी तथा उपजाऊपन में कमी आ जाती है। उर्वरकों से मिट्टी में पाये जाने वाले उपयोगी कीटाणु किसानों का मित्र कहे जाने वाले केचुओं तथा नील हरित शैवालों में कमी आ जाती है। जब कि मिट्टी में इनकी उपस्थिति आवश्यक रहती है। इनके अभाव में मिट्टी में सूखापन, बिखराव तथा हवा पानी के द्वारा इसमें कटाव होने लगता है।

उर्वरकों का प्रभाव उत्पादित फसलों की गुणता में भी पड़ता है उनमें खनिज तत्वों की कमी आ जाती है तथा स्वाद और सुगंध रहित हो जाती है। खाद्यान्नों में तत्वों की मात्रा चौथाई रह जाती है। एक शोध में बताया गया कि नाइट्रोजन उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी के साथ पेयजल स्रोतों में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती है। पेयजल स्रोतों में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ने से नवजात शिशुओं में ‘ब्लू बेबी सिंड्रोम’ तथा पेट की गड़बड़ियों की शिकायत होने लगती है। लखनऊ नगर में गोमती जल में तथा नलकूपों और हैंडपंपों के जल में नाइट्रेट की मात्रा मानक से अधिक पायी गयी है।

मृदा नमूनों के अध्ययन करने पर पाया गया कि देश के कृष्य क्षेत्र के लगभग 47 प्रतिशत भाग में जिंक, 11 प्रतिशत भाग में लोहा तथा 5 प्रतिशत भाग में मैगनीज पाया गया। कृष्य क्षेत्र की 30 प्रतिशत मिट्टी अम्लीय हो गयी और चूना और मैगनीज जैसे तत्वों का अभाव हो गया। तालिका- 2.8 में नगर के सब्जियाँ उगाए जाने वाले क्षेत्रों के नमूनों को दर्शाया गया है। जिनमें जीवांश तथा कार्बन की प्रतिशत मात्रा को प्रस्तुत किया गया है। नमूना संख्या 1, 8, 9 कार्बन की प्रतिशत मात्रा की उपलब्धता के लिये उपयुक्त है। 9 नमूनों में कार्बन की मात्रा में कमी पायी गयी जो नगरीय मृदा की गिरती दशा की ओर संकेत करती है। पीएच मान के सभी नमूने क्षारीयता को प्रदर्शित करते हैं। इसी प्रकार फास्फेट पोटाश की मात्रा भी आवश्यक दशा के अनुरूप नहीं है।

कीटनाशकों का दुष्प्रभाव


उर्वरकों के साथ ही आधुनिक कृषि प्रणाली में कीटनाशी एवं खरपतवारनाशी पदार्थों का प्रचुर प्रयोग किया जा रहा है। डीडीटी, बीएचसी, एल्ड्रीन, सेविन जैसे सभी रसायन जहरीले एवं घातक हैं जो मिट्टी में मिल जाते हैं और लंबे समय में भी नष्ट नहीं होते हैं। ये मिट्टी को प्रदूषित करते हैं। मिट्टी से सब्जियों, फलों, फसलों, अंडों, मछलियों, तेल, दूध यहाँ तक कि माताओं के दूध में भी आ जाते हैं। विभिन्न खाद्य पदार्थों के नमूनों से इसके प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं। (परिशिष्ट- 10)

हैप्टाक्लोर और क्लोरोडीन जैसे कीटाणु नाशकों के प्रयोग से मिट्टी में केचुओं की संख्या घटती जाती है। कीटनाशकों का एक प्रयोग अमेरिका ने 1960-1972 के दौरान वियतनाम पर दुश्मन को सबक सिखाने के लिये एक करोड़ 40 लाख पौंड ‘एजेंट आरेंज’ नामक खर पतवार नाशी सी-125 एअर क्रॉफ्ट द्वारा छिड़का था ‘एजेंट आरेंज’ में 2, 4 डी और 2, 4, 5 टी के ईटर्स थे, जंगलों में छिड़के गए यह प्रभावशाली खर पतवार नाशी थे। कुछ ही समय में हजारों हेक्टेयर जंगल पत्ती विहीन हो गया। कई बार के छिड़काव से प्राणी और वनस्पतियों का नाश हो गया। मैंग्रोव प्रजाति की वनस्पतियाँ छिड़काव के पाँच वर्ष बाद भी नहीं पनप सकी। विषैले कीटनाशकों का प्रभाव मिट्टी पर भी पड़ा और मिट्टी बंजर हो गयी29 ऐसा ही कीटनाशकों का प्रभाव भोपाल शहर में 4 दिसंबर 1984 को देखने को मिला जिसमें की 4000 मनुष्य तथा पशु-पक्षी मारे गए और वृक्ष ठूंठ में बदल गए। मृदा प्रदूषण की समस्या नगरीय क्षेत्र में तो है ही रोगों की अधिकता का कारण भी प्रदूषित मृदा से उत्पन्न विषैले खाद्य पदार्थ हैं।

नगरों में खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों, दूध, मछली तथा अंडे की पूर्ति ग्रामीण परिक्षेत्र से होती है। ग्रामीण कृषक खाद्यान्नों, फलों और सब्जियों के उत्पादन में कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। किंतु इनकी वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हैं और प्रयोग विधि से भी अनभिज्ञ रहते हैं। स्पष्ट है कि परिणाम उपभोग करने वालों को भुगतना पड़ेगा। यही कारण है कि नगरीय क्षेत्रों में चिकित्सा की अधिक आवश्यकता पड़ती हैं। रोगियों का अनुपात भी अधिक है। गोमती जल के लिये नमूनों में घातक कीटनाशकों की उपस्थिति पायी गयी। मोहन मीकिन जो कि मदिरा उत्पादक कम्पनी है, इसके निकट गोमती में बीएचसी 3.13 से 35.88 ng/g तक पायी गयी जो सह्य सीमा से अधिक है। डीडीटी की मात्रा भी तालिका 2.9 में देखने से पता चलता है कि मोहन मीकिन में 1.74-52.88 ng/g तक उपस्थित है जबकि पेयजल और सिंचाई के जल में इनकी उपस्थिति नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार इंडो सल्फान भी पाया गया। लखनऊ नगरीय क्षेत्र में ही 11 कीटनाशक डिपो हैं जहाँ से नगर और ग्रामीण क्षेत्रों के लिये कीटनाशकों की पूर्ति की जाती है इसके साथ ही नगर में उर्वरकों व कीटनाशकों की पूर्ति के 15 केंद्र हैं जिनसे नगरीय क्षेत्र में सब्जी व फलों के उगाने के लिये उर्वरकों की पूर्ति की जाती है। सफाई कार्य, फलों, सब्जियों के उत्पादन अनाज भंडारण आदि में कीटनाशकों व खरपतवार नाशकों का प्रयोग होता है।

