पृथ्वी मानव का आवास है। भूमि, जल, वायु और प्राणी पर्यावरण के प्रमुख घटक है। पर्यावरण शब्द एक लम्बे समय से जीव, पादप और प्रकृति वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बना रहा है। मानव अपनी आदिम अवस्था से ही अपने पर्यावरण का प्रेक्षण करता रहा है। ग्रीस, रोम, चीन, फारस, मिस्र, बेबीलोन और भारतवर्ष में विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यवस्थित अध्ययन, अनुसन्धान और ज्ञानार्जन के प्रयत्न शताब्दियों से किए जाते रहे हैं। उन विद्वानों ने ज्ञान को एक समष्टि माना था। कालान्तर में ज्ञान के विकास के साथ-साथ विशेषज्ञता अर्जित करने के लिए ज्ञान को टुकड़ों में बाँट कर उसका गहन अध्ययन किया जाने लगा है।
प्रकृति से मानव के अद्भुत सम्बन्धों के परिणाम थे ऊँचे पर्वत हिमाच्छादित शिखर, खूबसूरत नजारे, भरपूर पानी और शुद्ध हवाएँ, जिनका भरपूर आनन्द उठाया वर्तमान पीढ़ी ने और जो भूल गई भावी पीढ़ी को जिसे प्रकृति के प्रकोप से बचने की तैयारी में ही शायद अपना सम्पूर्ण जीवन बिताना पड़े। वनों के विनाश के साथ समाप्त होते वन्यजीव निश्चित ही मानव की समाप्ति का भी संकेत कर रहे हैं। प्रकृति में पर्यावरण के जैविक घटकों हेतु आवश्यक अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा में होता प्रदूषण आधुनिक तथाकथित विकसित मानव को बीमारी, भूख-प्यास, कुपोषण, गरीबी और प्राकृतिक आपदाएँ भेट स्वरूप प्रदान कर रहा है।
विश्व के आर्थिक विकास के साथ राष्ट्रों की आवश्यकताएँ भी बढ़ी है इन बढ़ती हुई आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मानव ने प्रकृति का बेतहाशा दोहन किया है। इससे वन विरल होते जा रहे है, जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही है, और वायुमण्डल की ओजोन परत चरमरा रही है। उद्योग जनित प्रदूषण का प्रभाव ग्रीन हाउस प्रभाव एवं अम्ल वर्षा के रूप में महसूस किया जा सकता है। मानव और प्रकृति का सह-सम्बन्ध सकारात्मक न होकर विध्वंसात्मक होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ समुदाय या राष्ट्र विशेष की निजी समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिन्ता का विषय है। पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है अत: यह जरूरी हो जाता है कि विश्व के सभी नागरिक पर्यावरण समस्याओं के सृजन में अपनी हिस्सेदारी को पहचाने और इन समस्याओं के समाधान के लिए अपना-अपना योगदान दे।
आज विश्व में पर्यावरण में असन्तुलन गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा बदलती जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेशियर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे। प्रकृति में उत्पन्न असन्तुलन प्राकृतिक प्रकोपों का जन्मदाता बनेगा। जिनसे बचने की पूर्व तैयारी अब समय की आवश्यकता बन चुकी है। पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा।
वर्तमान में स्थिति यह है कि विकसित देशों द्वारा लगातार पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली हानिकारक गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है। मानवीय जरूरतों के लिए विश्व भर में बड़े पैमाने पर वनों का सफाया किया जा रहा है। विकासशील देशों द्वारा विकास के नाम पर सड़कों, पुलों और शहरो को बसाने के लिए अन्धाधुन्ध वृक्षों की कटाई की जा रही है। बिजली की जरूरत के लिए बड़े पैमाने बाँध बनाकर नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध करने के साथ ही अवैज्ञानिक एवं अनियोजित खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है। फलस्वरूप हमारी धरती विनाश और प्राकृतिक प्रकोपों की ओर अग्रसर है।
