Lucknow Metro-City: Water Pollution
जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है, जो जैवमंडल में विद्यमान संसाधनों में सर्वाधिक मुल्यवान है। जल मानव की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ भौतिक उन्नति में भी सहायक है। विद्युत उत्पादन, जल परिवहन, फसलों की सिंचाई, उद्योग धंधे, सफाई, सीवेज आदि के निपटान के लिये जल की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता होती है।
जल प्रदूषण के मुल्यांकन का आधार जल की गुणवत्ता में परिवर्तन है। जब जल का पीएच मान 7 से 8.5 पाया जाता है तो उसे शुद्ध जल कहा जाता है लेकिन जब पीएच मान 6.5 से कम या 9.2 से अधिक हो जाता है तो उसे प्रदूषित जल कहा जाता है। जल में निहित अपद्रव्यों की मात्रा से यह मान प्राप्ति किया जाता है। निर्धारित सीमा से अधिक या कम मानवाले जल को हानिकारक कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल के अपद्रव्यों की सीमा निर्धारित करके जल की गुणवत्ता को जानने का एक औसत मापदंड प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार ‘‘जल की भौतिक रासायनिक तथा जैवीय विशेषताओं में हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तन को जल प्रदूषण कहा जाता है।’’
विश्व स्वास्थ्य संगठन1 के अनुसार ‘‘प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाहरी पदार्थों के कारण जल दूषित हो जाता है, तथा वह विषाक्तता एवं सामान्य स्तर से कम आॅक्सीजन के कारण जीवों के लिये हानिकारक हो जाता है तथा संक्रामक रोगों को फैलाने में सहायक होता है।’’
वाइवियर, पी.2 (Vivier. P.) के अनुसार ‘‘प्राकृतिक या मानव जनित कारणों से जल की गुणवत्ता में ऐसे परिवर्तनों को प्रदूषण कहा जाता है जो आहार, मानव एवं जानवरों के स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, मत्स्यन या आमोद-प्रमोद के लिये अनुपयुक्त या खतरनाक होते हैं।’’
साउथविक, सीएस3 (Southwick, C.S.) के अनुसार ‘‘मानव-क्रियाकलापों या प्राकृतिक जलीय प्रक्रियाओं से जल के रासायनिक भौतिक तथा जैविक गुणों में परिवर्तन को जल प्रदूषण कहते हैं।’’
गिलिपिन4 (Gilpin) के अनुसार ‘‘जल के रासायनिक भौतिक तथा जैविक गुणों में मुख्य रूप से मानव क्रियाओं द्वारा उत्पन्न गिरावट जल प्रदूषण कहलाती है।’’
सं. रा. अमेरिका की राष्ट्रपति की विज्ञान सलाहकार समिति, वाशिंगटन5 ने जल प्रदूषण की परिभाषा इस प्रकार की है। ‘‘जल प्रदूषण जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में परिवर्तन है, जो मानव तथा जल जीवन में हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।’’
प्रदूषण के पश्चात जल के रंग, गंध, प्रकाशभेद्यता, भौतिक गुणों, स्वाद और तापमान में परिवर्तन आ जाता है। यह परिवर्तन विविध भौतिक, रासायनिक, मानवीय कारणों से आता है और जल अकार्बनिक, साइनाइड, अमोनिया, मरकरी, कैडमियम, सीसा, फेनोल, कीटनाशक तथा अन्य पदार्थों के मिश्रण से मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो जाता है। आज जल की अशुद्धता की समस्या अधिक बढ़ गयी है। कुछ जलस्रोतों में तो मानव मल-मूत्र सीधे-सीधे मिला रहता है।
लगभग 20 लाख लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित जल पीने से आंतरिक बीमारियों, टाइफाइड, पीलिया आदि से रोगग्रस्त हो जाते हैं। पेयजल के स्रोतों के दूषित जल को शुद्ध करने की सुविधा न होने से अनेकों ग्रामीण नागरिक नदी जल के प्रदूषित जल का सेवन करते हैं। भारतीय महानगरों तथा नगरों में प्रतिवर्ष जल जनित प्रदूषण से रोगों का प्रकोप बढ़ता रहता है। नगरीय जनसंख्या की वृद्धि से बड़े नगरों की जल प्रदूषण की समस्या बड़ी तेजी से बढ़ी है और भविष्य में यह समस्या गंभीर रूप लेकर हमारे लिये चुनौती प्रस्तुत करेगी। इतना ही नहीं विश्व पर्यावरण संगोष्ठी में भारत की 80 प्रतिशत जल संपदा को प्रदूषित बताया गया जो इस दिशा में अत्यंत चिंता का विषय बन गया है। ग्लोब में विद्यमान सम्पूर्ण जलराशि 1386 मिलियन किमी है। यदि ग्लोब को समतल मानकर सम्पूर्ण जलराशि को इस प्रकार फैला दिया जाए तो यह 2718 मीटर गहरी जल की परत से ढक जाएगा। महासागरों में कुल जलराशि का 96.5 प्रतिशत तथा महाद्वीपों में केवल 3.5 प्रतिशत जल पाया जाता है जो क्रमश: 1338 तथा 48 मिलियन किमी है।6
हमारे दैनिक जीवन के अनेकानेक कार्यों यथा- घरेलू, औद्योगिक, तापविद्युत उत्पादन, पशुधन सवंर्धन, सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन और परमाणु यंत्रों की ऊष्मा को शामिल करने की आवश्यकताओं के लिये प्रयोग किया जाता है। सामान्यतया नगरीय क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी अपने घरेलू कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है। पीने के लिये 2.3 लीटर, खाना पकाने में 4.5 लीटर, धार्मिक शुद्धि में 18.5 लीटर, बर्तन साफ करने में 13.6 लीटर, कपड़े साफ करने तथा स्नान करने में 27.3 लीटर पानी प्रयोग किया जाता है।7
नदी जल प्रदूषण से सम्पूर्ण धरातलीय जल प्रदूषित हो गया है और आज अनेक देशों में पेयजल की समस्या उठ खड़ी हुई है और भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया है जिससे समस्या और अधिक गहराती जा रही है। भारतीय नगर अपना अपशिष्ट पदार्थ सीधे नदियों में प्रवाहित करते हैं। गंगा, गोमती, यमुना, महानदी, हुगली आदि नदियाँ सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। आज कुछ योजनाएँ नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिये बनायी गयी हैं और उन्हें कार्यान्वित भी किया गया है। किंतु इसका प्रतिफल संतोष जनक नहीं है।
अ. लखनऊ महानगर : जलापूर्ति
लखनऊ नगर में गोमती नदी का जल पेयजल के रूप में प्रयुक्त होता है। नगर की जलापूर्ति का यह प्रधान स्रोत है। महानगर संकुल में समय-समय पर बढ़ती जनसंख्या को ध्यान में रखकर नगर पेय जलापूर्ति सुनिश्चित की जाती रही है।
लखनऊ नगर महापालिका की स्थापना सन 1884 में की गयी और इसके पश्चात 21 जुलाई 1894 को जल संस्थान की स्थापना की गयी। स्थापना के समय इसकी जलापूर्ति क्षमता 6.75 लाख गैलन प्रतिदिन थी। इस नगरीय जलापूर्ति का स्रोत गोमती नदी रही। जलापूर्ति 12 हार्स पावर के वाष्प चलित दो इंजनों द्वारा गोमती नदी के गऊघाट से जल लेकर 5 किमी दूर नगर में स्थित ऐशबाग जल संस्थान में भेजने के पश्चात की गयी।
प्रथम गृह जलापूर्ति 1 जनवरी 1897 से प्रारम्भ हुई थी। स्वच्छ जलापूर्ति की प्रथम व्यवस्था सन 1904 में पूरी हुई। सन 1911 में जल भंडारण की उपयुक्त व्यवस्था को सुदृढ़ किया गया। 1923, 1933-34, 1935-36 और 1946-47 में इस दौरान जल आपूर्ति का विस्तार किया गया। नई पाइप लाइनें बिछाई गयी तथा जल संरक्षण और स्वच्छ जलापूर्ति का विस्तार किया गया। सन 1955-56 में नगर के लिये अधिक जल की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इसको एक तकनीकी विभाग के अंतर्गत रखा गया जिसमें केंद्रीय सहायता से नगर जलापूर्ति की योजना बनायी गयी और लागू की गयी।8
इस समयावधि में जलापूर्ति का 95 प्रतिशत गोमती नदी से रहा। केवल 5 प्रतिशत नलकूपों से जलापूर्ति की जाती रही। ग्रीष्म काल में नदी के जल में कमी को ध्यान में रखकर नदी की गहराई बढ़ाकर अतिरिक्त पाइप लाइनें बिछाई गयी। 1962 में पूरे समय काम करने वाले नलकूप लगाए गए तथा जल भंडारण 2.5 लाख गैलन करके 7 लाख जनसंख्या के लिये व्यवस्था की गयी। परिशिष्ट-12 में लखनऊ नगर में जलापूर्ति विकास के प्रारम्भिक चरण को प्रदर्शित किया गया है।
नगर के लिये शुद्ध जल की पूर्ति के लिये जल संस्थान में जल संरक्षण एवं भंडारण हौज बनाए गए हैं। ये हौज जल संरक्षण का कार्य करते हैं तथा इनके जल को उपचारित किया जाता है। कुछ जल अशुद्धियाँ तली में बैठ जाती है तथा कुछ को दूर करने के लिये जल को फोरिक एलम, सोडियम, एलुमीनिएट, ब्लीचिंग पाउडर, कॉपर सल्फेट तथा क्लोरीन का प्रयोग किया जाता है।
नगर में शुद्ध जल की आपूर्ति के लिये शुद्धिकरण यंत्रों तथा रसायनों का प्रयोग किया जाता है। गोमती नदी का अपरिष्कृत जल गऊघाट पंपिंग स्टेशन से प्रथम जलकल ऐशबाग और द्वितीय जलकल बालागंज भेजा जाता है जिसे फिटकरी व ब्लीचिंग पाउडर के मिश्रण के बाद पीने योग्य बनाकर सेटलिक टैंक में एकत्र किया जाता है। पुन: संरक्षित जल में क्लोरिन मिलाकर शहर के जोनल पंपिंग स्टेशनों में जमा कर नगरवासियों को आपूर्ति किया जाता है। नगर में जलापूर्ति दो चरणों में की जाती है। प्रात: 5 से 10 बजे तक तथा द्वितीय सायं 4 बजे से 7 बजे तक। नगर में जलापूर्ति के लिये समय-समय पर जनसंख्या वृद्धि के साथ पाइप लाइनों का विस्तार किया जाता है परिशिष्ट-13 में पाइप लाइनों की लंबाई का क्रमिक विस्तार प्रदर्शित किया गया है।
नगर में पेय जलापूर्ति के स्रोत
वर्तमान में लखनऊ नगर संकुल की जनसंख्या 23 लाख से अधिक है। नगर निगम लखनऊ की एक रिपोर्ट के अनुसार नगर को 480 mld. पानी की आवश्यकता है। 480 mld. पानी की पूर्ति पर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 270 लीटर पानी की पूर्ति की जाती है। जल निगम तथा जल संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार बालागंज स्थित द्वितीय जलकल से 96 mld. जल की आपूर्ति, ऐशबाग जल संस्थान से 180 mld. जल तथा 234 नलकूपों से 234 mld. तथा नगर के 2500 इंडिया मार्क टू हैण्डपम्पों से लगभग 2 mld. जल प्रतिदिन आपूर्ति किया जाता है। इस प्रकार सभी नगरीय जलस्रोतों से 509 mld. जल निकल रहा है। तालिका- 3.1 में नगर के विभिन्न जल स्रोतों की क्षमता का विवरण दिया गया है।
उ.प्र. जलनिगम के मानक के अनुसार नगरों के लिये किए जाने वाले जलापूर्ति में 5 लाख जनसंख्या पर 270 mld. की हैं। जनसंख्या के बढ़ते दबाव को देखते हुए जलापूर्ति का लक्ष्य प्राप्त करना संभव नहीं लगता फिर भी आगे आने वाले समय में बढ़ाये जाने की पूरी संभावना है। जल निगम ने लखनऊ की बढ़ती जनसंख्या को ध्यान में रखकर जलापूर्ति की मात्रा का विविध स्रोतों से अनुमान किया है। साथ ही नगरीय उत्सर्जित जल का भी अनुमान प्रस्तुत किया गया है। (परिशिष्ट- 14)
नगर में जलापूर्ति व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये प्रशासन द्वारा समय-समय पर प्रयास किये जाते हैं। 1995 में डीआरडब्लू योजना के अंतर्गत दो वर्षों में 36 ट्यूबवेल लगाए गये। इंदिरा नगर में 15, 10, 2 व 6 नंबर के ट्यूबवेल, 34 नंबर 43 नंबर ‘ए’ ब्लॉक कम्युनिटी सेंटर, चंदर, नगर, पेपर मिल कॉलोनी, केकेसी, नैपियर रोड, महानगर पार्क, अलीगंज सेक्टर सी, चौपड़ा अस्पताल (हजरतगंज) कृष्णा नगर, प्रागनारायण रोड, भदेवा, कपूरथला पार्क तथा अमीनाबाद पार्क में लगाए गए, जिसमें ट्यूबवेल निर्माण में 16 लाख प्रति ट्यूबवेल तथा रिवोरिंग में 8 लाख रुपये प्रति ट्यूबवेल खर्च किया गया।
नगर में कुल आपूर्ति जल 270 mld. मात्रा में 50 mld. (5 करोड़ लीटर) जल की मात्रा व्यर्थ जाती है जो नागरिकों को उपलब्ध नहीं हो पाती है। जलापूर्ति समस्या को कम करने के लिये अलग-अलग क्षेत्रों में टैंकों की व्यवस्था है। इनकी क्षमता भिन्न-भिन्न हैं। जल संस्थान परिसर तथा कश्मीरी मोहल्ला में दो, 14 तथा 6 mld. के, ठाकुरगंज, विक्टोरिया पार्क, पतंग पार्क, राजेंद्र नगर, लालबाग, केकेसी कॉलेज तथा हेवलक रोड में स्थित अंडर ग्राउंड टैंक है। मीराबाई मार्ग में 2 mld. के टैंकों की व्यवस्था की गयी है। नगर में 3000 से अधिक हैण्डपम्प पेयजल व्यवस्था में व्यक्तिगत रूप से उपयोग किये जाते हैं तथा 350 से अधिक सार्वजनिक उपयोग के क्षेत्र में है।
तालिका-3.2 से पता चलता है कि सर्वाधिक जलापूर्ति लालबाग क्षेत्र में की जाती है। जबकि ऐशबाग तथा अलीगंज क्षेत्रों में अधिक जनसंख्या के बावजूद भी जलापूर्ति कम है। लालबाग में 2.50 लाख की जनसंख्या पर 5 करोड़ लीटर जलापूर्ति की गयी। ध्यान देने की आवश्यकता है कि लालबाग जोन में प्रशासनिक अधिकारियों के निवास क्षेत्र हैं। महानगर में जलापूर्ति समस्या एक आम समस्या है, आपूर्ति लाइनों का कटाफटा होना सभी क्षेत्रों की समस्या है। अवैध कनेक्शनों से तथा पुरानी जर्जर आपूर्ति लाइनों से तथा दूषित जलस्रोत से जल प्राप्ति के कारण नगर में प्रदूषित जल की आपूर्ति होती है। प्रदूषित जल की आपूर्ति से नगर में संक्रामक रोगों का प्रभाव बढ़ जाता है प्रतिवर्ष की दर से रोगियों की संख्या में वृद्धि इस समस्या की ओर संकेत करता है। लखनऊ महानगर निवासियों के लिये उपलब्ध कराए जाने वाले पेयजल की गुणवत्ता का भी जल संस्थान की ओर से नियमित रूप से आकलन कराया जाता है तथा समय-समय पर अन्य सक्षम विभागों को भी दायित्व सौंपकर स्थिति का अनुमान किया जाता है।
नगरीय जल की गुणवत्ता
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत बीमारियों और 33 प्रतिशत से अधिक मौतों का कारण स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाला जल है। स्वास्थ्य के लिये जल को उपचारित करने वाले रसायन भी घातक होते हैं फिर भी अशुद्ध जल की अपेक्षा कम हानिकारक होते हैं। स्वास्थ्य संगठन एवं पर्यावरण के प्रमुख विलफ्रेड क्राइसेल के अनुसार हैजा, पीलिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिये केवल स्वच्छ जल पीना आवश्यक है। जल परिष्करण के लिये क्लोराइड जैसे कीटाणु नाशकों का प्रयोग किया जाता है। परा-बैंगनी किरणें, ब्रोमाइड, आयोडीन और चांदी का भी उपयोग इस हेतु किया जाता है।
महानगर संकुल के लिये जलसंस्थान द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले पेयजल का क्लोरीन और जीवाणु परीक्षण कराया जाता है। क्लोरीन परीक्षण जल में क्लोरीन की उपलब्धता जल की शुद्धता को प्रदर्शित करती है। अनुपलब्धता जल की अशुद्धता को प्रदर्शित करती है जिसे पीने के अयोग्य समझा जाता है। जल में 1.5 मिग्रा./ली. क्लोरीन आवश्यक है। जीवाणु परीक्षण में आपूर्ति किये जाने वाले जल में उपस्थित जीवाणुओं का परीक्षण किया जाता है। नगर में प्रतिमास जलीय गुणवत्ता का आकलन करने के लिये औसत रूप से 800 नमूनों का संकलन किया जाता है जो प्राय: जलापूर्ति के समय प्रात: 5 से 9 तथा सायं 5 से 9 के मध्य अलग-अलग क्षेत्रों से लिये जाते है। (परिशिष्ट- 15)
परिशिष्ट- 15 को देखने से ज्ञात होता है कि 1990 के 6947 और 1991 के 9203 नमूनों में 141 नमूने क्लोरीन से रहित पाये गये। यदि नमूनों की अशुद्धता की दर पर वर्षवार ध्यान दिया जाए तो क्रमश: अशुद्धता की दर घटती गयी है। वर्ष 1992 में यद्यपि सर्वाधिक नमूनों का परीक्षण किया गया फिर भी क्लोरीन रहित नमूनों की संख्या सबसे कम रही। 1992 के दौरान जलापूर्ति की शुद्धता अच्छी रही जो 99 प्रतिशत से अधिक रही। 1993, 94, 95 सत्र की जलीय गुणवत्ता समान रही जिसमें 98 प्रतिशत से अधिक नमूने शुद्ध पाये गये। 1996 में 1998 में दूषित नमूने अधिक रहे। नगर के जल में दूषित नमूनों की संख्या जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ 164 नमूने दूषित पाये गए जो जल संस्थान के लिये एक बड़ी चुनौती है।
जीवाणु परीक्षण पर ध्यान दिया जाय तो पता चलता है कि 1990 से 1999 के मध्य जीवाणु परीक्षण नमूनों का औसत 450 है। 1990 में 453 नमूनों में 35 असंतोष जनक नमूने पाये गये, जबकि 1991 में 474 में 26 नमूने मानक के विपरीत पाये गये। 1992 का सत्र सर्वोत्तम रहा जिनमें 468 नमूनों में केवल 6 नमूने अशुद्ध पाये गये। जीवाणु परीक्षण के नमूनों का प्रतिशत 1.28 रहा। सर्वाधिक प्रतिशत 8.23, 1995 के दौरान रहा।
परिशिष्ट-16 के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि पेयजल की आपूर्ति के संकटापन्न नमूने ग्रीष्म काल में बढ़ गये हैं। मई माह में 813 नमूनों में 24 नमूने ठीक नहीं पाये गये। माह जनवरी, मई, जून, मास में अशोधित नमूने सर्वाधिक रहे जिनका प्रतिशत 2 से अधिक रहा। जुलाई अक्टूबर तथा दिसंबर में अशोधित नमूने कम पाये गये जिनका प्रतिशत 1 से कम रहा। यह निष्कर्ष निकलता है कि ग्रीष्मकाल में जलापूर्ति की अशोधित मात्रा बढ़ती है। अन्य मौसमों में भी घटती-बढ़ती रहती है।
जीवाणु परीक्षण की स्थिति का अवलोकन करने से पता चलता है कि जिन महीनों में अशोधित जल की पूर्ति अधिक बढ़ी उन्हीं महीनों में जीवाणु नमूनों का प्रतिशत भी बढ़ गया। मई में तो यह 35.41 प्रतिशत तक बढ़ गया। इसी दौरान जून मास में 10 प्रतिशत नमूने जीवाणु युक्त पाये गये। नवंबर में 17.24 प्रतिशत तक पुन: बढ़ गया। पेयजल की गुणवत्ता फरवरी, अगस्त और अक्टूबर मास में अपेक्षाकृत संतोष प्रद रही। शीत काल में कीटाणु रहित जल नगर निवासियों को प्राप्त होता है। किंतु मानसून काल में समस्या गम्भीर हो जाती है।
सत्र 1995 की क्लोरीन परीक्षण की स्थिति पर विचार किया जाए तो सर्वाधिक अशोधित नमूने अगस्त महीने में रहे। अक्टूबर नवंबर में सामान्य रहे। अगस्त मास में 2 प्रतिशत परीक्षित सभी नमूने शुद्ध पाये गये। शीतकाल के महीनों दिसंबर, जनवरी और फरवरी में 1 प्रतिशत से भी कम नमूने अशुद्ध पाये गये। यहाँ भी शीतकाल में आपूर्ति जल की शुद्धता अच्छी रही, जब की मानसून काल में शुद्ध नमूनों के प्रतिशत में कमी आयी।
जीवाणु परीक्षण की स्थिति हमें बतलाती है कि सर्वाधिक कीटाणु प्रभावित नमूने अगस्त मास में पाये गये जो कुल नमूनों का 21.21 प्रतिशत है। फरवरी, नवंबर और जून के महीनों में अशुद्धता के 17 प्रतिशत नमूने पाये गये। शीतकाल के मौसम में ग्रीष्मकाल और मानसून काल की अपेक्षा अधिक नमूने शुद्ध पाये गये। प्रत्येक दो माह पश्चात अगले माह में ह्रास आता है और ह्रास के पश्चात अगले माह में सुधार हो जाता है अर्थात गिरावट की दशा के पश्चात जल संस्थान सतर्क हो जाता है। इसी प्रकार मानसून काल में पहले से पूर्ण व्यवस्था न हो पाने से प्रदूषित पेयजल नागरिकों तक पहुँच जाता है। नवंबर दिसंबर में नगरीय पेयजल के स्रोत की गुणवत्ता में कमी आती है।
लखनऊ नगर संकुल के विभिन्न क्षेत्रों से पेयजल स्रोतों से प्राप्त नमूनों पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो पता चलता है कि जल का पीएच मान सभी नमूनों में मध्य स्तर पर रहा। न कहीं अधिक पाया गया न कम जो कि पेयजल की गुणवत्ता के लिये आवश्यक होता है।
क्लोराइड जल की गुणवत्ता को संरक्षण प्रदान करने वाला घुलनशील अवयव है जिसकी उपस्थिति जल में आवश्यक है। जल में कम से कम 250 mg/I क्लोराइड होना आवश्यक है। नगर संकुल के नमूनों में किसी भी नमूने में क्लोराइड की मात्रा परिमित मात्रा के मानक से कम रही, क्लोराइड की अनुपस्थिति पर भी यदि विचार किया जाए तो नगरीय जल की गुणवत्ता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है।
परिशिष्ट-17 में कैलशियम की मात्रा पर ध्यान दिया जाए तो स्पष्ट होता है कि कैल्शियम की निर्धारित मात्रा प्रत्येक नमूना स्थल पर कम पायी गयी। नमूना संख्या 9 जो करामत मार्केट, निशातगंज से प्राप्त किया गया में न्यूनतम मात्रा 70 mg/I पायी गयी। इस नमूने का संग्रह हैण्डपम्प से लिया गया। इसके विपरीत यहीं से लिये गये नगर जलापूर्ति के नमूने से स्पष्ट होता है कि इसमें कैल्शियम की मात्रा सबसे कम रही। इस तरह नगर जल संस्थान की गति विधियाँ उजागर होती है। लिये गये नमूनों में मैग्नीशियम की मात्रा कुल नमूनों के 70 प्रतिशत में ठीक पायी गयी। यह निर्धारित न्यूनतम मात्रा के आस पास रही। नमूना क्रमांक 4 जो कि राजकीय पॉलीटेक्निक के पास से संग्रहित किया गया था में मैग्नीशियम की मात्रा 17.76 mg/I प्रति लीटर रही। यह निर्धारित मानक से कम रही।
संग्रहीत नमूनों की जल कठोरता पर ध्यान दिया जाए तो स्पष्ट होता है कि सभी नमूने निर्धारित मानक के मध्य रहे। करामत बाजार, निशातगंज के हैंडपंप का जल निर्धारित अधिकतम मात्रा के निकट रहा जब कि राजकीय पॉलीटेक्निक के नमूने में निर्धारित न्यूनतम मानक के निकट मैगनीशियम पाया गया।
उपर्युक्त विश्लेषणों के निष्कर्ष के आधार पर कहा जा सकता है कि हैंडपंपों की तुलना में नलों का जल कम ठीक पाया गया, फिर भी जिन स्थानों में हैंडपंप नालों या सीवरों के निकट है उनका जल अधिक दूषित पाया गया। प्राय: सभी प्रकार के नमूनों में अधिकतम मानक से नीचे खनिजों की उपस्थिति रही।
लखनऊ महानगर का भू-गर्भ जल प्रदूषण
राजधानी लखनऊ के पेयजल में 60 प्रतिशत गोमती नदी का शोधित जल सम्मिलित है। शेष 40 प्रतिशत जल नलकूपों तथा हैण्डपम्पों के माध्यम से भू-गर्भ से प्राप्त किया जाता है। नगर के कुछ निजी विभागों, सार्वजनिक विभागों तथा औद्योगिक इकाइयों ने अपने नलकूपों की व्यवस्था की है। नगर में भूगर्भ जल प्रदूषण की समस्या के साथ भूगर्भ जल स्तर के गिरावट की भारी समस्या है। नगर के भूजल स्तर के सम्बन्ध में जल निगम लखनऊ की रिपोर्ट पर ध्यान केंद्रित किया जाना आवश्यक हो गया है। जल निगम ने 20 स्थानों पर लगे हैण्डपम्पों के जलस्तर को मापा जो 1990 से 2000 के मध्य 10 फिट तक स्तर नीचे गिर गया। इंदिरा नगर चारबाग, हुसैनगंज क्षेत्र में जलस्तर सबसे अधिक नीचे गिरा। तालिका - 3.3 केंद्रीय भूमि जल परिषद द्वारा अमीनाबाद स्थित 21 मीटर गहरे कुएँ में वर्ष 1978 में जलस्तर 6.61 मीटर पर था जो अब 19 मीटर पहुँच गया, जल संस्थान के 330 नलकूप विभिन्न संस्थाओं के 100 से 150 नलकूप 3 हजार से अधिक हैंडपंप तथा हजारों जेट बोरिंग नगरीय जलस्तर को लगातार कम करती जा रही है।
विश्व के लगभग सभी नगरों में भू-गर्भीय जल में खनिजों तथा कार्बनिक रसायनयुक्त विषैले पदार्थों की उपस्थिति पायी जाती है जिसके कारण घरों और उद्योगों में प्रयोग किये जाने वाले, कार्बोहाइड्रेटों, प्रोटीनों, वसाओं, धुलाई के पदार्थों से युक्त कार्बनिक रसायनों का प्रयोग किया जाना है। भू-गर्भ जल संरक्षण संस्थान लखनऊ ने भू-गर्भ जल प्रदूषण के कारणों को स्पष्ट करते हुए अपना वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है।
