लक्ष्य से चूकता देश

ग्यारह साल पहले यानी 2000 में सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तय किए गए तो पूरी दुनिया ने इसका स्वागत किया। कहा गया कि बुनियादी समस्याओं के समाधान की राह में अहम कदम उठा लिया गया है। तकरीबन डेढ़ सौ देशों की सहभागिता वाले इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दुनिया के स्तर पर काफी पैसे भी जुटाए गए। तय हुआ कि ये आठ लक्ष्य 2015 तक पूरे कर लिए जाएंगे। अब महज चार साल ही बचे हैं। ऐसे में इन लक्ष्यों को पाने को लेकर संदेह गहराता जा रहा है। न लक्ष्यों को पाने की दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं होने के लिए विकासशील देशों के रवैए के साथ-साथ विकसित देशों की वादाखिलाफी को भी जिम्मेदार माना जा रहा है। दरअसल, जितना धन विकसित देशों को मुहैया कराना था उतना धन वे मुहैया नहीं करा रहे हैं। विकसित देशों की तरफ से हो रही वादाखिलाफी को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी समझते हैं। यही वजह है कि बीते दिनों उन्होंने कहा कि अमीर देशों को आर्थिक मंदी के नाम से विकासशील देशों को दी जाने वाली सहायता राशि को रोका या कम नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि गरीबी और गरीबों का हक मारकर हमें अपने बजट को संतुलित करने का काम नहीं करना चाहिए।

बहरहाल, अभी तक सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए हुई प्रगति को न तो उत्साहजनक कहा जा सकता है और न ही संतोषजनक। भारत के संदर्भ में हालत और भी खराब हैं जबकि इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए महज चार साल ही बचे हैं। तो ऐसे में भारतीय संदर्भ में सभी लक्ष्यों पर अब तक हुई प्रगति का जायजा लेना बेहद जरूरी होजाता है। सहस्त्राब्दी का पहला विकास लक्ष्य है 2015 तक गरीबी और भूखमरी को आधा करना। न तो वैश्विक स्तर पर ही इन दोनों समस्याओं के समाधान की दिशा में कोई खास प्रगति हुई है और न ही भारत में। कई देशों ने इसके लिए आर्थिक मंदी को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है। क्योंकि इनका कहना है कि मंदी की वजह से वे गरीबी उन्मूलन के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर धन नहीं खर्च कर पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के ही आंकड़ों पर यकीन करें तो पूरी दुनिया में अभी भी तकरीबन 85.2 करोड़ लोग भुखमरी की समस्या से दो-चार हो रहे हैं। भारत में 22.1 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल रहा है। ऐसे में पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत के लिए 2015 तक भुखमरी की समस्या को मिटाना संभव नहीं लगता। गरीबी मिटाने के मामले में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। गरीबी को लेकर भारत में कोई सर्वमान्य आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

अलग-अलग समितियां गरीबों की संख्या को अलग-अलग बताती हैं। अर्जुनसेन गुप्तासमिति कहती है देश के सतहत्तर फीसद लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं। जबकि एनसीसक्सेना समिति का अनुमान 50 फीसद का है। वहीं विश्व बैंक के मुताबिक भारत के 41.6 फीसद लोग गरीब हैं। जबकि सुरेश तेंदुलकर आयोग का मानना है कि भारत के 37.2 फीसद लोग गरीब हैं। जब 2000 में इन लक्ष्यों को तय किया गया था तो उस वक्त के भारत के नुमाइंदों ने यह वादा किया था कि 2015 तक गरीबी को 25 फीसद पर ले आया जाएगा। पर अभी तक की हुई प्रगति को देखते हुए इस लक्ष्य को पाना बेहद मुश्किल मालूम पड़ता है।

दूसरा लक्ष्य है 2015 तक सभी लड़कों और लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करवाया जाएगा। इस लक्ष्य को पाने के बारे में खुद संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रपट में कहा है किइस मोर्चे पर कुछ प्रगति तो हुई है लेकिन इसकी रफ्तार इतनी धीमी है कि 2015 तक इस लक्ष्य को पाना मुश्किल मालूम पड़ रहा है। भारत में तो हालात और भी बुरे हैं। अभी भी देश में वैसे बच्चों की बड़ी संख्या है, जिन्होंने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे बच्चों की संख्या तकरीबन 4.4 करोड़ है।

