(कराची के पास की आमारी से जरा दूर मनोरा नामक एक टापू है। वहां एक सुंदर मंदिर है। टापू पर अधिकतर पोर्टट्रस्ट के लोग और थोड़ी-सी फौज रहती है। मनोरा टापू कराची का गहना तथा समुद्र का खिलौना है। इसके दक्षिण के छोर पर एक बड़ी खोह है, जिस पर समुद्र की लहरें टकराती हैं। इससे आगे काफी दूर तक एक बड़ी दीवार खड़ी करके लहरों को रोका गया है। इससे वहां लहरों का अखंड सत्याग्रह देखने को मिलता है। यह दृश्य देखने के लिए मैं एक बार गया था।
हिंदी-साहित्य सम्मेलन में मैं भाग लेने के लिए इस साल कराची गया, तब दुबारा वह दृश्य देख आया। लहरों का असर उन पत्थरों पर चाहे न भी हो, परंतु हृदय पर उनका असर हुए बिना थोड़ी ही रहता है! हृदय और समुद्र दोनों स्वभाव से ही ऊर्मिल हैं।
कोई प्राकृतिक दृश्य पहली बार देखकर हृदय पर जो असर होता है, वह दूसरी बार देखने पर नहीं होता। पहली बार सब नया ही नया होता है। उस समय अज्ञात वस्तुओं का परिचय करना होता है। कदम-कदम पर आश्चर्य और चमत्कृति का अनुभव होता है। दूसरी बार उसी जगह जाने पर किन-किन बातों की आशा करनी चाहिए, इसका मनुष्य को ख्याल होता है। इसलिए उतनी मात्रा में चमत्कृति के लिए गुंजाइश कम रहती है। परिचित वस्तु के प्रति प्रेम हो सकता है; आश्चर्य और चमत्कृति तो अपरिचित के लिए ही हो सकती है।
ऐसी ही प्रेमपूर्ण किन्तु उत्सुकता-रहित वृत्ति से मैं कराची के पास के मनोरा की लहरे देखने के लिए अबकी बार गया। यह आशा भी मन में थी कि पुराने किन्तु नौ-जवान मित्रों से इस रम्य स्थान पर विस्त्रब्ध वार्तालाप हो सकेगा। लहरें तो वहां हैं ही; उनकों देखकर आनंद जरूर होगा। इससे विशेष कुछ नहीं होगा-इस प्रकार मन को समझाकर मैं वहां गया।
पिछली बार जब गया था तब मैंने उछलती लहरों के धवल हास्य को पकड़ने के लिए तरह-तरह के फोटों खींचे थे। मगर उनमें से एक भी अच्छा नहीं आया था। इस कारण इन लहरों के प्रति मन में थोड़ा गुस्सा होते हुए भी इतना विश्वास था कि वार्तालाप के लिए वहां अनुकूल वायुमंडल अवश्य मिलेगा।
किन्तु वहां जाकर मैंने क्या देखा? पिछली बार जो दृश्य देखा था और जिसके काव्यमय चित्रों को मैंने चित्त में संग्रह करके रखा था, उन्हें फीके बनाकर चित्त से धो डालने वाला लहरों का एक अखंड तांडव यकायक दीख पड़ा! अब बातचीत काहे की और विस्त्रब्ध कथा काहे की! मुझे तो वहां मानो उन्मत्त करने वाला नशा ही मिल गया। वहां मैं यदि अकेला होता तो इन लहरों के तांडव में कूदकर उनके साथ एकरूप होने के भीतरी खिंचाव को रोक पाता या नहीं, यह मैं निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता।