संस्थान ने भूजल के नमूनों का संकलन किया तथा परीक्षण के पश्चात पाया की प्रदूषित जल में इलेक्ट्रोलाइटस की अधिकतम मात्रा विद्यमान रहती है। इसमें क्षारीय तत्वों की मात्रा अधिक होती है। पीएच मान भी अपने निर्धारित मानक से अधिक पाया गया। कुछ स्थानों पर प्रोटीनस (Proteinous) जैसे जटिल रसायन भी पाये गये। औद्योगिक और सीवर लाइनों में नाइट्रेट की बहुत अधिक मात्रा पायी जाती है। कुछ क्षेत्रों में सल्फेट की मात्रा भी उपस्थित पायी गयी। सोडियम सल्फेट हाथों की स्वाभाविक कार्य विधि में हस्तक्षेप करता है। सल्फेट, मैग्नीशियम और कैल्शियम तत्व जल को कठोर बनाते हैं जिनकी मात्रा कम रही। लोहे और मैग्नीज की मात्रा भी ठीक नहीं पायी गयी। यह जल के स्वाद को खराब कर देती है। फ्लोरिन (Fluorine) जैसे पदार्थों की कुछ क्षेत्रों में कमी रही, जो दाँतों की बीमारियों का कारण बनता है। औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सीवेज लाइनों ने भारी पदार्थ तांबा, सीसा, जस्ता, निकिल, कोबाल्ट तथा कुछ में आर्सेनिक भी उच्च मानकों तक पाया गया।9
भूजल संस्थान ने कई स्थानों के जल नमूनों का विश्लेषण किया जिसमें पीएच मान 7.85 से 9.05 तक पाया। जल में घुलनशील कठोर पदार्थ क्लोराइड, फ्लोराइड, सल्फेट एवं नाइट्रेट सहनीय सीमा तक उपस्थित है। धातुओं के लिये किए गये जल विश्लेषण से पता चला की लौह तत्व की उपस्थिति निर्धारित मानक से अधिक है। हैण्डपम्पों से लिये गये नमूनों की कीटाणुओं की उपस्थिति (22 में 11 अशुद्ध) निर्धारित मानक के विपरीत पायी गयी साथ ही 50 प्रतिशत नमूनों के जल पीने के लिये उपयुक्त नहीं पाये गये।
तालिका- 3.4 के अवलोकन पर ज्ञात होता है कि समस्त नमूनों के जल में लोहे की मात्रा बहुत कम है। जहाँ मानकों के अनुसार 300-500 μg/I की आवश्यकता होती है वहीं पर यह मात्रा 66 से 270 (μg/I) के मध्य पायी गयी। केवल एक नमूना स्थल पर न्यूनतम सीमा के निकट लौह मात्रा रही। मैग्नीज की मात्रा जल के उन्हीं नमूनों में अधिक पायी गयी है जिनमें की लोहे की मात्रा अधिक है। बादशाही कुएँ में लोहे की मात्रा पर्याप्त है। उसी नमूना स्थल पर मैग्नीज की समुचित मात्रा उपस्थित पायी गयी। इसी प्रकार नमूना क्रमांक-7 जो कि पिकनिक स्पॉट प्रथम स्थल से लिया गया मैग्नीज की मात्रा निर्धारित मात्रा से अधिक पायी गयी। इसी प्रकार दो नमूनों में जिंक की मात्रा न्यूनतम मात्रा के निकट पायी गयी। चार नमूनों में मैग्नीज की अल्पमात्रा पायी गयी।
जिंक की मात्रा भी सभी नमूना स्थलों पर न्यूनतम निर्धारित मात्रा से कम रही तीन नमूना स्थलों में जिंक की मात्रा कुछ सीमा तक ठीक रही शेष नमूनों में बहुत कम रही। क्रोमियम की मात्रा सभी नमूना स्थलों में परिमित पायी गयी जो अस्वस्थ जल के लक्षण है। इसी प्रकार नमूनों में सीसे की मात्रा मानक के निकट है। शेष में सामान्य स्थिति है। 1993 में भू-गर्भ जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लखनऊ नगर के हैंडपंपों के पाँच नमूनों में सीसे की मात्रा का आकलन किया गया।
यह सभी नमूने नगर के कचरा निस्तारण स्थलों के निकट से संग्रहित किये गये। पेयजल में सीसे की मात्रा 50 μg/I से कम निर्धारित की गयी है। किंतु लिये गये पाँचो नमूनों में सीसे की मात्रा तीन में दो गुने तथा दो में तीन गुने से अधिक मात्रा पायी गयी। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से स्थिति सामने आती है कि बढ़ती कचरा निस्तारण की समस्या नगर के भू-गर्भ जल के प्रदूषण को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है।
जल संसाधन मंत्रालय की केंद्रीय भू-गर्भ जलबोर्ड की उ.प्र.10 लखनऊ इकाई ने राजधानी लखनऊ के सिटी रेलवे स्टेशन के परित: भूजल स्रोतों के नमूने लिये जिसके लिये बोर्ड ने विस्तृत अध्ययन की योजना अपनायी।
लखनऊ सिटी स्टेशन गोमती नदी के दक्षिण में स्थित है। स्टेशन से 250 और 50 मी. की दूरी पर वक्र मार्ग बनाते हुए नाले पूर्व और पश्चिम में प्रवाहित होते हुए नगर का कचरा गोमती नदी में प्रवाहित करते हैं। उत्सर्जित मानव मल के अनेकों टैंक नगर के भू-गर्भ में निर्मित है। यद्यपि मृदा जल शोधन का कार्य भी करती है फिर भी इसकी अपनी सीमाएँ हैं। लखनऊ सिटी स्टेशन अध्ययन क्षेत्र का भू-गर्भ लहरों के रूप में बना हुआ है। इसका ऊँचाई पर उठा हुआ भाग 110 से 121 मीटर ऊपर तक है। मैदान का ढाल गोमती नदी की ओर है।
अध्ययन क्षेत्र नदी द्वारा बहाकर एकत्र की गयी मृदा से निर्मित हैं 184 मी. भू-गर्भ पर कंकड़ प्राप्त हुए हैं। यह विभिन्न परतों से निर्मित है। रेत हैण्डपम्पों को लगाने में सहायता प्रदान करती है। इसकी तली में 30 से 107 मी. की गहराई में कठोर परत है। यहाँ पर लगाए गये लगभग सभी नलकूपों और हैण्डपम्पों ने इस पर्त का विच्छेदन किया है। अध्ययन में क्षेत्र के 16 स्थानों के भू-गर्भ जल के नमूनों का संकलन किया गया तथा उनका अध्ययन किया गया। अधिग्रहीत भू क्षेत्र के भूजल की स्थिति अर्द्ध प्रदूषित है। भू-गत जल की स्तरीय भिन्नता का इसके प्रदूषण पर भी प्रभाव पड़ता है। भूजल सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार इस जल की अधोधारा गोमती नदी अथवा इसमें मिलने वाले नालों की ओर है। इस भू-गर्भ जल के प्रवाह की गति सतह पर बहने वाले जल की गति से अधिक है।
भूजल की स्थिति :
10 स्थानों से लिये गये भूजल के नमूनों में लखनऊ सिटी स्टेशन के परित: खनिज कूपों, नलकूपों तथा हैंडपंपों के नमूने सम्मिलित है। इनके रासायनिक परीक्षण की स्थिति तालिका-3.6 में परिलक्षित की गयी है। इनके अध्ययन से निष्कर्ष निकलता है कि प्राकृतिक रूप से इस क्षेत्र के भू-गर्भ जल में क्षार की मात्रा अधिक है। इसके अतिरिक्त कठोर खनिज भी अधिक पाये गये कैल्शियम, मैग्नीज और क्लोरीन जैसे पदार्थ भी मानक से अधिक पाये गये। उथले और गहरे दोनों प्रकार के जल में नाइट्रेट की मात्रा आवश्यकता से अधिक उपस्थित थी।
तालिका 3.6 के विश्लेषण के अनुसार नलकूपों के जल में नाइट्रेट की मात्रा 25 से 590 mg/I थी जब कि खोदे गये कुओं और हैंडपंपों में यह मात्रा 650 mg/I पायी गयी।
भारतीय मानक संस्थान (ISI) की 1983 की रिपोर्ट के अनुसार पेयजल में नाइट्रेट की अधिकतम मात्रा 45 mg/I निर्धारित है। यह प्रदूषण का प्राकृतिक स्वरूप है। क्योंकि गहराई बढ़ने के साथ नाइट्रेट की मात्रा घटती जाती हैं ठीक यही दशा अन्य खनिजों, जैसे कार्बोनेट, क्लोरीन, सल्फेट, मैग्नीज और पोटाश के साथ है। लनखऊ सिटी स्टेशन से जैसे-जैसे गोमती नदी की और बढ़ते हैं। भूजल अधिक और अधिक प्रदूषित होता जाता है। नाइट्रेट की मात्रा सामान्यतया भूमि द्वारा अवशोषित मानव एवं पशुमल में पायी जाती है। यह भी स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि शौचालयों का मल एकत्र करने वाले सुरक्षित टैंक भी भूगर्भ जल प्रदूषण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। जिन क्षेत्रों में सुरक्षित शौचालय टैंकों की संख्या अधिक है उन्हीं क्षेत्र के नमूनों में जल प्रदूषण की समस्या अधिक है। वर्तमान में नालों की समीपवर्ती नमूनों की स्थिति अधिक चिंता जनक है। सल्फेट की मात्रा सभी नमूनों में निर्धारित मानक से कम पायी गयी।
भू-गर्भ जल प्रदूषण के कारणों और स्थितियों पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। कि लखनऊ महानगर का भू-गर्भ जल सुरक्षित नहीं है। पेयजल के लिये उपलब्ध कराए जाने वाले जल में लखनऊ नगर निवासियों के लिये गोमती नदी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस नदी जल की गुणवत्ता का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है। गोमती जल गुणवत्ता अनुश्रवण के लिये यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा अन्य सक्षम इकाइयाँ समय-समय पर अपना-अपना प्रयास करती हैं।
सतही जल के नमूनों का अध्ययन
नगर में गोमती नदी का जल पेयजल के रूप में उपलब्ध कराया जाता है। नगर से सिंचाई के उपयोग हेतु नहरें ग्रामीण क्षेत्रों के लिये जाती हैं। नगर में इनके जल का उपयोग विविध कार्यों में किया जाता है। उनकी शुद्धता सिंचाई के योग्य भी नहीं रह पाती है। लोहे की सीमा शारदा नहर में पिकनिक स्पॉट नहर से कम है। लौहान्श, मैग्नीज आदि की मात्रा नहरों में सिंचाई के जल के अनुकूल पाई गयी।
तालिका 3.7 में कारखानों के जल मल पर दृष्टि डालें तो यूनियन कार्बाइड मिल के जल में लौहान्श की मात्रा आवश्यकता से बहुत कम पायी जो लगभग 10 गुने से भी कम है। यही स्थिति मैग्नीज की भी रही, जिंक की मात्रा यूनियन कार्बाइड के मल जल में बहुत अधिक है। वहीं मोहन मीकिन जल में बहुत कम मात्रा पायी गयी। यही स्थिति क्रोमियम की रही इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीनों मिल नगरीय भू-गर्भ जल और नदी जल को प्रदूषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है।
नगरीय अपशिष्ट वाहक नालों में लोहे की मात्रा ऐशबाग नाले में सबसे कम रही जल की शुद्धता को बनाये रखने में इसका बहुत महत्त्व है। किसी भी नमूना स्थल पर खनिजों का संतुलन ठीक नहीं रहा।
गोमती नदी के नमूने लक्षित करते हैं कि गोमती नदी में नगरीय सीमा के पश्चात लोहे की मात्रा बहुत अधिक रही। इसी प्रकार हनुमान सेतु जहाँ से मोहन मीकिन द्वारा उत्सर्जित जल का केंद्र कम दूरी पर है। नदी को अधिक प्रदूषित करता है जिन नमूनों में मैग्नीज की मात्रा अधिक है। उनमें लोहे की मात्रा कम है। हर्डिंग सेतु में मैग्नीज निर्धारित सीमा से दो गुने से भी अधिक पहुँच गया जबकि अन्य नमूना स्थलों में यह मात्रा काफी कम पायी गयी। गोमती बैराज जहाँ पर नदी जल को नियंत्रित किया जाता है। जिंक और क्रोमियम की मात्रा अधिक पायी गयी बहती नदी का जल स्वत: शुद्धिकरण के माध्यम से शुद्ध होता है। अत: जल नियंत्रण कक्ष में यह मात्रा अधिक आंकी गयी है।
मानसून काल के दौरान 1984 में वर्षाजल के नमूनों को लिया गया। यद्यपि वर्षा का जल शुद्ध माना जाता है किंतु यह वायुमंडल की विषैली गैसों के प्रभाव में आकर प्रदूषित हो जाता है। संकलित किये गये नमूनों में खनिजों की मात्रा अधिक पायी इसी प्रकार वर्षा के प्रथम चरण में खनिजों की मात्रा अधिक पायी गयी।
लखनऊ महानगर में गोमती नदी जल प्रदूषण
गोमती नदी गंगा नदी की एक सहायक नदी है जिसका उद्गम पीलीभीत से 3 किमी दूर चंदरपुर गाँव के समीप माधोटांडा नामक (गोमद) प्राकृतिक झील से हुआ है। गोमती नदी मैदानी क्षेत्रों से अपनी यात्रा पूरी करती हुई गाजीपुर जिले के औणिहार नामक स्थान के पास गंगा में मिल जाती है। इस दौरान यह 730 किमी. की दूरी 15 जनपदों से होकर तय करती है। यह नदी गंगा जल में 15 प्रतिशत जल का योगदान करती है। इसका औसत बहाव शुष्क मौसम में 1500 mld. का है यह वर्षाऋतु में 55000 mld. तक बढ़ जाता है। ग्रीष्मकाल में 500 mld. ही रह जाता है। इस नदी के क्षेत्रीय विस्तार में 25,735 वर्ग किमी. की भूमि आती है। जो उ.प्र. के क्षेत्रफल का 8.7 प्रतिशत है। नदी इस दौर में यहाँ के क्षेत्रीय निवासियों द्वारा तथा अन्य स्रोतों से विभिन्न प्रकार के प्रदूषण युक्त पदार्थों को अपने में समाहित करती चली जाती है। प्रदूषण के विचार से यह नदी प्रदेश में प्रथम स्थान रखती है। प्रदूषण भार की तुलना में सूखे मौसम में इस नदी का बहाव इतना कम होता है कि जब गर्मियों के दिनों में पानी की उपयोगिता अधिक होती है तब यह नदी सर्वाधिक प्रदूषण युक्त और सर्वाधिक कष्ट का कारण होती है।
गोमती नदी राजधानी लखनऊ में इस स्थिति तक पहुँच गयी है कि 100 ml. में 2,50,000 घातक बैक्टीरिया के तेजी से जाग्रत कराने की क्षमता रखती है। जबकी अधिकतम 5000 बैक्टीरिया 100 ml. में हो सकते हैं। नगर का अपशिष्ट पदार्थ इस जल में 9.5 गुना घुलनशील है। 30 दिसंबर 86 को नदी जल की विषाक्तता अपनी चरम सीमा को पार कर गयी थी जब जल में घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा अकल्पनीय स्तर (1-13 mg/I) तक पहुँच गयी थी। यह मात्रा मछलियों तथा अन्य जलीय जीवों के सांस लेने हेतु निर्धारित मात्रा से 70 प्रतिशत कम थी। इस अवधि में नदी की मछलियों तथा अन्य जलीय जंतुओं का सामूहिक संहार हुआ।
लखनऊ नगर से लगभग 50 किमी. पूर्व सीतापुर जिले के भाटपुर घाट पर गोमती नदी की जलधारा में सराय नामक बरसाती नदी मिलती है। गर्मियों में इस नदी में मुख्यरूप से नागरिकों तथा सीतापुर की औद्योगिक इकाइयों के उत्सर्जित पदार्थ प्रवाहित होते रहते हैं। इसमें चीनी मिल तथा शराब फैक्ट्री के उत्सर्जित तत्वों की मात्रा इतनी अधिक होती है कि पूरी नदी का रंग गहरे गाढ़े भूरे रंग का हो जाता है। ठीक इसी प्रकार लखनऊ नगर से 100 किमी निचली धारा में सुल्तानपुर जिले के पास जगदीशपुर नामक स्थान पर औद्योगिक क्षेत्र द्वारा उत्सर्जित पदार्थ इस नदी में डाल दिये जाते हैं। गोमती नदी में अन्य सहायक छोटी नदियां भी मिलती है। जिनमें कथना, सरायन, रैथ, लूनी व सई प्रमुख हैं।
गोमती अपने उद्गम पर छोटे स्रोत के रूप में है। इसका उद्गम हिमालय की तराई में 50 किमी उत्तर है। 730 किमी की यात्रा पीलीभीत, शाहजहाँपुर, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, सुल्तानपुर, जौनपुर, गाजीपुर से होकर पूरी करती हुई वाराणसी से 30 किमी दूर गाजीपुर जिले के उद्यार (औंणीहार) घाट में मिलती है। अपने उद्गम से 100 किमी आगे मोहम्मदी के पास नदी का रूप ले लेती है। सीतापुर में भाटपुर के पास सराय नदी में मिलती है। सराय नदी उद्योगों तथा ग्रामीण क्षेत्रों का कचरा गोमती में डालती है। भाटपुर से 40 किमी. दक्षिण चलकर यह लखनऊ महानगर में पहुँचती है। जहाँ 25 लाख लोग इसका उपयोग करना चाहते हैं। लखनऊ में पहुँचते ही 280 mld जल नदी से उठा लिया जाता है। जो नागरिकों को पेयजल के रूप में उपलब्ध कराया जाता है। यह नदी नगर के हृदय प्रदेश में 12 किमी की दूरी तय करती है। यहाँ नगर के 31 नाले मिलते हैं। नदी की नगरीय पूर्वी सीमा पर 30 वर्ष पूर्व जल नियंत्रण कक्ष बनाया गया है। जिसका उद्देश्य गऊघाट पंपिंग स्टेशन को जल लेने में सुविधा प्रदान करना है। आगे चल कर गोमती दूसरी सहायक कल्याणी नदी से मिलती है। जो नगर से 45 किमी दूर है यह नदी बाराबंकी जनपद के निवासियों का कचरा लेकर मिलती है। गोमती से दो मुख्य सहायक नदियाँ सराय और सई गाजीपुर में मिलती है। इसके अतिरिक्त उन्नाव तथा वाराणसी के मध्य उत्पन्न सोते और नाले भी मिलते हैं।
गोमती नदी के तट पर 12 नगर स्थित है। किंतु तीन नगर इसके प्रदूषण में विशेष कारण बनते हैं।
नदी के तट पर नगरीय जनसंख्या 15 प्रतिशत तथा ग्रामीण 85 प्रतिशत है सीतापुर की 120.5 हजार की जनसंख्या इसके क्षेत्र में है। इसके अतिरिक्त बाराबंकी, हरदोई, प्रतापगढ़ इससे दूर स्थित है। अत: इस नदी पर इनका प्रदूषण भार नहीं है।
प्रदूषण की दृष्टि से गोमती नदी चीनी मिल के हरगाँव में स्थित शराब फैक्ट्री के उत्सर्जित पदार्थ से अधिक प्रभावित है। यह फैक्ट्री अति विषैले तत्व पदार्थ एल्डीहाइड (Aldehyeds) और कीटोन्स (Ketones) जैसे पदार्थ जिनमें BDO इत्यादि 40,000 mg/l दर से मिले होते हैं हरगाँव चीनी मिल का उत्सर्जित पदार्थ सराय नदी में मिला दिया जाता है यद्यपि मोहनमीकिंन मदिरा मिल ने प्रदूषित जल शोधन संयंत्र स्थापित कर लिया है और यह BDO को 40,000 के स्तर की मात्रा को घटाकर 200 mg/l के स्तर पर नदी में कम करके डालती है। ठीक इसी प्रकार सुल्तानपुर जिले के सुल्तानपुर और मुसाफिर खाना नामक नगर अपने उद्योगों के कारण अति प्रदूषित करते हैं। इसके अतिरिक्त हरदोई, बाराबंकी, रायबरेली आदि नगर अपने नालों द्वारा इसे प्रदूषित करते हैं।
नगरीय औद्योगिक प्रदूषण के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में प्रयुक्त कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक भी प्रदूषण के कारण बनते हैं। किंतु यह पदार्थ प्रदूषण की दृष्टि से काफी बिखरे पड़े हैं। जिन्हें स्वशुद्धिकरण के माध्यम से नदी शुद्ध कर लेती है। इस प्रकार नदी अपने उद्गम स्थल से यात्रा पूरी करती हुई प्रदूषण की उच्चतम सीमा तक पहुँच चुकी है।
गोमती नदी के जल की गुणता मापन हेतु सन 1960 से ही कई स्थानों पर इसका मापन नियमित रूप से किया जाता रहा है। जलीय गुणता के मानकों में डीओ बीओडी तापमान, पीएच अम्लता, क्लोराइड, विषाणु, मानक, गणनांक आदि का अध्ययन कई संस्थानों द्वारा नियमित रूप से किया जा रहा है।
गोमती नदी का अधिग्रहण क्षेत्र 25,800 वर्ग किमी है। जो 10 जिलों में फैला है। गोमती नदी का बहाव क्षेत्र एक समतापीय क्षेत्र में उत्तर से दक्षिण तक फैला है। गोमती नदी के जनपदीय मासिक तापमान को परिशिष्ट- 18 में दर्शाया गया है। नदी जल के गर्मी के महीनों का अधिकतम तापमान 470C तथा शीतकाल का न्यूनतम 20C रहता है। गोमती अधिग्रहण में वार्षिक वर्षा का औसत 87 से 125 सेमी के मध्य है वार्षिक वर्षा का अधिकतम भाग जुलाई से अक्टूबर के मध्य प्राप्त होता है। (परिशिष्ट- 19)
गोमती नदी के गुणवत्ता अनुश्रवण के प्रमुख कार्यक्रम
गोमती जल की गुणवत्ता का परिमापन करने वाले संस्थानों में केंद्रीय भू-गर्भ जल संरक्षण संस्थान लखनऊ, गोमती प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उ.प्र., लखनऊ नगर निगम, जल निगम, जल संस्थान लखनऊ तथा भूगर्भ जल प्रदूषण इकाई लखनऊ प्रमुख है। ये गुणवत्ता का परिमापन स्वयंसेवी संस्थाओं तथा अन्य प्रमुख सक्षम इकाइयों के माध्यम से पूरा करते हैं। इस कार्य में सहायता देने वाले संस्थानों में औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र लखनऊ, लखनऊ विश्वविद्यालय का भू-गर्भ विभाग, रसायन विभाग की प्रयोगशालाएँ, स्वयंसेवी संस्था पर्यावरण अनुसंधान प्रयोगशाला, इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय रुड़की, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की प्रयोगशालाएँ, पर्यावरण निदेशालय लखनऊ की प्रयोगशालाएँ, वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ, अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र लखनऊ आदि प्रमुख है।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के माध्यम से गोमती जल की गुणवत्ता का अध्ययन औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र लखनऊ ने वर्ष 1994, 95, 96 में किया। केंद्र ने नदी जल के विविध स्थानों से विभिन्न महीनों की समय अवधि में नमूने लिये, जिनमें आठ स्थान नदी जल गुणवत्ता अध्ययन में लिये गये इसे गोमती नदी मापन एवं गणना कार्यक्रम नाम दिया गया। (परिशिष्ट- 20)
केंद्र ने दिसंबर 1993 से जुलाई 1994 के मध्य प्रत्येक 11130 तिथि को नमूना संग्रह किया गया, नमूने नदी बहाव के तीन स्थान जो 1/4, 1/2 और 3/4 गहराई से लिये गये। केंद्र के नमूना संग्रह का उद्देश्य जल के भौतिक, रासायनिक तथा विषाणुओं का मानकों के अनुसार अध्ययन करना है। अयस्क तथा कीटनाशकों के अध्ययन के लिये नदी में भूतल के नमूनों का संग्रह किया गया। इसमें प्रत्येक मौसम (त्रैमासिक) स्तर, धातु, कीटनाशकों, भौतिक व रासायनिक मानकों व जैविकीय गुणवत्ता का अध्ययन किया गया। प्रत्येक जल उत्सर्जक व सहायक नदियों के द्वारा छोड़े गये अपशिष्ट पदार्थों का संग्रह नमूना और अग्रलिखित मानकों को जोड़ा गया है।
गोमती जल की गुणवत्ता का भौतिक, रासायनिक तथा जैविक अध्ययन
तापमान : जलीय तापमान एक महत्त्वपूर्ण मानक हैं जो जल की विशेषताओं को परिलक्षित करता है। तापमान का प्रभाव विभिन्न भौतिकीय, रासायनिक, पृष्ठ तनाव, चिपचिपाहट, क्षैतिज दबाव, गुप्त ऊष्मा, वाष्पन, आॅयनीकरण, तापीय संचलन, वाष्पीय दबाव, गैसों की घुलनशीलता था अन्य जैविक कारक, जल की विशेषताओं को प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार जलवायु कारक और प्राकृतिक जलीय तत्व जल को प्रभावित करते हैं। मौसम, दिन-रात का समय, धारा का बहाव, व गहराई आदि जलीय तापमान को प्रभावित करती है। प्रत्येक स्थान से लिये गये नमूनों में विभिन्नताएँ पायी गयी, न्यूनतम तापमान गऊघाट में 13.5 के आस-पास रहा अधिकतम तापमान 360C के आस-पास गंगागंज में पाया गया। (परिशिष्ट-18)
पीएच - किसी द्रव के गुण को दर्शाता है कि वह अम्लीय या क्षारीय या उदासीन है। पीएच का मान 0 से 14 तक होता है। यदि किसी द्रव का पीएच 0 से 6.9 है तो वह द्रव अम्लीय होगा, 7 होने पर उदासीन कहा जाएगा 7 से 14 पर द्रव क्षारीय होता है। गोमती नदी के जल का दिसंबर 93 से सितंबर 95 तक की गुणवत्ता अनुश्रवण में पीएच का मान 7.15 से 9.1 तक पाया गया, जो अम्लीयता और उदासीनता को प्रदर्शित करता है। ग्रीष्म काल में विभिन्न स्थानों पर जल की अम्लता बढ़ी हुई पायी गयी। औसत रूप में देखा जाए तो उद्गम स्थल के पश्चात कम पायी गयी जबकि गऊघाट के पश्चात सुल्तानपुर और जौनपुर में बढ़ी हुई पायी गयी, नीमसार में लिये गए नमूनों में 50 प्रतिशत में 8.5 तक पीएच मान पाया गया।
ठोस पदार्थ (TDS) - नदी तट के अपक्षय वाले स्थानों में मानसून मौसम में मिश्रित ठोस पदार्थ अधिक पाये जाते हैं। घुलित ठोस पदार्थ नदी जल की पारदर्शिता एवं तापमान को प्रभावित करता है। घुलित पदार्थों की मात्रा, हानिकारक पदार्थों का अवशोषण और संगठन, तलछट की गति तथा उसके पदार्थ का वितरण आदि कुछ घुलित ठोस पदार्थ जल में ऑक्सीजन के आवागमन में बाधा उत्पन्न करते हैं तथा अन्य ठोस पदार्थ इन पर निर्भर करते हैं। घुलित ठोस पदार्थ यह प्रदर्शित करता है कि जल की प्रकृति क्या है? उसमें मिश्रित पदार्थों की मात्रा कितनी है?
