हमारे देश में कृषिगत क्षेत्र का लगभग 65 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित है। प्राकृतिक आपदा जैसे अनावृष्टि के कारण-सूखा या अतिवृष्टि के कारण बाढ़ के फलस्वरूप बहुधा फसलें बिलकुल नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार की परिस्थिति में आर्थिक दृष्टिकोण से मिश्रित खेती सुरक्षा कवच का काम करती है। जब एक खेत में एक ही साथ दो-या-दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं तो यह संभावना होती है कि यदि कोई फसल मौसम की असामान्यता के कारण नष्ट हो जाए तब भी दूसरी या तीसरी फसल बच सकती है और इस प्रकार उस खेत से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। प्राचीन काल से मिश्रित खेती हमारी कृषि प्रणाली का एक अभिन्न अंग रही है। हमारे पूर्वजों ने इसकी संकल्पना मौसम की विपरीत परिस्थितियों में फसल सुरक्षा के दृष्टिकोण से की थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता के एक प्रमुख स्थल कालीबंगा से प्राप्त जुताई के कूड़ों से पता चला है कि उस समय भी कई फसलों को एक साथ मिला कर खेती की जाती थी। मोहनजोदड़ो में गेहूं, जौ तथा चना की खेती एक साथ मिला कर की जाती थी। पातंजलि कृत ‘‘भाष्य’’ से भी मिलवां खेती के प्रमाण मिले हैं। इसमें एक स्थान पर दो धान्यों तथा उड़द या तिल मिला कर बोने का उल्लेख है। मिलिन्द पन्हों में तो पांच प्रकार की फसलों को एक साथ बोने का संकेत प्राप्त हुआ है। पूर्वी भारत में भी पांच प्रकार की फसलों को एक साथ बोने का संकेत प्राप्त हुआ है। पूर्वी भारत में मिलवां खेती का प्रचलन प्राचीनकाल से ही है, जिसे असाढ़ी खेती कहते हैं।
हमारे देश में कृषिगत क्षेत्र का लगभग 65 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित है। प्राकृतिक आपदा जैसे अनावृष्टि के कारण-सूखा या अतिवृष्टि के कारण बाढ़ के फलस्वरूप बहुधा फसलें बिलकुल नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार की परिस्थिति में आर्थिक दृष्टिकोण से मिश्रित खेती सुरक्षा कवच का काम करती है। जब एक खेत में एक ही साथ दो-या-दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं तो यह संभावना होती है कि यदि कोई फसल मौसम की असामान्यता के कारण नष्ट हो जाए तब भी दूसरी या तीसरी फसल बच सकती है और इस प्रकार उस खेत से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह सुरक्षा केवल मिट्टी की नमी के दृष्टिकोण से ही नहीं वरन कीट एवं व्याधियों के प्रकोप की स्थिति में भी मिश्रित खेती के द्वारा प्राप्त होती है।
कृषि के लंबे इतिहास के क्रम में मिश्रित खेती के रूप परिवर्तित होते रहे। कालांतर में कृषि वैज्ञानिकों ने मिश्रित खेती के अनेक फायदों की पहचान की। मिश्रित खेती के कुछ मौलिक सिद्धांत हैं, जो निम्नलिखित हैं:
1. विभिन्न फसलों की वृद्धि का क्रम, उनकी जड़ों की गहराई एवं उनके पोषक तत्वों की आवश्यकता अलग-अलग होती है। यदि दो ऐसी फसलें जैसे आलू + मक्का, हल्दी + अरहर, मूंगफली + अरहर, जिनमें एक उथली जड़ वाली तथा दूसरी गहरी जड़ वाली हों, तो दोनों मिट्टी की अलग-अलग सतहों से नमी एवं पोषक तत्वों का भरपूर अवशोषण तथा उपयोग करती हैं। इस प्रकार जल एवं पोषक तत्वों के उपयोग की क्षमता बढ़ने से उनकी उपज बढ़ जाती है।