एक आदमी गाने लगे तो दूसरे को गाने की स्फूर्ति अवश्य होगी। एक सियार रात्रि की शांति के खिलाफ यदि बगावत करे तो दूसरे क्रांतिकारी सियार अपने फेफड़ों की कसरत जरूर करेंगे। अजी, तरबवाली सितार के मुख्य तार को अपने प्राणों के साथ छेड़ दीजिये; तुरन्त नीचे के तार अपने-आप अपना आनंद-झंकार शुरू कर देंगे। तो फिर मेरे जैसा प्रकृति-प्रेमी जीव कुदरत की भव्यता के दर्शन करके उससे अपना भिन्नत्व यदि भूल जाय तो मानवीय सयानापन की दृष्टि से उसमें आश्चर्य भले हो, किन्तु वह अनहोनी बात नहीं है।
जिस प्रकार हाथी की सारी शोभा उसके गंडस्थल में केंद्रीभूत होती है, किले की संपूर्ण शोभा उसके गजेन्द्र-भव्य बुर्ज में होती हैं, जहाज की शोभा उसके तूतक (ऊपर के डेक) में परिपूर्ण होती है, उसी प्रकार मनोरा के जिस छोर पर किले के समान जो दीवारें खड़ी हैं उनके कारण यह टापू यहां विशेष रूप से शोभा पाता है; और समुद्र की लहरें भी यहीं वप्रकीड़ा करके अपनी खुजली (कंडु) शांत करती हैं। यह कंडु-विनोद सतत चलता रहे तो भी देखने वाला ऊबता नहीं। इसलिए यह दृश्य मनोहारी होता ही है। परन्तु यहां पर आदमी ने एक लम्बी दीवार बनाकर समुद्र की लहरों को बेहद छेड़ा है, और अब इतने साल हो गये फिर भी लहरें इस अधिक्षेप (अपमान) को न तो आज तक सह सकी हैं, न आगे सहने वाली हैं। जितनी बार उन्हें इस अपमान का स्मरण होता है, उतनी ही बार वे बड़ी फौज लेकर इन दीवारों पर टूट पड़ती हैं और इन पत्थरों का प्रतिकार करने के लिए एक-दूसरे को भड़काती जाती हैं। कैसा उनका यह उन्माद! कैसी उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा! कैसा उनका वह प्राणघातक आक्रमण! आज तो उनका यह अमर्ष चरम सीमा को पहुंच गया था। फिर पूछना ही क्या था! मानों वीरभद्र सारे शिवगणों को एकत्र करके लहरों के रूप में यहां प्रलय-काल मचाना चाहता हो।
एक-एक लहर मानो उछलती पहाड़ी-सी मालूम होती थी। एक की उत्तुंग शोभा को देखकर वैसी ही दूसरी लहरों को उसकी कदर करनी चाहिये किन्तु इस के बदले, दोनों एक होकर एक नयी ही ऊंचाई पर पहुंचती हैं और आसपास की लहरों को भी उतनी ही ऊंचाई तक चढ़ने के लिए उत्तेजित करती जाती हैं। और यह तांडव नृत्य, एक क्षण के लिए भी रूके बिना, अखंड रूप से चलता रहता है। टकटकी लगाकर इस तांडव को देखते रहिये तो उसमें एक प्रचंड ताल, मालूम होता है। मानों शिव-तांडव-स्रोत का प्रमाणिका वृत्त अपनी शक्ति आजमाने लगा है। और दिल भर आने पर प्रवाह-वेग बढ़ने से देखते ही देखते प्रमाणिका का पंचचामर छंद हो जाता है। और फिर अपनी सुध-बुध भूलकर पुष्पदंत भी उस ताल के साथ तांडव-नृत्य करने लगता है।