फल, खाद्यान्न, शाक-सब्जी में प्रयुक्त किये जाने वाले कीटनाशक वर्षाजल के साथ नालों-नदियों तक पहुँचते हैं। यह जल जीवन के लिये घातक बनते हैं। कीटनाशकों के प्रयोग से कीटों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक बढ़ जाती है और प्रत्येक बार अधिक मात्रा में प्रयोग करना पड़ता है। मेडिकल कॉलेज कानपुर की एक रिपोर्ट में बताया गया कि कानपुर नगर में डी.डी.टी का जमाव 10 पीपीएम पाया गया30 आईटीआरसी की रिपोर्ट में लखनऊ नगर के लोगों के लिये रक्त की परीक्षण रिपोर्ट में बताया गया की लोगों के रक्त में कीटनाशकों की मात्रा उपलब्ध है। एक भेंटवार्ता के दौरान आईटीआरसी के डॉ. सूर्य कुमार ने बताया कि माताओं के दूध के परीक्षण में भी कीटनाशक मिले जो नगरीय नागरिकों के स्वास्थ्य के लिये संकट बने कीटनाशकों के प्रभाव की ओर संकेत है। (परिशिष्ट- 11)

संयुक्त राज्य अमेरिका में समुद्री मछलियों व पक्षियों पर अध्ययन किया गया जिसमें पाया गया कि चिड़ियों में डी.डी.टी के जमाव का स्तर 26.4 पीपीएम हो गया। ये चिड़ियाँ समुद्री मछलियों को खाती थी, इन पक्षियों में अंडे देने की क्षमता कम हो गयी इनके मृत बच्चों में डी.डी.टी के 6.44 पीपीएम मात्रा पायी गयी बच्चों के उत्पादन में 70 प्रतिशत की कमी आयी खाद्य पदार्थों के परीक्षण में पाया गया कि 3 प्रतिशत नमूनों में निर्धारित स्तर से अधिक कीटनाशक पाये गए। कीटनाशकों का केवल सीधा प्रभाव ही नहीं पड़ता बल्कि अन्य प्रकार से भी धन जन को हानि पहुँचती है। कीटनाशकों का असावधानी से प्रयोग करने पर प्रतिवर्ष भारत में सैकड़ों लोग मर जाते हैं। ये कीटनाशक आत्महत्या का एक सस्ता सरल साधन बन गये हैं।

कीटनाशकों की तरह खरपतवार नाशक भी आजकल अधिक प्रयोग में आ गए हैं। इस समय 40 से अधिक प्रकार के खरपतवार नाशक प्रयोग में आ चुके हैं। इनके प्रयोग से मिट्टी को ह्यूमस प्रदान करने वाली घासें नष्ट हो जाती है। मृदा रक्षा के लिये इनके प्रयोग में सावधानी और संयम बरतने की आवश्यकता है।

स. मृदा प्रदूषण का निस्तारण एवं उपचार


मृदा प्रदूषण के विभिन्न स्रोत हैं जिनका अध्ययन पिछले भाग में किया जा चुका है। मृदा परीक्षण का प्रभाव भी बड़े व्यापक रूप में है। पिछड़े और कम जनसंख्या वाले राष्ट्र अब भी कुछ सीमा तक इसके प्रभाव से बचे हुए हैं। विकास और औद्योगिक प्रगति की दौड़ में यदि विवेकशील प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी तो मृदा प्रदूषण की समस्या लगातार द्रुत गति से बढ़ती जायेगी और समस्त भू-मंडल में प्रदूषण फैल जायेगा। यह अशंका निर्मूल नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में समस्त भूमि प्रदूषित हो जायेगी।

मृदा प्रदूषण की समस्या सुस्पष्ट और सुनिश्चित है। मृदा का विकृत और भयावह रूप हमें भले न दिखता हो, किंतु विषाक्तता पर संदेह नहीं रहा। रसायन उद्योगों के क्षेत्र, अतिशतय उर्वरक प्रयोग वाले क्षेत्र एक प्रदूषित भू-खंड बन चुके हैं इसी प्रकार नाभिकीय अपशिष्टों के निस्तारण स्थल, परीक्षण स्थल, नाभिकीय अस्त्रों के प्रयोग स्थल, सभी प्रदूषित भू-खंड बन चुके हैं। वर्तमान में इन मरीभूमि वाले क्षेत्रों को जीवित करने और इसके आगे बढ़ने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण की आवश्यकता है।

भूमि का सबसे बड़ा गुण क्षमाशीलता है। इसमें सभी को अपने में समाहित करने की शक्ति है। हमारे द्वारा सतत गंदगी फैलाए जाने पर भी एक प्रकृति प्रक्रम द्वारा सब नियंत्रित होता रहता है। ग्रामीण परिवेश में शौचालयों के अभाव में खुले में शौच जाना होता है, उस गंदगी को नियंत्रित करने में सुअरों का योगदान रहता है। शवों की गंदगी गिद्ध, कुत्ते, सियार तथा सूक्ष्म जीव समाप्त कर देते हैं। कचरा का भी बहुत सा भाग इसी प्रकार सड़ गल कर और जल कर मिट्टी में मिल जाता है। इस प्रकार प्रकृति एक सीमा तक स्वत: इस गंदगी को नियंत्रित करने में समर्थ है।

मिट्टी में अनेक प्रकार के जीवाणु और रोगाणु पाये जाते हैं। अनेक प्रकार की बीमारियाँ मिट्टी के प्रदूषण से जन्म लेती है। मिट्टी का यह भी गुण होता है कि जीवाणुओं को 15 से 280 दिन से अधिक नहीं बढ़ने देती। मिट्टी में बदबू व दुर्गंध को भी अवशोषित करने की क्षमता है। इसी कारण से भौम जल रोगाणुओं से रहित होता है। किंतु उसकी शक्ति क्षीण हो जाए तो यह गुण नष्ट हो जाता है और भू-गत जल भी प्रदूषित होगा। इस प्रकार मृदा प्रदूषण के प्रमुख कारणों में नगरीय अपशिष्ट, सीवर जल, प्लास्टिक, उर्वरक, कीटनाशक खरपतवार नाशक, औद्योगिक अपशिष्ट, खाद्यान्नों के अपशिष्ट, घरेलू अपशिष्ट कृषि जनित अपशिष्ट है।