2. विभिन्न ऊंचाइयों तक बढ़ने वाली फसलों के मिश्रण में कम बढ़ने वाली फसल ऐसी होनी चाहिए जिसे प्रकाश की कम तीव्रता की आवश्यकता होती हो। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि कुछ फसलों का मिश्रण अधिक सफल होता है जबकि कुछ अन्य फसलों का मिश्रण उतना लाभ नहीं दे पाता। नारियल + केला + अदरक फसल प्रणाली में सूर्य के प्रकाश का अधिकतम उपयोग होता है जिससे तीनों फसलों की अधिक उपज प्राप्त होती है। हल्दी + मक्का + अरहर भी उत्तम मिश्रण है।
3. सघन अनुसंधान से यह पता चला है कि कुछ फसलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं जो दूसरी फसलों के लिए अधिक लाभप्रद होता है। उदाहरण के लिए यदि दलहनी फसल मूंग को धान्य फसल ज्वार के साथ उगाया जाता है तो मूंग की जड़ों की गांठों में एकत्रित हो रहे नेत्रजन का कुछ हिस्सा ज्वार को मिलने से उसकी उपज बढ़ जाती है।ऊंचे तथा मजबूत तनों वाली फसलों के साथ लत्तर वाली फसलों को बोना उपज की दृष्टि से लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इस फसल मिश्रण में मजबूत तनों वाली फसलें लत्तर वाली फसल की बेलों को ऊपर चढ़ने में मदद कर उनके फलन को काफी बढ़ा देती हैं जैसे ज्वार में झिंगनी या नेनुआ।
4. ऊंचे कद वाली फसलों की छाया ऐसी फसलों के लिए लाभप्रद हो जाती है जिन्हें कड़ी धूप की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे अरहर + अनन्नास, अरहर + हल्दी, अरहर + अदरक इत्यादि।
5. कुछ फसलों की उपस्थिति उसकी सहयोगी फसल को कीड़ों के आक्रमण से बचाती है। जैसे मक्का की फसल में ज्वार, लाल मिर्च में सौंफ तथा चना की फसल में धनिया की मिश्रित खेती कुछ ऐसे ही उपयोगी उदाहरण हैं।
मिश्रित खेती से प्राप्त इन जानकारियों से नई संभावनाओं का उदय हुआ है। मिश्रित खेती केवल असिंचित क्षेत्रों की कृषि पद्धति थी जहां उसका एकमात्र उद्देश्य फसल को प्राकृतिक विभीषिकाओं से सुरक्षा प्रदान करना था। वैज्ञानिकों ने मिश्रित खेती को सिंचित क्षेत्रों में भी निरूपित किया। यह पाया गया कि बहुत सारी फसलों की प्रवृत्ति ऐसी है कि यदि उन्हें अलग-अलग शुद्ध फसल के रूप में लगाया जाए तथा एक खेत में उन्हें सहयोगी फसलों के रूप में लगाया जाए तो सहयोगी फसल क्रम को अधिक लाभ प्राप्त होता है। इस अनुसंधान के बाद अन्तरवर्ती खेती मात्र एक सुरक्षा का साधन न रहकर उपज एवं आय बढ़ाने की एक सक्षम विधि बन गई है। जब उद्देश्य बदले तो परिभाषाएं भी बदली। मिश्रित खेती एक ही खेत और एक ही मौसम में दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ किसी निश्चित कतार के बिना लगाने की पद्धति थी। इसके विपरीत अन्तरवर्ती फसल प्रणाली जिसका उद्देश्य उपज एवं आय में वृद्धि करना है, को एक ही खेत और एक ही मौसम में दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ किसी निश्चित कतार क्रम में लगाए जाने की परिभाषा दी गई। यह अन्तरवर्ती फसल प्रणाली सिंचित अथवा असिंचित दोनों परिस्थितियों में लगाई जा सकती है। इस विधि में फसलों के बीच सभी साधनों जैसे-भूमि क्षेत्र, जल, पोषक तत्वों और सूर्य की रोशनी के लिए कम से कम प्रतिस्पर्धा हो, इसका ख्याल रखा जाता है।