जिस तरफ लहरों का आक्रमण अधिक से अधिक जोरदार है, और जहां टकराने वाली लहरें चकनाचूर हो जाती हैं तथा आकाश में उनके इन्द्रधनुष को झेलने वाला बड़ा पंखा तैयार होता है, वहीं कुछ सीढ़ियां अखंड स्नान करते हुए ऋषियों की तरह ध्यान करती बैठी हैं। लहरों का पानी उनके सिर पर गिरकर हंसता हुआ और गौमूर्त्रि का बंध करता हुआ सीढ़ियां उतरता जाता है। दिल्ली-आगरे में और कश्मीर या मैसूर के वृंदावन में मनुष्य ने विलास के जो साधन निर्माण किये हैं और पानी का प्रवाह श्रावण-भादों की बड़ी धाराओं में बहाया है, उसका यहां स्मरण हुए बिना नहीं रहता।
मगर कुछ लहरें तो उस लंबी दीवार के साथ टकराकर उसके सिर पर पानी की लंबी-लंबी धाराएं फेंकने में ही मशगूल रहती हैं। लहर टकराती है, दीवार पर सवार होती है। और दीवार की चौड़ाई का अनादर करके सामने की ओर कूद पड़ती है और होली की पिचकारियां दूर से हमारी ओर दौड़ती हैं- यह दृश्य हर तरह से उन्मादक होता है। और यह महोत्सव मनाने आये हुए हम लोगों का स्वागत करने का कर्तव्य मानो अपने सिर पर आ पड़ा हो, ऐसा समझकर इन धाराओं तथा उस पंखे से फैलने वाले पानी के कण सारी हवा को शीतल बना देते हैं। जब यह सारी ओस आंख की पलकों पर, नाक की नोक पर और आश्चर्य से खुले हुए होठों पर जमती है, तब लगता है कि हम भी नागरिक या ग्रामवासी नहीं है, बल्कि वरुण के सामुद्रिक राज्य की प्रजा हैं।
और महासागर के ऊपर से दौड़कर आने वाला शुद्ध पवन कहता हैः ‘इस दृश्य का आतिथ्य स्वीकार करने की पूरी शक्ति तुम्हारे पामर हृदय में कहां से होगी! चलो, मैं तुम्हें दूर-दूर से लाये हुए ओझोन (प्राणवायु) की दीक्षा देता हूं, पाथेय देता हूं। ओझोन जब तुम्हारे दिल में भर जायेगा, तब तुम्हारे फेफड़े प्राणपूर्ण होंगे, पवित्र होंगे। उसके बाद ही तुम यहां का वातावरण तथा उदावरण सहनकर सकोगे।’ और सचमुच, प्राणवायु के श्वासोच्छ्वास से हरेक के मुंह पर उषा की लालिमा छा गयी थी। हम आठों जन दिशाओं में देख-देखकर भी तृप्त नहीं होते थे।
इसी स्थान पर हमारे पहले एक सिंधी सज्जन एक बड़ी शिला पर बैठकर चुपचाप इस काव्य में ओतप्रोत होकर भावना में नहा रहे थे। वे न बोलते थे, न चालते थे, न हंसते थे, न गाते थे। तल्लीन होकर जरा डोल रहे थे। हम बातें कर रहे थे, हृदय के उद्गार प्रकट कर रहे थे। मगर उन सज्जन को इसकी क्या परवाह? उन्हें मनुष्य की मौज नहीं मनाना था, बल्कि लहरों की मस्ती को अपनाना था, उसे पी जाना था। एक पैर पर दूसरे पैर की पालथी लगाकर, उस पर कुहनी रखकर और सिर को एक ओर झुकाकर वे समुद्र का ध्यान कर रहे थे। उनके बालों की मांग में सीकर-बिन्दुओं की मुक्तमाला चमक रही थी। मानों वरुणदेव ने अपना वरद हस्त उनके सिर पर रख दिया हो!