नगरों में अपशिष्ट निस्तारण की समस्या अधिक रहती है। अपशिष्टों के निस्तारण के लिये अलग से नगर निगम, नगर महापालिकाओं का संगठन किया गया है इनके निस्तारण के लिये ऊँचा बजट बनाया जाता है। अपशिष्टों के निस्तारण के लिये समय-समय पर अनेक संगठनों ने सुझाव प्रस्तुत किये, किंतु आज की तेजी से बदलती परिस्थितियों, अनियोजित नगरीकरण औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि तथा उपभोक्तावाद ने अपशिष्ट निस्तारण की समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है। ‘आज हम वास्तव में प्रदूषण और कूड़े की जिंदगी में जी रहे हैं’ किंतु दूसरी ओर सम्भावनाएँ दृष्टि में आयी हैं और उन्होंने कहा कि आज का निस्तारित पदार्थ भी एक प्रकार का निवेश है क्योंकि ‘आज का निस्तारित पदार्थ कल के लिये कच्चा माल हो सकता है।’ ऐसा 1982 में Brown And Shaw - 198231 ने कहा था। एक निस्तारित पदार्थ जब अनुप्रयोजित स्थल में पहुँच जाता है। तभी वह प्रदूषण का कारण बनता है अन्यथा यह बहुत अधिक हानिकारक भी नहीं है और न प्रदूषक ही है। इसे आज कच्चे माल के रूप में ही देखना होगा और उचित विधि से व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। ऐसा करके ऊर्जा, धातु, लुग्दी कागज, रबड़ इत्यादि का उत्पादन किया जा सकता है। किंतु तकनीकि किसी समस्या का हल नहीं है। इस दिशा की समस्या में महानगरों में भूमि अभाव, निस्तारण स्थल का अभाव, बढ़ती मलिन बस्तियाँ, नगरीयकरण, रासायनिक और खतरनाक इकाईयों के द्वारा भी यह समस्या बढ़ती जाती है। इसके लिये स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकार दोनों को प्रेरणा की आवश्यकता है।

नीरी द्वारा अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण के सम्बन्ध में कुछ परामर्श दिये गये हैं। जिसको क्रमश: रखने का प्रयास किया गया है।

1. सभी प्रकार के निस्तारित पदार्थों का एकत्रीकरण किया जाए तो पारिस्थितिकी संतुलन में सुविधा होगी और प्रदूषण भी नहीं होगा। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि निस्तारित पदार्थ की मात्रा में ही कमी हो जो कि उपभोक्ता की जागरूकता से संभव हो सकेगा। ठोस निस्तारित पदार्थ एक प्रकार के प्रदूषक हैं। किसी भी देश के ठोस पदार्थ की मात्रा संस्कृति और रहन-सहन के स्तर से प्रभावित होती है। इनसे अनुप्रयोग और निस्तारण की सुविधा होगी।

2. कूड़ा पात्र सही रूप में सड़कों के किनारे जिनसे की आसानी से कचरा उठाया जा सके उचित आकार प्रकार में आवश्यकता के अनुसार स्थापित किए जाए। नगर की बढ़ती जनसंख्या के साथ इनकी संख्या और आकार में वृद्धि और विस्तार किया जाए।

3. कंपोस्ट विधि जो आगे चलकर जैव विधि में परिवर्तित हो जाती है इस विधि से भी प्रदूषण भार को कम किया जा सकता है।

4. निस्तारित जैव पदार्थ का एकत्रीकरण, सुअर या घरेलू पशुओं के उत्सर्जित पदार्थ जैव प्रोटीन उत्पादन में सहायक होंगे।

5. जैव उर्वरक से युक्त कंपोस्ट की खाद भूमि की उत्पादकता को बढ़ाती है। कृषि विज्ञान विवि बंगलुरु ने कई ऐसी केचुए की जातियों का पता लगाया जो विपरीत जलवायु में भी कूड़ा युक्त कंपोस्ट की खाद के सहारे जीवित रहते हैं बंगलुरु के नगरीय क्षेत्र में भी इस प्रकार के गड्ढे बनाए गये हैं।

6. Bhawalker’s Earthworm Institute Pune के केचुआ शोध संस्थान ने केचुआ की ऐसी प्रजाति को खोजा है। जो घरेलू नालियों से निकलने वाले पदार्थ पर जीवित रहते हैं। यह विष रहित ठोस एवं तरल पदार्थ का भोजन करते हैं। वास्तव में इस पद्धति का प्रयोग पौधों की भोजन प्रक्रिया में कंकाल का काम करेगी।31

7. घरेलू कचरे में विभिन्न प्रकार की धातुएँ प्लास्टिक कार्ड, बोर्ड, कागज तथा कपड़े के टुकड़े सम्मिलित होते हैं प्रत्येक नगर की जनसंख्या और प्रकृति के अनुसार इसमें अंतर आ जाता है। इस कचरे के उचित निस्तारण के लिये निम्नलिखित बिंदु महत्त्व के हैं :-

(i) इसे उद्योगों के र्इंधन के रूप में प्रयोग करना।
(ii) वाष्प उत्पन्न करने के लिये जलाया जाना।
(iii) पारम्परिक र्इंधन कोयले आदि की तरह जलाकर उपयोग करना।
(iv) उद्योगों में परिवर्धित र्इंधन के रूप में प्रयोग करना।

अपशिष्ट निस्तारण के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयासों की विस्तृत विवेचना भी प्रस्तुत की गयी है। जिससे नगरीय कचरे का निस्तारण किया जा सकेगा और उत्तम उचित प्रयोग हो सकेगा।

मिट्टी द्वारा पटाई : (गर्त आभरण)


ठोस अपशिष्ट को एकत्र कर प्रदूषण की समस्या से बचने के लिये नीचे दबा दिया जाता है यद्यपि यह विधि मिट्टी के लिये आरोग्य कर नहीं है इससे दुर्गंध आती है और जलस्रोत भी प्रदूषित होते हैं। यदि ऊपरी भाग में मिट्टी की परत भी बिछा दी जाय तो इससे भी जटिल कार्बनिक कचरे एरोविक बैक्टीरिया और फूफंदी मृदा को प्रदूषित करते हैं और जीवित रहते हैं। यही बैक्टीरिया जल और मिट्टी को प्रदूषित करते हैं। अत: इस विधि के उत्तम लाभ के लिये कचरा निस्तारण के आदर्श मानक निर्धारित किये गये हैं :-

1. गर्त आवासीय और व्यापारिक क्षेत्रों से कुछ दूरी पर गहराई में स्थापित किया जाना चाहिए।
2. कचरे को निर्धारित स्तर से अधिक ऊँचाई पर न रखा जाय और उस क्षेत्र को कम से कम तीन वर्ष तक उपयोग न किया जाए बल्कि खाली छोड़ दिया जाए।
3. गर्त को भू-गर्भ जलस्तर से ऊपर रखा जाए। इसका प्रभाव चारों ओर के पर्यावरण पर नहीं होना चाहिए।
4. गैसीय प्रभाव उत्पन्न करने वाले पदार्थों को गहराई में डाल दिया जाए।
5. कचरे के ऊपर 15 से 20 से.मी. मिट्टी की परत डाली जाए।
6. जलस्रोतों से गर्त की दूरी अधिक रखी जाए ताकि रासायनिक दुष्प्रभाव उत्पन्न न हो।