गोमती जल में पाये जाने वाले आयनों में कार्बोनेट, क्लोराइड, सल्फेट, नाइट्रेट एवं फास्फेट जैसे कैटायन है। कैल्शियम, मैग्नीशियम पोटेशियम, सोडियम, लोहा आदि घुलित ठोस पदार्थ में सम्मिलित रहते हैं। घुलित ठोस पदार्थों को प्रभावित करने वाले कारकों में रासायनिक संगठन, जल की गति, किनारे का रासायनिक संगठन, वातावरण की आर्द्रता, मानवीय अपशिष्ट पदार्थ या जैवकीय या रासायनिक क्रियाएँ प्रमुख हैं। टीडीएस से हम जल में पाये जाने वाले धातु पदार्थ, जल की आयनिक संरचनाएँ व धनायनों के संगठन के बारे में जान सकते हैं गोमती नदी के दिसंबर 93 से सितंबर 95 के अध्ययन काल में विभिन्न स्थानों के ठोसों का आकलन किया गया जिसे तालिका- 3.9 में प्रदर्शित किया गया है।
परीक्षण से पता चलता है कि गर्मी के दिनों में टीएस की उपलब्धि 1994 में अधिकतम रही जबकि मानसून काल में यह सबसे कम थी, इसी प्रकार का टीएस का स्तर गऊघाट के बाद नदी में बढ़ना प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि घरेलू जल निस्तारित करने वाले नाले यहाँ से नदी में मिलने लगते हैं। जाड़े के दिनों में सबसे कम टीएस तथा मानसून काल में सबसे अधिक टीएस नमूनों से प्राप्त होता है। अपेक्षित मात्रा 500 जी/आई से प्रत्येक स्थान पर नीचे है। (तालिका- 3.10)
कठोरता और अम्लीयता - कैल्शियम, मैग्नीशियम और लवण की उपस्थिति से जल में कठोरता आती है। किंतु कुछ दूसरे तत्व जैसे लोहा, मैग्नीज एवं एल्युमीनियम भी जल की कठोरता में योगदान करते हैं। लोहे को कैल्शियम कार्बोनेट के समान कठोर माना जाता है। कैल्शियम लवण की उपस्थित में जल को कठोर बनाती है। जल की अम्लीयता सामान्य रूप से इसका यौगिक है। जो सुरक्षित रूप से जल को पीएच में परिवर्तित करती है।
गोमती नदी के जल से विभिन्न स्थानों से लिये गये नमूने कठोरता से युक्त है। जल की कठोरता, अम्लीयता मानसून मौसम को छोड़ कर शेष में अधिक है। नदी के जल की कठोरता, पिपराघाट और सुल्तानपुर के मध्य बढ़ जाती है। कुल कठोरता का 80 प्रतिशत भाग कैल्शियम का है। ग्रीष्म काल और शीतकाल में नदी जल की अम्लीयता की वृद्धि मोहन मीकिन और जौनपुर में सर्वाधिक पायी गयी कुल कठोरता का मान 300 एमजी/आई से कम है।
ऑक्सीजन : (O2) - घुलनशील ऑक्सीजन की न्यूनतम मात्रा स्वशुद्धिकरण विधि द्वारा प्राकृतिक जल में उपलब्ध होती है। डीओ. लेबिल ऑक्सीकरण के प्रभाव को दिखाता है। यह जल में न्यूनतम जीवन स्तर बिताने की क्षमता को प्रदर्शित करता है। यह ऑक्सीजन प्रकाश संश्लेषण विधि द्वारा उत्सर्जित होती रहती है। बीओडी इसमें सूक्ष्म कार्बनिक यौगिक तथा अन्य पदार्थ होते हैं। जो इसे अकार्बनिक रूप में बदल देता है। नमूनों में अकार्बनिक पदार्थ पाये गये। नमूनों में नाइट्रोजन युक्त पदार्थ जैसे एलिलथोरियम व अन्य भी उपस्थित पाये गये। सीओडी का मापन भी किया गया किंतु इसके कार्बनिक गुणों में अंतर नहीं पाया गया।
घुलनशील रसायन और जैव रासायनिक ऑक्सीजन तथा रासायनिक ऑक्सीजन की उपस्थिति गोमती नदी के आठ स्थानों में नीमसार से लेकर जौनपुर तक पायी गयी अंत के दो स्थानों में ऑक्सीजन के इन रूपों में कमी पायी गयी। इसका कारण भारी ठोस पदार्थ का जल के साथ नदी में आना, गर्मी के दिनों में जल कम होना तथा अनउपचारित नालों और सीवरों का जल बढ़ जाना है। इस समय तापमान का बढ़ना भी प्रमुख कारण बन जाता है। नदी के स्वशुद्धिकरण प्रक्रिया के कारण सुल्तानपुर में इसका प्रभाव कम हो जाता है।
बीओडी (जैव रासायनिक घुलनशील ऑक्सीजन) की यह स्थिति गऊघाट के आगे बढ़नी प्रारम्भ हो जाती है। और पुन: आगे धीरे-धीरे कम हो जाती है। कैल्शियम युक्त घुलनशील ऑक्सीजन सर्दियों के दिनों में उपस्थित से कुछ भिन्न है।
सर्दियों में बीओडी की मात्रा न्यूनतम तथा मानसून काल में उच्चतम मानकों में पहुँच जाता है। गऊघाट के आगे इसकी स्थिति सीवेज तथा नालों के कारण बहुत अधिक दिखाई पड़ती है। घरेलू उत्सर्जित जल और सीवेज जल ने ही ऑक्सीजन और उसके रूपों की मात्रा बढ़ाने का प्रयास किया है। नीमसार और भाटपुर स्थानों पर यह 6.0 mg./I से अधिक था जबकि मोहन मीकिन के केवल 5 प्रतिशत नमूनों को देखने पर 6.0 mg./I था। इसी समय पिपराघाट में 4 mg./I घुलनशील ऑक्सीजन पायी गयी। बाराबंकी के घुलनशील ऑक्सीजन के 16 प्रतिशत नमूने देखने पर 6.0 mg./I से अधिक है। आगे सुल्तानपुर और जौनपुर में काफी सुधार है भाटपुर में 10 प्रतिशत नमूने भी 5.0 mg./I बीओडी से युक्त पाये गये, गऊघाट के 80 प्रतिशत नमूने बीओडी सीमा से नीचे पाये गये किंतु मोहन मीकिन और पिपरा घाट के शत प्रतिशत नमूने 3.0 mg./I से अधिक पाये गये। यही स्थिति बाराबंकी, जौनपुर और सुल्तानपुर में रही। (तालिका- 3.11)
नाइट्रोजन - गोमती जल के नमूनों में नाइट्राइट (NO2) नाइट्रेट (NO3) अमोनिया (NH3) एवं अन्य प्रकार के नाइट्रोजन अवयव मापे गये। अमोनिया यदि दूषित है तो नाइट्रोजन को दूषित करेगा, जो जल को दूषित करेगा। इसी प्रकार आॅक्सीकरण की प्रक्रिया स्वरूप अमोनिया का स्तर बढ़ता जाता है। तथा जल और दूषित होता जाता है।
नदी जल से लिये गये दिसंबर 93 से सितंबर 95 तक के नमूने अमोनिया से ग्रस्त पाये गये। जिनका प्रभाव मानसून काल में सर्वाधिक, गर्मी में अधिक तथा शीतकाल में कम पाया गया। किंतु सभी ऋतुओं में लखनऊ नगर के सीवेज से निकले मल-जल की उपस्थिति वाले नमूनों में अमोनिया युक्त नाइट्रोजन सर्वाधिक पाया गया। इसी प्रकार पिपराघाट और मोहनमीकिन में भी अधिक पाया गया। गऊघाट और गंगागंज में इसकी मात्रा सीमा से अधिक रही।
क्लोराइड : (CI) - यह जल की गुणवत्ता को संरक्षण प्रदान करने वाला घुलनशील अवयव है। जिसका प्रयोग पर्यावरणीय क्षय को संतुलित करने में किया जाता सकता है। संकलित सभी नमूनों में क्लोराइड की उपस्थिति सभी मौसमों में कुछ स्थानों में कम हो जाती है। चूँकि नदी जल की गुणवत्ता बनाये रखने के लिये इसका होना आवश्यक है। मानक के अनुसार इसकी सीमा 250 mg./I है। जो प्रत्येक स्थान पर सीमा से कम रही।
सल्फेट (SO4) - प्राकृतिक रूप से सल्फेट की प्राप्ति कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण से तथा जिप्सम जैसी चट्टानों के अंदर से टपकते हुए जल से होती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के उद्योगों सूती मिल, सल्फ्यूरिक अम्ल बनाने वाले उद्योगों, कोयला, परिष्करण करने वाले उद्योगों आदि द्वारा सल्फेट का उत्सर्जन किया जाता है। गोमती नदी से लिये गए सभी नमूनों में सल्फेट की मात्रा अलग-अलग रही इसकी उपस्थिति का मानक 400 mg./I का है। किंतु गोमती नदी में यह अपनी सीमा से नीचे ही पाया गया।
फास्फेट (PO4) - खनिजों से युक्त चट्टानों के रिसाव, घरेलू प्रवाह तथा कृषि एवं उद्योगों से उत्सर्जित पदार्थों से फास्फेट तथा उससे बने यौगिकों से फास्फेट नामक यौगिक उत्पन्न होता है। गोमती नदी से लिये गये नमूनों में फास्फेट पाया गया। इस यौगिक की अधिकतम मात्रा गऊघाट के पश्चात ही प्रारम्भ होती है। वर्षाऋतु में अधिक गर्मी में अपेक्षाकृत कम फास्फेट पाया गया, मोहन मीकिन, पिपराघाट और बाराबंकी से प्राप्त सभी नमूनों में 10 mg/I तक फास्फेट बढ़ जाती है।
फ्लोराइड (F) - इसके स्रोत भूमि चट्टानें, घरेलू उत्सर्जित जल और उद्योगों के उत्सर्जित जल है। आठ स्थानों से लिये गये नदी जल के नमूनों में यह मात्रा उपस्थिति रही मानसून काल में इसकी मात्रा कम हो जाती है। किंतु दूसरी ऋतुओं में पिपराघाट से सुल्तानपुर तक बढ़ जाती है। (तालिका 3.16)
कॉलीफार्म (Coliform) - इसकी सर्वाधिक उपस्थिति पशु एवं मानवमल में पाई जाती है। इस तरह इसका स्रोत सीवेज है। इसके अतिरिक्त मानवमल से अच्छादित भूमि के ऊपर से बहकर आने वाला जल भी प्रदूषित होता है और नदी के जल को प्रदूषित करता है। इससे प्रदूषित जल में बैक्टीरिया अति शीघ्र उत्पन्न होते हैं। इसमें प्रदूषण माप को अधिकतम संभावित संख्या (MPN/100ml/II) गोमती नदी से लिये गये नमूनों में सर्वाधिक मात्रा मोहनमीकिन और पिपराघाट में पायी गयी किंतु गऊघाट में यह प्रत्येक ऋतु में अधिक थी। इसी प्रकार नीमसार और भाटपुर के नमूनों में यह वर्षाऋतु में अधिक पायी गयी। गोमती जल के प्रदूषण में बहुत कम सुधार बाराबंकी में होता है। सुल्तानपुर और जौनपुर में भी लखनऊ की अपेक्षा सुधार होता है। लखनऊ नगर के समीप से लिये गये नमूनों में बैक्टीरिया की मात्रा बहुत अधिक है। जो कई गुना तक बढ़ जाती है और पूरे वर्ष लगभग एक जैसी स्थिति बनी रहती है। यहाँ एमपीएन शत प्रतिशत है।
सोडियम और पोटैशियम (Na and K) - इसका स्रोत चट्टाने हैं तथा जल परिष्करण विधियाँ है। यह यौगिक जल में सरलता से घुल जाते हैं। और जल में इनकी सांद्रता की मात्रा 10 mg/I से कुछ अधिक है। जो नदी के भौगोलिक विस्तार से सम्बन्धित है। पोटैशियम की उपस्थिति भी गोमती जल के नमूनों में पाई गयी, जिसका स्तर नीमसार से जौनपुर तक बढ़ता गया। किंतु पोटैशियम और सोडियम जल की सीमा तक बने रहे तो जल संरक्षण का कार्य करते हैं।
आर्सेनिक Arsenic (संख्या) (As) - आर्सेनिक औषधि उद्योग, सीसा मिश्रित वर्तन एवं कीटनाशक औषधियों के निर्माण से उत्सर्जित पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है। यह धरातल में 53वें तत्व के रूप में पायी गयी इस तत्व की औसत सांद्रता 1.8 (μg./I) है। आर्सेनिक तत्व भू-रासायनिक स्थिति तथा स्थान-स्थान पर उद्योगों की बदलती स्थिति के अनुसार बदलता हुआ पाया गया। आर्सेनिक अकार्बनिक जल में सबसे अधिक पाया गया गोमती नदी के जल में आर्सेनिक की मात्रा सभी स्थानों में नगण्य पायी गयी।
कैडमियम Cadmimum : (Cd) - कैडिमियम इलेक्ट्रोप्लेटिंग तथा निकिल की पॉलिश, बैट्रियों के गोदाम, स्नेहक पदार्थ सीसा और फोटोग्राफ बनाने वाले उद्योगों से उत्सर्जित किया जाता है। कुछ मात्रा प्राकृतिक रूप से धरातल में पायी जाती है। गोमती नदी से संकलित नमूनों में यह अपने निर्धारित स्तर (0.005 μg/I) से कम पाया गया मोहन मीकिन से लिये गये नमूने में कैडमियम की मात्रा 0.006 μg/I पायी गयी। (परिशिष्ट-21)
क्रोमियम Chromium : (Cr) - यह उद्योगों के उत्सर्जित पदार्थ, रासायनिक उद्योगों, क्रोमियम की प्लेटों, पेंटों के माध्यम से उत्सर्जित होता है। पुर्जे बनाने, पेपर बनाने, कपड़ा धागा, कांच बनाने तथा फोटोग्राफी के कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है। गोमती नदी जल से लिये गये नमूनों में क्रोमियम का स्तर 0.005 μg/I से कम पाया गया केवल नीमसार और भाटपुर में मानक से कुछ अधिक था।
लोहा Iron : (Fe) - इस्पात उद्योगों, विद्युत उपकरणों, प्लास्टिक उद्योगों, पालिसिंग प्रक्रिया आदि में लोहे का उपयोग किया जाता है। लोहे की मात्रा किसी भी मिट्टी में प्राकृतिक रूप में भी पायी जाती है। गोमती नदी जल के लिये गये नमूनों में इसकी मात्रा नीमसार से पिपराघाट तक क्रमश: बढ़ती ही जाती है। बाराबंकी में जाकर कुछ कम होती है। लिये गये 70 प्रतिशत नमूनों में लोहे की मात्रा उचित स्तर से अधिक थी। नगर में पेयजल के लिये भेजे जाने वाले नदी जल में इसकी मात्रा 0.3 mg/I है। जो मानक से अधिक है। लिये गये 520 नमूनों में 355 नमूनों में लोहे की मात्रा अधिक पायी गयी।
सीसा Lead : (Pb) - रासायनिक अम्ल और रासायनिक यौगिक उत्पन्न करने वाले उद्योग सीसा अधिकतम उत्सर्जित करते हैं। सीसे का उपयोग विविध उद्योगों विद्युत, इलेक्ट्रॉनिक, बैट्री, दवाओं की पैकिंग, पेंटस, टैंकों के निर्माण आदि में किया जाता है। यही सीसे के उत्सर्जक भी हैं। सीसे का उपयोग लगभग 200 उद्योगों में किया जाता है। इस प्रकार इसके विविध रूपों में उत्सर्जक हैं। गोमती नदी से संकलित सभी नमूनों में सीसे की मात्रा पायी गयी 8 स्थानों से संकलित नमूनों में इसकी मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पेयजल के लिये निर्धारित मात्रा .05 mg/I से कम थी नदी जल के लिये गये 520 नमूनों में से केवल 13 में ही सीसे की उपस्थिति .05 mg/I से अधिक थी।22
उपर्युक्त प्रमुख रसायनों के अतिरिक्त पारा, (Hg), तांबा (Cu) मैग्नीज (Mn) जिंक (Zn) निकिल (Ni) आदि खनिजों की परिमित मात्रा गोमती जल में पायी गयी। परिशिष्ट-21 बीएचसी, डीडीटी तथा इण्डोसल्फान जैसे घातक कीटनाशकों की मात्रा गोमती जल में निर्धारित मानक से अधिक पायी गयी है। (तालिक - 2.9)
गोमती नदी के तल में लखनऊ के आस-पास भारी पदार्थों का प्रदूषण
लखनऊ विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के डॉ. सुरेंद्र कुमार11 ने मई 1988 में गोमती नदी की तली में पाये जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों की स्थिति का अध्ययन कर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया। प्रबुद्ध प्रोफेसर डॉ. सुरेंद्र कुमार ने अपने अध्ययन में पाया कि तलीय मिट्टी में तांबा, मैग्नीज, सीसा, क्रोमियम और फास्फेट की मात्रा विद्यमान है। किंतु लोहा, कार्बन मोनोऑक्साइड और निकिल की मात्रा में कोई वृद्धि नहीं हुई, कैडमियम भी पृथककरण की सीमा के अंदर नहीं था, फास्फेट, तांबा, सीसा और जिंक के साथ अपना सम्बन्ध प्रकट करता है। (परिशिष्ट-22)
गोमती नदी तलीय प्रदूषण अध्ययन के लिये लखनऊ नगर के निकट का 9 कि.मी. का क्षेत्र चुना गया तथा 8 स्थानों से नदी तल के कीचड़ के नमूने लिये गये। नमूने अवरोही धारा से लिये गये। नमूने तांबा और मैग्नीज की आंशिक वृद्धि को प्रकट करते हैं।
संकलित नदी तलछटीय पदार्थ के प्रथम नमूने में फास्फेट की मात्रा 0.5 प्रतिशत है। यहीं पर नगर निगम के नाले नदी में मिलते हैं। चतुर्थ नमूना संग्रहण स्थल जो कि हनुमान सेतु के पास स्थित है कि मात्रा अधिकतम 1.83 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। फास्फेट की यह बढ़ती मात्रा नदी जल की गुणवत्ता को प्रदर्शित करती है। इसके बढ़ते प्रभाव से नदी जल में ऑक्सीजन की कमी तथा फ्लोश (घास) तथा एल्गी जैसी वनस्पतियों का तेजी से विस्तार होता है।
सीसा, मैग्नीज और जस्ता की उच्चतम सांद्रता नमूना संख्या 8 जोकि भैसा कुंड के पास से लिया गया अभिलेखित की गयी। यहाँ क्रोमियम की मात्रा भी अधिक है। वर्तमान अध्ययन से यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भविष्य में यह तत्व नदी तल में और अधिक मात्रा में तीव्रगति से वृद्धि करेंगे।
फास्फेट का सह सम्बन्ध तांबा, सीसा जस्ता और मैग्नीज के साथ प्रदर्शित होता है फास्फेट की यह मात्रा नगर निगम के उत्सर्जित पदार्थों से बढ़ती है। क्रोमियम भी जस्ते के साथ अपना सह सम्बन्ध प्रकट करता है। इसी प्रकार सीसे का तांबा जस्ता और मैग्नीज के साथ अपना सह सम्बन्ध प्रकट करता है। नगर निगम के अपशिष्ट वाहक नाले और सीवर नदी में फास्फेट तथा अन्य भारी पदार्थों के बढ़ने का कारण है। लोहा, कोबाल्ट, निकिल में यह वृद्धि बहुत कम है। जो पृथक करण की सीमा से परे है। गोमती के नमूना मृदाखंड में तांबा, सीसा, जिंक और कोबाल्ट की मात्रा मानक से तीन गुना कम पायी गयी। नमूना संख्या 1 वर्तमान परिस्थिति की तुलना को प्रदर्शित करता है कि फास्फेट की मात्रा अपनी पृष्ठ भूमि से तीन गुने पर है। (परिशिष्ट- 23)
इस प्रकार भारी पदार्थों और फास्फेट की गोमती नदी तल की एक निश्चित वृद्धि का कारण रासायनिक क्रियाओं की गतिविधि है। किंतु पृष्ठभूमि के महत्त्व की तुलना में तथा विश्व के प्रमाणिक मानकों की तुलना में गोमती तल को भारी तत्वों से बहुत प्रदूषित नहीं कहा जा सकता है। फास्फेट की तीन गुनी से अधिक वृद्धि जिसके साथ भारी पदार्थों का एकात्मक सह सम्बन्ध है इसे कार्बनिक प्रदूषण की एक कड़ी कहा जा सकता है। इसका कारण महानगर लखनऊ के गोमती नदी में अपशिष्ट पदार्थ छोड़ने वाले नाले हैं।
भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग लखनऊ के वैज्ञानिक पंकज माला, एम. वरनवाल तथा औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र के एसके रस्तोगी12 ने एक संयुक्त अध्ययन ‘‘लखनऊ की पर्यावरणीय समीक्षा’’ में बताया है कि छ: सौ वर्ग कि.मी. के नगरीय क्षेत्रफल में बसे शहर लखनऊ की मृदा तटीय मैदान जैसी है। यहाँ की आबादी काफी घनी है। कुछ प्रमुख स्थलों के लिये गये नमूने के अध्ययन से बताया कि गोमती जल के पीएच का स्तर 7.85 से 9.05 तक परिवर्तनीय है। जल में घुलनशील कठोर पदार्थ, क्लोराइड, फ्लोराइड और सल्फेट एवं नाइट्रोजन सहनीय सीमा तक उपस्थित है। लिये गये नमूनों में लोहे की उपस्थिति अधिक है। हैंडपंपों से लिये गये नमूनों में बैक्टीरिया की उपस्थिति मानक के विपरीत पायी गयी। 23 नमूनों में 11 नमूने ठीक नहीं पाये गये जो कुल के 50 प्रतिशत नमूने हैं। इस प्रकार भारतीय भू-गर्भ सर्वेक्षण विभाग ने नगर के जलस्रोतों को अधिकतर अशुद्ध ही घोषित किया जो एक चिंताजनक स्थिति है।
गोमती नदी के तटीय भागों में आर्सेनिक की उपस्थिति का अध्ययन भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग के सुभाषचंद्र, रश्मी श्रीवास्तव और वाचस्पति श्रीवास्तव13 ने किया। सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिकों ने खदरा से लेकर गोमती बांध तक 10 स्थानों के नदी जल के नमूने लिये विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला कि पक्का पुल, हनुमान सेतु एवं गोमती बांध के नमूनों में 40 से 60 g/I में आर्सेनिक की मात्रा उपस्थिति है। जबकी खदरा, अलीगंज, निषातगंज में 10 से 20 g/I पाया गया। आर्सेनिक द्वारा गोमती जल के प्रदूषण का कारण शहर का तेजी से औद्योगीकरण होना है तथा नगरीय सीवरों का सीधे गोमती में उत्सर्जन करना है। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नियमित रूप से गोमती जल की गुणत्ता का अध्ययन करने के लिये नदी जल के नमूनों का संग्रहण कर अपनी प्रयोगशाला में परीक्षण और विश्लेषण की व्यवस्था की है।
गोमती नदी के विविध स्थानों से लिये गये नमूनों की परीक्षण स्थिति का विवरण तालिका 3.18 में प्रस्तुत किया गया है। घुलित ऑक्सीजन (डीओ) जल के सामान्य स्वास्थ्य का द्योतक है। स्वच्छ जल में इसकी मात्रा 6 mg/I ऑक्सीजन होनी चाहिए। इसकी कमी से जल में दुर्गंध, प्रकाश अवरूद्धता तथा वांछित जल जीवन का अभाव हो जाता है।