हमने स्थान बदल-बदलकर अनेक दृष्टिकोणों से यह दृश्य देखा। इससे लहरों के मन में हमारे प्रति सद्भाव की जागृति हुई। वे कहने लगीं, “आओ आओ, इतनी देर से क्या देख रहे हो? तुम पराये नहीं हो। पास आओ, मौज मनाओ, लहरों का आनंद लूटों, हंसों और कूदो, यह क्षण और अनंत काल-इनके बीच कोई फर्क नहीं है। चलो आ जाओ।” लहरो की शिष्टता भिन्न प्रकार की होती है। न्योता देते समय वे हाथ नहीं पकड़ती, बल्कि पांव पखारती हैं। हमने सभ्यता से इस स्वागत को स्वीकार करके कहा, “सचमुच आने का जी होता है। मगर अभी नहीं। अभी हमारा काम पूरा नहीं हुआ है। काफी बाकी रहा है। हमारे मन के कई संकल्प अभी अधूरे हैं। जिस भारतमाता के चरणों का तुम अखंड रूप से प्रक्षालन कर रही हो, वह अभी तक आजाद नहीं हुई है। मनुष्य-मनुष्य के बीच का विग्रह शांत नहीं हुआ है। गरीब तथा दबी हुई जनता के साथ जब तक पूरी एकता का हम अनुभव नहीं करते, तब तक तुम्हारे साथ एकता अनुभव करने का अधिकार हमें कैसे प्राप्त होगा? तुम मुक्त हो, अखंड कर्मयोगी हो, सतत कार्य करते हुए भी तुम्हारे लिए कर्तव्य जैसा कुछ नहीं रहा है। हम तो कर्तव्यों का पहाड़ सामने देखते हुए भी आलस्य में पड़े हैं। तुम्हारी पंक्ति में खड़े रहकर नाचने का अधिकार हमें नहीं है। तुम हमें प्रेरणा दो। हमारे दिल में तुम्हारी मस्ती भर दो। तुम्हारा वेदांत हमारे चित्त में बो दो। फिर हमें अपना कार्य पूरा करने में, भारत को आजाद करने में देर नहीं लगेगी। और यह एक संकल्प यदि पूरा हुआ, तो बिना किसी विषाद के हम तुम्हारे पास दौड़ आयेंगे। तुम्हारे साथ अद्वैत सिद्ध करेंगे। और इसमें यदि हड्डियां, चमड़ी, या मांस शिकायत करने लगें, तो जिस प्रकार कष्ट देने वाले कपड़े फाड़ दिये जाते हैं, उसी प्रकार इस शरीर को हम चकनाचूर कर डालेंगे और फिर उसके पिंडों के नये-नये आकारों को देखकर हंसने लगेंगे।”
“ठीक है जब अनुकूल हो तब आना। तुम आओ या न आओ; हमारा यह तांडव-नृत्य तो चलता ही रहेगा। जीवन का रास पूरा करके गोपियां इसमें मिल गई है। संसार के चक्रव्यूह से मुक्त हुए तमाम साधु संत, फकीर और औलिये इसमें आ मिले हैं। विज्ञानवीर तथा सत्य के उपासक इसमें मिलकर शांत हो गये हैं। इसीलिए हमारा यह संघ अखंड अशांति मचाते हुए भी शांति का सागर-संगीत सुना सकता है।”
“क्या तुम्हें सुनाई देता है यह संगीत?”
जून, 1937
हिंदी-साहित्य सम्मेलन में मैं भाग लेने के लिए इस साल कराची गया, तब दुबारा वह दृश्य देख आया। लहरों का असर उन पत्थरों पर चाहे न भी हो, परंतु हृदय पर उनका असर हुए बिना थोड़ी ही रहता है! हृदय और समुद्र दोनों स्वभाव से ही ऊर्मिल हैं।
कोई प्राकृतिक दृश्य पहली बार देखकर हृदय पर जो असर होता है, वह दूसरी बार देखने पर नहीं होता। पहली बार सब नया ही नया होता है। उस समय अज्ञात वस्तुओं का परिचय करना होता है। कदम-कदम पर आश्चर्य और चमत्कृति का अनुभव होता है। दूसरी बार उसी जगह जाने पर किन-किन बातों की आशा करनी चाहिए, इसका मनुष्य को ख्याल होता है। इसलिए उतनी मात्रा में चमत्कृति के लिए गुंजाइश कम रहती है। परिचित वस्तु के प्रति प्रेम हो सकता है; आश्चर्य और चमत्कृति तो अपरिचित के लिए ही हो सकती है।