विश्व पर्यावरण की अधिकतर समस्याओं का सीधा सम्बन्ध मानव के आर्थिक विकास से है। शहरीकरण औद्योगीकरण और संस्थानों के विवेकहीन दोहन के परिणामस्वरूप संसाधनों पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। परिणामत: पर्यावरण असन्तुलन की बढ़ती दर के कारण पारितन्त्र लड़खड़ाने लगा है। आज विश्व के सामने ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी है औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण के तेजी से होते ह्रास के कारण ग्रीन ओजोन गैस की परत का क्षरण हुआ है। पृथ्वी से जाने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों से जैवमण्डल को बचाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड और ओजोन गैस की मात्रा में हुए इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव स्थानीय, प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिर्वतनों के रूप में दिखलाई पड़ता है।
सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के हिम और हिमनद पिघलने लगे है। हिम के तेजी से पिघलते का प्रभाव महासागर में जल-स्तर के बढ़ने में दिखाई देता है। यदि तापमान में ऐसी बढ़ोत्तरी होती रही तो विश्व की समस्त हिमराशियों के पिघलने से महासागरों का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जल-स्तर एक दिन तटवर्ती स्थल भागों और द्वीपों का जलमग्न कर देगा। पर्यावरणवेत्ताओ के अनुसार पर्यावरण असन्तुलन के विभिन्न कारण है, जैसे विवेकहीन, संवेदनशील, औद्योगीकरण, अनियोजित नगरीकरण, बेलगाम जनसंख्या वृद्धि और स्थानीय भूमि उपयोग अचानक हुए परिर्वतन।
आज विश्व में पर्यावरण में असन्तुलन गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा बदलता जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेशियर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे। प्रकृति में उत्पन्न असन्तुलन प्राकृतिक प्रकोपों का जन्मदाता बनेगा। जिनसे बचने की पूर्व तैयारी अब समय की आवश्यकता बन चुकी है। पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा...मानव अपने जीवनयापन के लिए सदैव पर्यावरण पर निर्भर रहता चला आया है। मानव के विकास के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएँ तो बढ़ी है। पर्यावरण पर निर्भरता भी बढ़ती चली गई है। उपभोक्ता संस्कृति ने मनुष्य की पर्यावरण के दोहन की प्रवृति को शोषण की प्रवृति में बदल दिया है। हम जानते है कि एक अनुकूल पर्यावरण के लिए जैवमण्डल के विभिन्न घटकों का आपसी तदात्म्य अनिवार्य है भौतिक विकास के साथ हमारी बेतहाशा बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्यावरण के उपलब्ध संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन लगातार जारी है। इस दोहन का ही परिणाम है कि हम सभी ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन कवच क्षरण, विश्व में विभिन्न स्थानों पर जलवायु का प्रलयकारी औद्योगिक और ऑटोमोबाईल प्रदूषण आदि रूपों में पहचानने लगे है।
ग्रिफीथ टेलर (1957) के अनुसार मानव अपनी इच्छा अनुसार अपने देश की प्रगति को रोक भी सकता, धीमा भी कर सकता और त्वरित भी। लेकिन अगर वह विवेकवान है तो उसे उस दिशा से कभी भटकना नहीं चाहिए। जिसकी ओर उसका पर्यावरण उसे निदेशित करता है। हर व्यक्ति अपने पर्यावरण की एक सक्रिय इकाई है इसलिए यह आवश्यक है कि बेहतर जीवन जीने के लिए अपने पर्यावरण के उन्नयन और अवनयन में वे अपनी जिम्मेदारी को समझे। आज हम दूर-दराज गाँव से महानगर तक प्लास्टिक कचरे की सर्वव्यापकता से त्रस्त है जगह-जगह पॉलीथीन की थैलियों और प्लास्टिक बोतल वातावरण को प्रदूषित कर रही है इस दृश्य के रचयिता आम और खास लोग ही है।
पर्यावरण की भयावह होती तस्वीर और पारिस्थितिक असन्तुलन की समस्या का सामना करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने पर्यावरण के प्रति एक सजग दायित्व निभाना होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान के खेजड़ली ग्राम की अमृता देवी एक सामान्य ग्रामीण महिला थी किन्तु उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता ने पश्चिमी राजस्थान के कई समुदायों की पीढि़यों में वृक्ष और वन्यजीव प्रेम का संस्कार डाला है। पर्यावरण को असन्तुलित करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन सम्पन्न औद्योगिक राष्ट्रों की है जिन्होंने ऊर्जा के विवेकहीन उपयोग के द्वारा सम्पूर्ण पर्यावरण किरणों के लिए भी रास्ता लगभग साफ कर दिया है अब आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति ही नहीं समुदायों, राष्ट्रीय और सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण के प्रति अपनी नीतियों और उनके क्रियानवयन में एक सह संवेदनशीलता लाएँ।
विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण के प्रति सजगता हालांकि अब बढ़ती दिखाई देने लगी है और लोग पर्यावरण असन्तुलन के परिणामस्वरूप होने वाली समस्याओं को समझने लगे हैं। लेकिन सरकारे अभी भी अपने तात्कालिक आर्थिक हितों के भावी खतरों को नजरअन्दाज कर रही है। औद्योगिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन पर नियन्त्रण, विश्व में बढ़ते ग्रीन हाउस प्रभाव को नियन्त्रित करने की दिशा में प्राथमिक कदम है। किन्तु कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन नियन्त्रण पर विभिन्न सरकारें प्रतिबद्ध नहीं होना चाहती। अभी तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन नहीं रोका जा सका है जबकि मॉन्ट्रियल कन्वेंशन (1989) में सन् 2000 तक सी.एफ.सी. उत्पादन शत प्रतिशत बन्द कर दिए जाने का लक्ष्य तय किया था। यह उत्पादन अभी तक जारी है। अब यह जनभावना पर निर्भर है कि सरकारंस इसी पर्यावरण के स्वास्थ्य की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को तरजीह देती रहें या अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करें।
आधुनिक समाज में एक स्वास्थ्य सन्तुलित जीवन को एक नागरिक अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है हरित औद्योगिक राष्ट्र यह स्वीकार कर लेंगे कि पारिस्थितिकी दृष्टि से गैर-जिम्मेदार होना आर्थिक रूप से भी फायदे का सौदा नहीं है। तभी पर्यावरण के पक्ष में स्थितियाँ बदलेंगी। आज जरूरत इस बात की है कि सरकारें पर्यावरण के विभिन्न घटकों के महत्त्व को समझकर तुरन्त प्रभाव से उचित आदेश प्रसारित करें व महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करें। अन्यथा एक पृथ्वी को गरीब और अमीर की पृथ्वी में बँटने से कोई नहीं रोक सकेगा। तब शायद यही पॉलिटिक्स हमारी पृथ्वी की आवश्यकता होगी।
प्रकृति से मानव के अद्भुत सम्बन्धों के परिणाम थे ऊँचे पर्वत हिमाच्छादित शिखर, खूबसूरत नजारे, भरपूर पानी और शुद्ध हवाएँ, जिनका भरपूर आनन्द उठाया वर्तमान पीढ़ी ने और जो भूल गई भावी पीढ़ी को जिसे प्रकृति के प्रकोप से बचने की तैयारी में ही शायद अपना सम्पूर्ण जीवन बिताना पड़े। वनों के विनाश के साथ समाप्त होते वन्यजीव निश्चित ही मानव की समाप्ति का भी संकेत कर रहे हैं। प्रकृति में पर्यावरण के जैविक घटकों हेतु आवश्यक अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा में होता प्रदूषण आधुनिक तथाकथित विकसित मानव को बीमारी, भूख-प्यास, कुपोषण, गरीबी और प्राकृतिक आपदाएँ भेट स्वरूप प्रदान कर रहा है।
विश्व के आर्थिक विकास के साथ राष्ट्रों की आवश्यकताएँ भी बढ़ी है इन बढ़ती हुई आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मानव ने प्रकृति का बेतहाशा दोहन किया है। इससे वन विरल होते जा रहे है, जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही है, और वायुमण्डल की ओजोन परत चरमरा रही है। उद्योग जनित प्रदूषण का प्रभाव ग्रीन हाउस प्रभाव एवं अम्ल वर्षा के रूप में महसूस किया जा सकता है। मानव और प्रकृति का सह-सम्बन्ध सकारात्मक न होकर विध्वंसात्मक होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ समुदाय या राष्ट्र विशेष की निजी समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिन्ता का विषय है। पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है अत: यह जरूरी हो जाता है कि विश्व के सभी नागरिक पर्यावरण समस्याओं के सृजन में अपनी हिस्सेदारी को पहचाने और इन समस्याओं के समाधान के लिए अपना-अपना योगदान दे।
