क्या हिमालय दिवस का विचार केवल चिंता करने तक सीमित था ?

हिमालय दिवस
हिमालय दिवस

हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण के लिए चिंतित देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओ और पर्यावरणविदों ने मिलकर देहरादून स्थित हैस्को केंद्र शुक्लापुर में 2010 मे एक बैठक की थी। जिसमें हर वर्ष 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था। जब यह विचार आया तो हम काफी उत्साहित थे कि हिमालय की गंभीर समस्याओं को लेकर हिमालय दिवस के अवसर पर राज समाज को साथ लेकर यहां के ज्वलंत मुद्दों की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करेंगे। जिसमें कहा गया था कि जहां-जहां पर लोग हिमालय बचाने के लिए रचनात्मक और आंदोलनात्मक गतिविधि कर रहे हैं उनको साथ लेकर संवाद किया जाएगा और उन्हें सहयोग करेंगे। 
इससे पहले 2009 में हिमालय नीति संवाद का आयोजन भी देहरादून में किया गया था।

जिसमें हिमालय नीति के लिए सुझाव के रूप में "हिमालय लोक नीति" का एक दस्तावेज तैयार किया गया। इस दस्तावेज को सन् 2014-15 में आयोजित गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा के दौरान आमजन के बीच में साझा किया गया था। जिस  पर लगभग 50 हजार लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। जिसको देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को भेजा गया था। लेकिन उन्होंने इस विषय पर कुछ नहीं कहा। जबकि 16वें लोकसभा के चुनाव में भाजपा की सरकार बहुत बड़े बहुमत के साथ केंद्र में आई। उत्तराखंड से भी पांचो सांसद भाजपा से चुने गए थे।इन्हीं में पूर्व मुख्यमंत्री और और सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने पार्लियामेंट में हिमालय विकास के मॉडल पर बहुत ही महत्वपूर्ण चर्चा करवायी।जिसके फलस्वरूप हिमालय के लिए अलग मंत्रालय बनाने पर सुझाव दिये गए। हमें भी खुशी हुई कि केंद्र की सरकार एक मजबूत केंद्रीय हिमालय नीति बनाने के लिए हिमालय का मंत्रालय तो बनाएगा ही साथ ही हिमालय के पृथक विकास के मॉडल को निर्धारित करने के लिए आमजन द्वारा प्रस्तुत की गई हिमालय लोक नीति के सुझाव के अनुरूप हिमालय नीति का निर्धारण करेगी। 

हमारी यह आशा इसलिए थी कि जब हिमालय लोक नीति का मसौदा केंद्र सरकार तक पहुंचाया गया तो इसके तुरंत बाद नीति आयोग में राधा बहन और सुरेश भाई की उपस्थिति में हिमालय के पृथक मॉडल पर एक महत्वपूर्ण बैठक गांधी शांति प्रतिष्ठान नई दिल्ली की पहल पर की गई थी। जिसमें हिमालय के लिए अलग से सेल बनाने की बात स्वीकारी गई। इसके बाद हम पत्रों के माध्यम से नीति आयोग के संपर्क में बने रहे। लेकिन सरकार ने तुरंत मसूरी में हिमालय राज्यों की एक कांक्लेव बुलाकर हिमालय की बहस इसके आगे नहीं पहुंचायी।इसी दौर में नमामि गंगे परियोजना भी शुरू हुई।

हम लोग बार-बार कहते रहे कि "हिमालय बचेगा तो गंगा बहेगी" इस विषय पर हमने बहुत सारी बातें लिखकर सरकार को सौंपी थी।परंतु हमारी अनसुनी की गई। 2010 के बाद 5 वर्षों तक हम हिमालय दिवस को देहरादून में जाकर इसलिए मनाते रहे की हमें महसूस हो रहा था कि शायद सरकार इस विषय पर गंभीरता दिखायेगी। लेकिन हमने जितने भी दस्तावेज, हस्ताक्षर, ज्ञापन मीटिंगों के माध्यम से जो भी संवाद केंद्र और राज्य तक पहुंचाया उन सबको रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। लेकिन दूसरी ओर हमारे साथ खड़े दूसरे महत्वपूर्ण लोग पर्यावरण के इस सवाल पर गंभीरता से आगे तो नहीं आ रहे थे। लेकिन उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के प्रचार के नाम पर जल्दी ही ख्याति प्राप्त कर ली और उन्हें पुरस्कार भी मिल गया। जबकि हिमालय दिवस की आवाज को सुना ही नहीं गया था। और इसकी शुरुआत करने वाले लोगों ने पुरस्कारों के आगे झुकना ही ज्यादा पसंद किया।और हिमालय लोक नीति की बहस को ही कुंद कर दिया।

अब वर्तमान समय में हिमालय दिवस स्कूल के छात्र-छात्राओं के बीच में एक प्रतिज्ञा के रूप में फैल गया है। लेकिन वे किस हिमालय को बचाने के लिए प्रतिज्ञा कर रहे हैं। इसका संवाद देहरादून तक ही सिमट गया। जिस तरह से 2010 -15 के बीच में हिमालय दिवस को बहुत आगे तक ले जाने के लिए सरकार भी इसके विचार को मानने लगी थी थी।वह अब मूल विषय से हटकर उसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और पुरस्कार के बीच थमा दिया है। अब स्थिति यह है कि हिमालय दिवस अन्य दिवसों की भांति ही हिमालय की चिंता कर रहा है।

उत्तराखंड में कई स्थानों पर बड़े पैमाने पर जंगल कट रहे हैं।   हिमालय आपदा का घर बन गया है।लेकिन हम भूल गए कि जहां लोग हिमालय बचाने के लिए आगे आए हैं, जैसे उदाहरण के रूप में हमारे पास जोशीमठ के लोग हिमालय की बिगड़ती स्थिति की तरफ देश का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। कुछ लोग जंगल बचा रहे हैं।  हेलंग गांव की महिलाओं ने जिस तरह से घास काटने का अधिकार मांगा था उसको  पर्यावरणविदों ने सम्मान और पुरस्कार के चक्कर में व्यवस्था के सामने नतमस्तक हो चुके हैं। ऐसे में हिमालय तो नहीं बच सकता है। लेकिन हिमालय दिवस के नाम पर अनेकों पुरस्कार वितरण होंगे। और हिमालय लुटता रहेगा ।लोग पुरस्कार लेते रहेंगे और हिमालय- हिमालय बोलते रहेंगे। क्या सचमुच हिमालय बचेगा या हिमालयार्जन की कोई नई योजना आ जाएगी। सोचिए!

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Post By: Shivendra
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