प्रथम नमूना स्थल गऊघाट है जहाँ नदी जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित मानक के अनुसार ठीक पायी गयी जो 7.2 mg/I हैं किंतु द्वितीय स्थान पर निर्धारित मानक से ऑक्सीजन की मात्रा एक तिहाई पायी गयी जो नगरीय अपशिष्टों द्वारा नदी जल की गुणता को प्रभावित करने का द्योतक है। यही स्थिति 1994 को पायी गयी जहाँ गऊघाट में 8.7 mg/I ऑक्सीजन की मात्रा रही, पिपराघाट पर डीओ की मात्रा निर्धारित मात्रा से 1/2 पायी गयी।
बीओडी जैव रासायनिक घुलनशील ऑक्सीजन को प्रदर्शित करता है। ऑक्सीजन निर्धारित मात्रा 2.0 mg/I से कम है। 1993-94 में दोनों ही वर्षों में गऊघाट में वीओडी की मात्रा निर्धारित सीमा के निकट पायी गयी किंतु द्वितीय स्थान पर तीन गुने से अधिक पायी गयी यह मत्स्य पालन के योग्य भी नहीं थी। डीओ की मात्रा वर्षाऋतु में मध्यम स्तर पर शरद ऋतु में अधिक तथा ग्रीष्म ऋतु में सबसे कम पायी गयी तथा गऊघाट स्थल पर निर्धारित मानक के निकट पायी जाती है। शरद ऋतु में निर्धारित मानक से काफी ऊपर पायी गयी द्वितीय नमूना स्थल पर दोनों ही वर्षों में निर्धारित मानक से काफी कम पायी गयी। ग्रीष्म काल में पिपराघाट में यह मात्रा 1.82 और 1.92 पायी गयी। जो न्यूनतम सीमा के 1/3 के लगभग था। बीओडी अपनी न्यूनतम सीमा से तीनों ऋतुओं में अधिक पाया गया। गऊघाट में पिपराघाट के अपेक्षा यह मात्रा निर्धारित सीमा के दोगुने से अधिक रही। जबकि पिपराघाट में 3 से 4 गुना अधिक पाया गया।
कुल कॉलीफार्म की उपस्थिति कीटाणुओं की शीघ्र उपस्थित और वृद्धि को प्रदर्शित करता है। कॉलीफार्म मानव तथा पशुमल मूत्र में अधिकता से विद्यमान रहते हैं। बैक्टीरिया प्रति 100 ml में 10 से अधिक नहीं होना चाहिए। वर्ष में एकत्रित नमूनों के 50 प्रतिशत में बैक्टीरिया का अभाव होना चाहिए। यह पेयजल में MPN-50/100ml से कम, स्नान जल में MPN-500/100ml से कम तथा मत्स्य पालन हेतु MPN-5000/100 से कम होना चाहिए। कॉलीफार्म शरद ऋतु में अधिक मात्रा में तथा ग्रीष्म और मानसून काल के दौरान यह मात्रा बहुत अधिक रही। गऊघाट से आगे बढ़ने पर पिपराघाट तक यह मात्रा सभी ऋतुओं में शत प्रतिशत से अधिक पायी गयी।
जलगुणता अनुश्रवण वर्ष 1995 में गोमती नदी जल नमूनों का उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 9 स्थानों से संकलन किया तथा उसकी गुणता (तालिका- 3.18) को यहाँ लेकर मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है।
प्रथम नमूना स्थल सरौराघाट में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 9.6 mg/I है जैसे-जैसे नगर के आगे स्थलों के नमूनों में ध्यान देते हैं तो घुलित ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। मोहन मीकिन के नाले तक जल में ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित मानक के निकट पायी जाती है। इसके पश्चात क्रमश: जल में ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से घटती है। हनुमान सेतु में घुलित ऑक्सीजन 1/2 और बैराज में यह ऑक्सीजन की मात्रा 1/3 तक रह जाती है। जो मछलियों के लिये भी जीने के लिये कम है। इसी प्रकार शरद ऋतु में डीओ की मात्रा ग्रीष्म और मानसून काल से अधिक पायी गयी है। डीओ की मात्रा ग्रीष्मकाल में सबसे कम अपस्ट्रीम बैराज पर 1.43 mg/I पायी गयी गोमती नदी में जहाँ नगरीय नाले अपशिष्ट पदार्थों का अधिक मात्रा में उत्सर्जन करते हैं वहीं से ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है। 70 प्रतिशत नमूनों में ऑक्सीजन निर्धारित मानक से नीचे पायी गयी।
गोमती जल के नमूनों में पीएच मान 8 से अधिक पाया गया जो गोमती नदी जल के क्षारीय गुण को दर्शाता है। 1996 के माह अक्टूबर-नवंबर में पीएच मान निर्धारित सीमा से अधिक पाया गया जो मनुष्यों के लिये ही नहीं नदी में मछलियों सहित अन्य जीवों के लिये काफी नुकसान दायक है। (परिशिष्ट-24) जल में डीओ तथा पीएचमान दोनों ही मछलियों के लिये अपनी जीवन क्रिया चलाने के लिये उपयुक्त वातावरण प्रदान करते हैं। गोमती नदी से लिये गये नमूनों में ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित मानक 4 mg/I से कम पायी गयी। अनुश्रवण से स्पष्ट है कि गोमती नदी के जल में ऑक्सीजन की मात्रा निरंतर कम होती जा रही है। यह जल पीने योग्य तो है ही नहीं, स्नान के लिये इसका प्रयोग हानिकारक हो सकता है। इससे उदर और त्वचा रोगियों की संख्या बढ़ेगी। ऑक्सीजन की कमी से मछलियों में एस्फिक्सिया नामक बीमारी हो जाती है। इससे मछलियाँ सांस नहीं ले पाती है। और उनकी मृत्यु हो जाती है।
गोमती नदी से शहर के अधिकांश हिस्सों में जल की आपूर्ति के लिये जल गऊघाट से लिया जाता है वहाँ आॅक्सीजन की मात्रा निर्धारित मानक से अधिक पायी गयी। पीने के लिये डीओ मानक 6.5 से 8.5 mg/I हैं जबकि यहाँ पर डीओ 8.9 mg/I पाया गया।
इस प्रकार से पिपराघाट डाउन स्ट्रीम पर बीओडी एवं कॉलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या जल में सीवेज अपशिष्ट के कारण बढ़ जाती है। नगरीय पेय जल के स्रोत नदी, नलकूप, हैण्डपम्प आदि हैं, जो नगरीय गतिविधियों तथा नागरिकों के उपेक्षा के कारण प्रदूषित होते जा रहे हैं नगर की झीलें, तालाब, नहरें आदि भी बहुत अधिक प्रदूषित हो चुके हैं इसलिये नगर के जल प्रदूषण के स्रोतों का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है।
ब. जल प्रदूषण के स्रोत
नदियों, नालों, झरनों, झीलों, तटवर्ती सागरीय क्षेत्रों, भूगर्भ जलस्रोतों तथा जलपूर्ति के स्रोतों का प्रदूषण मुख्य रूप से सीवर, घरेलू तथा नगरीय अपशिष्ट पदार्थों की भारी मात्रा, औद्योगिक नालियों तथा जल धाराओं, वायुमंडलीय पदार्थ, अपक्षयित ठोस एवं चट्टानी पदार्थ आदि हैं। सीवर-व्यवस्था में विद्यमान कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थ, नाइट्रेट और फास्फेट जैसे अतिमात्रक पोषक तत्व अनेक अपघटकों-बैक्टीरिया और फंगी की वृद्धि में सहायक होते हैं जो जलराशि में सीवर के मिलने के साथ ही अलग हो जाते हैं जिससे प्रदूषण उत्पन्न होता है। फास्फेट, अमोनिया और नाइट्रेट के यौगिक डिटर्जेंट्स और उर्वरक जो वर्षा जल द्वारा नदियों में बहकर आ जाते हैं और एल्गी की अतिवृद्धि में सहायक होते हैं यह जल में अनाक्सीकरण तथा दुर्गंध का स्रोत होती है।
सूक्ष्म धूल कण, बालू, मिट्टी, अयस्क आदि का पानी में लटकना तथा अम्लों, क्षारों फेनोल, तांबा, सीसा, जिंक, पारा, कीटनाशक, फफूंदी, सल्फाइट सल्फर तथा लौह और लवण के मिश्रण भी जल को प्रदूषित करते हैं। तेल के कुओं, स्वचालित वाहनों की धुलाई, टैंकरों का रिसाव तथा दुर्घटना से निकले तेल द्वारा भी जल प्रदूषित होता है। उद्योगों के अंतर्गत चर्म शोधक, चीनी मिलों, जूट मिलों, मांस पैकिंग आदि की क्रियाएँ तथा दीर्घ काल तक रहने वाले प्रदूषकों से भी जल प्रदूषण होता है। जल प्रदूषण का 2/3 भाग केवल निर्माण उद्योग, परिवहन तथा कृषि उद्योगों द्वारा होता है। जल प्रदूषण की प्रकृति एवं सघनता अनेक कारकों, माकानों के अपशिष्ट निष्तारण तथा उपचार व्यवस्था, उनमें मिलने वाली जल राशियों की जल विज्ञान सम्बन्धी दशाएँ, नदियों की स्वत: शोधन सम्बन्धी क्षमता, पदार्थ उत्पन्न करने वाले समुदायों की सामाजिक आर्थिक दशाएँ, मिट्टी और वनस्पति के प्रकार आदि से सम्बन्धित है।
जल प्रदूषण के भौतिक स्रोत- जल का रंग, प्रकाश भेद्यता, तेल एवं ग्रीस, कठोरता, लटकते एवं घुले ठोस कण आदि, खराब रंग, सल्फाइड्स, फेनोलिक यौगिकों, सीवरों की व्यवस्था एवं पेट्रोरासायनिक जल धाराओं से प्रदूषण उत्पन्न होता है।
रासायनिक स्रोत- अम्ल, लवण, क्षार तथा रेडियो धर्मी पदार्थ रासायनिक प्रदूषक है। ये उद्योगों तथा सीवर व्यवस्था से निकलते हैं। मुख्य रासायनिक प्रदूषक-क्लोराइड्स, सल्फाइड्स, कार्बोनेट, अमोनिया युक्त नाइट्रोजन, नाइट्रेट नाइट्रीट, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, साइनाइट, भारी धातुओं में जिंक, पारा, सीसा, आर्सेनिक, बोरीन आदि है। इनमें से पारा तथा साइनाइट्स जलजीवन के लिये अत्यंत खतरनाक है।
नगरीय जलस्रोतों के प्रदूषित होने का कारण, अपशिष्ट वाहक नाले, सीवर, टैंक तथा जलापूर्ति की जीर्ण पाइप लाइनें हैं। नगर में पेयजल की आपूर्ति गोमती नदी से की जाती है। गोमती नदी लखनऊ नगर की जलापूर्ति का प्रमुख स्रोत हैं गोमती नदी से प्रति दिन 280 mld जलापूर्ति की जाती है, इतनी ही जलापूर्ति भू-गर्भ जल से नलकूपों द्वारा की जाती है। इस जल का विविध रूपों में उपयोग किया जाता है तथा जल अपशिष्ट रूप में नालों और सीवरों द्वारा गोमती नदी में छोड़ दिया जाता है।
गोमती जल प्रदूषण के स्रोत : नाले, नदियाँ तथा सीवर
लखनऊ नगर में 31 नाले हैं, जिनमें 25 सीधे नदी में गिरने वाले हैं। नालों में प्रवाहित कचरे की मात्रा 1993 में मापी गयी और पाया गया कि उनमें प्रवाहित कचरे की मात्रा 230 mld की रही और 1996 में यह मात्रा 310 mld की है। जिसमें कि औद्योगिक अपशिष्टों को नहीं लिया गया।
मोहन मीकिन का उत्सर्जित पदार्थ जो गोमती को अत्यधिक प्रदूषित करता है। इसमें बीओडी 300 से 650 पीपीएम की मात्रा में रहती है। नालों के निस्तारित अपशिष्ट पदार्थों के शोधन का उचित व्यवस्था न होने से सीधे गोमती में गिराये जाते हैं। जनसंख्या वृद्धि तथा मकानों की वृद्धि के साथ सीवरों के निर्माण के लिये भूमि का अभाव रहता है। इसलिये इन्हें किसी तरह गोमती में गिरा दिया जाता है।
गोमती नदी में नीमसार से लेकर जौनपुर शहर तक 44 नाले नदियाँ गोमती नदी में अपना प्रदूषित जल छोड़ते हैं। उ.प्र. जल निगम ने इनको क्रमबद्ध किया है। (परिशिष्ट- 25)
लखनऊ के बड़े नालों में सरकटा नाला पाटानाला, बजीरगंज नाला, गल्लागण्डी नाला, कुकरैल नाला, गौस हैदर कैनाल हैं जो गोमती नदी में सर्वाधिक प्रदूषित अपशिष्ट पदार्थों का निस्तारण करते हैं। मोहन मीकिन नाला 3.0 mld प्रदूषित जलनदी में छोड़ता है जिसका निस्तारित जल सर्वाधिक प्रदूषित होता है गर्मियों के दिनों में जब नदी में जल की मात्रा कम होती है तो इसके निस्तारित जल के प्रभाव से नदी का जल काला पड़ जाता है। कई बार इसके प्रभाव से नदी के जल जीवों मछलियों आदि का सामूहिक संहार हो चुका है। इसी प्रकार विवेक गन्ना मिल के निस्तारित जल का प्रभाव नदी जल पर पड़ता है। सरकटा नाला और पाटा नाला नदी के करीब गऊघाट पम्पिंग स्टेशन के पास मिलते हैं। जिनके प्रभाव से नदी नगरीय सीमा में ही काफी प्रदूषित हो जाती है। इसके अतिरिक्त नदी जल औद्योगिक इकाइयों से भी लगातार दूषित होता है। इन औद्योगिक इकाइयों की संख्या और उत्सर्जन क्षमता भी लगातार बढ़ती जा रही है।
गोमती जल की प्रदूषक औद्योगिक इकाइयाँ
गोमती नदी में कई औद्योगिक इकाइयाँ अपना निस्तारित जल नालों और सहायक नदियों के माध्यम से छोड़ती है। इन औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषित जल से गोमती जल की गुणवत्ता प्रभावित है। राज्य का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उद्योगों से निकलने वाले कचरों की उचित देखभाल के लिये लगातार दृष्टि रखता है तथा इन उद्योगों को अपना कचरा नदी तथा खुली जगहों में डालने से रोकता है। फिर भी गोमती नदी प्रदूषण की दृष्टि से देश की अग्रगण्य नदियों में आती है। गोमती नदी सीतापुर जिले की हरगाँव चीनी मिल में स्थित शराब फैक्ट्री से अधिक प्रभावित है। यह फैक्ट्री अति प्रदूषित विषैले पदार्थ एल्डीहाइट और कीटोन्स जैसे पदार्थ जिनमें बीओडी इत्यादि 40,000 mg/I की दर से मिले होते हैं। हरगाँव मिल का उच्छिष्ट पदार्थ सराय नदी के माध्यम से गोमती नदी में पहुँचता है। इसी प्रकार लखनऊ नगर की मोहन मीकिन शराब फैक्ट्री अपना अतिप्रदूषित जल गोमती नदी में सीधे प्रवाहित कर देती है। यद्यपि मोहन मीकिन शराब फैक्ट्री ने प्रदूषण नियंत्रण प्लांट बैठा लिया है और यह बीओडी 40,000 mg/I के स्तर से घटाकर 200 mg/I के स्तर पर नदी में कम करके डालती है। ठीक इसी प्रकार सुल्तानपुर जिले के जगदीशपुर और मुसाफिर खाना नामक नगर अपने उद्योगों के कारण इसे अति प्रदूषित करते हैं। इसके अतिरिक्त हरदोई और बाराबंकी नगर की औद्योगिक इकायों का प्रदूषित जल तथा नगरीय जलमल नालों द्वारा इसमें पहुँच कर प्रदूषित करता है। लखनऊ महानगर होने के कारण सर्वाधिक औद्योगिक इकाइयों का प्रदूषित जल गोमती नदी में प्रवाहित करता है। कई बार तो मोहन मीकिन सहित अन्य औद्योगिक इकाइयाँ प्रदूषित जल रात्रि के समय भारी मात्रा में प्रवाहित कर नदी जलजीवन के लिये संकट उपस्थित करती हैं। (परिशिष्ट- 26)
गोमती नदी में प्रदूषण की स्थिति पर विचार किया जाए तो नगरीय व्यवस्थाओं का प्रभाव उत्तरदायी होता है। गोमती नदी तट पर यद्यपि 12 नगर स्थित है जिनमें सर्वाधिक रूप से लखनऊ, सुल्तानपुर, जौनपुर तीन नगर प्रदूषण का कारण बनते हैं। सीतापुर, हरदोई, प्रतापगढ़, बाराबंकी तथा रायबरेली, नगरों के नदी से दूर होने पर इनका नदी पर प्रदूषण भार कम है। लखनऊ, सुल्तानपुर, जौनपुर नगर बहुत घने बसे हैं। औसत जन घनत्व लखनऊ 212 सुल्तानपुर 110, जौनपुर 55 हेक्टेयर है। लखनऊ नगर की औद्योगिक इकाइयाँ उत्पादक कार्यों से जुड़ी हुई है। जलप्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों में मांस की दुकानें, वाहनों की धुलाई, जैसी इकाइयाँ जल को सर्वाधिक प्रभावित करती है। लखनऊ तथा अन्य गोमती से लगे नगरों में यह इकाइयाँ तीव्र गति से बढ़ रही है। जितनी गति से जनसंख्या बढ़ी उतनी गति से वाहनों की संख्या तथा उनसे सम्बन्धित मरम्मत इकाइयाँ और मांस उत्पादक कसाई बाड़े बढ़ें। लखनऊ नगर में वर्तमान में लगभग अनुमानित आकड़ों के अनुसार 25 लाख की जनसंख्या है और नगर में 5 लाख से अधिक पेट्रोल/डीजल चलित वाहनों की संख्या है। इस प्रकार नगर में 300 से अधिक वाहन धुलाई केंद्र और 700 मांस विक्रय इकाइयाँ हैं जहाँ औसत प्रतिदिन 5 बकरों/सुअरों की कत्ल की जाती है और प्रतिदिन 10 बड़े वाहनों की धुलाई होती है। जिनका अति प्रदूषित जल नालों, सीवरों के माध्यम से गोमती नदी में पहुँचता है। तथा भूगर्भ जल को भी प्रदूषित करता है।
लखनऊ महानर के उत्सर्जित जल की उत्पत्ति और उसके बहाव को जीपीडी नई दिल्ली के निर्देशानुसार स्वस्थ ऋतुओं में सर्वे किया गया। इसमें गंदे नालों की प्रतिघंटा बहाव की स्थिति को भी पाया गया। बहाव के अनुपात के समानुपातिक नमूने लेकर इसे विभिन्न प्रयोग शालाओं जैसे यूपीपीसीबी लखनऊ, आईटीआरसी लखनऊ, रूड़की विवि, आदि में मापा गया। इसमें तीन कार्य दिवस और एक अवकाश दिवस के नमूने लिये गये, उपरोक्त प्रयोग शालाओं में पाये गये नमूने नदी के निम्न, मध्य और ऊपरी सतह से भी लिये गए, जो क्रमश: नदी किनारे से 2 से 5 मी. तथा मध्य धारा से भी लिये गए और इन्हें भी प्रयोगशाला में जाँचा गया। (परिशिष्ट- 27)
सीवर जनित उत्छिष्ट पदार्थ
लखनऊ महानगर में 1993 में सीवरों का बहाव 226 mld प्रतिदिन था इन नालों में 132 पीपीएम, बीओडी पाया गया, यह नमूने प्राय: सभी नालों से लिये गये थे। लखनऊ जल नगर के प्रतिवेदन में बताया गया की, नालों की उत्सर्जन क्षमता 1996 में 304 mld है। नगर के उत्सर्जित जल की मात्रा नगरीय नागरिकों के लिये पूर्ति किए जाने वाले जल पर तथा उपभोग की मात्रा पर निर्भर करती है।
परिशिष्ट-28 में लखनऊ नगर की जल निस्तारण की स्थिति का आकलन किया गया। जिनका 2.4102 एमएलडी मी3/सेकेंड का निस्तारण 2.4102 औसत है। जो शुष्क मौसम के न्यूनतम उत्सर्जित जल का लगभग दोगुना है। और अधिकतम स्थिति का लगभग 1/2 है। नगर के दाहिने किनारे का जल उत्सर्जन औसत बायें तटीय किनारों के उत्सर्जक स्रोतों से दोगुने से अधिक है। जनसंख्या की दृष्टि से नगर लखनऊ मुख्य रूप से बायें किनारें पर बसा है। औसत की अपेक्षा अधिकतम न्यूनतम स्थिति में चार गुने का अंतर आता है।
गौस हैदर कैनाल, घसियारी मंडी, वजीरगंज, सरकटा और पाटानाला क्रमश: बड़े उत्सर्जक स्रोतों के रूप में गोमती नदी के दाहिने किनारे में मिलते हैं। कुकरैल, डालीगंज तथा निशातगंज नाले बाये किनारे के बड़े उत्सर्जक स्रोत हैं। जो गोमती नदी के प्रदूषण को लगातार बढ़ा रहे हैं। 1993 में मापे गये मल-जल के साथ में नगर की सीवरों का भी अध्ययन किया गया। सीवरों में 226 mld प्रतिदिन जलमल का उत्सर्जन होता है। नालों का औसतभार सीवरों के औसतभार के लगभग समान है। 208 mld प्रतिदिन नालों का औसत भार है। सीवरों में सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले पम्पों में 3 नं. पम्प महानगर का है। जो प्रतिदिन 20 घंटे पम्पिंग का कार्य करता है। और प्रतिमिनट 7220 ली. सीवर जल का उत्कर्षण करता है। टीजीपीएस सीवर प्रतिदिन 6 घंटे कार्य करता है। यहाँ 5 पम्प लगाए गए जिनमें एक पम्प ही काम करता है। तथा प्रति मिनट 5450 ली. जल का उत्कर्षण कर नदी में प्रवाहित करता है। नगर के सर्वाधिक उत्सर्जक सीवरों में सीजीपीएस सीवर है जो प्रतिमिनट 36320 ली. सीवर जल का उत्कर्षण करता है तथा इसका 2 नं. का पम्प भी इतने ही जल का उत्कर्षण करता है। (परिशिष्ट 29) नगर की जनसंख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जाती है। और नगरीय सीवर लाइनों पर मल-जल का दबाव बढ़ता जाता है। यह सीवर जल एक ओर नदी का जल प्रदूषित करता है तो दूसरी तरफ से इनके प्रभाव से भू-गर्भ जल भी प्रदूषित होता है यद्यपि इनके प्रभाव से बचने के लिये सीवर लाइनों की अंदर की दीवारों पर सीमेंट का अच्छा प्लास्टर किया जाता है। जो काफी हद तक अपने दुष्प्रभाव को भूमि पर प्रवेश से बचाता है किंतु दुष्प्रभाव को समाप्त नहीं कर पाता है।
नगर निगम तथा जलनिगम ने नगर के प्रमुख उत्सर्जक नालों की वर्तमान स्थितियों के साथ आगे आने वाले समय में नगरीय जनसंख्या के दबाव के साथ उत्सर्जकों की मात्रा का भी पूर्वानुमान लगाया है। इस पूर्वानुमान की स्थिति पर विचार किया जाए तो पता चलता है। प्रत्येक उत्सर्जक स्रोत पर 10 वर्ष बाद 80 प्रतिशत दबाब अधिक होगा तथा उसके उत्सर्जन भार के प्रभाव से नदी किसी भी दशा में बेहतर स्थिति को नहीं प्राप्त कर सकेगी एक ओर बढ़ती जनसंख्या के लिये पेयजल सुविधा सुलभ कराने के लिये नदी से अधिक जल को पम्प करना पड़ेगा, अत: नदी का जल कम होगा तथा प्रदूषित जल उतनी ही अधिक मात्रा में उत्सर्जित होगा। नालों में सबसे अधिक उत्सर्जन गौस हैदर कैनाल का रहता है। जो केवल स्वयं में दाहिने तट के नालों की कुल मात्रा के 1/2 के भार के बराबर है जिसमें की नगर के दाहिने किनारे पर मिलने वाले 14 नाले हैं। इसी प्रकार बायें किनारे पर मिलने वाले कुकरैल नाले की स्थिति है। जो कुल 16 नालों के दो गुने से अधिक का उत्सर्जन है। नगरीय नालों के 310 mld के प्रदूषित जल का अनुमान किया गया है। जो नदी की क्षमता को देखते हुए बहुत अधिक है। (परिशिष्ट- 30)