पुनर्चक्रण तथा पुनर्प्रयोग


यह विधि कचरा निस्तारण के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि वर्तमान में नगरीय क्षेत्र में भूमि समस्या और निस्तारण व्यय का मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा है। इस विधि के अंतर्गत शीघ्र जलने वाले पदार्थों को पृथक कर लिया जाता है। व्यापारिक और घरेलू कचरे का लगभग 70 प्रतिशत भाग शीघ्र ज्वलनशील होता है। ऐसा कचरा लगभग 65 गैलन ज्वलनशील तेल या 9 हजार घन फिट गैस के बराबर ज्वलनशीलता देता है। अत: कचरे से ज्वलनशील ठोस पदार्थों को और अन्य पदार्थों को पृथक कर लिया जाता है। पुनर्प्रयोग वाले पदार्थ जैसे कागज, सीसा, धातु, कार्ड बोर्ड और प्लास्टिक का अभी तक बहुत अच्छा उपयोग नहीं किया जा सका फिर भी सीसा को अलग कर इसे गलाया जाता है। जिससे कि नया सीसा तैयार करने से अधिक ऊर्जा का व्यय करना पड़ता है।

पॉली कचरा निस्तारण


प्लास्टिक निस्तारण की दो प्रमुख विधियाँ हैं। प्रथम में भूमि के नीचे दबाया जाता है। द्वितीय में जलाकर नष्ट किया जाता है किंतु इस दृष्टि से यह दोनों विधियाँ ठीक नहीं है क्योंकि यह स्वयं में प्रदूषण का कारण बनेगा और भूमि प्रदूषण के साथ वायु प्रदूषण का भी कारण बनेगा। इसलिये प्लास्टिक का सबसे उत्तम अनुप्रयोग पुनर्चक्रण है। अर्थात इसे उठाकर पिघलाकर इच्छानुरूप आकार दे दिया जाता है। भारत में इस समय प्लास्टिक के लगभग 10,000 पुनर्चक्रण संयंत्र काम कर रहे हैं। लखनऊ में इनकी संख्या 30 के लगभग है पुनर्चक्रण से प्राप्त माल घटिया किस्म का होता है क्योंकि प्लास्टिक के प्रदूषित होने से पूरा प्लास्टिक ही प्रदूषित हो जाता है। प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की समस्या से बचने के लिये भारतीय मानक ब्यूरो ने कुछ कठोर दिशा-निर्देश दिये हैं। भारत सरकार ने प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट टास्क फोर्स का गठन किया है जिसके नेतृत्व में प्लास्टिक पुनर्चक्रण पर प्रयोग चल रहा है। कनाडा के विश्व प्रसिद्ध प्लास्टिक विशेषज्ञ एएल उत्रा ने एक दौरे में इंदौर की सड़कों पर प्लास्टिक का बिखरा कचरा देखकर कहा ‘‘इस मूल्यवान पदार्थ को बनाने के लिये हम बहुत सारा पेट्रोलियम पदार्थ तथा बिजली खपाते हैं। आप लोगों को इसके उपयोग तथा उपयोग के उपरांत इसके संग्रहण पर ध्यान देना होगा अन्यथा आने वाले समय में आपको भयंकर पर्यावरण त्रासदी से गुजरना होगा।’’ महान वैज्ञानिक के शब्दों में प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की ओर संकेत किया गया है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण की स्थिति में अपनी गुणवत्ता को खोता जाता है। प्रथम बार में 8-14 प्रतिशत दूसरी बार 15-20 प्रतिशत और तीसरी बार 20-30 प्रतिशत तक गुणवत्ता घट जाती है। पॉलीकचरे से निपटने के लिये निम्न बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

1. अमेरिका की कोका कोला तथा पेप्सी कंपनी रसायनों के प्रयोग द्वारा प्लास्टिक की बोतलों को टरथैलिक अम्ल तथा एथिलीन ग्लाइकॉल में बदल रही है।

2. जापान में बेकार प्लास्टिक को तेल में बदलने के लिये पेट्रोल फैक्शन तकनीकी पर अनुसंधान किये जा रहे हैं। कोयले के प्रयोग के स्थान पर इसके प्रयोग पर शोध किया जा रहा है। होकाइंडो औद्योगिक संस्थान ने प्राकृतिक जियोलाइट से बेकार प्लास्टिक को भारी तेल में बदलने में सफलता अर्जित की तथा कैरोसिन व गैसोलीन का उत्पादन आरम्भ किया।

3. फ्यूजी रिसाइकिल, चाऊ कागाकू ने प्लास्टिक से 85 प्रतिशत नेप्था और 10 प्रतिशत रसोई गैस प्राप्त किया। इस प्रकार प्राप्त नेप्था को गैसोलीन, कैरोसीन तथा हल्के तेल में भी परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त हो चुकी है। विद्युत उत्पादन के लिये 121 से 162 लाख डॉलर की लागत से संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। इससे कोयले और खनिज तेल भंडार सुरक्षित रह सकेंगे।32

4. प्लास्टिक पुनर्चक्रण के लिये सबसे उत्तम होगा कि इसका संग्रह केंद्र खोला जाए संग्रह के लिये उचित पात्रों को प्रशिक्षित किया जाए। उनके परिश्रम का उचित मूल्य दिया जाए।

5. ‘‘सेंटर ट्यूबर कॉप रिसर्च सेंटर’’ तिरूवंतपुरम संस्थान के वैज्ञानिक एसके नंदा ने जैविक क्रिया से नष्ट होने वाली प्लास्टिक बनायी है ऐसी प्लास्टिक के उत्पादन की व्यवस्था की जाय।

चिकित्सालयों के अपशिष्ट का निस्तारण


मृदा प्रदूषण का सर्वप्रमुख स्रोत नगरीय पदार्थों के साथ चिकित्सालयों के निस्तारित पदार्थ हैं यह घातक और संक्रामक रोगों से युक्त होता है। इसमें बैक्टीरिया उत्पादन की अत्यधिक क्षमता होती है। लखनऊ नगर के मेडिकल कॉलेज बलरामपुर तथा संजय गांधी जैसे चिकित्सालयों में इन पदार्थों को व्यवस्थित करने के उपकरण लगाए गए हैं। जो लगाए भी गए हैं उनकी क्षमता और अपेक्षित गुणवत्ता भी ठीक नहीं है तथा अधिकांश समय खराब रहने से प्रदूषित पदार्थ खुले में ही छोड़ दिये जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक चिकित्सालय के प्रत्येक बिस्तर से 2 कि.ग्रा. निस्तारित पदार्थ बाहर आते हैं। अमेरिका जैसे देशों में 4 से 5 कि.ग्रा. प्रतिव्यक्ति है। अधिकांश चिकित्सालयों में इसे खुले में डालकर जला दिया जाता है जो वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं। कुछ प्लास्टिक और काँच बोतलों को कूड़ा चुनने वालों द्वारा उठाकर पुन: बेच दिया जाता है जो अपना दुष्प्रभाव फैलाता रहता है।