मिश्रित खेती हो अथवा अन्तरवर्ती फसल प्रणाली, दोनों ही परिस्थितियों में फसलों का चुनाव पूर्णरूपेण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। यदि दो फसलें एक-दूसरे को लाभ पहुंचा सकती हैं तो कभी-कभी उनके एक साथ होने के कारण हानियां भी होती हैं। कुछ फसलों की जड़ों से अन्तःस्राव होता है जिसका प्रतिकूल प्रभाव कुछ फसलों पर पड़ता है। ऐसी फसलों को कभी भी मिश्रित अथवा अन्तरवर्ती फसल के रूप में नहीं लगाना चाहिए।
मिश्रित खेती के विकास के क्रम में कुछ अन्य परिस्थितियों की पहचान भी की गई जो इन्हें विशेषता प्रदान करती है। अतः ऐसी अन्तरवर्ती फसलों को एक नया नाम और एक नई परिभाषा दी गई। दूर-दूर की कतारों में लगाई जाने वाली फसलें जैसे अरहर, ईख, कपास इत्यादि की बुआई के बाद लंबे समय तक कतारों के बीच की जगह का कोई उपयोग नहीं हो पाता। ईख और अरहर की फसलों की प्रारंभिक वृद्धि दर बहुत ही कम होती है जिसकी वजह से कतारों के बीच खाली स्थान में खरपतवार निकल आते हैं जो मिट्टी से नमी एवं पोषक तत्व ग्रहण करने के साथ-साथ मुख्य फसल के पौधों को भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए विवश कर देते हैं और इसके फलस्वरूप फसल पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि दो कतारों के बीच खाली स्थान का उपयोग ऐसी फसल लगाकर किया जाए जो कम दिनों में तैयार हो और उसकी प्रारंभिक वृद्धि दर तेज हो, तो यह फसल, मुख्य फसल से कोई प्रतिस्पर्धा किए बिना जीवनचक्र पूरा कर लेगी। मुख्य फसल जब तक अपनी तीव्र विकास अवस्था में पहुंचेगी तब तक दूसरी फसल कट जाएगी। इस प्रकार मुख्य फसल के पौधों को बिना हानि पहुंचाए हुए एक नई अतिरिक्त फसल इसी खेत से ली जा सकती है। इस पद्धति को समानान्तर खेती का नाम दिया गया। जैसे ईख की फसल में आलू, ईख में प्याज, ईख में धनिया, ईख में मगरैला, ईख में लहसुन, इत्यादि समानान्तर फसल के उदाहरण हैं।
मिश्रित खेती, अन्तरवर्ती खेती एवं समानान्तर खेती किसानों के लिए अत्यंत ही लाभप्रद कृषि प्रणालियां हैं। परन्तु इन पद्धतियों के लिए फसलों एवं किस्मों का चुनाव तथा उनकी खेती की पैकेजप्रणाली को अत्यंत सावधानीपूर्वक अपनाया जाना चाहिए ताकि किस्मों का अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो। यथा संभव सब्जी एवं मसालों की फसलों को भी इस फसल प्रणाली में सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि बहुत सारी सब्जियां एवं मसाला फसलें काफी कम दिनों में तैयार होती हैं, छाया को सहन कर सकती हैं तथा ये अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध लाभ देती हैं।