आज विश्व में पर्यावरण में असन्तुलन गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा बदलती जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेशियर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे। प्रकृति में उत्पन्न असन्तुलन प्राकृतिक प्रकोपों का जन्मदाता बनेगा। जिनसे बचने की पूर्व तैयारी अब समय की आवश्यकता बन चुकी है। पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा।
वर्तमान में स्थिति यह है कि विकसित देशों द्वारा लगातार पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली हानिकारक गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है। मानवीय जरूरतों के लिए विश्व भर में बड़े पैमाने पर वनों का सफाया किया जा रहा है। विकासशील देशों द्वारा विकास के नाम पर सड़कों, पुलों और शहरो को बसाने के लिए अन्धाधुन्ध वृक्षों की कटाई की जा रही है। बिजली की जरूरत के लिए बड़े पैमाने बाँध बनाकर नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध करने के साथ ही अवैज्ञानिक एवं अनियोजित खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है। फलस्वरूप हमारी धरती विनाश और प्राकृतिक प्रकोपों की ओर अग्रसर है।
विश्व पर्यावरण की अधिकतर समस्याओं का सीधा सम्बन्ध मानव के आर्थिक विकास से है। शहरीकरण औद्योगीकरण और संस्थानों के विवेकहीन दोहन के परिणामस्वरूप संसाधनों पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। परिणामत: पर्यावरण असन्तुलन की बढ़ती दर के कारण पारितन्त्र लड़खड़ाने लगा है। आज विश्व के सामने ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी है औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण के तेजी से होते ह्रास के कारण ग्रीन ओजोन गैस की परत का क्षरण हुआ है। पृथ्वी से जाने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों से जैवमण्डल को बचाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड और ओजोन गैस की मात्रा में हुए इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव स्थानीय, प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिर्वतनों के रूप में दिखलाई पड़ता है।
सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के हिम और हिमनद पिघलने लगे है। हिम के तेजी से पिघलते का प्रभाव महासागर में जल-स्तर के बढ़ने में दिखाई देता है। यदि तापमान में ऐसी बढ़ोत्तरी होती रही तो विश्व की समस्त हिमराशियों के पिघलने से महासागरों का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जल-स्तर एक दिन तटवर्ती स्थल भागों और द्वीपों का जलमग्न कर देगा। पर्यावरणवेत्ताओ के अनुसार पर्यावरण असन्तुलन के विभिन्न कारण है, जैसे विवेकहीन, संवेदनशील, औद्योगीकरण, अनियोजित नगरीकरण, बेलगाम जनसंख्या वृद्धि और स्थानीय भूमि उपयोग अचानक हुए परिर्वतन।
आज विश्व में पर्यावरण में असन्तुलन गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा बदलता जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेशियर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे। प्रकृति में उत्पन्न असन्तुलन प्राकृतिक प्रकोपों का जन्मदाता बनेगा। जिनसे बचने की पूर्व तैयारी अब समय की आवश्यकता बन चुकी है। पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा...मानव अपने जीवनयापन के लिए सदैव पर्यावरण पर निर्भर रहता चला आया है। मानव के विकास के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएँ तो बढ़ी है। पर्यावरण पर निर्भरता भी बढ़ती चली गई है। उपभोक्ता संस्कृति ने मनुष्य की पर्यावरण के दोहन की प्रवृति को शोषण की प्रवृति में बदल दिया है। हम जानते है कि एक अनुकूल पर्यावरण के लिए जैवमण्डल के विभिन्न घटकों का आपसी तदात्म्य अनिवार्य है भौतिक विकास के साथ हमारी बेतहाशा बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्यावरण के उपलब्ध संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन लगातार जारी है। इस दोहन का ही परिणाम है कि हम सभी ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन कवच क्षरण, विश्व में विभिन्न स्थानों पर जलवायु का प्रलयकारी औद्योगिक और ऑटोमोबाईल प्रदूषण आदि रूपों में पहचानने लगे है।