भारत की शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी समस्या है ड्रॉप आउट रेट यानी बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की दर। पहली कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते आधे विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देते हैं। एक रपट के मुताबिक भारत में हर साल बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चोंकी संख्या तकरीबन 27 लाख है। प्राथमिक शिक्षा में भारत में बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर 39 फीसद है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि बांग्लादेश में यह दर 33 फीसद है।

तीसरा विकास लक्ष्य था कि शिक्षा के क्षेत्र में लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव कोखत्म किया जाए। लेकिन अब तक की हुई प्रगति पर निगाह डालने पर ऐसा लगता है कि इस लक्ष्य को पाना भी बेहद मुश्किल है। दरअसल इस लक्ष्य को पाने की दिशा में तब तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकती जब तक महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर हो रहा भेदभाव खत्म हो।

अभी तक सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए हुई प्रगति को न तो उत्साहजनक कहा जा सकता है और न ही संतोषजनक। भारत के संदर्भ में हालत और भी खराब हैं जबकि इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए महज चार साल ही बचे हैं।

आज पूरी दुनिया महिला सशक्तीकरण का राग अलाप रही है लेकिन जमीनी हालत कुछऔर ही कहानी बयान कर रहे हैं। भारत में लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 1991 की तुलना में घटी है। 1991 में एक हजार पुरुषों पर 933 महिलाएं थीं जबकि अभी यह संख्या 927 है। ऐसे समय में भी महिलाओं के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है जब भारत की राष्ट्रपति, सत्ताधारी गठबंधन की अध्यक्ष और लोकसभा अध्यक्ष महिला हैं। इस लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा यानी इकसठ है। लिंग के आधार पर भारत में हो रहे भेदभाव की पुष्टि विश्व आर्थिक मंच की एक सूची से भी होती है। इस सूची में भारत को लैंगिक समानता के मामले में दुनिया में 134 वां स्थान दिया गया है। निरक्षर महिलाओं की संख्या के मामले में भारत सबसे आगे है। देश में ऐसी महिलाओं की संख्या 24.5 करोड़ है। आमतौर पर एक भारतीय महिला औसतन 1.2 साल स्कूल में गुजारती है जबकि एक भारतीय पुरुषऔसतन 3.5 साल स्कूल में पढ़ाई करता है।

चौथा विकास लक्ष्य था कि 1990 की तुलना में 2015 तक पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर को दो-तिहाई कम कर लिया जाएगा। पर संयुक्त राष्ट्र इस लक्ष्य केप्रति निराश है। यही वजह है कि उसने अपनी रपट में कहा है कि जिन 67 देशों में शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है उसमें से सिर्फ दस ही इस लक्ष्य को पाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

इस लक्ष्य पर प्रगति के मामले में भारत का हाल बुरा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिकभारत में हर एक हजार नवजात बच्चों में से 67 की मौत पांच साल की उम्र पूरा करने से पहले ही हो जाती है। यूनीसेफ की एक रपट के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के 18.3 लाख बच्चों की मौत हर होती है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए शिशु मृत्यु दर में 4.4 फीसद की दर से कमी लाने की जरूरत संयुक्त राष्ट्र ने बताई थी। पर इसमें 2.3 फीसद की दर से ही कमी आ रही है। भारत में तो यह दर और भी कम यानी 2.25 फीसद है। अगर भारत को इस लक्ष्य को हासिल करना है तो 6.28 फीसद की दर से शिशु मृत्यु दर में कमी लाना होगा। मालूम हो कि शिशु मृत्यु दर के मामले में बांग्लादेश और श्रीलंका की हालत भारत से अच्छी है। बांग्लादेश में हजार बच्चों में से 61 बच्चे पांच साल की उम्र नहीं पूरा कर पाते तो श्रीलंका में यह संख्या 21 पर है।