लखनऊ महानगर के चिकित्सालयों के कचरे के वैज्ञानिक निस्तारण के लिये बनी ‘हॉस्पिटल वेस्ट मैनेजमेंट कमेटी’ कचरा निस्तारण समस्या की दिशा में अभी सकारात्मक कार्य नहीं कर सकी। उ.प्र. वालेंटरी हेल्थ एसोसिएशन ने राजधानी के 30 अस्पतालों का सर्वेक्षण किया है। अपने सर्वेक्षण में पाया गया कि 80 प्रतिशत अस्पताल अपने कचरे को अस्पताल परिसर और आवासीय कॉलोनिया में खाली पड़े स्थानों में छोड़ देते हैं। सर्वेक्षण में यूपीवीएचए ने पाया कि संजय गांधी स्नातकोत्तर संस्थान प्रतिमाह 1500 कि.ग्रा., मेडिकल कॉलेज व बलरामपुर अस्पताल 3000 कि.ग्रा., सिविल अस्पताल 2400 कि.ग्रा., कैंट अस्पताल 1800 कि.ग्रा. प्राइवेट में नीरा नर्सिंग होम 750 कि.ग्रा. इंदिरा नर्सिंग होम 600 कि.ग्रा. जे. जे मेडिकल सेंटर 450 कि.ग्रा. कचरा प्रतिमाह निस्तारित करते हैं सर्वेक्षण रिपोर्ट में पाया गया कि केवल पीजीआई के पास ‘इन्सिनिरेटर’ है।33

‘हॉस्पिटल वेस्ट मैनेजमेंट कमेटी’ ने राजधानी में ‘इन्सिनिरेटर’ स्थापित करने की योजना के स्थान पर तय किया है कि माइक्रोवेव तकनीकी के माध्यम से अस्पताली कचरे का निस्तारण किया जाना अधिक उपयुक्त होगा इस तकनीकी में माइक्रोवेव टॉवर स्थापित किया जाता है। इस टॉवर से निकलने वाली किरणें कचरे को पूरी तरह नष्ट कर देती है। यह भी तय किया गया कि मानव अंगों आदि को ‘इन्सिनिरेटर’ से ही नष्ट किया जायेगा।

भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 1995 में यह नियम पारित किया कि प्रत्येक चिकित्सालय जिसमें 30 से अधिक बिस्तर हैं और माह में 1000 से अधिक लोगों को भर्ती किया जाता है। वह अपने उपकरणों के लिये व्यवस्था करेगा और अलग से अपने यहाँ सफाई कर्मियों की नियुक्ति करेगा। चिकित्सालयों के अपशिष्ट निस्तारण के अन्य कुछ प्रमुख प्रयास किये जाने आवश्यक है।

1. नगर में लगाए जाने वाले इंसिनिरेटर की क्षमता बहुत कम है। 2.5 से 5.00 कि.ग्रा. कचरा प्रति 4 घंटे की अवधि में है। इन्सिनिरेटर में 8500C पर कचरे को जलाया जाता है इस स्थिति में इसमें विषैली गैसें निकलती हैं जिनमें क्रोमियम, मरकरी, कार्बनडाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन और सल्फर डाएऑक्साइड जैसी गैसें हैं और जहाँ भी इसकी राख फेकी जाती है वह भूमि भी विषैली हो जाती है। इस दशा में सुधार के लिये उपकरण तकनीक में सुधार तथा सुनिश्चित पर्यावरण रक्षक कानून बनाना आवश्यक है।

2. चिकित्सालयों में इन्सिनिरेटर लगाया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए जिसमें कि अपशिष्ट को उच्च तापमान 7000C में रखकर रोगाणु रहित बना दिया जाता है। ये गैसों को बाहर नहीं निकलने देते हैं। पुनर्प्रयोग के लिये कचरे के पृथक करण की व्यवस्था की जानी चाहिए।

3. अपशिष्ट निस्तारण नगर से दूर किया जाय तथा संयंत्रों की स्थापना की जाए।

4. नगरीय अपशिष्ट के पुनर्चक्रण के लिये भागीदारी निभाने वाले समुदायों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कुछ बड़े नगरों मुंबई तथा दिल्ली में तिपहिया वाहन लेकर कचरा बटोरा जाता है जो प्रत्येक बार में 1.5 से 2 कुंतल तक कचरा बटोरते हैं। दिल्ली की संस्था ‘सृष्टि’ ने कचरे बटोरने के लिये शिक्षित करने का कार्य प्रारंभ किया परिवार की शिक्षा (CEE) केंद्रीय पर्यावरण शिक्षा ने 13-21 वर्ष आयु के बच्चों का गर्मियों में 5 सप्ताह का प्रशिक्षण कार्यक्रम बनाया जिनका प्रशिक्षण लाभकारी सिद्ध हुआ।34 इसी प्रकार लखनऊ नगर में वार्ड स्तर पर सफाई कार्यक्रम आयोजित किये जा सकते हैं।

5. भारतीय राष्ट्रीय कला एवं संस्कृति विभाग ने 15 जुलाई 95 से 14 नवंबर 95 तक एक सफाई अभियान चलाया जिसमें विभिन्न सहयोगी संस्थाओं को सम्मिलित किया गया। इसका उद्देश्य लोगों को कचरे की जानकारी देना था उसकी व्यवस्था विधि बताना था। इसका संदेश कई बड़े नगरों को दिया गया। लखनऊ में ‘मुस्कान ज्योति’ द्वारा यह कार्यक्रम कराया गया इसमें तिपहिया वाहनों से जगह-जगह का कचरा उठाया गया। अत: अनियोजित कचरे के निस्तारण और नगरीय स्वच्छ पर्यावरण के लिये इन विधियों को अपनाने की आवश्यकता है।35

कंपोस्ट खाद बनाना


लखनऊ की गैर सरकारी संस्था, ‘एक्जनोरा इनावेटर्स क्लब’ जिसका संचालन चेन्नई स्थित मुख्यालय से किया जाता है लखनऊ इकाई की अध्यक्षा प्रभा चतुर्वेदी के अनुसार लोगों को घरेलू कचरे के प्रयोग का प्रशिक्षण दिया जाने लगा है। ‘एक्जनोरा’ के संस्थापक एमबी निर्मल इंडियन ओवरसीज बैंक की शाखा हांगकांग में कार्यरत है। फिर भी उन्हें गैर सरकारी संस्था के कार्य के लिये पूर्ण अवकाश है। इस संस्था ने पेपर मिल कॉलोनी में कूड़ा, चायपत्ती, प्लास्टिक, फल, सब्जियों के छिलकों का खाद्य सामग्री के बचे हुए अंश के अन्य घरेलू उपयोग बताये। उन्होंने बताया कि इसके लिये 4 फीट चौड़ी भूमि या प्लास्टिक कंटेनर अथवा टब की मिट्टी में दो फुट गहरा गड्ढा तैयार हो जाता है इसमें कुछ केचुए डाल दिए जाते हैं। इसके ऊपर 40 दिन बाद यह खाद बनाना प्रारम्भ हो जाता है। इस दौरान केचुओं की वृद्धि होती है जो खाद बनाने का कार्य करते हैं। इस खाद बनाने की प्रक्रिया को ‘वर्मीटेक’ कहते हैं।