ग्रिफीथ टेलर (1957) के अनुसार मानव अपनी इच्छा अनुसार अपने देश की प्रगति को रोक भी सकता, धीमा भी कर सकता और त्वरित भी। लेकिन अगर वह विवेकवान है तो उसे उस दिशा से कभी भटकना नहीं चाहिए। जिसकी ओर उसका पर्यावरण उसे निदेशित करता है। हर व्यक्ति अपने पर्यावरण की एक सक्रिय इकाई है इसलिए यह आवश्यक है कि बेहतर जीवन जीने के लिए अपने पर्यावरण के उन्नयन और अवनयन में वे अपनी जिम्मेदारी को समझे। आज हम दूर-दराज गाँव से महानगर तक प्लास्टिक कचरे की सर्वव्यापकता से त्रस्त है जगह-जगह पॉलीथीन की थैलियों और प्लास्टिक बोतल वातावरण को प्रदूषित कर रही है इस दृश्य के रचयिता आम और खास लोग ही है।
पर्यावरण की भयावह होती तस्वीर और पारिस्थितिक असन्तुलन की समस्या का सामना करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने पर्यावरण के प्रति एक सजग दायित्व निभाना होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान के खेजड़ली ग्राम की अमृता देवी एक सामान्य ग्रामीण महिला थी किन्तु उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता ने पश्चिमी राजस्थान के कई समुदायों की पीढि़यों में वृक्ष और वन्यजीव प्रेम का संस्कार डाला है। पर्यावरण को असन्तुलित करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन सम्पन्न औद्योगिक राष्ट्रों की है जिन्होंने ऊर्जा के विवेकहीन उपयोग के द्वारा सम्पूर्ण पर्यावरण किरणों के लिए भी रास्ता लगभग साफ कर दिया है अब आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति ही नहीं समुदायों, राष्ट्रीय और सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण के प्रति अपनी नीतियों और उनके क्रियानवयन में एक सह संवेदनशीलता लाएँ।
विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण के प्रति सजगता हालांकि अब बढ़ती दिखाई देने लगी है और लोग पर्यावरण असन्तुलन के परिणामस्वरूप होने वाली समस्याओं को समझने लगे हैं। लेकिन सरकारे अभी भी अपने तात्कालिक आर्थिक हितों के भावी खतरों को नजरअन्दाज कर रही है। औद्योगिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन पर नियन्त्रण, विश्व में बढ़ते ग्रीन हाउस प्रभाव को नियन्त्रित करने की दिशा में प्राथमिक कदम है। किन्तु कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन नियन्त्रण पर विभिन्न सरकारें प्रतिबद्ध नहीं होना चाहती। अभी तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन नहीं रोका जा सका है जबकि मॉन्ट्रियल कन्वेंशन (1989) में सन् 2000 तक सी.एफ.सी. उत्पादन शत प्रतिशत बन्द कर दिए जाने का लक्ष्य तय किया था। यह उत्पादन अभी तक जारी है। अब यह जनभावना पर निर्भर है कि सरकारंस इसी पर्यावरण के स्वास्थ्य की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को तरजीह देती रहें या अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करें।
आधुनिक समाज में एक स्वास्थ्य सन्तुलित जीवन को एक नागरिक अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है हरित औद्योगिक राष्ट्र यह स्वीकार कर लेंगे कि पारिस्थितिकी दृष्टि से गैर-जिम्मेदार होना आर्थिक रूप से भी फायदे का सौदा नहीं है। तभी पर्यावरण के पक्ष में स्थितियाँ बदलेंगी। आज जरूरत इस बात की है कि सरकारें पर्यावरण के विभिन्न घटकों के महत्त्व को समझकर तुरन्त प्रभाव से उचित आदेश प्रसारित करें व महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करें। अन्यथा एक पृथ्वी को गरीब और अमीर की पृथ्वी में बँटने से कोई नहीं रोक सकेगा। तब शायद यही पॉलिटिक्स हमारी पृथ्वी की आवश्यकता होगी।
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Post By: birendrakrgupta