लखनऊ नगर का सर्वाधिक प्रदूषित जल गौस हैदर कैनाल द्वारा गोमती नदी में छोड़ा जाता है। जिसके 1993 की मापी गयी मात्रा 73.164 mld है। 1996 में इस नाले की बहाव मात्रा का स्तर 100.00 mld अनुमानित किया गया है। इस नाले के जल का पीएच मान (7.2-9.2) नगर के प्रमुख नालों में सर्वाधिक है। नाले में बीओडी की मात्रा सभी 25 उत्सर्जक स्रोतों में सबसे कम 145.24 तथा अधिकतम 867.30 है। इसी प्रकार सीओडी की मात्रा भी अपनी उचित सीमा के अनुसार नहीं है। बीओडी की मात्रा राष्ट्रीय मानक संस्थान के अनुसार पाँच दिन में 200C तापमान पर निर्धारित की जाती है। नदी जल में ऑक्सीजन का निर्धारण बीओडी की उपस्थिति से लगाया जाता है। यह नदी की ऑक्सीजन को सोख लेता है। किंतु नदी के आगे बहने पर इसमें पुन: संतुलन स्थापित हो जाता है। बीओडी की सहनशील सीमा, नदी में जल की मात्रा, प्रवाह गति तथा तापमान आदि कारकों पर निर्भर करती है। इसकी सहनशील सीमा, मानक संस्थान द्वारा 30 mg/I निर्धारित की गयी है।
नदी जल में नालों का 438.57 से 1245.07 तक सीमा का उच्छिष्ट जल मिलता है। जिनमें सर्वाधिक प्रदूषित जलस्तर का स्रोत गऊघाट नाला है। (1245.07 mg/I) इसी श्रेणी में नगर के चार अन्य नाले अपना जल गोमती में छोड़ते हैं। मानक संस्थान ने इसके लिये सीमा 100 mg/I निर्धारित की है। यह नगर के प्रत्येक उच्छिष्ट जलस्रोत से बहुत कम हैं।
नगरीय क्षेत्र के नालों का टीएसएस का स्तर जो कि कुल लटकते ठोस कणों को प्रदर्शित करते हैं। इसकी सीमा 50 mg/I है। जिनमें नगर के सभी स्रोतों में इसकी मात्रा दोगुने से लेकर 10 गुने से भी अधिक की मात्रा पायी जाती है। (परिशिष्ट-27) गोमती नदी के प्रदूषण का कारण लखनऊ के नालों के अतिरिक्त ग्रामीण कृषि निस्तारित पदार्थ और वर्षा के दिनों में मानव और पशु मल तथा रसायनों, कीटनाशकों खर पतवार नाशकों का जल में घुलकर नदी तक पहुँचना है।
ग्रामीण एवं कृषि जनित प्रदूषित पदार्थ
गोमती नदी अपने उद्गम स्थल से गंगा में संगम स्थल तक की 730 किमी की दूरी तय करती है। 23735 वर्ग किमी क्षेत्र इसके प्रवाह क्षेत्र में आता है। इस दौरान नदी में कल्याणी, कांथा, सरायन, रैथ, लूनी तथा सई, प्रमुख सहायक नदियाँ मिलती है। इन नदियों द्वारा गोमती नदी में 15 जिलों के विविध स्थानों का प्रदूषित जल मिलता है। इस नदी का प्रभाव क्षेत्र उ.प्र. के क्षेत्रफल का 8.7 प्रतिशत है। अपने इस दौरान नदी अपने तटीय तथा प्रवाह क्षेत्र में आने वाले निवासियों द्वारा तथा कृषि प्रक्षेत्रों से विविध प्रकार के प्रदूषण युक्त पदार्थ अपने में समाहित करती चली जाती है। और इस प्रकार यह नदी प्रदेश में प्रदूषण की दृष्टि से प्रथम स्थान पर आती है।
नदी नगरीय अपशिष्टों तथा औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्टों का समाहित करती है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों के अपशिष्टों, उर्वरकों, कीटनाशी और खरपतवार नाशी रसायनों को भी वर्षाऋतु में वर्षा जल के माध्यम से समाहित करती है। इस नदी क्षेत्र में 15 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या आती है। ग्रामीण क्षेत्रों के प्रदूषण फैलाने वाले अपशिष्ट मानव मल, पशुमल, कृषि जनित उच्छिष्ट पदार्थ तथा रसायनों में कीटनाशी, खरपतवार नाशी तथा उर्वरक आदि आते हैं। यह ग्रामीण अपशिष्ट प्रदूषण की दृष्टि से बिखरे पड़े रहते हैं। जिसे नदी स्वपरिष्करण के माध्यम से शुद्ध कर लेती है। इसलिये गोमती नदी पर ग्रामीण क्षेत्रों के प्रदूषण का स्तर नगण्य है।
नगरीय उच्छिष्ट पदार्थ
लखनऊ नगर का कचरा नगर से 16 किमी की दूरी पर काश्तकारों के विशेष अनुरोध पर गिराया जाता है। निजी जमीन पर कचरा निस्तारण के लिये सर्वप्रथम प्रदूषण नियंत्रण इकाई से परामर्श की आवश्यकता होती है क्योंकि यह कचरा भू-गर्भ जलस्रोतों को प्रदूषित करता है। लखनऊ नगर के कुल कचरे का 90 प्रतिशत ही उठाया जाता है तथा शेषनालों सीवरों में बहा दिया जाता है जो गोमती के प्रदूषण का कारण बनता है। लखनऊ नगर में प्रतिदिन 1600 मीटरी टन कचरे का निस्तारण किया जाता है। यह कचरा नगरीय कॉलोनियों की सड़कों पर जो कि नीची है में पाट दिया जाता है तथा कुछ नदी तटीय क्षेत्र से दूर के क्षेत्र पर जिसे नदी तट पर बंधा बनाकर निस्तारित कर दिया जाता है। इस निस्तारित कचरे के प्रदूषित रसायन वर्षाऋतु में जल के साथ घुलकर नदी में पहुँचते हैं। यह नगरीय अपश्चिष्ट विशिष्ट रसायनों और खनिजों से युक्त होता है। इसमें तेल, ग्रीस के रसायन, प्लास्टिक पदार्थों से सम्बन्धित रसायन, मकानों की रंगाई पुताई के पेंट, गाड़ियों के पेंट रबड़ काँच कपड़े, रसोई घरों की राख आदि मिली होती है। नगरीय क्षेत्र सभ्यता से युक्त होने के कारण, विविध प्रकार के पैकिंग के डिब्बे लिफाफे सर्वाधिक मात्रा में निकलते हैं। प्लास्टिक के पैकिंग के समय से वर्तमान में कचरे की मात्रा में सर्वाधिक प्रतिशत प्लास्टिक के रिक्त पैकेटों का रहता है जो सड़ता रहता है और कुछ दिनों पश्चात निस्तारित किया जाता है।
नगरीय क्षेत्र के प्रत्येक स्थान की व्यावसायिक और आवासीय भिन्नता के साथ नगरीय अपशिष्ट का रूपांतरण होता है। मुस्लिम या मांसाहारी क्षेत्रों का कचरा अधिक प्रदूषण फैलाता है। इसी प्रकार पर्व, त्यौहार, नगरीय उत्सव, रैलियाँ भी नगरीय प्रदूषण तथा कचरे की मात्रा को बढ़ाती है। नगरीय कचरे से धातुएँ कागज प्लास्टिक, धातुएँ, सीसा, मिट्टी, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम कचरे के रूप में नगर से निस्तारित होकर नदी तक पहुँचती है और पुन: वहाँ दूसरा चक्र प्रदूषण प्रक्रिया का प्रारम्भ होता है।
शवदाह या श्मशान घाट (Crematorium)
लखनऊ नगर में 4 श्मशान घाट हैं। भैंसाकुंड नगर के मुख्य घाट के रूप में जाना जाता है। अन्य में आलमबाग के पास मरघटा, गोमती नगर के पास पिपराघाट और चौक के पास गुलालाघाट है। नगर का सर्वाधिक व्यस्तघाट भैंसाकुंड है। यहाँ पर प्रतिदिन औसतन दस से बारह शव दहन किये जाते हैं। नगर के चार श्मशान घाटों में 14 शवदाह बनाए गये हैं। जिनमें 6 भैंसा कुंड में, 4 गुलालाघाट में, 2 मुर्दाघाट और 2 पिपराघाट में है लखनऊ विकास प्राधिकरण की ओर से भैंसाकुंड में एक विद्युत शवदाह गृह की व्यवस्था की गयी है। विद्युत शवदाह गृह जनता द्वारा बहुत कम उपयोग में लाया जाता है। इसमें शवदहन के लिये निर्धारित शुल्क से पाँच-छ: गुना अधिक शुल्क लिया जाता है। विद्युत शवदाह गृह में प्रथम शव में 1 घंटे तथा दूसरे में 30 मि. अगले प्रत्येक शवदाह में 20 मि. का समय लगता है। नदी को प्रदूषण से बचाने के लिये नदी तट के शवदाह गृहों में तथा नदी के अधिकृत क्षेत्रों में आने वाले श्मशान घाटों में विद्युत शव दाह केंद्रों की व्यवस्था करना तथा जनता में जागरूकता की आवश्यकता हैं नदी के प्रदूषण में वृद्धि नदी में बहने वाले अधजले शव, आत्महत्या किए जाने वालों के शव तथा जानवरों के बहते हुए शवों का होना प्रमुख है।
धोबीघाट एवं स्नान घाट
नदी में धोबीघाटों के कारण सीधे रासायनिक डिटर्जेंटस आदि नदी जल में मिलते हैं लखनऊ नगर के 16 किमी के नदी प्रवाह क्षेत्र में 12 धोबी घाटों और स्नान घाटों के स्थान चिह्नित किये गये हैं। नगर की 25 लाख से अधिक की जनसंख्या के वस्त्रों की धुलाई पर प्रतिव्यक्ति प्रतिमास 500 ग्राम डिटर्जेंटस की आवश्यकता पड़ती है। और यह डिटर्जेंटस जनित प्रदूषित जल अंततोगत्वा गोमती में जाता है।
राष्ट्रीय पर्यावरण शोध संस्थान (एनईआरआई) के 1970 के किये गये अनुसंधान के अनुसार दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, कोलकाता, चेन्नई, नागपुर के सीवरों में एल्कीइल, वेन्जीन, सल्फोनेट की मात्रा 0.3 mg/I थी जो जल शोधन प्रक्रिया में बाधा डालती है तथा सम्पूर्ण जल मंडल को प्रभावित करती है। गोमती नदी की स्थिति लखनऊ नगर के करीब के क्षेत्र में अधिक बुरी रहती है। एक अध्ययन के अनुसार नगर के 12 किमी के क्षेत्र में प्रतिदिन तटों पर औसतन 300 धोबी कपड़े धोने का कार्य करते हैं। साप्ताहिक तथा पर्व आदि पर इनकी संख्या बढ़ती घटती रहती है। इस प्रकार नदी में प्रतिदिन अनुमानित 200 किलोग्राम डिटर्जेंटस की मात्रा डाली जाती है।
खुले स्थानों पर शौच
नगरीय क्षेत्र में गोमती नदी तट के 60 प्रतिशत भाग पर लोग नदी के दोनों तटों पर खुले में शौच करते हैं। मानव मल नदी जल को सर्वाधिक विषाक्त तो बनाता ही है। पर जब यह सीधे नदी जल के सम्पर्क में आता है। तो इसका प्रभाव अधिक बढ़ जाता है। नगरीय रैलियों तथा सभाओं के समय नदी तट पर मानव मल की मात्रा बढ़ना असंभावी है। मानव मल के प्रभाव से जल में बैक्टीरिया की अतिशीघ्रता से अभिवृद्धि होती है यह विविध प्रकार की बीमारियों का संवहन होता है। नदी के 730 किमी के प्रवाह क्षेत्र में आने वाली जनसंख्या से नगरीय तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में प्रदूषण बराबर रहता है। नगरीय क्षेत्र और विशेष रूप से आवासीय समस्या वाले नगरों में नदी तट सर्वाधिक प्रभावित होता है।
मलिन बस्तियाँ और झुग्गी झोपड़ियाँ
नगर की मलिन बस्तियाँ गोमती नदी के दोनों तटों पर बंधे के पास-पास फैली हुई हैं तथा ग्रीष्म काल में यह बस्तियाँ नदी तट के निकट बनायी जाती है। झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों द्वारा नदी जल को प्रदूषित किया जाता है। गोमती एक्शन प्लान के अनुसार हनुमान सेतु के निकट 530, कला महाविद्यालय के पास 500, पक्का पुल के पास 130 तथा कुकरैल बंधे के पास 40 परिवारों को हटाना था, किंतु अभी तक इसमें कोई निर्णय लागू नहीं हुआ और यह नदी जल प्रदूषित कर रहे हैं।
पशु एवं गोशालाओं द्वारा प्रदूषण
नगर में दुग्ध उत्पादक पशुशालाओं एवं बधशालाओं द्वारा गोमती नदी का जल प्रदूषित होता है। नगर के खुले पशु एवं दुधारू पालतु पशु 4 से 6 घंटे नदी तट पर बंधों में तथा नदी जल में व्यतीत करते हैं। नगर निगम के अनुसार 1999 में 12 लाख से अधिक पशु हैं। जो नगरीय प्रदूषण के कारण हैं तथा नागरिकों के लिये समस्या है।
भू-गर्भ जल प्रदूषण के स्रोत
विश्व के लगभग सभी नगरों के भू-गर्भीय जल में अकार्बनिक रसायन युक्त विषैले पदार्थों की उपस्थिति पायी जाती है। भू-गर्भ जल प्रदूषण के कारणों पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि हमारे घरों और उद्योगों में प्रयोग किये जाने वाले, कार्बोहाइड्रेटों, प्रोटीनों, वसाओं, धुलाई के पदार्थों इत्यादि से युक्त कार्बनिक रसायनों के प्रयोग किये गये जैवीय विषैले जल का फैलना है।
विषैले जल के भू-गर्भ में पहुँचने के निम्नलिखित कारण है -
1. औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों का अनियमित ढंग से भूमि में बहते हुए नालों द्वारा गोमती में पहुँचना।
2. घरेलू उच्छिष्ट पदार्थों का बेढ़ंगे नालों से बहना एवं भू-गर्भ में जाना।
3. नगरीय उच्छिष्ट पदार्थों का नगर के परित: स्थित भूमि पर भर जाना।
4. भूमि सुधारक तथा उर्वरकों एवं कीटनाशकों का जल में घुलकर तल तक पहुँचना।
5. गोमती जल की सफाई न हो पाना तथा बैराज द्वारा पानी को रोकना।
जल को प्रदूषित करने वाले भौतिक तथा रासायनिक स्रोत, नगरीय नालें, औद्योगिक इकाइयां, सीवर, कृषि जनित विषैले रसायन, नगरीय अपशिष्ट, धोबीघाट, मलिन बस्तियाँ, पशु तथा खुले में शौच जाने वाले लोग प्रदूषित करते हैं। जल के प्रदूषित होने से मानव में विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती है तथा शारीरिक और आर्थिक क्षति पहुँचती है।
स. जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव
प्रदूषण के कारण जल के भौतिक गुणों के साथ रंग, गंध, पकाश भेद्यता, स्वाद और तापमान में परिवर्तन आ जाता है। जल रासायनिक परिवर्तनों के कारण अम्लीय, क्षारीय तथा खारा हो जाता है। जल जहरीले पदार्थों अकार्बनिक साइनाइड, अमोनिया, मरकरी, कैडमियम, सीसा, फेनोल, कीटनाशक तथा अणु पदार्थों के मिश्रण से मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो जाता है। मानव नदियों, झीलों, तालाबों तथा कुओं का प्रदूषित जल पीता है। कभी-कभी तो इस जल में मल मूत्र मिला होता है इस प्रकार के प्रदूषित जल से लगभग 20 लाख लोग प्रतिवर्ष आंत्रिक बीमारियों, टाइफाइड, पीलिया आदि से रोगग्रस्त हो जाते हैं। नदियों के किनारे रहने वाले करोड़ों लोग अति प्रदूषित जल जिसमें वस्त्र धुले जाते हैं, पशुओं को नहलाया जाता है। उसे पीते हैं और अनेकानेक घातक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। लखनऊ, कानपुर और दिल्ली जैसे नगर प्रतिवर्ष पीलिया की चपेट में आ जाते हैं। 1956 में दिल्ली में प्रदूषित जल पीने से सैकड़ों लोग मारे गये। 30,000 लोग पीलिया के शिकार हो गये। पुन: 1964 में इसकी पुनरावृत्ति हुई। मुंबई में 1970 में अनेक मछलियों में पारा की खतरनाक मात्रा पायी गयी ये मछलियाँं बहुत से लोगों की बीमारी का कारण बनती हैं और अप्रैल 1991 को कानपुर में पीलिया फैला और सैकड़ों लोगों की जाने गयी, लाखों लोग उसकी चपेट में आये। बड़े नगरों में जल प्रदूषण की निरंतर स्थिति बिगड़ती जाती है और इसके खतरे भी निरंतर उसी गति से गहराते जाते हैं। जर्मनी के हैमबर्ग विश्वविद्यालय प्रो. कॉक प्रथम वैज्ञानिक थे जिन्होंने बताया कि दूषित जल पीने से कालरा फैलता है। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि विकासशील देशों में प्रतिवर्ष 50 लाख लोग असमय जल द्वारा फैलने वाली बीमारियों से मरते हैं। भारत में 70 प्रतिशत बीमारियाँ जल प्रदूषण के कारण होती है। मुंबई का औद्योगिक कचरा समुद्र में, चेन्नई का कुअंम में, कोलकाता का हुगली नदी में, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद एवं हरिद्वार तथा अन्य नगरों का कचरा गंगा नदी में, लखनऊ, सुल्तानपुर, जौनपुर का औद्योगिक एवं घरेलू कचरा गोमती में निस्तारित कर दिया जाता है।
एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा के किनारे 132 बड़े औद्योगिक कारखाने हैं। जिनमें 86 अकेले उत्तर प्रदेश में हैं। पश्चिमी बंगाल में 43 और बिहार में 3 है। उत्तर प्रदेश की 86 इकाइयों में 66 कानपुर में है। एक अनुमान के अनुसार वाराणसी में प्रतिवर्ष 10,000 शव गंगा नदी के किनारे जलाए जाते हैं। यमुना में दिल्ली से लगे लगभग 48 किमी. के क्षेत्र में लगभग 20 करोड़ लीटर औद्योगिक कचरा प्रतिदिन गिराया जाता है मध्य प्रदेश की शिप्रा नदी में 2.82 से 5.33 लाख किग्रा. औद्योगिक कचरा प्रतिदिन गिराया जाता है। दिल्ली के वजीराबाद से ओखला होकर निकलने वाली यमुना में 17 बड़े नालों से लगभग 2 करोड़ ली. औद्योगिक कचरा यमुना में गिराया जाता है। लखनऊ नगर के 31 नाले 230 mld प्रदूषित जल गोमती में डाल कर प्रदूषित करते हैं। केरल की यालियर नदी में प्रतिदिन लगभग 58000 किग्रा. औद्योगिक कचरा बहाकर नदी को काफी हद तक प्रदूषित किया जा रहा है। दामोदर नदी के आस-पास की कागज मिलों रसायन उद्योगों, कोयला शोधन कारखानों से लगभग 43000 किग्रा. औद्योगिक कचरा प्रतिदिन गिराया जा रहा है।
लखनऊ नगर की तीन वर्ष की आंत्रशोथ तथा अन्य संचारी रोगों में विगत वर्षों की तुलना में 300 प्रतिशत से 900 प्रतिशत तक की गिरावट आयी। स्वास्थ्य निदेशक संचारी रोग डॉ. एचसी वैश्य14 के अनुसार इस वर्ष 1996 में संवेदनशील क्षेत्र और नगरों की घोषणा का परिणाम रहा। 1993 में जुलाई तक आंत्रशोथ के 6885 रोगियों में 242 लोगों की मृत्यु हुई 1994 में 831 लोगों की मृत्यु हुई। लखनऊ नगर में आंत्रशोथ की घटनाएँ सबसे अधिक हुई। प्रदेश के अंत्रशोथ के 1601 मामलों में 450 लखनऊ नगर में हुई। यह कुल घटनाओं के 25 प्रतिशत से अधिक है। 1993 में 73 घटनाएँ, 1994 में 1380, 1995 में 1062 घटनायें इन सभी घटनाओं में आंत्रशोथ की घटनायें अधिक रही।
तालिका-3.19 पर ध्यान केंद्रित करने पर लखनऊ नगर में प्रदूषित जल पीने से रोगियों की संख्या बढ़ती प्रतीत होती है। पीलिया रोगियों की संख्या वर्ष 1999 में 1227 तथा गैस्ट्रो रोगियों की संख्या 940 तक पायी गयी। किंतु हैजा रोगियों की संख्या कम हुई। गैस्ट्रो रोगियों की संख्या प्रत्येक वर्ष सबसे अधिक रही। नगर में संक्रामण रोगियों की संख्या खदरा और डालीगंज में अधिक रही। इन क्षेत्रों में अधिक दूषित जल की पूर्ति लाइनों को क्षति पहुँचाने के कारण बढ़ जाती है।
ग्रीष्म काल में नदी में जल की मात्रा कम हो जाती है। तथा गोमती बैराज खोलकर पानी को बहाया जाता है। जिससे प्रदूषित जल में कुछ कमी आती है परंतु ग्रीष्म काल में जल की कमी के कारण जलापूर्ति के जल में दुर्गंध आने लगती है क्योंकि शुद्ध जल में कमी हो जाती है। चीनी मिलों और सीवरों का गंदा जल अधिक बढ़ जाता है। प्राय: चीनी मिलों का प्रदूषित जल गोमती नदी में चोरी छिपे बहा दिया जाता है। तब यह स्थिति अधिक भयानक होती है।
गोमती नदी में बहायी गयी गंदगी का आलम यह हो जाता है कि दिन में दूषित रॉवाटर का पीपीएम (जल की गंदगी) औसतन 07.00 से 10.00 रहता है। रात के समय इसी रॉवाटर का पीपीएम 25.9 पहुँच जाता है। साफ करने के बाद सेटलिक टैंक में एकत्र किया जाता है। जहाँ से फिल्टर और क्लोरीन आदि मिलाने के बाद क्लियर वाटर पम्प हाउस में जमा किया जाता है और इसी शुद्ध स्टोर का पानी शहर के जोनल पम्पिंग स्टेशनों पर बने टैंकों में जमा करके नगरवासियों को आपूर्ति किया जाता है। दूषित ‘रॉवाटर’ की गति इतनी तीव्र होती है कि जलकल में लगे फिल्टर तक चोक हो जाते हैं। क्लोरीन युक्त पानी जोनल टैंकों में घंटों स्टोर रहने पर उसकी क्लोरीन गैस के रूप में उड़ जाती है जिससे टैंक से जब पानी आम लोगों तक पहुँचता है तो वह क्लोरीन से रहित होता है। जल संस्थान के केमिस्टों का कहना है कि ‘‘रॉवटर’’ शुद्ध बनाने के बाद क्लियर वाटर का पीपीएम, शून्य होना चाहिए। पिछले दिनों की स्थिति यह है कि क्लियर वाटर पीपीएम कभी शून्य नहीं पहुँचा।
नगरीय जलापूर्ति की यह स्थिति ग्रीष्म काल में जलजनित रोगियों की संख्या बढ़ाती है। यदि नगर के मुख्य चिकित्साधिकारी के कार्यालय से मिली सूचना पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि पेयजल के नमूनों में 25 प्रतिशत प्रदूषित पाये गये। क्लोरीन के लिये जो ओटी टेस्ट किये गये उनमें 76 नमूने ऐसे मिले (10 मई 1996) जिनमें क्लोरीन नहीं थी।