प्लास्टिक, कागज, काँच और टिन के टुकड़ों के बारे में बताया कि इन्हें एकत्र कर बेच दिया जाना चाहिए जिससे अधिक लाभ होगा। उनका कहना है कि लखनऊ में 1600 टन कूड़ा प्रतिदिन निकलता है और इसका सही निस्तारण तभी संभव है जब नागरिक भी इस ओर ध्यान दें।

अपशिष्ट पदार्थों से विद्युत उत्पादन


नगरीय अपशिष्ट का सर्वोत्तम उपयोग विद्युत उत्पादन में है। चेन्नई की फर्म इन्केम इंजीनियर्स प्रायवेट लिमिटेड इस दिशा में सफलता प्राप्त कर रही है। इसी के सहयोग से लखनऊ में 300 मि. टन कूड़े से चार मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। विद्युत 2.25 रुपये प्रति यूनिट की दर से विद्युत बोर्ड को बेचा जायेगा और प्राप्त आय से निगम अपनी योजनाओं का विस्तार करेगा। इससे कचरे का उपयोग होगा, निस्तारण की समस्या कम होगी, साथ में खाद का उत्पादन भी होगा। इसमें 300 मीट्रिक टन कूड़े की खपत होगी तथा प्रतिदिन 350 मीट्रिक टन कूड़ा उपलब्ध कराया जायेगा 50 मीट्रिक टन कूड़ा प्रतिदिन बेचकर अवकाश के दिन प्रयोग किया जायेगा। विद्युत उत्पादन संयंत्र से निकलने वाले जल को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानक के अनुसार शोधित कर बाहर बहाया जायेगा। यह फार्म हरदोई रोड में नगर से 10 किमी दूरी में 5 एकड़ भूमि में प्रारंभ किया जायेगा।

नगर निगम के केंद्रीय कार्यशाला के प्रभारी दीपक यादव ने बताया कि 25 लाख की आबादी वाले नगर के घोषित 505 कूड़ा घर और 1000 से अधिक अघोषित कूड़ा घरों से निकलने वाले कूड़े को ठिकाने लगाने की बड़ी समस्या है निस्तारण के लिये पुरनिया और मोतीझील निर्धारित है। गाड़ियों की कमी और सही जगह न होने के कारण कूड़ा उठ नहीं पाता दूसरे निस्तारण की समस्या बनी रहती है। कूड़े कचरे से विद्युत उत्पादन प्रारंभ होने से 25 प्रतिशत कूड़ा विद्युत उत्पादन में प्रयुक्त होगा इससे निस्तारण में काफी समस्या स्वत: कम हो जायेगी। इसमें अनुमान है कि 30 करोड़ रुपये की लागत आयेगी और 23 घंटे तक विद्युत उत्पादन किया जायेगा। अगले आने वाले समय में इस प्रकार के अन्य विद्युत उत्पादक केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए।

‘नेडा’ के निदेशक आरसी द्विवेदी ने बताया कि नगरीय अपशिष्ट में प्रचुर मात्रा में कार्बनिक रासायनिक अपशिष्ट होता है जिससे विद्युत का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है। ‘नेडा’ द्वारा वैकल्पिक ऊर्जा उत्पादन की तकनीकी विकसित की गई है। श्री द्विवेदी द्वारा जानकारी दी गई कि इस पर शीघ्र प्रयास होगा तथा इससे विद्युत पेयजल और कचरे दोनों की समस्याओं का समाधान हो सकेगा क्योंकि पेयजल की समस्या भी विद्युत की कमी से जुड़ी है।

विद्युत उत्पादन के लिये अपशिष्ट से ठोस अज्वलन शील पदार्थ तथा लोहा आदि धातुओं को काँच एवं चीनी मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों को अलग कर लिया जाता है। लोहे आदि को चुंबक लगी मशीनों द्वारा अलग कर लिया जाता है। इसके बाद अपशिष्टों को मशीनों द्वारा दबाकर बेलनाकार रूप में बांध लिया जाता है। तद्पश्चात विद्युत संयंत्र में ले जाकर सर्वप्रथम शैफ्ट मशीन में काटा जाता है। इसके बाद इसे ज्वलन शील भट्टी में ले जाते हैं। जहाँ वह जलता है। 1000 डिग्री से. ताप बढ़ाने के लिये भट्टी में हवा प्रवेश करायी जाती है। भट्टी में लगा हुआ बायलर 10 कि.ग्रा. प्रतिवर्ग से.मी. दाब पर कार्य करता है। एक वायलर की क्षमता 100 टन वाष्प प्रतिघंटा होती है। वायलर की वाष्प टारबाइन को संचालित करती है। टारबाइन से जुड़े हुए जनरेटर से विद्युत उत्पादन होता है। एक जनरेटर 35 मेगावाट विद्युत उत्पन्न करता है। एक विद्युत गृह में कई टरबाइन और जनरेटर लगाकर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।

सीवर जल का उपचार


मृदा प्रदूषण से बचने के लिये सीवर तथा नालों के जल को भी उपचारित करने की आवश्यकता होती है। इसके उपचार के लिये विभिन्न प्रविधियाँ प्रयोग की जा सकती है यहाँ पर महत्त्वपूर्ण किंतु साधारण विधि का उल्लेख किया गया है -

सीवर से प्रथम चरण में तेल और ग्रीस जैसे पदार्थों को अलग किया जाता है। यह तलछट में जम जाते हैं। इसके दोबारा उपचारित करने पर कार्बनिक और जैविक क्रियाओं के बैक्टीरिया को अपघटित किया जाता है। इसके बाद बैक्टीरिया आदि को रिसाव विधि से अलग किया जाता है। इसमें वृत्ताकार या त्रिभुजाकार क्यारियाँ बनायी जाती है जो एक मीटर से 3 मीटर तक गहरी होती है। इसमें पीवीसी कोयला, सिंथेटिक के टुकड़े 40-150 मिमी तक बिछा देते हैं इसके ऊपर फौवारों द्वारा जल चक्रवत घूमते हुए छोड़ा जाता है। इसमें ध्यान रखा जाता है कि वायु का प्रवेश क्यारी के तल तक बना रहे। इस प्रकार जल की कार्बनिक अशुद्धता अवशोषित कर ली जाती है। यह जल काफी हद तक शुद्ध हो जाता है। इस विधि से औद्योगिक निस्तारित जल को भी उपचारित किया जा सकता है जैसे डेरी डिस्टलरी, मुर्गी फार्म, कागज या दवा बनाने की फैक्टरियों के जल को शुद्ध कर लिया जाता है।

