लाखों भागीरथ चाहिए गंगाजी के लिए

श्रद्धेय संत समाज, आन्दोलनकारी भद्रजनों के गंगाजी के प्रति प्राण पण समर्पण भाव को नमन है।।

अब अगर लागत से कई गुना ऊंचे दामों पर काम बन रहा हो तो कोई पूंजीपति ऐसा मौका हाथ से क्यों जाने देगा? कुछ यही हालत विश्व बैंक के दान अथवा कर्जे से हुए पिछले सरकारी कर्मकांडों ने बनाई है। इसे पूंजी का प्रभाव कहें या सरकारी संस्थानों की अयोग्यता दोनों ही दशा में आज के सन्दर्भों में हमारी राजनैतिक और तथाकथित आर्थिक विपन्नातायें ही इंगित होती हैं। सरकार की थोड़ी प्रतिबद्धता के साथ बहुत बड़े तकनीकी दक्षता कार्यक्रमों की भी महती आवश्यकता है ताकि इस मुद्दे से जुड़ी भीषण चुनौतियों से निपटने के लिए विषय विशेषज्ञ भी तैयार किये जा सकें।

यद्यपि गंगाजी की अविरलता के लिए सरकार ने कोई ठोस वचन नहीं दिया है लेकिन स्वामीजी की तपस्या के प्रभाव से हम सरकार का ध्यान आकृष्ट करने में सफल रहे हैं। निस्संदेह यह एक लम्बी लड़ाई की शुरुआत है जिसके पहले दौर में हमे आंशिक सफलता भी मिली हुई लगती है लेकिन सरकार के छल, घोंघे जैसी गति वाली समितियों और विदेशी पूंजी के प्रताप से गतिमान आयोगों के प्रकोप से गंगा जी को बचाना भी हमारा ही दायित्व है। यकीनन सरकार के पास बहुत से संसाधन और उपाय हो सकते हैं जिनसे इस आन्दोलन की धार को कुंद करने का प्रयास करे। इससे बचने के लिए हमें स्थायी कार्यकारी विकल्पों को भी अमल में लाना होगा। जन सामान्य में नीतिगत निर्णयों का प्रसार बहुत धीरे-धीरे होता है। जन सामान्य की सहभागिता के बिना जैसे आन्दोलन निष्प्रभावी हो सकते हैं ठीक उसी प्रकार सरकार के सर्वश्रेष्ठ निर्णय भी निष्फल हो सकते हैं। इनके संयोजन का एक रास्ता शैक्षिक संस्थानों की जनकार्यों में सहभागिता से बनाया जा सकता है।

जहाँ छात्रों की शैक्षिक गतिविधियों में विषयों की प्रवीणता और उस पर आधारित व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को एक लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया जा सकता है। प्रस्तावित आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार कुछ दस लाख से ज्यादा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नौकरियों कि संभावना गंगाजी और उनकी सहायक नदियों के समुचित प्रबंधन के लिए बने राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की परियोजना में ही होने की स्थितियां है। वैसे भी देश की नगरीय आबादी के अनुपात में पारिस्थितिकीय विज्ञान, पर्यावरण प्रबंधन, नगरीय अभियांत्रिकी, जल संसाधन प्रबंधन और भूविज्ञान तकनीकी आधारित पाठ्यक्रमों की निहायत ही कमी है। नतीजा यह नजर आता है कि जिन सामाजिक विकास के कार्यों को हम देश कि प्रगति का आधार मानते हैं वे भी आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बिना संभव नजर नहीं दिखते (मोट मैकडोनॉल्ड, टेम्स वाटर इत्यादि कम्पनियाँ हमारे नागरिक दायित्वों को सिखाने का भी काम करती नजर आती हैं)।

राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों को वैश्विक निविदाएँ और परियोजना प्रबंधन के कार्यों को भी कई गुना ऊंचे दामों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ठेके पर देना पड़ रहा है। सेवायोजन के अवसरों को घटना सार्वजनिक क्षेत्रों के प्रतिष्ठानों की बहादुरी बन चली है। यकीनन यह मूल्य निर्धारण प्रणाली कई-कई जगह रहस्यमयी भी हो चली है। अब अगर लागत से कई गुना ऊंचे दामों पर काम बन रहा हो तो कोई पूंजीपति ऐसा मौका हाथ से क्यों जाने देगा? कुछ यही हालत विश्व बैंक के दान अथवा कर्जे से हुए पिछले सरकारी कर्मकांडों ने बनाई है। इसे पूंजी का प्रभाव कहें या सरकारी संस्थानों की अयोग्यता दोनों ही दशा में आज के सन्दर्भों में हमारी राजनैतिक और तथाकथित आर्थिक विपन्नातायें ही इंगित होती हैं।

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरणराष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरणसरकार की थोड़ी प्रतिबद्धता के साथ बहुत बड़े तकनीकी दक्षता कार्यक्रमों की भी महती आवश्यकता है ताकि इस मुद्दे से जुड़ी भीषण चुनौतियों से निपटने के लिए विषय विशेषज्ञ भी तैयार किये जा सकें। यकीनन दूसरी नदी घाटी परियोजनाओं और जल संसाधन प्रबंधन के उपायों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है लेकिन यह पूर्ण रूप से कॉपी पेस्ट ही हो तो निश्चित रूप से चिंतनीय हो सकता है। जैसा कि राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के लिए नियुक्त बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दावा करती है कि फ्रांसिसी जल संसाधन प्रबंधन प्रणाली भारत में स्थापित करके नगरीय जलापूर्ति का शत-प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा। तकनीकी पहलू पर जाने के लिए निश्चित रूप से गहन अध्ययन और दूसरे उपायों पर दृष्टि डालना होगा।

लेकिन यदि इसके आर्थिक पक्ष कि विवेचना करते हैं तो पाते हैं कि एक छोटी आबादी वाले फ्रांस जैसे देश में प्रति व्यक्ति 30 यूरो प्रति व्यक्ति प्रति माह उनकी प्रति व्यक्ति आय के अनुपात में उचित हो सकता है (यद्यपि फ्रांस के नागरिक समूहों में भी इस विनिवेश प्रणाली के प्रति असंतोष देखा जा रहा है।) परन्तु गंगा जी की घाटी के शहरों में प्रति व्यक्ति मासिक आय भी इस कीमत के कहीं आस-पास भी नहीं है, ऐसे में इस प्रणाली का कॉपी पेस्ट निहायत ही घातक साबित होगा। यह इस आन्दोलन का सौभाग्य है कि स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद तकनीकी तौर पर विशेषज्ञ रहे हैं। नए तंत्र के निर्माण में तकनीकी ज्ञान से समृद्ध नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) की आवश्यकता को स्वामीजी के मार्गदर्शन में ही स्थायी और संतुलित अभिदृष्टि प्राप्त हो सकेगी। आशा है कि स्वामीजी और सरकार के बीच होने वाली वार्ता इस विषय पर भी कुछ निष्कर्ष तक पहुंचेगी।

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