ऐसी ही प्रेमपूर्ण किन्तु उत्सुकता-रहित वृत्ति से मैं कराची के पास के मनोरा की लहरे देखने के लिए अबकी बार गया। यह आशा भी मन में थी कि पुराने किन्तु नौ-जवान मित्रों से इस रम्य स्थान पर विस्त्रब्ध वार्तालाप हो सकेगा। लहरें तो वहां हैं ही; उनकों देखकर आनंद जरूर होगा। इससे विशेष कुछ नहीं होगा-इस प्रकार मन को समझाकर मैं वहां गया।
पिछली बार जब गया था तब मैंने उछलती लहरों के धवल हास्य को पकड़ने के लिए तरह-तरह के फोटों खींचे थे। मगर उनमें से एक भी अच्छा नहीं आया था। इस कारण इन लहरों के प्रति मन में थोड़ा गुस्सा होते हुए भी इतना विश्वास था कि वार्तालाप के लिए वहां अनुकूल वायुमंडल अवश्य मिलेगा।
किन्तु वहां जाकर मैंने क्या देखा? पिछली बार जो दृश्य देखा था और जिसके काव्यमय चित्रों को मैंने चित्त में संग्रह करके रखा था, उन्हें फीके बनाकर चित्त से धो डालने वाला लहरों का एक अखंड तांडव यकायक दीख पड़ा! अब बातचीत काहे की और विस्त्रब्ध कथा काहे की! मुझे तो वहां मानो उन्मत्त करने वाला नशा ही मिल गया। वहां मैं यदि अकेला होता तो इन लहरों के तांडव में कूदकर उनके साथ एकरूप होने के भीतरी खिंचाव को रोक पाता या नहीं, यह मैं निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता।
एक आदमी गाने लगे तो दूसरे को गाने की स्फूर्ति अवश्य होगी। एक सियार रात्रि की शांति के खिलाफ यदि बगावत करे तो दूसरे क्रांतिकारी सियार अपने फेफड़ों की कसरत जरूर करेंगे। अजी, तरबवाली सितार के मुख्य तार को अपने प्राणों के साथ छेड़ दीजिये; तुरन्त नीचे के तार अपने-आप अपना आनंद-झंकार शुरू कर देंगे। तो फिर मेरे जैसा प्रकृति-प्रेमी जीव कुदरत की भव्यता के दर्शन करके उससे अपना भिन्नत्व यदि भूल जाय तो मानवीय सयानापन की दृष्टि से उसमें आश्चर्य भले हो, किन्तु वह अनहोनी बात नहीं है।
जिस प्रकार हाथी की सारी शोभा उसके गंडस्थल में केंद्रीभूत होती है, किले की संपूर्ण शोभा उसके गजेन्द्र-भव्य बुर्ज में होती हैं, जहाज की शोभा उसके तूतक (ऊपर के डेक) में परिपूर्ण होती है, उसी प्रकार मनोरा के जिस छोर पर किले के समान जो दीवारें खड़ी हैं उनके कारण यह टापू यहां विशेष रूप से शोभा पाता है; और समुद्र की लहरें भी यहीं वप्रकीड़ा करके अपनी खुजली (कंडु) शांत करती हैं। यह कंडु-विनोद सतत चलता रहे तो भी देखने वाला ऊबता नहीं। इसलिए यह दृश्य मनोहारी होता ही है। परन्तु यहां पर आदमी ने एक लम्बी दीवार बनाकर समुद्र की लहरों को बेहद छेड़ा है, और अब इतने साल हो गये फिर भी लहरें इस अधिक्षेप (अपमान) को न तो आज तक सह सकी हैं, न आगे सहने वाली हैं। जितनी बार उन्हें इस अपमान का स्मरण होता है, उतनी ही बार वे बड़ी फौज लेकर इन दीवारों पर टूट पड़ती हैं और इन पत्थरों का प्रतिकार करने के लिए एक-दूसरे को भड़काती जाती हैं। कैसा उनका यह उन्माद! कैसी उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा! कैसा उनका वह प्राणघातक आक्रमण! आज तो उनका यह अमर्ष चरम सीमा को पहुंच गया था। फिर पूछना ही क्या था! मानों वीरभद्र सारे शिवगणों को एकत्र करके लहरों के रूप में यहां प्रलय-काल मचाना चाहता हो।