मुख्य चिकित्साधिकारी लखनऊ डॉ. अमरेंद्र सिंह15 ने बताया कि गैस्ट्रो के 32 और पीलिया के 17 मरीजों की रिपोर्ट आयी है। (10 मई 1996) नगर को संक्रमण रोगों तथा जलस्रोतों को शुद्ध करने के लिये 4949 कुओं को विसंक्रमित किया गया और 52 ओआरएस के पैकेट बाँटे गये 5885 क्लोरीन की गोलियाँ भी संवेदनशील क्षेत्रों में बाँटी गयी। तथा 1 लाख ओआरएस पैकटों को उपयोग के लिये रखा गया है। तथा इतनी ही इलेक्ट्रॉल पाउडर, रिंगर लैक्टेट का स्टॉक रखा गया।
लखनऊ नगर के निवासी ‘अशुद्ध पेयजल’ जल की आपूर्ति के कारण आंत्रशोथ और पीलिया रोगों से लगातार प्रतिवर्ष ग्रीष्म काल में प्रभावित हो जाया करते हैं।
लखनऊ की सीवर व पेयजल आपूर्ति प्रणाली बहुत खराब स्थिति में है। जल संस्थान के महाप्रबंधक रासिद खान तथा लखनऊ के मुख्य चिकित्साधिकारी संक्रामक रोग से पीड़ित मलिन बस्ती लवकुश नगर का दौरा किया यहाँ जलापूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं है यहाँ के निवासियों ने इंदिरा नगर की जलापूर्ति लाइनों को तोड़कर प्लास्टिक के पाइप लगा रखे हैं। कई लाइनें नालों/नालियों के किनारे टूटी है। प्लास्टिक के पाइपों में पानी के साथ गंदगी भी रिसती रहती है। परिणाम स्वरूप प्रतिवर्ष इस बस्ती में पीलिया तथा आंत्रशोथ से कई मौतें तक हो जाती है। दूध व्यापारी भी जल को अशुद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जो पाइप लाइन को तोड़कर अवैध पाइप जोड़ते हैं। इसी तरह के अवैध पाइप जोड़ने वाले क्षेत्रों में ही संक्रामक रोगियों की संख्या अधिक पायी गयी। अलीगंज का सेक्टर-एम वर्ष 1996 में त्रासदी का शिकार बना और पीलिया रोग भयंकर रूप से फैला। जानकीपुरम में भी यही स्थिति रही। जून-जुलाई, 200 में गोमती नगर प्रभावित रहा।
कीटनाशक एवं उर्वरकों का दुष्प्रभाव
राजधानी के पेयजल की दुर्गंध तथा विविध प्रकार की बीमारियों का कारण आईटीआरसी के वैज्ञानिकों ने बताया कि गऊघाट पम्पिंग स्टेशन के निकट डीडीटी व अत्याधिक विषैली व प्रति बंधित कीटनाशक ‘गैमक्सीन’ खतरनाक स्तर में उपलब्ध है (तालिका- 2.9)। आईटीआरसी के पूर्व निदेशक आरसीश्रीमाल के अनुसार जल संस्थान इस रासायनिक प्रक्रिया के लिये जिस किताब को आधार मान रहा है वह बहुत पुरानी है। यहाँ तक कि आउट ऑफ प्रिंट है। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रीष्म काल में गोमती का जल स्तर गिरने के साथ ही पानी में कीटनाशकों का घनत्व बढ़ने लगता है। उल्लेखनीय है कि डीडीटी की मात्रा गोमती में मानक सीमा से साढ़े तीन गुना ज्यादा व खतरनाक माने जाने वाले गैमक्सीन की मात्रा 0.01 μg/I की सहनशील शक्ति सीमा से कहीं अधिक 6.173 μg/I पायी जा चुकी है। इसके प्रभाव से जल में सड़न तथा दुर्गंध पैदा हो जाती है। साथ ही जीवाणु और शैवाल बढ़ने से उसमें ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और मछली घोंघे, सीप पर घातक प्रभाव पड़ता हैं। मछलियों के गुर्दे यकृत गिल तथा जननांगों को भी प्रभावित करते हैं।
डिटर्जेंट के दुष्प्रभाव
गोमती नदी में पर्याप्त मात्रा में डिटर्जेंट की मात्रा विद्यमान है। यह जल में शैवाल व जीवाणु बढ़ाकर पानी को सड़ा देता है। मछलियों पर घातक प्रभाव डालता है। इससे पानी का पृष्ठ तनाव बढ़ जाता है। जिससे जल में आॅक्सीजन की कमी हो जाती है। तथा इसके त्वचा में घोलक होने के कारण त्वचा व अन्य अंगों की कोशिकाओं को घुला देता है और नष्ट करता है। यह लघु जलीय जीवों पर अधिक प्रभाव डालता है। डिटर्जेंट कीमती जंतुओं को नष्ट करता है। यह पीने के पानी के साथ हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इनका शोधन भी अत्यंत दु:साध्य है। टूथ पेस्ट व पानी के माध्यम से शरीर में पहुँचकर विविध बीमारियों को जन्म देते हैं।
मरकरी का दुष्प्रभाव
अध्ययन से पता चला कि 0.002-0.025 mg/I सांद्रण से पौधों की वृद्धि में कमी हो जाती है। होलीबाग (1980) हैरिस16 (1970) के अध्ययनों से पता चलता है कि अनेक प्राणियों की किशोरावस्थाएँ नष्ट होती है तथा मछलियों के शुक्राणु तथा भ्रूणीय विकास प्रभावित होते हैं। यह भी अध्ययन किया गया कि मर्करी की उपस्थिति से मछली रैनवोट्राउंट गिल की कोशिकाएँ नष्ट हो जाती हैं तथा गिल आपस में चिपक जाते हैं तथा इनके लीवर व गुर्दे की कोशिकाएँ नष्ट हो जाती है।
डाउट (1981) तथा किंडेल17 (1977) ने मनुष्य पर इसके प्रभाव का अध्ययन किया। इसमें पेशीय असमन्वय प्रतिवर्ती क्रिया का बाधित होना, रक्त कणिकाओं का आकर व कार्य बाधित होना तथा आनुवांशिक इकाइयों का प्रभावित होना।
हैराडा18 (1978) ने अपने अध्ययन में पाया की मिनीकाटा जगह के बच्चों में मस्तिष्कीय पेलखी नामक रोग अधिक पाया गया। इसी प्रकार गेल (1980) ने अपने अध्ययन में बताया कि मरकरी के प्रभाव से भ्रूणीय विकास में अवरोध उत्पन्न होता है तथा कई व्याधियों जैसे हृदय की झिल्ली का गलत बनना तथा हाइड्रो कि शैल्स हृदय की बीमारियाँ पैदा होती है।
कैडिमियम का दुष्प्रभाव
गोमती नदी में कैडमियम की मात्रा 0.006 μg/I तक पायी गयी जो अपने निर्धारित स्तर 0.005 μg/I से अधिक है। यह पौधों की कोशिकाओं में पाये जाने वाले माइटोक्रान्डिया को नष्ट कर देता है तथा छोटे-छोटे जीवों के हृदय, गुर्दों यकृत को हानि पहुँचाता है, जननांगों को प्रभावित करता है और वंश वृद्धि को रोक देता है।18
समस्त भारी धातुएँ जैव मंडल को प्रभावित करती है। तथा तालाब व नदियों में शैवाल की वृद्धि को बढ़ा देती है। जो कि अन्य जंतुओं की मृत्यु का कारण बनता है। झीगों की वंश वृद्धि प्रभावित करती है। छोटे जीवों तथा मछलियों के मरने पर दूसरी मछलियाँं भी मरने लगती है। क्योंकि बड़ी मछलियाँं छोटी मछलियों पर आश्रित होती है।
गोमती नदी का जलीय चक्र तो इस स्थिति में आ जाता है कि कई बार लखनऊ की मोहन मीकिन, शराब फैक्ट्री, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, पराग दुग्ध मिल, एवरेडी, सीतापुर की बालाजी बेजीटेबिल्स, महोली उ.प्र. राज्य सहकारी मिल, हरगाँव स्थित चीनी मिल डिस्टलरी सहित 110 लघु मध्यम तथा बड़े इन सभी उद्योगों का कचरा नदी में डालने से नदी का जल इतना अधिक विषैला हो जाता है कि नदी की मछलियाँं मर जाती है। 30 दिसंबर 86, जून 87, 10 अप्रैल 1996 को गोमती जल की ऑक्सीजन 0.50 तक पहुँच गयी तथा नदी की मछलियों का सामूहिक संहार हुआ।
विगत वर्षों में आईटीआरसी में हुए अनुसंधानों से ज्ञात हुआ कि लखनऊ नगर क्षेत्र के गोमती नदी के जल में मल प्रदूषण के फलस्वरूप रोगजनक जीवाणुओं की विभिन्न प्रजातियों नामत: इस्चरेश्चियां कोलाई, क्लेबसिएला, सिक्ट्रोबैक्टर, इंटरोबैक्टर, विब्रीयोकालरी, (नान-ओवन) तथा एरोमोनस आदि मिली जो मुख्यत: एम्पीसिलीन, क्लोरम फेनीकॉल, स्ट्रोप्टोमायसिन, टैट्रास्ट्रेप्टो-सायक्लीन तथा नैलीडिक्सिक अम्ल जैसे बहुप्रचलित प्रति जैविकियों के प्रति विभिन्न प्रतिशत व अनुपात में प्रतिरोध प्रदर्शित करती है। रोगजनक जीवाणुओं द्वारा उत्पादित आत्र विष (इंटरोटॉक्सिन) के कारण ही मनुष्यों एवं पशुओं में अतिसार तथा उसी के समान व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती है।
जीवाणु मनुष्यों एवं पशुओं द्वारा प्रदूषित पेय जल, शाक भाजी व मछली एवं झींगा आदि ग्रहण करने से शरीर में प्रवेश करते हैं। अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों19 ने बताया कि भोज्य मछलियाँं एवं लखनऊ नगर पेयजल प्रति जैविकी एवं आंत्रविष उत्पादक जीवाणुओं से संदूषित है।
रंजक रसायनों का दुष्प्रभाव
विश्व में लगभग आठ लाख मीट्रिक टन विभिन्न रंगों का उत्पादन होता है। 56 प्रतिशत रंग कपड़ा मिलों में प्रयोग किया जाता है। अनुमानत: 10 से 29 प्रतिशत रंग जो पुन: उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। उसे वातावरण में विसर्जित कर दिया जाता है। इस प्रकार विश्व में कपड़ा मिलों द्वारा 50 हजार मिट्रिक टन अथवा प्रतिदिन 136 मिट्रिक टन रंग जलस्रोतों के माध्यम से वातावरण में विसर्जित कर दिया जाता है। भारत में लगभग 300 से अधिक रंग विभिन्न उपयोग के लिये बनाये जा रहे हैं। देश में 37 बड़ी संगठित इकाइयाँ हैं तथा 900 के लगभग लघु रंग उद्योग इकाइयाँ हैं। इनमें लगभग 30 हजार मीट्रिक टन रंजकों का उत्पादन होता है। रंगों का उपयोग वातावरण को प्रदूषित करता है। रंगीन द्रव के तालाब नदियों में रहने वाले सभी जीवधारी जंतु अथवा पौधे प्रभावित होते हैं पानी में रंग की बहुतायत के कारण सूर्य की किरणें जल के अंदर नहीं पहुँच पाती है। और जल में आॅक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने अनेक कारखानों में काम करने वालों की जाँच में पाया की कर्मियों के मूत्राशय के कैंसर है। रंजक युक्त जल के प्रयोग से पीड़ित 18 व्यक्तियों का परीक्षण मेयर नामक वैज्ञानिक ने किया और पाया कि पैराफीन लेडिन रंजक के कारण सभी लोग त्वचा रोग से पीड़ित थे। वैज्ञानिकों ने पाया कि जल में रंजकों के कारण कैंसर रोग अधिक हो रहा है। ऐसे क्षेत्रों में श्वसन, पाचन, रक्त प्रवाह में विभिन्न प्रकार से गड़बड़ी आ जाती है। दमा रक्त अल्पता व वजन में कमी, यकृत की शिकायतें, वमन, सुस्ती, स्नायु दुर्बलता चक्कर आना अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती है।20
फ्लोराइड के दुष्प्रभाव
विश्व में कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा आवश्यकता से अधिक होने पर दाँतों में तथा हड्डियों में फ्लोरोसिस बीमारी उत्पन्न होती है। यह फ्लोराइड, कारखानों द्वारा उत्सर्जित तरल अवशेषों या भूमि जल में प्राकृतिक रूप में विद्यमान रहते हैं। ऐसा देखा गया है कि भूमि सतहों की गहराई में जाने पर फ्लोराइड की मात्रा बढ़ती है। जब कि भूजल में आंकड़ें इसके विपरीत है। फ्लोराइड का शरीर में पेयजल, भोजन, वायु औषधियों और प्रसाधन सामग्री के जरिये प्रवेश होता है। फ्लोराइड का प्रभाव अस्थियों पर अकार्बनिक तथा कार्बनिक संरचना से होता है। फ्लोरोसिस का दाँतों पर यदि एक बार प्रभाव पड़ता है तो पुन: वह सामान्य स्थिति में नहीं लाए जा सकते हैं। फ्लोरोसिस से दाँतों का बाहरी भाग अधिक प्रभावित होता है।
फ्लोरोसिस रक्त कणिकाओं तथा हीमोग्लोबिन को प्रभावित करती है। फ्लोराइड का शोषण आहारनलिकाओं में डिफ्यूजन से होता है। उल्टी, पेट दर्द तथा पेचिस का होना इसके प्राथमिक लक्षण हैं। फ्लोराइड उत्सर्जन तंत्र को प्रभावित करता है। यह वृक्क की कोशिकाओं को क्षति पहुँचाता है। फ्लोराइड का प्रभाव हृदय एवं श्वसन में भी देखा गया है। एक अध्ययन में पाया गया कि रक्त बहिनियों के हड्डियों के बीच में दब जाने से आस्टीयों, एथीरों, स्केले स्टीक बीमारियों को जन्म देता है। इसी प्रकार फ्लोराइड का विपरीत प्रभाव श्वसन तंत्र, तंत्रिका तंत्र, प्रजनन तंत्र पर भी पड़ता है। फ्लोराइड की मात्रा जल में 1.5 mg/I से अधिक नहीं होनी चाहिए।21
सीसा अति विषाक्त तत्व है सीसा जल में विलयशील कोलाडियल और भिन्न तत्व के रूप में हो सकता है। यह मनुष्य और पशुओं के लिये विषाक्त होता है। यह अस्थिमज्जा और रक्त हेमोग्लोबिन को बुरी तरह प्रभावित करता है और अस्थि के कैल्शियम को प्रस्थापित कर देता है। सीसा धर्मी मिट्टी में पले बढ़े पौधे इस तत्व को अवशोषित करके अपने शरीर में एकत्र करते हैं। और फिर चरने वाले जानवरों के उदर में पहुँचकर अपना प्रभाव डालता है गोमती नदी जल के सभी नमूनों में सीसा की मात्रा मानक के निकट तथा कुछ की अधिक पायी गयी है। जिसका प्रभाव नदी की मछलियों तथा उसको खाने वालों में देखा गया। आर्सेनिक युक्त जल सेवन से मनुष्यों व पशुओं की भूख जाती रहती है और शारीरिक वजन कम हो जाता है तथा त्वचा एवं पेट में गड़बड़ हो जाती हैं। खदरा से लेकर गोमती बैराज तक 10 स्थानों से नमूने लेकर रेपिड विधि से विश्लेषित किया गया जिसमें पाया गया कि 40 से 60 g/I आर्सेनिक उपलब्ध है। खदरा और निशातगंज में 10 से 20 g/I पाया गया जो नगरीय निवासियों में विविध बीमारियों का कारण है। जस्ता जलीय पारिस्थितिकी में पहुँचकर मछलियों पर प्रभाव डालता है।
फास्फोरस - की अधिकता से नीलहरित शैवाल की बढ़वार होती है और जलराशि के शैवाल से ढकने पर सड़न उत्पन्न होती है। जल दुष्प्रभावित होता है और मछलियाँ मरने लगती है। जलाशय पार्थिव मात्र बनकर रह जाते हैं। नाइट्रोजन ऑक्साइड और अमोनिया विभिन्न कार्बनिक रूपों में नाइट्रोजन मौजूद रहता है। इसकी अधिकता पशुओं तथा जलीय जीवों को हानि पहुँचाता है तथा मनुष्यों में विविध प्रकार के रक्त तथा स्नायु मंडल की बीमारियाँ उत्पन्न करता है।22
गोमती जल के अध्ययन में सागर तथा पाण्डेय23 ने पाया कि लोहे और मैग्नीज की उपस्थित से जल का स्वाद प्रभावित रहता है। अत: पेय योग्य नहीं रहता फ्लोरीन जैसे पदार्थों की कुछ क्षेत्रों में कमी होना दाँतों की बीमारियों का कारण बनता है। गोमती जल में कॉपर, सीसा, जिंक, जस्ता, निकल, कोबाल्ट तथा कुछ नमूनों में आर्सेनिक भी उच्च मानकों तक पाया जाता है।
द. जल प्रदूषण नियंत्रण एवं नियोजन
प्रदूषण की दृष्टि से गोमती नदी अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है। औद्योगिक प्रदूषित जल के गोमती में निस्तारण से कई बार नदी जल जीवों का सामूहिक संहार हो चुका है। उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दस्तावेजों के अनुसार लखनऊ की नगरीय आबादी का 21 करोड़ लीटर मल-जल प्रतिदिन गोमती नदी में बेरोक-टोक डाला जा रहा है। इसी प्रकार अन्य नगरों के कल कारखानों का जल गोमती को प्रदूषित कर रहा है। उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों से पता चलता है कि गऊघाट वाटर इंटेक प्वांइट पर 5 हजार से अधिक कॉलीफार्म (जीवाणु) तथा गोमती बैराज के पास कॉलीफार्म 25 लाख की अतिखतरनाक रेंज पर पाये गये। मलजनित यह कॉलीफार्म बैक्टीरिया ही अनेक उदर विकार सहित संक्रामक रोगों का कारण है।
औद्योगिक जल प्रदूषण नियंत्रण
गोमती नदी का जल अधिकतर औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषित जल के निस्तारण से प्रदूषित होता है। प्रदूषण की दृष्टि से चीनी मिलें तथा हरगाँव, सीतापुर की मदिरा उत्पादक इकाई जो सराय नदी में अपना प्रदूषित जल निस्तारित करती है। सराय नदी गोमती में मिलती हैं। इसके अतिरिक्त लखनऊ नगर की मदिरा उत्पादक मोहन मीकिन का प्रदूषित जल गोमती जल को प्रभावित करता है। सुल्तानपुर जिले के जगदीशपुर और मुशाफिर खाना नगर अपनी औद्योगिक इकाइयों के कारण नदी को अति प्रदूषित करते हैं। इसी प्रकार हरदोई, बारांकी, रायबरेली आदि नगर भी अपने औद्योगिक अपशिष्ट नदी में छोड़ते हैं और नदी प्रदूषत में वृद्धि करते हैं।
औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषित जल को सीधे गोमती में निस्तारित करने से पहले उपचारित किया जा सकता है। लखनऊ नगर की कुछ प्रमुख औद्योगिक इकाइयों ने जल प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र स्थापित कर लिये हैं। इन संयंत्रों की स्थापना से गोमती जल की गुणवत्ता में सुधार हो सकेगा। मोहन मीकिन मदिरा फैक्ट्री के जल में एल्डीहाइट और कीटोनस तथा बीओडी की मात्रा 40,000 mg/I तक पायी जाती है और संयंत्र के उपयोग से इसे 200 mg/I की दर तक कम किया जा सकेगा। इसी प्रकार नगर की अन्य इकाइयों ने भी जल प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र स्थापित किए हैं24 (परिशिष्ट- 31)।
लखनऊ नगर तथा अन्य नगरों की औद्योगिक इकाइयाँ जो गोमती जल में अपने प्रदूषित उत्प्रवाहों को छोड़ती है को उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अंतिम चेतावनी देकर संयंत्र स्थापित कराया जाएगा। औद्योगिक इकाइयों द्वारा संस्थापित संयंत्रों पर दृष्टि रखने के लिये ‘‘बी बाच’’ की स्थापना करना होगा तथा समय-समय पर उनके उत्सर्जित जल के नमूने लेकर सुयोग्य पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा जाँचे जाने चाहिए। प्रदूषण स्तर ज्ञात करने तथा रोकने के लिये रूप-रेखा बनाना होगा। उपचार के लिये प्रथम प्रयास अपशिष्ट स्रोत पर करना चाहिए न कि अपशिष्ट जल से प्रदूषक निकालने में, उपचार करना तो पीछे की क्रिया है संयंत्र में ही प्रदूषकों को निम्न विधियों से दूर किया जा सकता है।
1. परिष्करण द्वारा 2. पदार्थ की पुन: प्राप्ति द्वारा 3. कार्यात्मक परिवर्तन द्वारा 4. अपशिष्ट पदार्थों के अलगाव से
औद्योगिक जल को प्रदूषण मुक्त करने की विधियों में संयंत्र में ही पदार्थ की प्राप्ति अधिक उपयुक्त है। अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण करके उद्योगों में इसका उपयोग आर्थिक दृष्टि से अधिक उपादेय होगा। संयंत्र में ही व्यय किए गये जल का रासायनिक एवं जैविक उपचार करके उसका पुनर्प्रयोग किया जाता है। कुछ उद्योगों का उत्सर्जित जल खराब गुणवत्ता के कारण पुनर्प्रयोग के योग्य नहीं होता है किंतु इससे कुछ उपयोगी उप-उत्पाद प्राप्त किये जा सकते हैं। खाद्य प्रसंस्करण उपयोग के बिगड़े पदार्थ पशुओं के उपयोग में आ सकते हैं अत: अपशिष्ट को छनन विधि से तथा अन्य प्रक्षालन विधि से अलग करना चाहिए। संयंत्र के प्रयोग से अपशिष्ट पदार्थों का एकत्रीकरण भी महत्त्व का होता है। परिष्करण संयंत्र से जल बाहर निकलने पर जल के उपचार के लिये तीन विधियाँ काम में लायी जा सकती है।
1. भौतिक उपचार या अलगाव क्रिया - अपशिष्ट पदार्थों को जलधारा से अलग कर लिया जाता है। तथा अपशिष्ट जल को छोटे-छोटे तलाबों में रोक कर अपशिष्ट पदार्थों का जमाव किया जाता है जिससे अपशिष्ट जल से नदी काफी हद तक बची रहती है। यह विधि उद्योगों के लिये उपयोगी हैं यह विधि अधिक अर्थ साध्य भी नहीं हैं। एक बार व्यवस्था करने पर यह क्रम स्वत: चलता रहता है।
2. जैविक उपचार - जैविक उपचार प्रक्रिया का उपयोग दो प्रकार से किया जाता है वायु साध्य एवं वायुरहित। वायु साध्य प्रक्रिया में अपशिष्ट जल में अतिरिक्त ऑक्सीजन देकर सूक्ष्म जीवाणु बैक्टीरिया आदि विकसित किये जाते हैं। जो कार्बनिक पदार्थ को कार्बनडाइऑक्साइड, जल और सल्फेट में परिवर्तित कर देता है। वायु रहित उपचार प्रक्रिया का प्रयोग ठोस भारी कार्बनिक पदार्थों के उपचार हेतु प्रयोग किया जाता है। सूक्ष्म जीवाणु क्रिया के पश्चात फल एवं सब्जी प्रसंस्करण उद्योगों के अपशिष्ट धाराओं में नाइट्रोजन मिला दिया जाता है। इस विधि का उपयोग चर्म शोधन, वस्त्रउद्योग तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में काम में लाई जा सकती है।