पांचवां विकास लक्ष्य यह है कि 2015 तक गर्भवती महिलाओं की सेहत को दुरुस्तकरने के बंदोबस्त किए जाएंगे और मातृत्व मृत्यु दर में तीन चौथाई कमी लाई जाएगी।मातृत्व मृत्यु से तात्पर्य उन मौतों से है जिनमें बच्चे को जन्म देने के 42 दिनों के भीतर किसी महिला की जान चली जाती है या फिर गर्भधारण के दौरान ही मौत हो जाती है। ऐसा अनुमान है कि दुनिया भर में हर साल तकरीबन पांच लाख महिलाओं की मौत इसी तरह से होती है। पांचवें लक्ष्य को पाने के लिए मातृत्व मृत्यु दर में 5.5 फीसद कमी लाने की योजना बनाई गई थी लेकिन खुद संयुक्त राष्ट्र ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस दर से प्रगति नहीं हो पाई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में हर साल ऐसी 5.29 लाख मौतें होती हैं। इसमें से 25.7 फीसद यानी 1.36 लाख अकेले भारत में होती हैं। इन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 2015 तक भारत द्वारा पांचवें लक्ष्य को पाना काफी मुश्किल है। पांचवां लक्ष्य इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इससे चौथे लक्ष्य के भी तार जुड़े हुए हैं। मातृत्व मृत्यु दर में अगर कमी आएगी तो निश्चिततौर पर शिशु मृत्यु दर में भी कमी आएगी। कई अध्ययनों ने इस बात को साबित किया है कि जिन नवजातों की मां मर जाती है उनके खुद मरने की आशंका बढ़ जाती है।

छठा सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य है 2015 तक एचआईवी/एड्स, मलेरिया और दूसरीबीमारियों से लड़ने के तरीके विकसित करना। पर एचआईवी/एड्स के खतरे से निपटने की दिशा में बेहद धीमी प्रगति की बात संयुक्त ने भी की है। इसकी रपट के मुताबिक संक्रमण का खतरा बढ़ा है और इससे संक्रमित लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या तकरीबन 3.34 करोड़ है। भारत का हाल भी बुरा है। भारत में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या तकरीबन 23 लाख है। एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है। इसमें से 39 फीसद महिलाएं हैं और 3.5 फीसद बच्चे। सरकार का दावा है कि भारत में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या घट रहीहै जबकि गैर सरकारी संगठनों के मुताबिक इसमें बढ़ोतरी हो रही है।

अर्जुनसेन गुप्ता समिति कहती है देश के सतहत्तर फीसद लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं। जबकि एनसी सक्सेना समिति का अनुमान 50 फीसद का है। वहीं विश्व बैंक के मुताबिक भारत के 41.6 फीसद लोग गरीब हैं। जबकि सुरेश तेंदुलकर आयोग का मानना है कि भारत के 37.2 फीसद लोग गरीब हैं। जब 2000 में इन लक्ष्यों को तय किया गया था तो उस वक्त के भारत के नुमाइंदों ने यह वादा किया था कि 2015 तक गरीबी को 25 फीसद पर ले आया जाएगा।

जहां तक मलेरिया से निपटने की बात है तो इस मोर्चे पर भी भारत में कोई खास प्रगतिनहीं हुई है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2008 में भारत में मलेरिया के तकरीबन 15लाख मामले सामने आए थे और इसमें 924 लोगों की मौत हुई थी। हालांकि, गैरसरकारीसंगठनों के मुताबिक 2008 में मलेरिया से मरने वालों की संख्या तकरीबन चालीस हजाररही। इस साल भी देश के कई हिस्सों से मलेरिया के प्रकोप की खबरें आ रही हैं। जानकारों का मानना है कि भारत मलेरिया से इसलिए निपटने में सक्षम नहीं हो पा रहा है कि यहां मलेरिया के मामले प्रकाश में नहीं आते हैं। दूर-दराज के इलाकों में मलेरिया से होने वाली मौत बमुश्किल ही सरकारी एजेंसियों के ध्यान में आ पाती है। सातवें सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत पर्यावरण की हालत को बेहतर बनाना तय किया गया था। पर इस दिशा में भी बेहद सकारात्मक प्रगति नहीं हुई है। खुद संयुक्त राष्ट्र ने इस बात पर चिंता जताई है कि कुछ देशों में बेहद तेजी से वन भूमि को खेतों में तब्दील किया जा रहा है और इनका इस्तेमाल कई तरह के दूसरे कामों में किया जा रहा है। इस रपट के मुताबिक दुनिया भर में हर साल 1.3 करोड़ हेक्टेअर के जंगलों की कटाई हो रही है। यह बेहद चिंताजनक है।

