कृषि प्रधान देश भारत के किसान इस समय आन्दोलित हैं और लगातार दो बड़े प्रदर्शन पिछले कुछ महीनों में देश की राजधानी दिल्ली देख ही चुकी है। इन प्रदर्शनों में किसानों की निरन्तर माँग यही है कि फसलों का सही मूल्य मिले और किसानों की हालत में सुधार हो। भारत सरकार भी यही बात कह रही है कि किसानों की स्थिति को सुधारना चाहिए और अपनी राजनैतिक रैलियों में प्रधानमंत्री भी किसानों की आय वर्तमान स्थिति से दो गुनी और तीन गुनी तक करने का वादा करते हैं।
लेकिन इन सबके बीच जो सवाल है, वह यह है कि किसानों की आय दो गुनी होना क्या वाकई इनकी समस्या का समाधान है? भारत में किसानों की ना तो आय में समानता है और ना ही उनकी लागतों में, मसलन विदर्भ का किसान जिस पानी की कमी से जूझता है वहीं उत्तर प्रदेश की तराई का किसान साल के पाँच-छह महीने बाढ़ के पानी का अभिशाप सहता है। तो ऐसे में ना तो देश में फसलों की साम्यता है और ना ही उनकी समस्याओं में, तो कैसे एक साथ यह समस्या दूर हो सकती है।
अगर हम स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के सन्दर्भ में ही बात करें तो हमें एक आमूल-चूल परिवर्तन ही करने का सुझाव मिलता है, ना की रातों रात आय दोगुना करने की कोई व्यवस्था। किसानों की आय को दोगुना करना एक कठिन प्रक्रिया है क्योंकि सरकार खाद्यान्नों के दाम एकदम से नहीं बढ़ा सकती है, इसके परिणाम में मँहगाई और आसमान छूने लगेगी। यानी किसानों के साथ-साथ सरकार को अन्य स्थितियों का भी ध्यान रखना होता है। ऐसे में किसानों की आय का अचानक बढ़ जाना तो दूर की कौड़ी लगती है।
लागतों को कम किया जाए
बहरहाल, किसानों की आय बढ़ाने की घोषणाओं से बेहतर होगा कि उनकी लागतों को कम किया जाए क्योंकि लागत अगर कम होती जाएगी तो आय स्वत: ही सुधरने लगेगी। मसलन सरकार ने मनरेगा जैसी योजनाओं से गाँवों में मजदूरों का स्तर तो उठाया लेकिन इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव में मजदूरी में बेतहाशा वृद्धि हो गई। जिसका असर कृषि लागत पर जबर्दस्त पड़ा, यानी पहले से ही समस्या ग्रसित कृषि के लिये कोढ़ में खाज की स्थिति हो गई। भले ही कई श्रमिक अधिकार और वामपन्थ प्रभावित चिन्तन इसे खारिज करेगा लेकिन वास्तविकता यह है कि मजदूरी बढ़ते जाने का सबसे बड़ा असर अति-लघु और लघु-सीमान्त किसानों पर पड़ा है। क्योंकि छोटे खेत होने के कारण ना तो वे बाहर से ठेके पर महँगे मजदूर बुलाने का सामर्थ्य रखते हैं और ना ही खेतों की स्थिति के कारण हमेशा ट्रैक्टर या कम्बाइन जैसे कृषि यंत्रों का उपयोग कर पाते हैं।
इसके साथ बिजली का महँगा होते जाना और डीजल, खाद व कीटनाशकों के दामों में बढ़ोत्तरी और साथ ही वहाँ मौजूद भ्रष्टाचार इस पूरी अव्यवस्था को और दुखद स्थिति पर ले जाता है। चूंकि बढ़ रही आबादी के साथ जोत घट ही सकती है, बढ़ नहीं सकती, तो ऐसे में कम जमीन पर अधिक फसल उत्पादन के बजाए कम जमीन पर कम लागत की व्यवस्था करनी होगी।