घटती हुई कृषि योग्य भूमि और बढ़ती हुई आबादी को खिलाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाई जाए। मिश्रित खेती उपज बढ़ाने का एक प्रमुख माध्यम है। उन क्षेत्रों में जहां रोजगार के साधन कम हैं, वहां पर इसको अपनाने से लोगों को रोजगार अधिक मिलता है, और प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि होती है। मिश्रित, अन्तरवर्ती एवं समानान्तर खेती में सिंचित एवं असिंचित अवस्था में लगाई जाने वाली फसलों की एक तालिका नीचे दी जा रही है जो किसानों के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध होगी।
रबी मक्का + आलू, आलू + बाकला, रबी मक्का + राजमा (मैदानी क्षेत्रों के लिए) रबी मक्का + धनिया (हरी पत्तियों के लिए), शरदकालीन गन्ना+ मिर्च, गन्ना + धनिया, गन्ना+मगरैला, गन्ना+ लहसुन, गन्ना+ आलू, गन्ना+गेहूं, गन्ना+अजवाइन, गन्ना+मसूर, बसन्त कालीन गन्ना+भिण्डी, गन्ना+मूंग? गन्ना+उड़द, प्याज+अजवाइन, प्याज+भिण्डी, प्याज+मिर्च, साैंफ+मिर्च।
अनाज तथा दलहनी फसलों का मिश्रण अधिक उपयोगी होता है तथा मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बनी रहती हैः-
बाजरा+मूूंग, बाजरा+अरहर, मक्का+उड़द, गेहूं+चना, जौ+चना, जौ + मटर, ज्वार+ अरहर एवं गेहूं+मटर।
गेहूं+सरसों, जौ+ सरसों, गेहूं+अलसी, जौ+अलसी
अरहर+मूंग, अरहर+उड़द, अरहर+मूंगफली चना+ अलसी, चना + सरसों, मटर+सरसों, मटर+ कुसुम
ज्वार+अरहर+मूंग
बाजरा+अरहर+मूंग
ज्वार+हरहर+उड़द
जौ+मटर+ सरसों
चना+ सरसों+ अलसी
चना+अलसी+कुसुम
गेहूं+चना+सरसों
आजकल के युग में खेती योग्य भूमि पर जनसंख्या का बोझ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मिश्रित खेती अपना कर किसान प्रति इकाई भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं। आवश्यकता केवल मानसिकता बदलने की है। आज के सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में मिश्रित खेती किसानों के लिए एक वरदान है। इसे अपनाने से अधिक आमदनी के साथ-साथ भूमि की उर्वराशक्ति भी बरकरार रहती है। साथ ही साथ रोग व्याधियों का प्रकोप भी कम हो जाता है।
लेखक राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के अधिष्ठाता कृषि तथा कुलपति हैं।
ई-मेल: kuber.ramgmail.com
हमारे देश में कृषिगत क्षेत्र का लगभग 65 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित है। प्राकृतिक आपदा जैसे अनावृष्टि के कारण-सूखा या अतिवृष्टि के कारण बाढ़ के फलस्वरूप बहुधा फसलें बिलकुल नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार की परिस्थिति में आर्थिक दृष्टिकोण से मिश्रित खेती सुरक्षा कवच का काम करती है। जब एक खेत में एक ही साथ दो-या-दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं तो यह संभावना होती है कि यदि कोई फसल मौसम की असामान्यता के कारण नष्ट हो जाए तब भी दूसरी या तीसरी फसल बच सकती है और इस प्रकार उस खेत से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह सुरक्षा केवल मिट्टी की नमी के दृष्टिकोण से ही नहीं वरन कीट एवं व्याधियों के प्रकोप की स्थिति में भी मिश्रित खेती के द्वारा प्राप्त होती है।
मिश्रित खेती के मौलिक सिद्धांत