इसमें फिल्टर की सतह पर बैक्टीरिया एरोविक सूक्ष्म कार्बनिक तत्वों की परत जम जाती है जो सीवेज जल में घुले होते हैं। कार्बनिक पदार्थों की अशुद्धियाँ संयंत्र की खुरदरी परत पर जम जाती है तथा पुन: ऑक्सीकरण किया जाता है। रिसाव छनन विधि उपकरण के टैंक के ऊपर तल छट वाले कणों को जल से अलग करने के लिये करते हैं और पुन: इस तलछट को अन्यत्र पम्प कर दिया जाता है। इस फिल्टर की क्षमता, प्रयोग किए गए कण, तापमान, पीएच मान, फिल्टर की गहराई और वायु के संचरण की मात्रा पर निर्भर करती हैं। इस प्रकार यह विधि सीवेज जल, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के जल के शुद्धीकरण की सरल विधि है जिसे उपयोग में लाया जा सकता है।36 सीवेज जल का अधिकतम उपयोग कृषि कार्यों में किया जाता है इसके उपचार के लिये उचित उपचारण पद्धति की संस्तुति की गयी है औद्योगिक तथा नगरीय निस्तारित जल पुनर्चक्रण में भी हानिकारक होता है।37

मानव का विकास उसके द्वारा निर्मित रासायनिक पदार्थों एवं ऊर्जा के उत्पादन पर निर्भर करता है यह लाभ तत्काल और अधिक मात्रा में होता है। दूसरी ओर इसका विपरीत प्रभाव भी होता है जो मनुष्य के संसाधनों और परिस्थितीय सहयोगियों पर भी होता है। किंतु इनका प्रभाव तत्काल नहीं देखने को मिलता है। यह रसायन बहुत घातक सिद्ध हो रहे हैं। आज वैज्ञानिक बिना किसी विनाश के विकास प्राप्त करना चाहते हैं।38

सक्रिय तल छट विधि


जैव वैज्ञानिक ऑक्सीकरण की जाने वाली विधि को घुलनशील कोलाइट, ठोस पदार्थ तथा कार्बनिक पदार्थों को पृथक करने के लिये प्रयोग करते हैं। इस प्रक्रिया में सीवेज का उत्सर्जित जल तथा औद्योगिक इकाइयों का प्रदूषित जल एक वायुकरण विधि द्वारा शुद्ध किया जाता है। इसमें सूक्ष्म कण लगे होते हैं जो हवा में व्याप्त बैक्टीरिया तथा उत्सर्जित पदार्थ में उपस्थित कार्बन डाइआक्साइड के प्रभाव को कम कर देते हैं। इसी प्रकार कुछ समूहगत पदार्थ को समूहगत बैक्टीरिया अवशोषित कर लेते हैं। बैक्टीरिया का यह समूह स्वत: उत्पन्न होता है और झुंड के रूप में लंबित पड़ा रहता है। इसे सामान्य तथा क्रियाशील तलछट के रूप में जाना जाता है। तलछट के एक भाग को पुन: इसी टंकी में चक्रित किया जाता है। ताकि यह सूक्ष्म जैविकी प्रदूषण को प्रभाव प्रदान कर सके, अतिरिक्त तलछट एक अन्य पाचक द्वारा पचा लिया जाता है। इस प्रकार सीवेज के जल का वायवीयकरण करने में 6 से 24 घंटे का समय लग जाता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जो इस सक्रिय तलछट की क्षमता को प्रभावित करता है, वह है इसका पीएच मान, तापमान ऑक्सीकरण और अपचयन की ठोस क्षमता। इसके लिये वांछित तापमान 9.5 से 9 तक होना चाहिए कम तापमान, इसकी सक्रियता को कम कर देती है। अधिक तापमान सक्रियता को बढ़ा देता है। क्योंकि तापमान बढ़ने से उपभोग की मात्रा भी बढ़ जाती है।

अच्छे और सक्रिय तलछट के लिये यह आवश्यक है कि इसमें सापेक्षित रूप से अधिक संख्या वाले स्वतंत्र रूप से तैरते हुए सीलियेट की मात्रा अधिक होती है क्योंकि इस प्रकार के असंख्या रूप से बिखरे हुए असंख्य बैक्टीरिया इसकी गुणता को घटा देते हैं। इस प्रकार की विधि का प्रयोग खाद्य प्रसंस्करण, चीनी उद्योग वस्त्र उद्योग, एंटीवायोटिकों का उत्पादन करने वाले उद्योगों में करते हैं।

इसमें उपकरण जिसमें कि तलछट प्राप्त किया जाता है एरोबिक बैक्टीरिया के पाचन विधि के अनुसार कार्य करते हैं। जिससे इसके तलछट को 3500C और 7 से 8 पीएच मान पर 30 दिनों तक मीथेन कार्बन डाइऑक्साइड और कुछ अमोनिया इत्यादि से मुक्त किया जाता है। इसमें उत्पन्न बैक्टीरिया जटिल कार्बनिक योगिकों, निम्न अणु भार वाले कार्बनिक अम्लों और अल्कोहल को बदल देते हैं। इस विधि के प्रयोग से -

1. उत्सर्जित पदार्थों के आयतन में 65 प्रतिशत की कमी आ जाती है।
2. इसमें सुपाचित तलछट उर्वरक के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। उर्वरकों के रूप में इनका प्रयोग सुरक्षित है।
3. इसके पाचक टैंक से प्राप्त गैस की कैलोरिफिक भैल्यू इतनी अधिक होती है कि इसमें पाचक टैंकों को गरम करने के लिये र्इंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है।
4. यह प्रक्रिया एक मंद प्रक्रिया है किंतु यह छोटी मात्रा के उत्सर्जित पदार्थ जिसमें की ऑक्सीकरण योग्य घुलनशील कार्बनिक ठोस पदार्थों को अलग कर दिया जाता है।

डाइजेस्टर उपलब्ध जल में जल की मात्रा 90 से 93 प्रतिशत तक होती है। जिसे छनन दबाव या निर्वात छनन अथवा सुखाने वाली विधि से अलग किया जाता है। इस प्रकार छनित तलछट को क्लोरोनीकरण के बाद अंतिम निस्तारण हेतु आगे भेजा जाता है। जहाँ इसका अंतिम निस्तारण निम्न स्तरीय उर्वरक के रूप में किया जाता है। या सागर में प्रवाहित कर दिया जाता है।