एक बात और है किसान के पास से जब से पशुपालन छूटना शुरू हुआ है तब से आय की समस्या और बढ़ती जा रही है। किसान अपने पशुपालन द्वारा ना सिर्फ अतिरिक्त आय करता था बल्कि पशु-पालन से उसे दूध, दही व अन्य पशु उत्पादों से पोषण की जरूरतें भी पूरी होती थीं। अब समस्या यह है कि अगर किसान पशुपालन करता है तो चारा कहाँ से खिलाएगा। क्योंकि बढ़ती मजदूरी के कारण फसलों को हाथ से कटवाना सम्भव नहीं रह गया है और लगातार अतिक्रमण समाजिक नीतियों के कारण ग्राम समाज की चारागाह वाली जमीनें अब लोगों को पट्टे में दी जा चुकी हैं। तो ऐसे में जब फसल से चारा प्राप्त करना बहुत महँगा है और चारागाह की जमीन रह नहीं गई है, तो ऐसे में पशुपालन एक बोझ के अलावा कुछ और नहीं रह गया।
पशुपालकों को फायदा दिलाना होगा
इसी बजट में गोबरधन योजना की बात कही गई थी और गोबरधन को लेकर काफी उत्साह दिखाया गया था। लेकिन गोबर का इस्तेमाल तो भारत के किसान शताब्दियों से कर रहे हैं। दूसरी बात गोबर के लिये पशु चाहिए और पशु के लिये चरागाह। अगर हम पशुओं के सन्दर्भ में केवल दूध की ही बात करें तो दुग्ध उत्पादों के सही मूल्य की व्यवस्था भी होनी चाहिए। अमूल का उदाहरण देकर सहकारी डेयरी के लिये प्रोत्साहन और बजट की व्यवस्था से काम नहीं बनने वाला। क्योंकि इन उत्पादों की बिक्री लगातार होना उनके लिये बाजार बनाए रखना और सही दाम पर सही समय पर पैसे मिलना जरूरी है। बाजार मूल्य और इन संस्थाओं के द्वारा दिए जा रहे मूल्य में अन्तर होना जैसी तमाम असमानताएँ हैं, जिनको पार करके पशु-पालन की टूट रही परम्परा को फिर से बनाना होगा। क्योंकि अब कई क्षेत्रों में लोग पशुपालन के व्यापार से दूर होना चाहते हैं। ऐसे में एक-दो पशु वाले पशुपालकों को भी फायदा दिलाना होगा। अन्यथा ऐसी योजनाओं का कोई असर नहीं दिखेगा।
किसानों की आय बढ़ाने के लिये दूसरा सबसे जरूरी साधन है सिंचाई की निरन्तर समय आधारित उपलब्धता जिस तक अधिकांश किसानों की पहुँच नहीं है। वे अधिकतर अपने साधनों या बोरिंग और पम्प सेट के भरोसे हैं, जिनमें डीजल और कई सारे अन्य रख-रखाव के खर्चे जुड़े होते हैं। तो ऐसे में अगर सरकार सिंचाई के लिये कुछ ठोस कदम उठाए तो उनकी इस लागत को कम किया जा सकता है, क्योंकि सस्ता डीजल और सस्ती बिजली उपलब्ध कराना एक मृगमरीचिका ही है।
ऐसे में अगर कोई भी सरकार आय डेढ़ गुनी या दो गुनी करने की बात करती है तो उसे यह भी देखना होगा कि लागत कितने प्रतिशत बढ़ी है। क्योंकि किसान की उत्पादकता के मुकाबले सामने वाला खर्च बढ़ रहा है। दूसरी बात किसान की हर समस्या का समाधान कर्ज माफी नहीं होता है, क्योंकि इससे तो बकायदा बैंकिंग और बीच में एक दलाल की भूमिका तैयार हो रही है। हमेशा किसान को बेचारा समझने के बजाए अगर उसे एक उद्यमी मानकर प्रोत्साहन की नीति बनाई जाए तो कहीं अधिक फायदा होगा। किसान की आय को बढ़ाने के लिये सबसे पहले उसकी लागतों को कम करना जरूरी है, उसके बाद फसल के लिये उपज आधारित नजदीक मंडियाँ और वहीं की स्थिति के बारे में पर्याप्त जानकारी होना बहुत ही आवश्यक है। अन्यथा किसान की आय बढ़ाना एक सपना बनकर रह जाएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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