कृषि के लंबे इतिहास के क्रम में मिश्रित खेती के रूप परिवर्तित होते रहे। कालांतर में कृषि वैज्ञानिकों ने मिश्रित खेती के अनेक फायदों की पहचान की। मिश्रित खेती के कुछ मौलिक सिद्धांत हैं, जो निम्नलिखित हैं:
1. विभिन्न फसलों की वृद्धि का क्रम, उनकी जड़ों की गहराई एवं उनके पोषक तत्वों की आवश्यकता अलग-अलग होती है। यदि दो ऐसी फसलें जैसे आलू + मक्का, हल्दी + अरहर, मूंगफली + अरहर, जिनमें एक उथली जड़ वाली तथा दूसरी गहरी जड़ वाली हों, तो दोनों मिट्टी की अलग-अलग सतहों से नमी एवं पोषक तत्वों का भरपूर अवशोषण तथा उपयोग करती हैं। इस प्रकार जल एवं पोषक तत्वों के उपयोग की क्षमता बढ़ने से उनकी उपज बढ़ जाती है।
2. विभिन्न ऊंचाइयों तक बढ़ने वाली फसलों के मिश्रण में कम बढ़ने वाली फसल ऐसी होनी चाहिए जिसे प्रकाश की कम तीव्रता की आवश्यकता होती हो। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि कुछ फसलों का मिश्रण अधिक सफल होता है जबकि कुछ अन्य फसलों का मिश्रण उतना लाभ नहीं दे पाता। नारियल + केला + अदरक फसल प्रणाली में सूर्य के प्रकाश का अधिकतम उपयोग होता है जिससे तीनों फसलों की अधिक उपज प्राप्त होती है। हल्दी + मक्का + अरहर भी उत्तम मिश्रण है।
3. सघन अनुसंधान से यह पता चला है कि कुछ फसलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं जो दूसरी फसलों के लिए अधिक लाभप्रद होता है। उदाहरण के लिए यदि दलहनी फसल मूंग को धान्य फसल ज्वार के साथ उगाया जाता है तो मूंग की जड़ों की गांठों में एकत्रित हो रहे नेत्रजन का कुछ हिस्सा ज्वार को मिलने से उसकी उपज बढ़ जाती है।ऊंचे तथा मजबूत तनों वाली फसलों के साथ लत्तर वाली फसलों को बोना उपज की दृष्टि से लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इस फसल मिश्रण में मजबूत तनों वाली फसलें लत्तर वाली फसल की बेलों को ऊपर चढ़ने में मदद कर उनके फलन को काफी बढ़ा देती हैं जैसे ज्वार में झिंगनी या नेनुआ।
4. ऊंचे कद वाली फसलों की छाया ऐसी फसलों के लिए लाभप्रद हो जाती है जिन्हें कड़ी धूप की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे अरहर + अनन्नास, अरहर + हल्दी, अरहर + अदरक इत्यादि।
5. कुछ फसलों की उपस्थिति उसकी सहयोगी फसल को कीड़ों के आक्रमण से बचाती है। जैसे मक्का की फसल में ज्वार, लाल मिर्च में सौंफ तथा चना की फसल में धनिया की मिश्रित खेती कुछ ऐसे ही उपयोगी उदाहरण हैं।
मिश्रित खेती बनाम अन्तरवर्ती खेती
मिश्रित खेती से प्राप्त इन जानकारियों से नई संभावनाओं का उदय हुआ है। मिश्रित खेती केवल असिंचित क्षेत्रों की कृषि पद्धति थी जहां उसका एकमात्र उद्देश्य फसल को प्राकृतिक विभीषिकाओं से सुरक्षा प्रदान करना था। वैज्ञानिकों ने मिश्रित खेती को सिंचित क्षेत्रों में भी निरूपित किया। यह पाया गया कि बहुत सारी फसलों की प्रवृत्ति ऐसी है कि यदि उन्हें अलग-अलग शुद्ध फसल के रूप में लगाया जाए तथा एक खेत में उन्हें सहयोगी फसलों के रूप में लगाया जाए तो सहयोगी फसल क्रम को अधिक लाभ प्राप्त होता है। इस अनुसंधान के बाद अन्तरवर्ती खेती मात्र एक सुरक्षा का साधन