एक-एक लहर मानो उछलती पहाड़ी-सी मालूम होती थी। एक की उत्तुंग शोभा को देखकर वैसी ही दूसरी लहरों को उसकी कदर करनी चाहिये किन्तु इस के बदले, दोनों एक होकर एक नयी ही ऊंचाई पर पहुंचती हैं और आसपास की लहरों को भी उतनी ही ऊंचाई तक चढ़ने के लिए उत्तेजित करती जाती हैं। और यह तांडव नृत्य, एक क्षण के लिए भी रूके बिना, अखंड रूप से चलता रहता है। टकटकी लगाकर इस तांडव को देखते रहिये तो उसमें एक प्रचंड ताल, मालूम होता है। मानों शिव-तांडव-स्रोत का प्रमाणिका वृत्त अपनी शक्ति आजमाने लगा है। और दिल भर आने पर प्रवाह-वेग बढ़ने से देखते ही देखते प्रमाणिका का पंचचामर छंद हो जाता है। और फिर अपनी सुध-बुध भूलकर पुष्पदंत भी उस ताल के साथ तांडव-नृत्य करने लगता है।
जिस तरफ लहरों का आक्रमण अधिक से अधिक जोरदार है, और जहां टकराने वाली लहरें चकनाचूर हो जाती हैं तथा आकाश में उनके इन्द्रधनुष को झेलने वाला बड़ा पंखा तैयार होता है, वहीं कुछ सीढ़ियां अखंड स्नान करते हुए ऋषियों की तरह ध्यान करती बैठी हैं। लहरों का पानी उनके सिर पर गिरकर हंसता हुआ और गौमूर्त्रि का बंध करता हुआ सीढ़ियां उतरता जाता है। दिल्ली-आगरे में और कश्मीर या मैसूर के वृंदावन में मनुष्य ने विलास के जो साधन निर्माण किये हैं और पानी का प्रवाह श्रावण-भादों की बड़ी धाराओं में बहाया है, उसका यहां स्मरण हुए बिना नहीं रहता।
मगर कुछ लहरें तो उस लंबी दीवार के साथ टकराकर उसके सिर पर पानी की लंबी-लंबी धाराएं फेंकने में ही मशगूल रहती हैं। लहर टकराती है, दीवार पर सवार होती है। और दीवार की चौड़ाई का अनादर करके सामने की ओर कूद पड़ती है और होली की पिचकारियां दूर से हमारी ओर दौड़ती हैं- यह दृश्य हर तरह से उन्मादक होता है। और यह महोत्सव मनाने आये हुए हम लोगों का स्वागत करने का कर्तव्य मानो अपने सिर पर आ पड़ा हो, ऐसा समझकर इन धाराओं तथा उस पंखे से फैलने वाले पानी के कण सारी हवा को शीतल बना देते हैं। जब यह सारी ओस आंख की पलकों पर, नाक की नोक पर और आश्चर्य से खुले हुए होठों पर जमती है, तब लगता है कि हम भी नागरिक या ग्रामवासी नहीं है, बल्कि वरुण के सामुद्रिक राज्य की प्रजा हैं।
और महासागर के ऊपर से दौड़कर आने वाला शुद्ध पवन कहता हैः ‘इस दृश्य का आतिथ्य स्वीकार करने की पूरी शक्ति तुम्हारे पामर हृदय में कहां से होगी! चलो, मैं तुम्हें दूर-दूर से लाये हुए ओझोन (प्राणवायु) की दीक्षा देता हूं, पाथेय देता हूं। ओझोन जब तुम्हारे दिल में भर जायेगा, तब तुम्हारे फेफड़े प्राणपूर्ण होंगे, पवित्र होंगे। उसके बाद ही तुम यहां का वातावरण तथा उदावरण सहनकर सकोगे।’ और सचमुच, प्राणवायु के श्वासोच्छ्वास से हरेक के मुंह पर उषा की लालिमा छा गयी थी। हम आठों जन दिशाओं में देख-देखकर भी तृप्त नहीं होते थे।
इसी स्थान पर हमारे पहले एक सिंधी सज्जन एक बड़ी शिला पर बैठकर चुपचाप इस काव्य में ओतप्रोत होकर भावना में नहा रहे थे। वे न बोलते थे, न चालते थे, न हंसते थे, न गाते थे। तल्लीन होकर जरा डोल रहे थे। हम बातें कर रहे थे, हृदय के उद्गार प्रकट कर रहे थे। मगर उन सज्जन को इसकी क्या परवाह? उन्हें मनुष्य की मौज नहीं मनाना था, बल्कि लहरों की मस्ती को अपनाना था, उसे पी जाना था। एक पैर पर दूसरे पैर की पालथी लगाकर, उस पर कुहनी रखकर और सिर को एक ओर झुकाकर वे समुद्र का ध्यान कर रहे थे। उनके बालों की मांग में सीकर-बिन्दुओं की मुक्तमाला चमक रही थी। मानों वरुणदेव ने अपना वरद हस्त उनके सिर पर रख दिया हो!