1. इसका प्रयोग मीथेन गैस प्राप्त करने में किया जाता है। और विद्युत उत्पादन भी किया जाता है।
2. इसमें जल में लंबित ठोस और सूक्ष्मकण पदार्थ बालू जैसे छन्नियों से अलग कर दिये जाते हैं।
3. बैक्टीरिया को एक निर्धारित और धीमी गति से लंबित ठोस पदार्थ से अलग कर दिया जाता है।
4. उत्सर्जित जल में खाद्य प्रसंस्करण उर्वरक उद्योग, चमड़ा उद्योग, वस्त्र उद्योग से उत्सर्जित जल में अकार्बनिक ठोस घुले होते हैं जिनको अलग करना एक समस्या होती है।
5. इस विधि में वाष्पीकरण आयन परिवर्तन इत्यादि विधियाँ प्रयोग की जाती है।
6. इसमें सक्रिय कार्बनिक का अवशोषण कार्बनिक प्रदूषित पदार्थों को समाप्त करने के लिये बहुत ही लाभकारी है। उत्सर्जित जल की समस्या को हल करने के लिये विभिन्न कार्यशील तत्वों को प्रयोग करते हैं जो आपस में मिलकर कचरा प्रबंधक तंत्र कहलाता है। इसको स्टोरेज के स्थानों में प्रयोग किया जाता है यह आशावादी और सूक्ष्म आर्थिक हल प्रस्तुत करता है ताकि प्रयोग कर्ता इसका प्रयोग कर लाभान्वित हो सके।39

नगरीय निस्तारित पदार्थों का उठाना


लखनऊ में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 650 ग्राम या इससे अधिक अपशिष्ट पदार्थों का निस्तारण किया जाता है। इसके अतिरिक्त अखबार, बोतल, टिन, प्लास्टिक के डिब्बे इत्यादि भी कचरे की श्रेणी में आते हैं। इनको फेंकने के बजाय कबाड़ी के हाथों बेच दिये जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार 20 से 22 प्रतिशत ही कूड़े का निस्तारण हो पाता है। आज बहुत से विश्वविद्यालय और सरकारें भी कूड़ा बटोरने वालों के प्रति सहानुभूति रखती है क्योंकि इनके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से कूड़े का निस्तारण किया जाता है। दूसरी ओर इनको जीने का सहारा मिलता है। कृषि विज्ञान केंद्र और कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय बंगलुरु ने कूड़ा बटोरने वालों को प्रशिक्षण एवं पारिश्रमिक दिया। कचरे के विभिन्न खनिज तथा उपयोगी पदार्थों की मात्रा 31 से 67 प्रतिशत, कागज 0.25 से 8.75 प्रतिशत काँच 0.07 से 1.0 प्रतिशत, प्लास्टिक 0.15 से 0.7 प्रतिशत और कपड़े की 0.30 से 7.3 प्रतिशत मात्रा रहती है। अत: इनका एकत्रीकरण और पुनर्चक्रण द्वारा उत्तम प्रयोग किया जा सकता है।

लखनऊ विश्वविद्यालय में हुए पर्यावरण संगोष्ठी में बताया गया कि लखनऊ में नगरीय कचरे में उपयोगी पदार्थ पाये जाते हैं। जिसके पुनर्चक्रण से 1.66 प्रतिशत पेपर, 0.20 प्रतिशत धातु 60 प्रतिशत सीसा, 2.19 प्रतिशत कपड़ों की चीथड़े, 4.09 प्रतिशत प्लास्टिक, 18 प्रतिशत हड्डी 21.56 प्रतिशत कोयला 7.8 प्रतिशत मिट्टी प्राप्त होगी। प्रति मी. टन में 208 रुपये के व्यय का अनुमान है तथा इससे 740 रुपये प्राप्त हो सकेंगे।

उपर्युक्त आंकड़ों के आधार पर यदि लखनऊ नगर के वर्तमान में उठाए जाने वाले 1600 टन प्रतिदिन कचरे का पुनर्चक्रणीकरण किया जाय तो नगर निगम को पर्याप्त आय होगी।

सड़क निर्माण में नगरीय अपशिष्ट का प्रयोग


पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा प्रायोजित परियोजना के अंतर्गत नगरीय अपशिष्ट की अभियांत्रिकी विशिष्टताओं के सुधार के लिये चूना, सीमेंट और उड़न राख का परीक्षण किया गया। परिणाम आया कि नगरीय अपशिष्ट+मृदा+सीमेंट मिश्रण 50:45:5 के अनुपात में तथा नगरीय अपशिष्ट+उड़न राख+चूना मिश्रण 70:22:8 के अनुपात में उप आधारों में प्रयोग के लिये भारतीय सड़क कांग्रेस (आईआरसी) भू-तल परिवहन मंत्रालय के माप दंड के अनुसार संतोष जनक है। नगरीय अपशिष्ट और मृदा मिश्रण 50:50 तटबंधों के प्रयोग के लिये भू-तल परिवहन मंत्रालय (एमओएसटी) भारतीय सड़क कांग्रेस (आईआरसी) के अनुसार मापदंड पूरा करते हैं।40

लखनऊ नगर में गोमती बांध का निर्माण आगे बढ़ाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। क्योंकि अगस्त-सितंबर, 1998 को गोमती जल गोमती नगर के कुछ क्षेत्रों में फैल गया। इस जल भराव की समस्या से बचने के लिये गोमती नगर से आगे 8 कि.मी. तक तटबंध बनाने की आवश्यकता है। इस तटबंध निर्माण में नगर अपशिष्ट का प्रयोग उचित है इसी प्रकार नगर के परित: सम्पर्क मार्ग निर्माणाधीन हैं। नगर में कई रेल उपरिगामी सेतु निर्माणाधीन है जिनमें नगरीय अपशिष्ट को मिट्टी मिश्रण के साथ तथा राख और चूने के मिश्रण के साथ प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह नगरीय पर्यावरण की रक्षा होगी और निर्माण कार्यों में सहयोग मिल सकेगा। लखनऊ महानगर में मृदा प्रदूषण के विविध आयामों का अध्ययन करने के उपरांत पर्यावरण के अति महत्त्वपूर्ण एवं मूल्यवान किंतु सीमित घटक जल के प्रदूषण की स्थिति का आकलन करना अतिआवाश्यक है।

संदर्भ (REFERENCES)
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21. Ibidem, Reprinted form current science.
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27. दैनिक जागरण लखनऊ, 13 अप्रैल 2000
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31. Ibidem, National seientific conference 27-28 Feb., 1998
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38. Ibidem, Mathur P.K., 1996
39. वार्षिक प्रतिवेदन केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान 1994-1995 पेज 15.

 

लखनऊ महानगर एक पर्यावरण प्रदूषण अध्ययन (Lucknow Metropolis : A Study in Environmental Pollution) - 2001


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पर्यावरण प्रदूषण की संकल्पना और लखनऊ (Lucknow Metro-City: Concept of Environmental Pollution)

2

लखनऊ महानगर: मृदा प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Soil Pollution)

3

लखनऊ महानगर: जल प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Water Pollution)

4

लखनऊ महानगर: वायु प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Air Pollution)

5

लखनऊ महानगर: ध्वनि प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Noise Pollution)

6

लखनऊ महानगर: सामाजिक प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Social Pollution)

7

लखनऊ महानगर: प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण प्रबंध (Lucknow Metro-City: Pollution Control and Environmental Management)

 

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