न रहकर उपज एवं आय बढ़ाने की एक सक्षम विधि बन गई है। जब उद्देश्य बदले तो परिभाषाएं भी बदली। मिश्रित खेती एक ही खेत और एक ही मौसम में दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ किसी निश्चित कतार के बिना लगाने की पद्धति थी। इसके विपरीत अन्तरवर्ती फसल प्रणाली जिसका उद्देश्य उपज एवं आय में वृद्धि करना है, को एक ही खेत और एक ही मौसम में दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ किसी निश्चित कतार क्रम में लगाए जाने की परिभाषा दी गई। यह अन्तरवर्ती फसल प्रणाली सिंचित अथवा असिंचित दोनों परिस्थितियों में लगाई जा सकती है। इस विधि में फसलों के बीच सभी साधनों जैसे-भूमि क्षेत्र, जल, पोषक तत्वों और सूर्य की रोशनी के लिए कम से कम प्रतिस्पर्धा हो, इसका ख्याल रखा जाता है।
अन्तरवर्ती खेती बनाम समानान्तर खेती
मिश्रित खेती हो अथवा अन्तरवर्ती फसल प्रणाली, दोनों ही परिस्थितियों में फसलों का चुनाव पूर्णरूपेण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। यदि दो फसलें एक-दूसरे को लाभ पहुंचा सकती हैं तो कभी-कभी उनके एक साथ होने के कारण हानियां भी होती हैं। कुछ फसलों की जड़ों से अन्तःस्राव होता है जिसका प्रतिकूल प्रभाव कुछ फसलों पर पड़ता है। ऐसी फसलों को कभी भी मिश्रित अथवा अन्तरवर्ती फसल के रूप में नहीं लगाना चाहिए।
मिश्रित खेती के विकास के क्रम में कुछ अन्य परिस्थितियों की पहचान भी की गई जो इन्हें विशेषता प्रदान करती है। अतः ऐसी अन्तरवर्ती फसलों को एक नया नाम और एक नई परिभाषा दी गई। दूर-दूर की कतारों में लगाई जाने वाली फसलें जैसे अरहर, ईख, कपास इत्यादि की बुआई के बाद लंबे समय तक कतारों के बीच की जगह का कोई उपयोग नहीं हो पाता। ईख और अरहर की फसलों की प्रारंभिक वृद्धि दर बहुत ही कम होती है जिसकी वजह से कतारों के बीच खाली स्थान में खरपतवार निकल आते हैं जो मिट्टी से नमी एवं पोषक तत्व ग्रहण करने के साथ-साथ मुख्य फसल के पौधों को भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए विवश कर देते हैं और इसके फलस्वरूप फसल पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि दो कतारों के बीच खाली स्थान का उपयोग ऐसी फसल लगाकर किया जाए जो कम दिनों में तैयार हो और उसकी प्रारंभिक वृद्धि दर तेज हो, तो यह फसल, मुख्य फसल से कोई प्रतिस्पर्धा किए बिना जीवनचक्र पूरा कर लेगी। मुख्य फसल जब तक अपनी तीव्र विकास अवस्था में पहुंचेगी तब तक दूसरी फसल कट जाएगी। इस प्रकार मुख्य फसल के पौधों को बिना हानि पहुंचाए हुए एक नई अतिरिक्त फसल इसी खेत से ली जा सकती है। इस पद्धति को समानान्तर खेती का नाम दिया गया। जैसे ईख की फसल में आलू, ईख में प्याज, ईख में धनिया, ईख में मगरैला, ईख में लहसुन, इत्यादि समानान्तर फसल के उदाहरण हैं।
मिश्रित अन्तरवर्ती एवं समान्तर खेती में फसलों का चुनाव