3. रासायनिक उपचार - इस विधि से अम्लों व क्षारों को निष्क्रिय किया जा सकता है। इस विधि द्वारा इलेक्ट्रोप्लेटिंग, लुग्दी, रसायन एवं शुष्क धुलाई उद्योगों के अपशिष्टों को जल से अलग किया जा सकता है। इस विधि में अम्लों एवं क्षारों को निष्क्रिय करके पीएच का समायोजन किया जाता है।
नदी अपनी भौतिक प्रकृति के कारण कार्बनिक अपशिष्ट सहन करने की क्षमता बहुत कम रखती है। नदी में जैसे ही अपशिष्ट पहुँचता है। उसी समय उसका ऑक्सीकरण प्रारम्भ हो जाता है। इस क्रिया से कार्बनडाइऑक्साइड और जहरीली गैसे नदी में मिल जाती है। कार्बनिक पदार्थ का बैक्टीरिया की क्रिया के कारण अपघटन होता है। यह ग्रीष्म ऋतु में शीघ्र प्रारम्भ होता है। बैक्टीरिया की अपघटन क्रिया पूर्ण होते ही नदी जल स्वत: स्वच्छ हो जाता है।
मोहन मीकिन लखनऊ तथा हरगाँव (सीतापुर) मदिरा फैक्ट्री जो अत्यंत विषैले तरल पदार्थ एल्डिहाइड और डीम जैसे तरल पदार्थों को शुद्धिकरण के पश्चात नदी में निस्तारित करते हैं। यह निस्तारित पदार्थ शुद्धिकरण के पश्चात भी बहुत अधिक प्रदूषित और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। नदी में निस्तारित न करने के लिये प्रशासन को योजना देना चाहिए।
बड़ी औद्योगिक इकाइयों का स्थानांतरण करना भी इस दिशा में एक उपयुक्त प्रयास है। बड़ी इकाइयों को सरकारी तौर पर छूट व सहायता करके नगर से बाहर स्थापित करने की दिशा में प्रोत्साहित किया जा सकता है।
सीवर/नालों का उपचार एवं निस्तारण
लखनऊ महानगर में पेयजलापूर्ति का प्रमुख स्रोत नदी है और नगर के ही लगभग 31 नाले गोमती में अपना अपशिष्ट पदार्थ निस्तारित करते हैं। गोमती स्वच्छता प्रतिवेदन के अनुसार नगर का 310.189 mld जल गोमती में निस्तारित किया जाता है और जल संस्थान के अनुसार नगर के पेयजल के लिये प्रतिदिन नदी से 280 mld जल लिया जाता है। नगर के 31 नालों में 25 नाले सीधे नदी में अपना प्रदूषित जल निस्तारित करते हैं। 1993 में नालों में प्रवाहित होने वाले कचरे की माप की गयी और पाया गया कि 230 mld कचरे की मात्रा है। इस माप पर औद्योगिक कचरे की माप तौल का पृथक विचार नहीं किया गया। सीवरों के उपचार के लिये निम्न प्रयास उपयोगी हैं।
1. वर्तमान समय में उचित निस्तारण विधि के अभाव में सम्पूर्ण नगर के सीवर नदी में गिरते हैं। नगरीय जनसंख्या की वृद्धि के साथ भवन निर्माण भी अधिक तेजी से हुए हैं। सीवर निर्माण की व्यवस्था पूरी करने के लिये अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता होगी। भूमि की कमी के कारण नगर के अधिकांश नाले सीधे नदी मे गिराए जा रहे हैं। नालों तथा सीवरों में स्थान-स्थान पर कचरों के निकालने के लिये बनी हुई वर्तमान व्यवस्था अत्यधिक न्यून स्थिति में हैं। जिसकी योजना पुन: पुरी करने की आवश्यकता है।
2. नालों के उपचारण कार्य के लिये नगर के सभी नालों को जिसमें की गोमती के दायें और बायें दोनों किनारों के नालों को सम्मिलित किया जा सकता है। या अलग-अलग भी लिया जा सकता है।
3. गोमती नदी के दाहिने किनारे के नाले तथा बैराज तक के सभी नाले गोमती की निचली धारा के भीखमपुर पम्पिंग स्टेशन के पास विस्तृत भूमि का अधिग्रहण करके उपचारण कार्य पूरा किया जा सकता है। नगर के नालों के नमूने लेकर उनका परीक्षण किया गया तो बीओडी-5 की उपस्थित 50 mg/I मिलीग्राम प्रतिलीटर से लेकर 300 mg/I तक पाया गया। बीओडी की मात्रा दूर करने के लिये सीवरों में संयंत्र लगाए जाते हैं। इनके प्राथमिक उपचार में ठोस पदार्थ ग्रीस, मल आदि छन्नों से तथा जमाव द्वारा अलग किए जाते हैं और यह साफ किया गया पानी द्वितीयक उपचार के लिये भेजा जाता है जिसमें सूक्ष्म जीवाणु तथा कार्बनिक पदार्थों का अपघटन करते हैं। वायु से जल को ऑक्सीकरण मिल जाता है। और जल साफ होकर नदी में जाता है। प्राथमिक उपचार से बीओडी 35 प्रतिशत तथा द्वितीय उपचार से 90 प्रतिशत दूर हो जाती है। तृतीय चरण के उपचार पूरा करने पर 99 प्रतिशत बीओडी समाप्त हो जाएगी। जीएच कैनाल तथा लामाटेनियर नालों को अलग से मोड़कर उपचारण स्थल तक पहुँचाना पड़ेगा, उपचारण कार्य की पूर्ण सफलता के लिये विकल्प के रूप में द्वितीय सीवर की व्यवस्था का प्रारूप तैयार किया जा सकता है।
4. सीवजों के प्राथमिक रूप से उपचार के लिये इनके निस्तारित 230 mld कचरे को जल में घुलाकर या शोधित करके आगे बहाना चाहिए या पहले से बनाये गए टैंकों में डालकर जो गोमती के पहले किनारे में बने हुए हैं। स्थूल कचरे के निस्तारण में इनका उपयोग किया जाना चाहिए। ज्ञातव्य हो कि लखनऊ महानगर का कचरा इ. मजमूदार25 टीके के अनुसार नगरीय कचरे का 10 प्रतिशत भाग उठाया नहीं जाता बल्कि नालों में निस्तारित किया जाता है। लखनऊ नगर के बड़े नालों में जैसे की जीएच कैनाल, लामाटेनियर, कुकरैल नाला जिसका औसत बहाव 100 mld से अधिक है। इसमें स्लेज ब्लैकेड का उपयोग सीधे-सीधे भी किया जा सकता है और द्वितीय चक्र का शुद्धिकरण अन्य नालों के साथ मिलाकर किया जा सकता है। अपशिष्ट पदार्थ का भी विविध प्रकार से उपयोग किया जा सकता है। ऊर्जा का उत्पादन तथा कृषि में परीक्षण के पश्चात उपयोग किया जाना उपयोगी होगा।
5. लखनऊ महानगर के सारे सीवर पाँच संग्रह केंद्रों पर एकत्र होते हैं। सीआईएस गोमती, ट्रांसगोमती, पम्पिंग स्टेशन डालीबाग, पम्पिंग स्टेशन महानगर और पेपर मिल सीवर पम्पिंग स्टेशनों के इन पाँचों स्टेशनों पर सीवर का प्राथमिक उपचार किया जाना चाहिए तथा पम्पिंग स्टेशन की क्षमता बढ़ाना भी आवश्यक होगा। चूँकि सीवरों और नालों से केवल नदी जल ही प्रदूषित नहीं होता बल्कि भूगर्भ जल भी प्रदूषित होता है। इसलिये सीवरों तथा नालों की दीवारें अच्छी तरह से चिकनी बनानी होंगी जिससे कि सीवर जल भूमि में न सूख सकें।
6. सीवरों के उपचारण स्थल भी इस प्रकार की तकनीकि से तैयार करने होंगे जो की भूगर्भ जल को प्रदूषित होने से बचा सके। सीवरों में बहते हुए कार्बनिक और आर्बनिक पदार्थों को भौतिक प्रक्रिया द्वारा अलग किया जा सकता है। इसके स्क्रीन और ग्रीड चैंबर बनाए जा सकते हैं।
7. नालों में वेग नियंत्रण पद्धति का भी प्रयोग किया जाना चाहिए और यहाँ पर प्राथमिक उपचार पूरा किया जा सकता है। और इस उपचारण कार्य से ही 30 से 40 प्रतिशत ठोस तथा कार्बनिक पदार्थों का भार कम किया जा सकता है।
8. कार्बनिक पदार्थों को इच्छित स्तर पर पृथक करने तथा उनका भार कम करने के लिये नयी जीव वैज्ञानिक विधियों से एक विधिकाम में लायी जा सकती है। जो जल के प्रवाह पर आधारित है। जिसमें स्लजब्लैकेट (शोषक कंबल) विधि से कार्बनिक भार कम किया जा सकता है। इससे बीओडी का भार 80 से 90 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
9. लखनऊ नगर के 310 mld कचरे का निस्तारण नालों द्वारा होता है। एक उचित स्थान पर संग्रहीत किया जा सकता है। और इसे समाप्त किया जा सकता है। इस कार्य को पूरा करने के लिये नगर की बढ़ती जनसंख्या की अनुमानित वृद्धिदरों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। नदी के दाहिने किनारे के नालों का भार 210 mld तथा बायें किनारे के नाले का भार 100 mld है। इसके लिये दोनों किनारों पर शुद्धिकरण संयंत्र वर्तमान भार के आधार पर ही नहीं बल्कि भविष्य के लिये योजना बनाने की आवश्यकता होती है।
10. सभी नालों के लिये पृथक-पृथक उपचारण इकाइयाँ लगाना संभव नहीं हो सकता क्योंकि यह एक अर्थसाध्य कार्य है। और प्रत्येक के लिये अतिरिक्त भूमि की व्यवस्था करना कठिन है। लखनऊ नगर के नालों के उपचारण स्थल की व्यवस्था करने पर लगभग 325 एकड़ भूमि की आवश्यकता होगी लखनऊ महानगरीय परिक्षेत्र से दूर इसकी व्यवस्था की जा सकती है। जो नदी धारा में आगे की ओर हो सकती है।
11. नगरों के पर्यावरण प्रदूषण सुधार के लिये भेल (BHEL) स्थिति प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान संस्थान (PCRI) ने चंडीगढ़ स्थित केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन के सहयोग से सीवेज के गंदे और प्रदूषित जल को शुद्ध करने के लिये पराबैगनी किरणों से प्रदूषित जल को शुद्ध करने की तकनीकि विकसित की है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नदी जल संरक्षण निदेशालय ने इस संयंत्र को अनुमोदित कर इसे पेटेंट कराने की अनुमति प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान को दे दी है। इस संयंत्र को गंगा कार्य योजना के अधीन हरिद्वार के समीप जगजीतपुर में स्थापित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में इस नयी तकनीकि का पायलेट संयंत्र सफल परीक्षण के बाद स्थापित किया जा चुका है। संस्थान के वैज्ञानिकों का स्पष्ट दावा है कि इस संयंत्र से शुद्धिकृत जल 99.6 प्रतिशत जीवाणु विहीन पाया गया, हरिद्वार के जगजीतपुर में स्थित प्रतिदिन 180 लाख ली. क्षमता वाले ट्रीटमेंट प्लांट के कुछ भाग को इस संयंत्र की पराबैगनी किरणों द्वारा निश्संक्रमित किया जा रहा है। पराबैगनी किरणों द्वारा कीटाणुओं के मारने के संयंत्र में विकसित प्रक्रिया में संयंत्र से पराबैगनी किरणें निकलती है। जो जीवाणुओं को मार देती है। यह आर्थिक और तकनीक स्तर पर भी कम खर्चीला है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस तकनीकि द्वारा शुद्धकृत और निसंक्रमित जल में कोई भी अपशिष्ट नहीं आ पाते हैं। इस विधि में प्रयुक्त लैंप मोड्यूल से उत्पन्न किरणों को जल पूर्ण रूप से अवशोषित कर लेता है। परिणाम स्वरूप शुद्धिकृत जल पूर्णतया सुरक्षित और हानि रहित होता है। ऐसे संयंत्रों का विकास कर भविष्य में जनसंख्या दबाव को देखते हुए दूषित सीवेज जल को शुद्धिकृत कर पुनर्प्रयोग करने में सहयोग होगा तथा नदियों का प्रदूषण समाप्त हो सकेगा।
कचरा निस्तारण
लखनऊ नगर का प्रतिदिन कचरे का औसत भार 16000 मीट्रिक टन है जो कि नगर से निस्तारित किया जाता है। कुल कचरे का 10 प्रतिशत भाग उठाया नहीं जाता बल्कि नालों में बहा दिया जाता है। नालों के इस कचरे से कभी-कभी गोमती के जल का ऊपरी तल बहुत अधिक तैरने वाले ठोस पदार्थों से युक्त दिखायी देता है।
1. नदी जल संरक्षण और कचरा निस्तारण के लिये लखनऊ नगर निगम तथा नगरीय विकास से जुड़े लखनऊ विकास प्राधिकरण को अपनी योजनाएँ बनानी चाहिए।
2. कचरा निस्तारण के लिये जगह-जगह पर कूड़ा पात्रों की स्थापना करना आवश्यक है।
3. नालों के ठोस अपशिष्टों को निस्तारित करने के लिये प्राथमिक उपचार बेहतर है इसमें तैरते और बहते ठोस अपशिष्टों को साधारण विधि के प्रयोग से अलग किया जा सकता है।
4. नदी के दोनों किनारों पर स्थान-स्थान पर पक्के स्थायी कूड़ा पात्रों का निर्माण करना चाहिए, जिसमें की ठोस अपशिष्ट एकत्र किए जा सकें।
5. नदी में बैराज तथा अन्य प्रमुख स्थलों पर ठोस अपशिष्टों को नदी जल से पृथक किये जाने की व्यवस्था करना आवश्यक हो गया है।
6. ठोस पदार्थों को एकत्रित कर उनका पुनर्प्रयोग किया जाए।
7. नागरिकों को कचरा निस्तारण की सही स्थिति की जानकारी देना।
श्मशान घाट
लखनऊ नगर में 4 श्मशान घाट है जिनमें एक शवदाह घाट (मुर्दाघाट) के अलावा गुलालाघाट, भैसाकुंड तथा पिपराघाट यह तीनों शवदाह घाट लखनऊ नगर के गोमती तट पर स्थित हैं। लखनऊ विकास प्राधिकरण की ओर से नगर में भैंसाकुंड में एक मात्र विद्युत शवदाह केंद्र की स्थापना की जा सकी है। इस विद्युत ग्रह का उपयोग भी जनता द्वारा बहुत कम किया जाता है। शवदाह की समुचित व्यवस्था न होने से बिना जलाए गये शव, अधजले शव तथा जले शव को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। परिणाम स्वरूप नदी जल भारी प्रदूषण का शिकार बनता है। पशुओं के शव तथा आत्महत्या करने वालों के शव तथा हत्या कर नदी में डाले जाने वाले शवों से भी नदी का जल प्रदूषित होता रहता है। नदी जल की गुणता को बनाये रखने के लिये कुछ उपाय आवश्यक हो गये हैं -
1. जनता की भावना को देखकर श्मशान घाट में स्थायी लकड़ी के शवदाह केंद्रों की समुचित व्यवस्था करनी आवश्यक है, जिससे की लोगों को शव सीधे नदी में विसर्जित करने के लिये विवश न होना पड़े और साथ ही लोगों को आत्मठेस भी न पहुँचे।
2. नगर के एक मात्र विद्युत शवदाह केंद्र की स्थिति ठीक नहीं है तथा दाह कर भी अधिक वसूल किया जाता है। इसके लिये नगर निगम तथा लखनऊ विकास प्राधिकरण की ओर से स्थायी और टिकाऊ व्यवस्था करना आवश्यक हो गया है।
3. शवदाह सामग्री घी, चुनरी, लकड़ी, बांस, कपड़ों के लिये स्थायी एवं आसान तरीकों से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए, क्योंकि प्राय: मृतक के आवश्यक संस्कार की सामग्री पाने तथा उसमें होने वाले व्यय के कारण अधजले शव ही छोड़ देते हैं।
4. सुधरे हुए शवदाह बनाने की आवश्यकता है। पीने के पानी तथा वर्षा और धूप से बचने का प्रबंध करना शवदाह केंद्र में आवश्यक है। लखनऊ नगर के भैंसा कुंड जैसे शवदाह केंद्र में पीने के पानी वर्षा तथा धूप से बचने का प्रबंध नहीं है। परिणाम स्वरूप ऐसी परेशानी की स्थिति से बचने के लिये यहाँ अधजले शव छोड़ दिये जाते हैं। इसलिये व्यवस्थाओं पर ध्यान देना आवश्यक है।
5. नगर का प्रमुख तथा मेडिकल कॉलेज के निकट का शवदाह केंद्र गुलाला घाट में शव यात्रियों को इतनी परेशानी झेलनी पड़ती है कि शव को आग देने के लिये पतावर तक नहीं मिल पाती है। परिणाम स्वरूप शव को जलता छोड़कर लोग वापस हो जाते हैं। अत: इन स्थितियों से उबरने के लिये आवश्यक है सरकारी तंत्र पर व्यवस्था हो जिससे की गोमती नदी जल की गुणवत्ता की रक्षा हो सके।
6. शवदाह केंद्र को शांति का केंद्र बनाना चाहिए जिससे मन: व्यग्रता समाप्त हो और शव सम्बन्धी आवश्यक क्रियाएँ सरलता से संपन्न हो और इस कारण से दूषित होने वाले नदी जल को बचाया जा सके।
कृषि में प्रयुक्त कीटनाशी एवं खरपतवारनाशी रसायनों का उपचार
नदी केवल नगरीय अपशिष्टों तथा सीवर मल से ही प्रदूषित नहीं होती, नदी जल प्रदूषण के लिये कृषि में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशी और खरपतवारी नाशी रसायन भी उत्तरदायी है। कीटनाशकों के दुष्प्रभाव को ध्यान में रखकर कुछ विषैले रसायनों के प्रयोग एवं उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। देश में 1 लाख टन कीटनाशी प्रयोग में लाए जाते हैं जिनमें 70 प्रतिशत मात्रा ऐसे कीटनाशियों की है जिनके प्रयोग पर पश्चिमी देशों में प्रतिबंध है।26
गोमती नदी में कीटनाशक निर्धारित मानक से ऊपर पाये गये औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में बताया कि गोमती जल में गऊघाट पम्पिंग स्टेशन के पास डीडीटी व गैमक्सीन जैसे विषैले प्रतिबंधित कीटनाशक पाये गये जो जल की दुर्गंध और विविध प्रकार की बीमारियों का कारण हैं।
नदी जल की गुणवत्ता बनाये रखना तथा नाइट्रोजन एवं फास्फोरस के यौगिक एवं कीटनाशकों का नियंत्रण करना सबसे कठिन कार्य है। ये उर्वरकों पशुआहार तथा कृषि जनित विधियों द्वारा उत्पन्न होते हैं। नाइट्रोजन की मात्रा जल में बढ़ जाने से एलगी का तीव्र प्रसार होता है। इससे बच्चों में स्वास्थ्य की अतिगंभीर समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। यह भूमि में पहुँचकर वर्षा जल में घुलकर नदी जल में पहुँचते हैं तथा पशुओं के चारे के रूप में पेट में पहुँचते हैं तथा पुनः मल द्वारा नदी तक पहुँचते हैं। इसके लिये प्रयोग विधि तथा प्रयोग की मात्रा में सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
1. कृषि में प्रयुक्त होने वाले ऐसे कीटनाशकों का विकास किया जाना चाहिए जो फसलों को कीटों से बचाए किंतु मानव एवं पशुओं के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक न हो।
2. कीटनाशकों का प्रयोग करने के लिये कृषकों को प्रशिक्षित करना चाहिए, इसके लिये समय-समय पर नि:शुल्क प्रशिक्षण के लिये क्षेत्रीय प्रशिक्षण वर्ग भी लगाए जाने चाहिए।
3. फसलों की सुरक्षा के लिये कीटनाशकों का प्रयोग किया जाए किंतु कटाई पूर्व काफी समयांतराल पूर्व करना चाहिए।
4. रसायन उर्वरकों के स्थान पर कम्पोस्ट खाद का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए।
5. फसलों को कीटों से सुरक्षित बनाये रखने के लिये कीटभक्षी कीटों का प्रयोग किया जा सकता है।
6. कीट नाशकों के खाली पैकेट व डिब्बों को जल स्रोतों से दूर नष्टकर भूमि के नीचे दबा देना चाहिए।
7. तरल कीटनाशकों के भूमि पर गिरने की स्थिति में बालू व मिट्टी डालकर सूखा लेना चाहिए तथा उसे ऊसर भूमि में जलस्रोत से दूर दबा देना चाहिए।
8. कीटनाशकों के प्रयोग से पूर्व और भविष्य के मौसम का पूर्वानुमान अवश्य लगा लेना चाहिए।
9. प्रयोग किए गये पात्रों तथा उपकरणों को धोने के पश्चात निकले हुए जल को जलस्रोत से दूर निर्जन स्थान पर गड्ढा खोद कर भूमि में दबा देना चाहिए।
10. नदी तट पर कुश, कांश, सरपत जैसे बड़ी तथा दीर्घजीवी घासों का रोपण किया जाना चाहिए इससे नदी तट का कटाव कम होगा तथा कीटनाशक उसमें अवरोधित होंगे तथा नदी जल की कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से रक्षा होगी।
11. कीटनाशकों को जल से अलग करने के लिये स्वीडन के शोधकर्ताओं ने एक उपकरण का निर्माण किया है। प्रत्येक कीटनाशक का एक आकार होता है। उपकरण में विशेष प्रकार के छिद्र होते हैं जो प्रत्येक कीटनाशक के लिये अलग होते हैं। प्रदूषित जल उपकरण की छतरी से गुजारा जाता है। तो कीटनाशक उसमें फसते जाते हैं। यह एक खरब जलकणों में से 250 कीटनाशी कणों को अलग कर सकता है। यद्यपि इस यंत्र का प्रयोग भारत में नहीं किंतु इसकी सफलता को ध्यान में रखकर इसका उपयोग किया जाना अपरिहार्य है।
धोबी घाट एवं स्नान घाट
नदी जल प्रदूषण के कारणों में एक कारण जनता द्वारा सीधे नदी में स्नान करना तथा वस्त्रों की धुलाई है। वस्त्रों की धुलाई में डिटर्जेंट का प्रयोग धोबियों एवं जन सामान्य द्वारा किया जाता है। नदी जल के लिये गये नमूनों में डिटर्जेंट की मात्रा पायी गयी, इसके प्रभाव से नदी में शैवाल और जीवाणुओं की संख्या तेजी से बढ़ती है। मछलियों पर घातक प्रभाव पड़ता है। तथा ऑक्सीजन की कमी पड़ जाती है और जलजीव नष्ट होने लगते हैं। नदी जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिये कुछ प्रयास इस प्रकार किये जाने चाहिए -