हमने स्थान बदल-बदलकर अनेक दृष्टिकोणों से यह दृश्य देखा। इससे लहरों के मन में हमारे प्रति सद्भाव की जागृति हुई। वे कहने लगीं, “आओ आओ, इतनी देर से क्या देख रहे हो? तुम पराये नहीं हो। पास आओ, मौज मनाओ, लहरों का आनंद लूटों, हंसों और कूदो, यह क्षण और अनंत काल-इनके बीच कोई फर्क नहीं है। चलो आ जाओ।” लहरो की शिष्टता भिन्न प्रकार की होती है। न्योता देते समय वे हाथ नहीं पकड़ती, बल्कि पांव पखारती हैं। हमने सभ्यता से इस स्वागत को स्वीकार करके कहा, “सचमुच आने का जी होता है। मगर अभी नहीं। अभी हमारा काम पूरा नहीं हुआ है। काफी बाकी रहा है। हमारे मन के कई संकल्प अभी अधूरे हैं। जिस भारतमाता के चरणों का तुम अखंड रूप से प्रक्षालन कर रही हो, वह अभी तक आजाद नहीं हुई है। मनुष्य-मनुष्य के बीच का विग्रह शांत नहीं हुआ है। गरीब तथा दबी हुई जनता के साथ जब तक पूरी एकता का हम अनुभव नहीं करते, तब तक तुम्हारे साथ एकता अनुभव करने का अधिकार हमें कैसे प्राप्त होगा? तुम मुक्त हो, अखंड कर्मयोगी हो, सतत कार्य करते हुए भी तुम्हारे लिए कर्तव्य जैसा कुछ नहीं रहा है। हम तो कर्तव्यों का पहाड़ सामने देखते हुए भी आलस्य में पड़े हैं। तुम्हारी पंक्ति में खड़े रहकर नाचने का अधिकार हमें नहीं है। तुम हमें प्रेरणा दो। हमारे दिल में तुम्हारी मस्ती भर दो। तुम्हारा वेदांत हमारे चित्त में बो दो। फिर हमें अपना कार्य पूरा करने में, भारत को आजाद करने में देर नहीं लगेगी। और यह एक संकल्प यदि पूरा हुआ, तो बिना किसी विषाद के हम तुम्हारे पास दौड़ आयेंगे। तुम्हारे साथ अद्वैत सिद्ध करेंगे। और इसमें यदि हड्डियां, चमड़ी, या मांस शिकायत करने लगें, तो जिस प्रकार कष्ट देने वाले कपड़े फाड़ दिये जाते हैं, उसी प्रकार इस शरीर को हम चकनाचूर कर डालेंगे और फिर उसके पिंडों के नये-नये आकारों को देखकर हंसने लगेंगे।”
“ठीक है जब अनुकूल हो तब आना। तुम आओ या न आओ; हमारा यह तांडव-नृत्य तो चलता ही रहेगा। जीवन का रास पूरा करके गोपियां इसमें मिल गई है। संसार के चक्रव्यूह से मुक्त हुए तमाम साधु संत, फकीर और औलिये इसमें आ मिले हैं। विज्ञानवीर तथा सत्य के उपासक इसमें मिलकर शांत हो गये हैं। इसीलिए हमारा यह संघ अखंड अशांति मचाते हुए भी शांति का सागर-संगीत सुना सकता है।”
“क्या तुम्हें सुनाई देता है यह संगीत?”
जून, 1937
Path Alias
/articles/laharaon-kaa-taandavayaoga
Post By: Hindi