दरअसल, पर्यावरण के मसले पर पूरी दुनिया और खासतौर पर अमीर देश राजनीतिअधिक कर रहे हैं और काम कम। कुछ महीने पहले कोपेनहेगन में दुनिया भर के नेतापर्यावरण के मसले पर रणनीति बनाने के लिए एकत्रित हुए थे लेकिन वहां क्या हुआ इससे हर कोई वाकिफ है। हर देश अलग-अलग राग अलापने में लगा रहा और कोई समझौता नहीं हो पाया। सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला अमेरिका पर्यावरण पर सबसे ज्यादा राजनीति करता हुआ दिखता है। कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। 1994 में भारत 1.2 अरब टन कार्बन उत्सर्जन करता था जो 2007 में बढ़कर 1.9 अरब टन पर पहुंच गया। पूरी दुनिया को यह याद रखना होगा कि अगर सातवें लक्ष्य को नहीं पूरा किया गया तो इसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। क्योंकि पर्यावरण की सेहत बिगड़ने का मतलब है प्राकृतिक आपदाओं को दावत देना और इस साल भी दुनिया के कई हिस्से में प्राकृतिक आपदाओं ने तबाही मचाई है।

आठवां और आखिरी लक्ष्य है कि विकास के लिए वैश्विक साझीदारी बढ़ाना। 2000 से लेकर अब तक इस दिशा में काफी कुछ हुआ है लेकिन अभी भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र भी इस लक्ष्य पर हुई प्रगति को लेकर बेहद प्रसन्न नहीं है। इसलिए इसने अपनी रपट में इस लक्ष्य पर प्रगति नहीं हो पाने के लिए विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि इन देशों ने विकासशील और गरीब देशों के जो वायदे किए थे, वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। विकसित देश अपने वायदों को नहीं पूरा कर पाने के लिए आर्थिक मंदी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की रपट के मुताबिक विकसित देशों को अपने सकल राष्ट्रीय आय का 0.7 फीसद विकासशील और गरीब देशों को देना था। इस लक्ष्य को पाने में सिर्फ पांच देश ही सफल रहे हैं। ये हैं- डेनमार्क, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड्स, नार्वे और स्वीडन। अगर विकसित देशों ने अपने वायदों को नहीं पूरा किया तो सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को पूरा कर पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि पैसे के बिना इन लक्ष्यों को पाने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकती।

क्या है सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य


सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य 200 में संयुक्त राष्ट्र के द्वारा तय किए गए थे और इसे दुनिया भर के नेताओं ने स्वीकार किया था। उस वक्त दुनिया भर के नेताओं ने मिलकर 2015 तक आठ लक्ष्यों को पूरा करने पर सहमति व्यक्त की थी। इस बात पर भी सभी नेताओं में सहमति बनी थी कि पूरी दुनिया इन लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में मिलकर काम करेगी और इन लक्ष्यों के जरिए यह सुनिश्चित किया जाएगा कि मानवीय विकास का फायदा हर जगह पहुंचे और दुनिया के हर व्यक्ति को इसका फायदा मिले। उस वक्त 2015 तक के लिए आठ लक्ष्य हैं- गरीबी और भूखमरी को आधा करना, हर किसी को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराना, शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना, शिशु मृत्यु दर को कम करना, गर्भवती महिलाओं की सेहत सुधारना और मातृत्व मृत्यु दर में कमी लाना, एचआईवी/एड्स, मलेरिया और दूसरी बीमारियों से लड़ने के तरीके विकसित करना, पर्यावरण की हालत बेहतर बनाना, इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वैश्विक साझीदारी बढ़ाना।

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