1. नदी तट से जिन स्थानों पर धोबियों द्वारा वस्त्र धुलाई का कार्य किया जाता है वहाँ पर धोबी घाटों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
2. महानगर लखनऊ के परिक्षेत्र में लगभग 12 धोबी घाट हैं। जहाँ आधुनिक व्यवस्था के धोबी घाट बनाने चाहिए।
3. धोबी घाटों में जल के लिये टैंक की व्यवस्था जल संस्थान द्वारा पूरी की जाए तथा उनमें समुचित उपयोग के लिये जल उपलब्ध कराया जाए।
4. प्रदूषित परित्याज्य जल को सीवरों में डालकर शोधन संयंत्र तक पहुँचाना सुनिश्चित करना चाहिए।
5. आवश्यकता के अनुरूप अलग-अलग घाटों में 10 से 20 तक टैंकों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
6. स्नान घाट बनाए जाएँ वहाँ पर परित्याज्य जल के निष्कासन की व्यवस्था हो जिससे पवित्र अवसरों पर लोगों की भावनाओं को ठेस न पहुँचे।
सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था (सामुदायिक शौचालय)
लखनऊ महानगर परिक्षेत्र में गोमती नदी के परित: पहुँच के 60 प्रतिशत भाग पर लोग खुले स्थानों पर शौच करते हैं। इसलिये आवश्यक है कि नदी में होने वाले प्रत्यक्ष प्रदूषण को रोका जाए-
1. 10 से लेकर 20 सीट वाले सामुदायिक शौचालयों की स्थापना नदी के दोनों तटों तथा मलिन बस्तियों में की जाए। ताकि नदी तथा नालों में लोग सीधे शौच न करें।
2. नगर निगम के स्वच्छता विभाग द्वारा इन स्थानों का चयन करके योजना बनानी चाहिए।
3. शौचालय में ऊर्जा उत्पादन कार्य के लिये नेडा की सहायता ली जाए।
4. सूखे शौचालयों को जलयुक्त बनाया जाए तथा सीवर लाइनों से जोड़ा जाए।
मलिन बस्तियाँ एवं झुग्गी झोपड़ियाँ
गोमती नदी में बने बंधे के किनारे वर्षाऋतु के पश्चात अस्थाई झोपड़ियाँ बनाकर रहने वाले निवासी गोमती जल को सीधे तौर पर प्रदूषित करते हैं। इनकी संख्या तथा निवासियों की जनसंख्या गोमती जल प्रदूषण पर प्रभाव डालती है। अत: इसके लिये आवश्यक प्रयास करने होंगे -
1. अस्थाई आवासीय झोपड़ियों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाने तथा निगरानी रखने की आवश्यकता है।
2. गोमती तट पर पड़ी भूमि का उपयोग फूल, फल, सब्जी उत्पादन, मनोरंजन, पर्यटन आदि के हेतु में किया जाए।
3. आवासीय भूमि में झोपड़ियों का स्थानांतरण किया जाना। (पुनर्वास योजना)
पशु जनित प्रदूषण से बचाव
नगर में दूग्ध उत्पादक घोसियों द्वारा पाले जाने वाले दूधारू पशुओं का मल-मूत्र नदी जल तक पहुँचना जल प्रदूषण का कारण बनता है। बड़ी संख्या में भैंसे नदी जल में पूरे दिवस रहती हैं। ग्रीष्म काल में यह अवधि अधिक हो जाती है। तथा इनकी संख्या भी बढ़ जाती है। नदी जल को सुअर, भैंस, गाय तथा अन्य भारवाहित मवेशियों द्वारा हानि से बचाने का प्रयास किया जाना आवश्यक है-
1. अवारा घूमने वाले पशुओं के लिये गोसदन बनाए जाएँ तथा उनका गोबर उपलों, उर्वरकों तथा बायोगैस के उत्पादन में प्रयोग किया जाए।
2. नगर के कुछ स्थानों पर जहाँ की पशुओं की संख्या अधिक है। 30×10×1.5 मी. के टैंकों का निर्माण कराया जा सकता है। ऐसे टैंक, हनुमान सेतु, डालीगंज, पक्का पुल, गुलालाघाट, पिपराघाट तथा बैराज के निकट बनाए जाने चाहिए।
3. पशु मल से जल को सुरक्षित रखने के लिये नदी से दूर टैंकों की व्यवस्था की जाए। टैंको के जल को सीवर से जोड़ा जाए। नदी में पशुओं के पहुँचने पर प्रतिबंध लगाया जाए।
4. घोसी ग्रामों की स्थापना नगर से दूर विकसित कर उन्हें आदर्श रूप दिया जाना चाहिए।
तटीय भू-क्षरण को रोकना
नदी तट को कटाव से सुरक्षित करने के लिये प्रयास किये जाने चाहिए, वर्षा द्वारा, पशुओं द्वारा तथा अनियोजित निर्माण कार्य से नदी तट का क्षरण होता रहता है और मृदा की मात्रा नदी जल में मिलती रहती है। क्षरण से सुरक्षित रखने के लिये कुछ प्रयास किये जा सकते हैं -
1. दोनों तटों पर अवरोधी बंध बनाना।
2. दोनों तटों पर वृक्षारोपरण करना।
3. पशुओं के आवागमन पर नियंत्रण
4. अनियोजित निर्माण कार्य को रोकना।
जनजागरूकता
किसी भी योजना की सफलता के लिये जन सामान्य का योगदान आवश्यक होता है। इसके अभाव में सफलता संदिग्ध रहती है। गोमती जल को शुद्ध करने के लिये जन सामान्य की जागरूकता का प्रयास किया जाना आवश्यक है। जिससे जलस्रोतों तथा नदियों के प्रति नागरिकों में आदर्श भावना विकसित हो सके-
1. स्थानीय निवासियों को समय-समय पर आहूत कर योग्य व्यक्तियों द्वारा चर्चा करायी जाए। जिसमें स्थानीय पर्यावरण का स्थायी स्तंभ अनिवार्य रूप से सम्मिलित हो।
2. जल प्रदूषण रोकने के लिये टीवी, रेडियो, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के माध्यम से व्यापक प्रचार प्रसार किया जाए।
3. जलस्रोतों के निकट आवश्यक सूचनात्मक सामग्री लिखी होनी चाहिए। पालन न करने की दशा में कानून और दंड का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए।
4. विशेष प्रशिक्षण शिवरों का आयोजन करना तथा स्थानीय पर्यावरण प्रदूषण को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
5. तथ्यों को प्रस्तुत करना, परिणाम, प्रस्तुत करना तथा अन्य देशों की योजनाओं पर चर्चा करना, पाठ्य सामग्री तथा अध्ययन विषय बनाना, जिसके द्वारा लोगों में चेतना का विकास हो। चर्चा तथा पाठ्यक्रम में सम्मिलित होना चाहिए।
भू-गर्भ जल प्रदूषण नियंत्रण
जल प्रदूषण आज की गंभीर समस्या है। जलप्रदूषण न केवल सतही जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहे हैं। बल्कि अद्योभौमिक जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं। आज सतही जल प्रदूषण की अधिकता से तथा उसके विस्तार के कारण भू-गर्भ जलस्रोत प्रदूषित होते जा रहे हैं। यद्यपि मिट्टी की विशेषता है जल का अवशोषण करना तथा अवशोषित जल का शुद्धिकरण करना, किंतु कुछ हानिप्रद रसायन जल में घुलने पर उन्हें अलग करना बहुत कठिन प्रक्रिया होती है और वह धरातलीय प्राकृतिक छनन प्रक्रिया से भी अलग नहीं होते हैं। घुले हुए नाइट्रेट कण मिट्टी से होते हुए भूजल में पहुँच जाते हैं। नाइट्रेट अंश भी भू-गर्भ तक पहुँचता है। भारत सीमा से संलग्न बांग्लादेश के कुछ गाँवों में, प. बंगाल, बिहार तथा उ.प्र. में आर्सेनिक 0.05 मानक के विपरीत 2.3 mg/I भू-गर्भ जल में उपस्थित पाया गया।
पेयजल में प्रयुक्त भू-गर्भ जल की स्थिति असंतुलित होने के कारण समस्यायें गहराती जा रही है। राजस्थान के पुराने तथा कछारी मैदानों में स्थिति कुओं का जल और नदी जल प्रदूषित जल के रिसाव से प्रदूषित हो गया है। कुओं का जल इतना अधिक विषाक्त हो गया की पीने योग्य नहीं रह गया। लखनऊ नगर में उपलब्ध कराये जाने वाले जल में 40 प्रतिशत भू-गर्भ जल सम्मिलित है। भूगर्भ जल संस्थान द्वारा लिये गये नमूनों के परिक्षण में पाया कि इलेक्ट्रो लाइटस की अधिकतम मात्रा पायी जाती है तथा पीएच मान भी अधिक पाया गया। साथ ही प्रेटिक्स जैसे जटिल रसायन पाये गये। मैग्नीज की मात्रा अधिक होने से जल का स्वाद खराब पाया गया फ्लोराइड तथा लौहतत्व की अधिकता पायी गयी तथा कीटाणु परीक्षण के लिये गये नमूनों में 23 में 11 अशुद्ध पाये गये।27
भू-गर्भ जल प्रदूषण के नियंत्रण के लिये कुछ आवश्यक उपाय अपरिहार्य रूप से किये जा सकते हैं -
1. औद्योगिक अपशिष्ट जल को भूमि में एकत्र होने से रोका जाए।
2. नालों के लिये नियोजित स्वरूप देकर ढका हुआ एवं पक्का बनाया जाए तथा उनकी तली को ऐसा बनाया जाए की जल का रिसाव भूमि पर न हो सके।
3. नगरीय ठोस अपशिष्टों को भूमि पर एकत्र होने से रोका जाए।
4. उवर्रकों का समुचित उपयोग करना तथा हानिकारक प्रतिबंधित उर्वरकों के प्रयोग पर पूर्ण नियंत्रण रखना।
5. गोमती जल तथा तल का स्वच्छीकरण करना।
6. सीवर लाइन व्यवस्था तथा जलमल शुद्धिकरण की व्यवस्था को वैज्ञानिक स्वरूप देकर यथा शीघ्र कार्य संपन्न करना।
पेयजल प्रदूषण नियंत्रण
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के हाल के निष्कर्षों से पता चला कि गोमती के जल के ‘सेप्टिक कण्डीसन’ जैसी अति विषाक्त स्थितियाँ उत्पन्न हो गयी है। गऊघाट व बैराज के मध्य प्रदूषित जलमल का भार प्रतिदिन बेहिसाब बढ़ता जाता है। इसलिये पानी में घुलिस ऑक्सीजन के स्तर में काफी गिरावट आयी, प्रदूषित जलापूर्ति से पीलिया, आंत्रशोथ तथा पेट से जुड़ी तमाम बीमारियों के शीघ्रता से फैलने की आशंका बनी रहती है।
लखनऊ जल संस्थान से क्लोरीनेशन के उपरांत आपूर्ति किये जा रहे पानी के जिन नमूनों का परीक्षण किया है उसमें रोगों को फैलाने वाले बैक्टीरिया बड़ी तादाद में मिले हैं। चिकित्सकों ने भी स्वीकार किया है कि इधर नगर में पीलिया रोगियों की संख्या बढ़ी है। बोर्ड के मुख्य पर्यावरण अधिकारी डॉ. जीएन मिश्रा28 के अनुसार बैराज पर गोमती के पानी में घुलित ऑक्सीजन मानक से बहुत कम 2.3 mg/I रह गयी गोमती जल में कॉलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या बैराज पर 500 मानक के मुकाबले 2.4 लाख से भी ज्यादा है। गोमती जल की स्थितियों को ध्यान में रखकर पेय जलापूर्ति की शुद्धता का प्रयास एवं प्रयत्न आवश्यक होगा।
हमारा राष्ट्र दो हजार तक ‘‘सबके लिये स्वास्थ्य’’ लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। सबको स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराकर काफी लोगों को स्वास्थ्य समस्या का निराकरण किया जा सकता है। एक आवश्यक पूर्व प्रेक्षित जल की सुरक्षा हेतु मूल्यांकन के उद्देश्य के साथ-साथ रोगजनक और प्रदूषकों के विश्लेषण तथा औद्योगिक अभिक्रिया और गुणवत्ता की दिशा में सारे प्रयत्न नितांत आवश्यक है। -
1. पेयजल की गुणवत्ता का निरीक्षण, दूषण के कारणों का विष्लेषण एवं निदान के लिये आवश्यक प्रयत्न।
2. प्रदूषण रहित नवीन जलस्रोतों का मापन एवं व्यावहारिकता में जलापूर्ति की उपयोगिता।
3. जल की निर्धारित गुणवत्ता के संबंध में प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन। जल प्रदूषण, इसके स्रोतों एवं रोगाणुओं से फैलने वाली बीमारियों की रोकथाम एवं निदान की जनसामान्य को जानकारी प्रदान करना। पेयजल में जीवाणवीय प्रदूषण चिंता का विषय है। लगभग 80 प्रतिशत जलस्रोतों में जीवाणवीय प्रदूषण पाया जाता है। ऐसे प्रदूषित जल के सेवन से हैजा, मियादी बुखार, दस्त, आंत्रशोथ इत्यादि बीमारियाँ फैलती है। इस गंभीर समस्या से बचने के लिये औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र लखनऊ ने एक समाधान प्रस्तुत किया है तथा इसके लिये एक सरल सस्ते, टिकाऊ यंत्र का विकास किया है।
4. ‘अमृत कुंभ’ के नाम से जाना जाने वाला यह यंत्र शत प्रतिशत रोग जनक जीवाणुओं को नष्ट करके हटाता है। यंत्र में रजत गतिहीन उत्प्रेति एलुमिना है। सूक्ष्म जीवाणुओं का नाश भौतिक रसायन प्रणाली के आधार पर होता है। प्रयोग द्वारा यह पता चलता है कि लगभग 104 जीवाणु मि.ली. सूक्ष्म जीवाणु तक इस यंत्र द्वारा हटाये जा सकते हैं। इस यंत्र द्वारा शुद्ध जल में भौतिक रासायनिक अवयवों और खनिजों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। यंत्र लगभग प्रतिदिन 10 लीटर तीन वर्ष तक शुद्ध जल उपलब्ध कराने में समर्थ है। इसकी मरम्मत एवं कार्य दृढ़ता को बड़ी आसानी से एवं ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार के सहज सस्ते उपकरणों का उपयोग कर हम जल जनित बीमारियों से बच सकते हैं।
5. पेयजल के उपचार की अनिवार्य नि:शुल्क व्यवस्था सभी को उपलब्ध हो।
6. पेयजल के खारापन, कठोरता तथा अधिक फ्लोराइड नाइट्रेट व लौहतत्व को कम करने के लिये सस्ती तकनीकि का विकास।
7. पेय जल आपूर्ति की पाइप लाइनों के जगह-जगह पर अवैध रूप से काटने और क्षतिग्रस्त करने से दूषित जल पाइप लाइनों में प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थिति से बचाव के लिये प्रशासनिक स्तर पर कठोर प्रयास किये जाने चाहिए।
8. पेय जलापूर्ति के सुधार से बीमारियों की निरंतर बढ़ती गति में नियंत्रण लगाया जा सकता है। (परिशिष्ट- 31)
कानून बनाना एवं उनका पालन करना
1. जल अधिनियम 1972 अनुच्छेद 20, 21 व 22 का पालन।
2. 1977 अधिनियम के अनुसार जल शोधन यंत्रों के लगाने के लिये 70 प्रतिशत की छूट दी जाती है। सीवरों के लिये तथा औद्योगिक इकाइयों के लिये 30 प्रतिशत, प्रदूषण नियंत्रण मशीनों के लिये 35 प्रतिशत की मदद की जाती है। औद्योगिक इकाइयों को इनका लाभ प्राप्त करना चाहिए।
3. नगर महापालिका अधिनियम धारा 396, 397, 398 की धारा 402 में जल को रसायनों से बचाव का प्राविधान है।
4. जल अधिनियम (1974) 23 मार्च 1974 को लागू किया गया। इसके निम्न उद्देश्य हैं।
प्रदूषण स्रोतों के लिये न्यूनतम राष्ट्रीय मानक लागू करना।
विकास कार्यों का वातावरण पर प्रभाव ज्ञात करना।
जल की समस्याओं तथा गुणता की मॉनीटरिंग करना।
प्रशिक्षण एवं जन शिक्षा
अपशिष्ट जल के प्रबंध को प्रोत्साहित करना,
प्रोत्साहन, अनुदान, परामर्श एवं कानूनी कार्य लागू करना।
5. जल अधिनियम 1974 के अंतर्गत नगर पालिकाओं को जल प्रदूषण रोकने का अधिकार दिया गया।
अनुच्छेद- 192 (क) शहर की नाली, नदी, या अन्य जलराशि में कूड़ा करकट, गंदगी फेंकना निषिद्ध है।
अनुच्छेद- 201 नदी पोखर, तालाब आदि को स्नान से गंदा करना तथा उनमें गंदी वस्तुएँ डालना निषिद्ध है।
अनुच्छेद- 200 निर्धारित घाटों को छोड़कर धोबियों द्वारा कपड़े धोना निषिद्ध है। इसके अतिरिक्त यह भी निर्देश है -
(a) सीवर बिना उपचार के नदियों में न खोले जाए।
(b) शव नदियों में प्रवाहित न किये जाएँ।
(c) नदियों तथा तालाबों के किनारे ट्टटी पेशाब न किया जाए तथा शौचालय बनवाए जाए।
(c) पशुओं को घाटों में प्रवेश न दिया जाए।
(e) कारखाने अपनी नालियों की व्यवस्था करें।
जल के समान वायु भी हमारे पर्यावरण का अभिन्न अंग है। जल के समान वायु भी शुद्ध एवं प्राकृतिक अवस्था में जीवन का आधार है अत: वायु प्रदूषण के विविध आयामों का अध्ययन समीचीन होगा।
संदर्भ (REFERENCES)
1. विश्व स्वास्थ्य संगठन (1966) द्वारा डॉ. चौरसिया, आरए पर्यावरण प्रदूषण एवं प्रबंध, 1992, पी. 132
2. Vivier, p, “La, Pollution des Coure Deau” ‘Academy Agriculture, d.’ France, 1958
3. Southwick, Charles S., Ecology and the Quality of our Environment, D. Ven Nostr and Co,. New York 1976 p., 161.
4. Gilpin Alon, Dictionary of Environmental Terms, London, 1978, p. 171
5. Report, Restoring the Quality of our Environment, President's science Advisory committee, Washington U.S.A., 1965
6. Keller, R., the World’s Fresh Water, Yesterday, Toay and Tomorrow, 1986, p. 29
7. Hussa’n, S.K, Quality of Water Supply and Sanitary Engineering Oxford Publishing Co., N. Delhi, 1975, p. 79
8. Annual Administration Report, Jal Sansthan, Lucknow, 1955-56
9. Pandey S.N., and Sagar K. Report on Ground Water Pollution, Lucknow,
10. Singh, B.K., pal, O.P., Pandey, D.S., Ground Water Pollution, A case study around North Eastern Railway city station, Lucknow, U.P. Bhujal News, Quarterly Journal of Central Ground Water Board Ministry of Water Resources., April June-1991, vol-6 No.-2
11. Kumar, S. Heavy Metal Pollution in Gomti River, Sediments Around Lucknow, Uttar Pradesh Current Science, May 20, 1989, Vol. 58, No. 10, pp 557-557
12. Pankaj Mala, Baranwal M,. Rastogi S.K. Environmental Appraisal of Lucknow G.S.I. I.T.R.C. “Environmental Appraisal of Lucknow” Proceedings of the seminar on Ground water pollution at Geological survey of India, Lucknow, May 1996, p-92
13. Subhas Chandra, Rashme Srivastava and Vachaspati Srivastava “Raped Method for the study of Geoenvironmental Hazards of Arsenic in Gomti River At Lucknow City” p. 172
14. स्वास्थ्य विभाग- लखनऊ राज्य संचारी रोग निदेशक, कार्यालय, लखनऊ।
15. मुख्य चिकित्साधिकारी,कैसरबाग, लखनऊ साक्षात्कार 10.5.96
16. होलीबाग (1990) और हैरिस (1970) द्वारा त्रिवेदी आरके इकोलॉजी एंड पोल्यूशन ऑफ इंडियन रिसर्च- 1988.
17. डाउट (1981) तथा किंडेल (1977) द्वारा त्रिवेदी आरके इकोलॉजी एंड पॉल्यूशन ऑफ इंडिया रिसर्च, 1988.
18. हैराडा (1978) द्वारा त्रिवेदी आरके इकोलॉजी एंड पॉल्यूशन ऑफ इंडिया रिसर्च 1988.
19. डॉ. पाठक, सत्य प्रकाश, जल प्रदूषण एवं जीवाणविक प्रतिरोध, विष विज्ञान संदेश, वर्ष 1 अंक-1, 1995 पेज 18, 19.
20. खन्ना राज, एवं खन्ना एसके,संश्लेषित रंजक और पर्यावरण प्रदूषण, विष विज्ञान संदेश,वर्ष-1, अंक 1, 1995 पेज 27, 28
21. डॉ. कृष्ण गोपाल, फ्लोराइड का स्वस्थ्य पर दुष्प्रभाव, विष विज्ञान संदेश, वर्ष-1, अंक 1, 1995, पेज 40, 41
22. श्रीवास्तव गोपी नाथ, पर्यावरण प्रदूषण, 1994, p, 113
23. Ibidem Pandey, S.N. and Sagar, K.
24. Gomti River Monitoring G.P.D. Phase-II Industrial Toxicology Research Centre, Lucknow. (1993-95)25. इं. मजूमदार, टी. के. गोमती प्रदूषण नियंत्रण प्रतिवेदन- 1993
26. प्रतियोगिता दर्पण, मई 1990, p. 1036
27. Environmental Appraisal of Lucknow, Report by Lucknow Jal Nigam- 1993
28. Chairman U.P. State Pollution Control Board, Lucknow.
लखनऊ महानगर एक पर्यावरण प्रदूषण अध्ययन (Lucknow Metropolis : A Study in Environmental Pollution) - 2001 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | पर्यावरण प्रदूषण की संकल्पना और लखनऊ (Lucknow Metro-City: Concept of Environmental Pollution) |
2 | लखनऊ महानगर: मृदा प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Soil Pollution) |
3 | लखनऊ महानगर: जल प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Water Pollution) |
4 | लखनऊ महानगर: वायु प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Air Pollution) |
5 | लखनऊ महानगर: ध्वनि प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Noise Pollution) |
6 | लखनऊ महानगर: सामाजिक प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Social Pollution) |
7 |
Path Alias
/articles/lakhanau-mahaanagara-jala-paradauusana
Post By: Hindi