मिश्रित खेती, अन्तरवर्ती खेती एवं समानान्तर खेती किसानों के लिए अत्यंत ही लाभप्रद कृषि प्रणालियां हैं। परन्तु इन पद्धतियों के लिए फसलों एवं किस्मों का चुनाव तथा उनकी खेती की पैकेजप्रणाली को अत्यंत सावधानीपूर्वक अपनाया जाना चाहिए ताकि किस्मों का अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो। यथा संभव सब्जी एवं मसालों की फसलों को भी इस फसल प्रणाली में सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि बहुत सारी सब्जियां एवं मसाला फसलें काफी कम दिनों में तैयार होती हैं, छाया को सहन कर सकती हैं तथा ये अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध लाभ देती हैं।
घटती हुई कृषि योग्य भूमि और बढ़ती हुई आबादी को खिलाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाई जाए। मिश्रित खेती उपज बढ़ाने का एक प्रमुख माध्यम है। उन क्षेत्रों में जहां रोजगार के साधन कम हैं, वहां पर इसको अपनाने से लोगों को रोजगार अधिक मिलता है, और प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि होती है। मिश्रित, अन्तरवर्ती एवं समानान्तर खेती में सिंचित एवं असिंचित अवस्था में लगाई जाने वाली फसलों की एक तालिका नीचे दी जा रही है जो किसानों के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध होगी।
सिंचित क्षेत्र के लिए मिश्रित फसल प्रणाली
रबी मक्का + आलू, आलू + बाकला, रबी मक्का + राजमा (मैदानी क्षेत्रों के लिए) रबी मक्का + धनिया (हरी पत्तियों के लिए), शरदकालीन गन्ना+ मिर्च, गन्ना + धनिया, गन्ना+मगरैला, गन्ना+ लहसुन, गन्ना+ आलू, गन्ना+गेहूं, गन्ना+अजवाइन, गन्ना+मसूर, बसन्त कालीन गन्ना+भिण्डी, गन्ना+मूंग? गन्ना+उड़द, प्याज+अजवाइन, प्याज+भिण्डी, प्याज+मिर्च, साैंफ+मिर्च।
असिंचित क्षेत्र के लिए मिश्रित फसल प्रणाली
अनाज तथा दलहनी फसलों का मिश्रण अधिक उपयोगी होता है तथा मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बनी रहती हैः-
बाजरा+मूूंग, बाजरा+अरहर, मक्का+उड़द, गेहूं+चना, जौ+चना, जौ + मटर, ज्वार+ अरहर एवं गेहूं+मटर।
अनाज की फसलों का तिलहनी फसलों के साथ मिश्रण
गेहूं+सरसों, जौ+ सरसों, गेहूं+अलसी, जौ+अलसी
दलहनी फसलों की दलहनी तथा तिलहनी फसलों के साथ मिश्रण
अरहर+मूंग, अरहर+उड़द, अरहर+मूंगफली चना+ अलसी, चना + सरसों, मटर+सरसों, मटर+ कुसुम
दो से अधिक फसलों का मिश्रण
ज्वार+अरहर+मूंग
बाजरा+अरहर+मूंग
ज्वार+हरहर+उड़द
जौ+मटर+ सरसों
चना+ सरसों+ अलसी
चना+अलसी+कुसुम
गेहूं+चना+सरसों
आजकल के युग में खेती योग्य भूमि पर जनसंख्या का बोझ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मिश्रित खेती अपना कर किसान प्रति इकाई भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं। आवश्यकता केवल मानसिकता बदलने की है। आज के सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में मिश्रित खेती किसानों के लिए एक वरदान है। इसे अपनाने से अधिक आमदनी के साथ-साथ भूमि की उर्वराशक्ति भी बरकरार रहती है। साथ ही साथ रोग व्याधियों का प्रकोप भी कम हो जाता है।
लेखक राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के अधिष्ठाता कृषि तथा कुलपति हैं।
ई-मेल: kuber.ramgmail.com
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Post By: Shivendra